वृत्रासुर दानव

वैदिक साहित्य में कई कहानियाँ हैं जो हमें पारलौकिक ज्ञान से अवगत कराती हैं और हमें मूल्यवान सबक सिखाती हैं ताकि हम आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ सकें। श्रीमद्भागवतम् विशेष  रूप से ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है।

इनमें से एक वृत्रासुर नामक राक्षस से संबंधित है। राक्षस की भूमिका निभाने के बावजूद, वृत्रासुर वास्तव में एक बहुत ही उच्च कोटि का  भक्ति-योगी था। उसे स्वर्ग के राजा इंद्र से लड़ने के लिए एक यज्ञ अग्नि में बनाया गया था।

वृत्रासुर इतना शक्तिशाली था कि उसने हर जगह भय पैदा कर दिया था और वह अकेले ही देवताओं की सेना से लड़ने में सक्षम था। हालाँकि, वृत्रासुर को इतना गौरवशाली बनाने वाली बात एक योद्धा के रूप में उसकी अपार शक्ति नहीं है, बल्कि उसका आध्यात्मिक उत्थान है।

जिस प्रकार मरने की इच्छा न रखने वाले व्यक्ति को मृत्यु के समय अपनी आयु, ऐश्वर्य, यश और अन्य सब कुछ त्याग देना चाहिए, उसी प्रकार विजय के नियत समय पर जब परम भगवान अपनी कृपा से उन्हें प्रदान करते हैं, तब व्यक्ति को ये सब प्राप्त हो सकते हैं।

चूँकि सब कुछ भगवान की परम इच्छा पर निर्भर है, इसलिए व्यक्ति को यश और अपयश, जय और पराजय, जीवन और मृत्यु में समभाव रखना चाहिए। सुख और दुःख के रूप में प्रदर्शित इनके प्रभावों में व्यक्ति को बिना किसी चिंता के अपने आपको संतुलन में रखना चाहिए।

जो व्यक्ति यह जानता है कि सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ये तीनों गुण आत्मा के गुण नहीं, बल्कि प्रकृति के गुण हैं और जो यह जानता है कि शुद्ध आत्मा इन गुणों की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का केवल एक द्रष्टा है, उसे मुक्त व्यक्ति समझना चाहिए। वह इन गुणों से बंधा हुआ नहीं है।

पिछली कहानी

कोई यह प्रश्न कर सकता है कि वृत्रासुर, एक राक्षस होते हुए भी, एक उच्च भक्तियोगी का दर्जा कैसे प्राप्त करने में सक्षम था।  श्रीमद्भागवतम्   समझाता है कि वृत्रासुर अपने पिछले जन्म में चित्रकेतु नाम का राजा था।

अपने शिशु पुत्र की मृत्यु के बाद, अत्यधिक निराशा में राजा चित्रकेतु को दो ऋषियों नारद और अंगिरा ने आध्यात्मिक ज्ञान से प्रबुद्ध किया। तब चित्रकेतु ने  भक्ति-योग की प्रक्रिया को अपनाया ।

कुछ ही समय बाद, वह आध्यात्मिक परमानंद से अभिभूत हो गया और भगवान को आमने-सामने देखा। पूरे ब्रह्मांड में यात्रा करने की शक्ति से सम्मानित, उन्होंने एक बार भगवान शिव के बारे में इस तरह से बात की, जिसे शिव की पत्नी पार्वती ने अपमानजनक माना।

उन्होंने चित्रकेतु को अपने अगले जन्म में राक्षस बनने का श्राप दिया। लेकिन एक राक्षस के रूप में पैदा होने के बावजूद, उन्होंने अपने आध्यात्मिक ज्ञान या प्रगति को नहीं खोया।

सतह के नीचे देखने की आवश्यकता

वृत्रासुर की कहानी से हम कई सबक सीख सकते हैं। एक पुरानी कहावत है “किताब को उसके कवर से मत आंको।” वृत्रासुर की कहानी से हम सीख सकते हैं कि किसी व्यक्ति को उसके बाहरी गुणों से नहीं आंकना चाहिए।

भले ही वृत्रासुर एक राक्षस था, फिर भी वह एक महान  भक्ति-योगी था  जो अपने जीवन के लिए संघर्ष करते हुए भी गहन पारलौकिक ज्ञान का प्रचार करने में सक्षम था।

निम्न परिवार में जन्मा व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो सकता है, और सम्मानित परिवार में जन्मा व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से अंधा हो सकता है।

एक और सबक यह है कि आध्यात्मिक प्रगति जीवन दर जीवन चलती रहती है। हालाँकि राजा चित्रकेतु अपने अगले जन्म में राक्षस वृत्रासुर बन गए, लेकिन वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति को अपने साथ ले गए। 

गीता (2.40) में कृष्ण कहते हैं कि भक्ति-योग  के मार्ग पर हमारी प्रगति   कभी नष्ट या कम नहीं होती है और थोड़ी सी प्रगति भी हमें सबसे बड़े खतरे से बचा सकती है, जिससे हमें अपने अगले जन्म में आध्यात्मिक उन्नति का एक बड़ा अवसर मिल सकता है।

अंततः, वृत्रासुर की कथा दर्शाती है कि कैसे कोई भी व्यक्ति भक्ति योग करने के योग्य है।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति राक्षस परिवार में पैदा हुआ है या संत परिवार में; कोई भी व्यक्ति  भक्ति योग का अभ्यास कर सकता है ।

श्री चैतन्य महाप्रभु के निकट सहयोगी हरिदास ठाकुर नामक एक प्रसिद्ध  भक्ति योगी थे। यद्यपि उनका जन्म एक गैर-हिंदू परिवार में हुआ था, फिर भी उन्हें नामाचार्य , यानी “पवित्र नाम के आध्यात्मिक शिक्षक”   का दर्जा दिया गया था। 

भक्ति योग  के अभ्यासी सामान्यतः महामंत्र में भगवान के पवित्र नामों का जाप करते हैं  , या मुक्ति के लिए महान मंत्र: हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे।

यह मंत्र हृदय को शुद्ध करता है और जाप करने वाले के जीवन से संकट को दूर करता है। वास्तव में, इस मंत्र का जाप करने मात्र से ही ईश्वर प्राप्ति में पूर्णता प्राप्त हो  सकती है इसके अतिरिक्त, पूर्णतः ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त करके, व्यक्ति आध्यात्मिक संसार में प्रवेश करने के योग्य हो जाता है और इस प्रकार सभी भौतिक दुखों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

वृत्रासुर वध की कथा और इसके पीछे छुपा रहस्‍य, कि महर्षि दधिचि ने क्‍यों त्यागे प्राण

रामायण में वृत्‍तासुर
एक दिन श्रीरामचन्द्रजी ने भरत और लक्ष्मण को अपने पास बुलाकर कहा, “हे भाइयों! मेरी इच्छा राजसूय यज्ञ करने की है क्योंकि वह राजधर्म की चरमसीमा है।

इस यज्ञ से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय और अविनाशी फल की प्राप्ति होती है। अतः तुम दोनों विचारकर कहो कि इस लोक और परलोक के कल्याण के लिये क्या यह यज्ञ उत्तम रहेगा?”

बड़े भाई के ये वचन सुनकर धर्मात्मा भरत बोले, “महाराज! इस पृथ्वी पर सर्वोत्तम धर्म, यश और स्वयं यह पृथ्वी आप ही में प्रतिष्ठित है।

आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी और इस पर रहने वाले समस्त राजा भी आपको पितृतुल्य मानते हैं। अतः आप ऐसा यज्ञ किस प्रकार कर सकते हैं जिससे इस पृथ्वी के सब राजवंशों और वीरों का हमारे द्वारा संहार होने की आशंका हो?”

भरत के युक्‍तियुक्‍त वचन सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुये और बोले, “भरत! तुम्हारा सत्यपरामर्श धर्मसंगत और पृथ्वी की रक्षा करने वाला है। तुम्हारा यह उत्तम कथन स्वीकार कर मैं राजसूय यज्ञ करने की इच्छा त्याग देता हूँ।”

तत्पश्‍चात लक्ष्मण बोले, “हे रघुनन्दन! सब पापों को नष्ट करने वाला तो अश्‍वमेघ यज्ञ भी है। यदि आप यज्ञ करना ही चाहते हैं तो इस यज्ञ को कीजिये।

महात्मा इन्द्र के विषय में यह प्राचीन वृतान्त सुनने में आता है कि जब इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, तब वे अश्‍वमेघ यज्ञ करके ही पवित्र हुये थे।”

श्री राम द्वारा पूरी कथा पूछने पर लक्ष्मण बोले, “प्राचीनकाल में वृत्रासुर नामक असुर पृथ्वी पर पूर्ण धार्मिक निष्ठा से राज्य करता था। एक बार वह अपने ज्येष्ठ पुत्र मधुरेश्‍वर को राज्य भार सौंपकर कठोर तपस्या करने वन में चला गया। उसकी तपस्या से इन्द्र का भी आसन हिल गया।

वह भगवान विष्णु के पास जाकर बोले कि प्रभो! तपस्या के बल से वृत्रासुर ने इतनी अधिक शक्‍ति संचित कर ली है कि मैं अब उस पर शासन नहीं कर सकता।

यदि उसने तपस्या के फलस्वरूप कुछ शक्ति और बढ़ा ली तो हम सब देवताओं को सदा उसके आधीन रहना पड़ेगा। इसलिये प्रभो! आप कृपा करके सम्पूर्ण लोकों को उसके आधिपत्य से बचाइये। किसी भी प्रकार उसका वध कीजिये।

“देवराज इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले कि यह तो तुम जानते हो देवराज! मझे वृत्रासुर से स्नेह है। इसलिये मैं उसका वध नहीं कर सकता परन्तु तुम्हारी प्रार्थना भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता।

इसलिये मैं अपने तेज को तीन भागों में इस प्रकार विभाजित कर दूँगा जिससे तुम स्वयं वृत्रासुर का वध कर सको। मेरे तेज का एक भाग तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा, दूसरा तुम्हारे वज्र में और तीसरा पृथ्वी में ताकि वह वृत्रासुर के धराशायी होने पर उसका भार सहन कर सके।

भगवान से यह वरदान पाकर इन्द्र देवताओं सहित उस वन में गये जहाँ वृत्र तपस्या कर रहा था। अवसर पाकर इन्द्र ने अपने शक्‍तिशाली वज्र वृत्रासुर के मस्तक पर दे मारा। इससे वृत्र का सिर कटकर अलग जा पड़ा। सिर कटते ही इन्द्र सोचने लगे, मैंने एक निरपराध व्यक्‍ति की हत्या करके भारी पाप किया है।

यह सोचकर वे किसी अन्धकारमय स्थान में जाकर प्रायश्‍चित करने लगे। इन्द्र के लोप हो जाने पर देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की कि हे दीनबन्धु!

वृत्रासुर मारा तो आपके तेज से गया है, परन्तु ब्रह्महत्या का पाप इन्द्र को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये आप उनके उद्धार का कोई उपाय बताइये।

यह सुनकर विषणु बोले कि यदि इन्द्र अश्‍वमेघ यज्ञ करके मुझ यज्ञपुरुष की आराधना करेंगे तो वे निष्पाप होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेंगे। इन्द्र ने ऐसा ही किया और अश्‍वमेघ यज्ञ के प्रताप से उन्होंने ब्रह्महत्या से मुक्‍ति प्राप्त की।”

कथाओं के अतिरिक्‍त वृत्‍तासुर कौन है 
आधत्‍मिक दृष्‍टि से देखें तो  ‘निघण्टु’ में मेघ का नाम वृत्र है(इन्द्रशत्रु)–वृत्र का शत्रु अर्थात निवारक सूर्य है,सूर्य का नाम त्वष्टा है, उसका संतान मेघ है, क्योंकि सूर्य की किरणों के द्वारा जल कण होकर ऊपर को जाकर वाहन मिलके मेघ रूप हो जाता है।

तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रोवृणोतेः० वह स्वीकार करने योग्य और प्रकाश का आवरण करने वाला है।

वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है

वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी जीत नहीं सकता। इस प्रकार अलंकाररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर युद्ध के सामान करते हैं, अर्थात जब मेघ बढ़ता है, तब तो वह सूर्य के प्रकाश को हटाता है, और जब सूर्य का ताप अर्थात तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु इस युद्ध के अंत में इन्द्र नाम सूर्य ही की विजय होती है।

महर्षि दधीचि की हड्डियों में ऐसी क्या विशेषता थी कि उसके बने हुए अस्त्र से वृतासुर दैत्य मारा गया?

महर्षि दधीचि मुनि की कथा ब्रह्म पुराण में कुछ इस तरह आई है कि एक बार देवताओं ने बहुत से राक्षसों को जीत कर महर्षि दधीचि मुनि के आश्रम पर आए और कहा कि हम बड़े-बड़े राक्षस और दैत्य को जीतकर यहां आए हैं इससे हम बहुत सुखी हैं विशेषता आपका दर्शन करके हमें बड़ी प्रसन्नता हुई अब हमें अस्त्र-शस्त्र रखने से कोई लाभ नहीं दिखाई देता हम उन अस्त्रों का बोझ ढो नहीं सकते हम स्वर्ग में जब इन अस्त्रों को रखते हैं तब हमारे शत्रु इनका पता लगाकर वहां से हड़प ले जाते हैं।

इसलिए हम आपके पवित्र आश्रम पर इन सब अस्त्रों को रख देते हैं ब्राह्मण यहां दानवों और राक्षसों से तनिक भी भय नहीं है आपकी आज्ञा से यह सारा प्रदेश पवित्र और सुरक्षित हो गया है इस प्रकार कहकर देवता अस्त्र शास्त्र रख अपने अपने स्थान को चले गए तब दधीचि मुनि की पत्नी ने उन्हें उन अस्त्रों को आश्रम में रखने के लिए मुनि को मना किया था पर वह नहीं माने।

इस प्रकार 1000 वर्ष बीत गया तब दधीचि मुनि ने अपनी पत्नी से कहा की देवी देवता यहां से अपने अस्त्र ले जाना नहीं चाहते और देखते राक्षस दैत्य मुझसे द्वेष करते हैं अब तुम ही बताओ क्या करना चाहिए पत्नी ने विनय पूर्वक कहा नाथ मैंने तो पहले ही निवेदन किया था ।

अब आप ही जाने जो उचित हो शो करें तब दधीचि मुनि ने मन में विचार किया की दैत्यों में जो बड़े-बड़े वीर तपस्वी और बलवान है बे इन अस्त्रों को निश्चय ही हड़प लेंगे तब दधीचि मुनि ने उन अस्त्रों की रक्षा के लिए एक काम किया उन्होंने पवित्र जल से मंत्र पढ़ते हुए अस्त्रों को नहलाया फिर वहां सर वस्त्रमय परम पवित्र और तेज युक्त जल स्वयं पी लिया तेज निकल जाने से वे सभी अस्त्र शक्तिहीन हो गए।

अतः क्रमशः समय अनुसार नष्ट हो गए कुछ समय बाद देवताओं ने आकर दधीचि से कहा कि हे मुनिवर हमारे ऊपर शत्रुओं का महान भय आ पहुंचा हमने जो अस्त्र आपके यहां रख दिए थे उन्हें इस समय दे दीजिए दधीचि मुनि ने कहा आप लोग बहुत दिनों तक इन्हें लेने नहीं आए अतः देत्यो के भय से हमने उन अस्त्रों को पी लिया है।

अतः वह हमारे शरीर में स्थित है इसलिए जो उचित हो वाह कहे यह सुनकर देवताओं ने विनीत भाव से कहा हे मुनीश्वर इस समय तो हम इतना ही कह सकते हैं कि अस्त्र दे दीजिए दधीचि मुनि बोले सब अस्त्र मेरी हड्डियों में मिल गए हैं अतः उन हड्डियों को ही ले जाओ यो कहकर दधीचि पादासन बांधकर बैठ गए उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर हो गई

और योग साधना द्वारा शरीर निस प्राण हो गये उन्हीं हड्डियों से देवताओं के अस्त्र शस्त्र बनाए गए थे इंद्र का ब्रज ,गांडीव धनुष, पिनाक धनुष इत्यादि इंद्र ने दधीचि मुनि की हड्डियों से जो उनका ब्रज बना था उसी बज्र से वृत्रासुर का वध किया था।

वृत्रासुर की कथा

एक बार की बात है- देवराज इंद्र की सभा में संगीत का बड़ा सुन्दर कार्यक्रम चल रहा था। कार्यक्रम के बीच में देवगुरु बृहस्पति पँहुचे गये। इंद्र ने सोचा- इतना अच्छा संगीत चल रहा है, बीच में उठूँगा तो संगीत में बाधा पहुंचेगी, नहीं उठूँगा तो गुरूजी नाराज हो जायेंगे क्या करूँ?

ऐसा सोचकर इंद्र ने देखकर भी अनदेखा कर दिया, दूसरी तरफ देखने लग गया। ऐसा नाटक किया जैसे गुरुजी को देखा ही ना हो।

इंद्र के ऐसे व्यवहार के कारण गुरुजी नाराज होकर देवताओं को छोड़कर चले गये। इधर दैत्यों को जब पता लगा कि देवताओं के गुरु उनसे नाराज हो गये हैं, तब दैत्यों ने आक्रमण कर दिया और देवताओं को पराजित कर उनसे स्वर्ग छीन लिया।

देवताओं द्वारा ब्रह्मा जी से प्रार्थना

गुरु के बिना देवता अनाथ से हो गये। उन्हें कोई सहारा नजर नहीं आ रहा था। तब वे ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्मा जी ने उन्हें डांटा और बोले- तुमने ये बहुत गलत काम किया है। गुरु को नाराज करना सबसे बड़ा अपराध है।

अब जब तक गुरु नहीं मिलते तुम “विश्वरूप” जो विद्या में देवगुरु बृहस्पति के समान ही हैं, उनको गुरु बना लो। लेकिन उसकी माता असुर वंश की है इसलिए कभी-कभी वह असुरों का पक्षपात कर सकता है- इस चीज को अनदेखा करके चलोगे तो तुम्हारा काम बन जाएगा।

ये सूत्र हमारे जीवन के लिए भी है- जिसमें बहुत सारे गुण हों और एक- दो दोष हों तो उसको अनदेखा करना सीखना चाहिये, तभी आप जीवन में सफल होगें।

देवताओं को स्वर्ग की पुनः प्राप्ति

देवताओं ने “विश्वरूप” को गुरु बना लिया। विश्वरूप ने इंद्र से “नारायण कवच” का अनुष्ठान कराया। अब देव-असुर संग्राम हुआ।

“नारायण कवच” के कारण देवता विजयी हुए। स्वर्ग का राज्य फिर से इंद्र को मिल गया। अब इंद्र राज्य की सुरक्षा के लिए यज्ञ करने लगा। यज्ञ के समय इंद्र ने देखा कि गुरु विश्वरूप प्रकट रूप में तो देवताओं के पक्ष में आहुति दे रहे हैं और अप्रकट रूप में असुरों के पक्ष में भी दे रहे है। इंद्र को क्रोध आ गया।

उसने वज्र उठाया और विश्वरूप का गला काट दिया।

विश्वरूप के पिता द्वारा इंद्र को मारने की इच्छा से अनुष्ठान

विश्वरूप के मरने पर विश्वरूप के पिता “त्वष्टा” क्रोधित हो गये। वो इंद्र को मारने के लिये अनुष्ठान करने लगे। उनका संकल्प था कि हवन से ऐसा पुत्र हो जो इंद्र को मार डाले पर उच्चारण अशुद्धि के कारण यज्ञ से बेटा तो हुआ, लेकिन इंद्र को मारने वाला नहीं, इंद्र से मरने वाला हुआ।

यहाँ यही बात समझ आती है- कर्मकांड का विषय कठिन है पर भक्ति सरल है। भक्ति में कुछ भी गड़बड़ हो जाये तो भगवान संभाल लेते हैं पर यदि कर्मकांड में कुछ गड़बड़ हो जाये तो जिम्मेदारी हमारी ही होती है।

यज्ञ से उत्पन्न हुए त्वष्टा के इस पुत्र ने सारे लोकों को अपने विशाल शरीर से घेर लिया था, इसलिये उसका नाम पड़ा “वृत्रासुर” जब वृत्रासुर ने हुंकार भरी तो सारे देवता उस पर टूट पड़े। देवताओं ने जितने हथियारों का प्रयोग किया, वृत्रासुर उन हथियारों को पकड़कर तोड़ कर खा गया।

अब देवता घबराये- ये तो हथियार ही तोड़ कर खा गया इसको मारेगा कौन? देवता वहाँ से भागे और भगवान की स्तुति करने लगे।

भगवान द्वारा वृत्रासुर को मारने का उपाय बताना

श्री भगवान प्रकट हो गये और बोले- देखो इंद्र! उपाय तो है पर करना कठिन है।

इंद्र बोले- आप सिर्फ उपाय बताइये, उसको करना मेरा काम है।

भगवान बोले- दधीचि ऋषि की हड्डी से अगर वज्र बने तो उसी से वृत्रासुर का संहार होगा। लेकिन दधीचि ऋषि जीवित हैं, हड्डी तब मिलेगी जब वे शरीर-त्याग करें।

इंद्र ने कहा- भगवन! आपने उपाय बता दिया अब दधीचि ऋषि से हड्डी माँगने का काम मेरा है।

अब इंद्र पहुँच गया दधीचि ऋषि के पास, प्रणाम किया और बोला- महाराज ! मुझे आपकी हड्डी चाहियें।

दधीचि बोले- इंद्र, क्या तूने विचार नहीं किया। जो व्यक्ति जीवित रहना चाहता है उसकी हड्डी भगवान भी माँगे तो देने से इन्कार करना पड़ेगा।

इंद्र ने कहा- मैं समझता हूँ कि मेरा आपसे हड्डी माँगना अनुचित है पर समस्या इतनी विकट है कि मैं माँगने को विवश हूँ। यदि आप अपनी हड्डी दे देंगे तो समस्त देवताओं की जान बच जायेगी।

दधीचि ऋषि ने भगवान का ध्यान किया और योग के द्वारा अपने शरीर का त्याग कर दिया। उसके बाद इंद्र ने दधीचि ऋषि की हड्डी से वज्र बनाया।

इंद्र और वृत्रासुर युद्ध

वज्र प्राप्त करने के बाद देवता उत्साह से भर गये। वृत्रासुर के साथ जितने असुर थे डर के मारे भागने लगे। इधर वृत्रासुर ने जोर से हुंकार भरी और इंद्र की तरफ बढ़ा। इंद्र ने अपनी गदा का प्रयोग किया। वृत्रासुर ने बाएँ हाथ से इंद्र के हाथी ऐरावत के मस्तक पर प्रहार किया। जिससे ऐरावत का मस्तक फूट गया।

इंद्र सहम गया। उसके हाथ में वज्र है जो दधीचि ऋषि की हड्डी से बना है, फिर भी उसे डर लग रहा है कि ये भी गदा की तरह व्यर्थ न हो जाये।

वृत्रासुर कहता है- इंद्र! तू वज्र का प्रयोग क्यों नहीं कर रहा है? तू ये मत सोच कि गदा के जैसे वज्र भी व्यर्थ हो जायेगा। वज्र में तीन-तीन शक्तियाँ हैं- 1.भगवान नारायण  2.दधीचि ऋषि की तपस्या  3.इंद्र का प्रारब्ध। तू प्रहार कर! तेरे को सफलता अवश्य मिलेगी।

इंद्र मैं तो दोनों स्थिति में प्रसन्न हूँ- अगर विजयी हुआ तो भी खुश, मैं अपने भाई का बदला ले लूँगा। अगर पराजित हुआ तो भी खुश क्योंकि मरने के बाद इस पंचभौतिक शरीर से पशु-पक्षियों का भण्डारा हो जाएगा और मैं इस शरीर को छोड़कर ठाकुर जी के धाम चला जाऊँगा।

इंद्र ये सुनकर घबरा गया। वज्र का प्रहार नहीं कर पा रहा है।

वृत्रासुर कहता है- जब तक तू वज्र का प्रहार नहीं कर रहा है, तब तक मैं अपने ठाकुर का ध्यान कर लेता हूँ। वृत्रासुर आँख बंद करके भाव-समाधि में पहुँच जाता है। भगवान से वार्तालाप करता है- प्रभु! कुछ ही समय बाद इस शरीर को छोड़ कर मैं आपके चरणों में आने वाला हूँ, आपके धाम में आने वाला हूँ। इस युद्ध का परिणाम मैं जानता हूँ, क्या होगा? इस युद्ध में इंद्र की विजय होगी, मेरी पराजय होगी।

भगवान ने कहा- पर मैं तो अपने भक्त को कभी पराजित नहीं होने देता। तूने कैसे सोच लिया कि तू पराजित होगा?

वृत्रासुर मुस्कुराता है- प्रभु! मैं जानता हूँ, जिसकी विजय होगी, उसको स्वर्ग मिलेगा और जिसकी पराजय होगी, उसको बैकुंठ मिलेगा। आप अपने भक्त को छोटी वस्तु नहीं देंगे! इसलिए मुझे मालूम है इस युद्ध में मेरी पराजय होगी।

वृत्रासुर की मृत्यु

वृत्रासुर भाव समाधि से बाहर आया तो देखता है कि इंद्र हाथ में वज्र लिए खड़ा है। वृत्रासुर ने कहा- “इंद्र ! तू युद्ध करने आया है, या मेरा दर्शन करने आया है? वज्र का प्रहार कर!”

इंद्र कहता है- हे दानवराज वृत्रासुर! हम तुम्हें असुर कहते हैं पर तुम कोई सिद्ध महात्मा लगते हो। इस विपरीत परिस्थिति में भी इतनी निष्ठा, इतना प्रेम भगवान के लिए, इतना प्रेम तो बड़े- बड़े सिद्ध- महात्माओं में देखने को नहीं मिलता। तू तो कोई सिद्ध महापुरुष है।

इसके बाद इंद्र ने वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार किया। वृत्रासुर का सर धड़ से अलग हो गया। एक दिव्य ज्योति निकली और भगवान के धाम को चली गयी।

शिक्षा

हमेशा गुरुजनों का और आदरणीय लोगों का सम्मान करना चाहिए वरना हमारी आयु, बल, बुद्धि, तेज क्षीण हो जाते हैं।

सकाम भाव से कुछ पूजा, यज्ञ करते हैं और उच्चारण में कुछ गलती हो जाये तो उसका उल्टा फल निकलता है, परन्तु निष्काम भाव से भक्ति करते हैं तो भगवान सब गलती माफ़ कर देते हैं।

भक्त को भगवान पर इतना विश्वास होता है कि विपरीत परिस्थिति में भी उसे डर नहीं लगता। वृत्रासुर का भगवान के लिए इतना प्रेम है कि वो जरा भी नहीं डर रहा था।

मित्र प्रशंसा करे उसका ज्यादा महत्व नहीं। पर यदि शत्रु प्रशंसा करने लग जाए, उसका बहुत महत्त्व है। इंद्र ने खुद अपने शत्रु वृत्रासुर की प्रशंसा की।

पुराणों में वरतासूर का वर्णन

जैसा कि महाभारत में राजा युधिष्ठिर को दिए गए वर्णन में बताया गया है , वृत्र एक असुर था जिसे शिल्प देवता त्वष्ट्री ने अपने पुत्र इंद्र द्वारा मारे जाने का बदला लेने के लिए बनाया था, जिसे त्रिशिरा या विश्वरूप के रूप में जाना जाता है ।

वृत्र ने युद्ध जीत लिया और इंद्र को निगल लिया, लेकिन अन्य देवताओं ने उसे इंद्र को उगलने के लिए मजबूर किया। युद्ध जारी रहा और इंद्र को अंततः भागने के लिए मजबूर होना पड़ा।

विष्णु और ऋषियों ने एक युद्धविराम समझौता कराया, जिसमें इंद्र ने शपथ ली कि वह वृत्र पर धातु, लकड़ी या पत्थर से बनी किसी भी चीज से, न ही सूखी या गीली, या दिन या रात के दौरान हमला नहीं करेगा।

इंद्र ने उसे मारने के लिए समुद्र की लहरों से झाग (जिसमें विष्णु ने जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रवेश किया था) का इस्तेमाल किया।

श्रीमद्भागवतम् वृत्रा को विष्णु का भक्त मानता है  जिसकी हत्या केवल इसलिए हुई क्योंकि वह पवित्रता से और आक्रामकता के बिना जीवन जीने में विफल रहा।  यह कहानी इस प्रकार है:

विश्वरूप के मारे जाने के बाद उसके पिता त्वष्टा ने इन्द्र को मारने के लिए अनुष्ठान किया। उन्होंने यज्ञ की अग्नि में आहुति देते हुए कहा, “हे इन्द्र के शत्रु! अपने शत्रु को मारने के लिए शीघ्रता से प्रयत्न करो।”

 तत्पश्चात, अन्वाहार्य नामक यज्ञ की दक्षिणी ओर से एक भयंकर पुरुष प्रकट हुआ, जो कल्प के अंत में सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करने वाला प्रतीत हो रहा था।

 चारों दिशाओं में छोड़े गए बाणों के समान उस राक्षस का शरीर दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। वह लम्बा तथा काला था, जले हुए पर्वत के समान प्रतीत होता था तथा संध्या के समय बादलों की चमक के समान चमकीला था।

राक्षस के शरीर के बाल, दाढ़ी तथा मूँछ पिघले हुए ताँबे के रंग की थीं तथा उसकी आँखें दोपहर के सूर्य के समान चुभ रही थीं। वह अजेय प्रतीत हो रहा था, मानो उसने अपने प्रज्वलित त्रिशूल की नोंक पर तीनों लोकों को थाम रखा हो। वह ऊँची आवाज में नाचता तथा चिल्लाता हुआ सम्पूर्ण पृथ्वी को इस प्रकार काँपने लगा, मानो भूकम्प से कंपन हो रहा हो।

जब वह बार-बार जम्हाई लेता, तो ऐसा प्रतीत होता कि वह अपने मुँह से सम्पूर्ण आकाश को निगलने का प्रयत्न कर रहा है, जो गुफा के समान गहरा था। ऐसा प्रतीत होता था कि वह अपनी जीभ से आकाश के समस्त तारों को चाट रहा है तथा अपने लम्बे, तीखे दाँतों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को खा रहा है।

इस विशालकाय राक्षस को देखकर सभी लोग अत्यन्त भयभीत होकर चारों दिशाओं में भागने लगे।

 वह अत्यंत भयंकर असुर, जो वास्तव में त्वष्टा का पुत्र था, ने अपनी तपस्या के प्रभाव से समस्त लोकों को ढक लिया था। इसलिए उसका नाम वृत्र पड़ा, अर्थात् वह जो सब कुछ ढक लेता है।

वृत्र असुरों का मुखिया बन गया (यहां उसे स्वाभाविक रूप से दुर्भावनापूर्ण के रूप में चित्रित किया गया है, वैदिक संस्करण के विपरीत, जिसमें वे परोपकारी या दुष्ट हो सकते हैं)।

उसने दूसरों के प्रति अच्छा करने के अपने धर्म – कर्तव्य – को त्याग दिया और देवताओं के साथ युद्ध करते हुए हिंसा की ओर मुड़ गया। अंततः उसने ऊपरी हाथ हासिल कर लिया, और देवता उसकी बुरी शक्ति से भयभीत हो गए। इंद्र के नेतृत्व में, वे मदद के लिए विष्णु के पास गए ।

उन्होंने उन्हें बताया कि वृत्र को सामान्य तरीकों से नष्ट नहीं किया जा सकता है, यह बताते हुए कि केवल एक ऋषि की हड्डियों से बने हथियार से ही उसका वध किया जा सकता है।

जब देवताओं ने किसी तपस्वी द्वारा अपना शरीर दान करने की संभावना के बारे में अपनी शंका प्रकट की, तो विष्णु ने उन्हें ऋषि दधीचि के पास जाने का निर्देश दिया ।

देवताओं के पास जाने पर, दधीचि ने खुशी-खुशी अपनी हड्डियों को अच्छे कार्य के लिए दे दिया, जब उन्होंने पुनः वृत्र से युद्ध किया तो युद्ध 360 दिनों तक चला, उसके बाद वृत्र ने अपनी अंतिम सांस ली।

वैष्णव धर्म में , वृत्र को विष्णु का भक्त बताया गया है। श्रीमद्भागवतम् में, जब वज्र-सशस्त्र इंद्र और देवता वृत्र और उसके असुरों के खिलाफ युद्ध करते हैं,

तो वृत्र घोषणा करता है कि यदि वह युद्ध में मारा जाता है, तो उसे आशीर्वाद मिलेगा, क्योंकि वज्र में विष्णु और दधीचि की शक्ति समाहित थी।

इंद्र और वृत्र के बीच एकल युद्ध के दौरान, गाल पर प्रहार होने पर इंद्र अपना वज्र गिरा देता है। जब देवता हांफने लगते हैं, तब वृत्र उसे केवल अपना हथियार उठाने की सलाह देता है, क्योंकि उसके लिए जीवन और मृत्यु एक समान हैं, क्योंकि उसका मानना ​​है कि वे सभी विष्णु के उपकरण हैं।

इंद्र असुर की संरक्षक देवता के प्रति भक्ति पर आश्चर्यचकित होता है। जब देवों का राजा अपने प्रतिद्वंद्वी की दोनों भुजाएँ काटने में सफल हो जाता है, तो बाद वाला उसे ऐरावत के साथ पूरा निगल जाता है वृत्र अपनी मृत्यु के बाद वैकुण्ठ चला गया ।

पुराणों के अनुसार, ब्राह्मणहत्या के भयानक मानवरूपी अवतार ने इंद्र का पीछा किया और उन्हें उनके पाप के लिए छिपने पर मजबूर कर दिया,और नहुष को उनकी जगह लेने के लिए आमंत्रित किया गया।

इस प्रकरण से हमें बहुत सी बातें सीखने को मिलती हैं l प्रथम, कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, कितना ही सक्षम हो, कैसा ही विद्वान हो, अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता यदि भगवत इच्छा नहीं हो l

जहां भगवान होते है वहां विजय होती है ,गीता त्वष्टा उच्च कोटि के यज्ञ करने वाले थे l वह यज्ञ से एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे जो इंद्र का वध कर दे l पूर्णतः सक्षम होते हुए भी वह ऐसा नहीं कर पाए l उच्चारण में त्रुटि रहने के कारण मन वांछित पुत्र प्राप्त नहीं कर सके,क्योंकि इंद्र मरे यह भगवान की इच्छा नहीं थी l

इसी प्रकार दुर्वासा ने कृत्या को तो उत्पन्न कर दिया परंतु वह अमरीश का बाल बांका भी नहीं कर सकी, उल्टा सुदर्शन चक्र ही दुर्वासा के पीछे पड़ गया l द्वितीय, भक्ति का अधिकार सभी को है मनुष्य, देवता, असुर l ऐसे तो मनुष्य योनि ही पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्म करने के लिए है और इसी में भगवत प्राप्ति होती है l

परंतु विशेष परिस्थितियों में देव, दानव,पक्षी ,पशु ,नाग ,वृक्ष और असुर आदि भी भगवान को प्राप्त कर सकते हैं–गीता ,भागवत तृतीय, यदि कोई भक्ति की चरम सीमा प्राप्त करने से पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो उसे अगले जन्म में फिर से भक्ति करने का अवसर प्राप्त होता है।

चतुर्थ, अंत समय में यदि मन भगवान में स्थित हो, भगवान को याद करते हुए शरीर त्यागा जाए तो भगवत- प्राप्ति हो जाती है l भगवान को स्मरण करते हुए वृत्रासुर ने शरीर को त्यागा इसलिए भगवत धाम गया l यही गीता का ज्ञान है। पंचम, गुरु महत्व असीम है l नारद जी द्वारा ज्ञान देने पर ही चित्रकेतु को विद्याधरों का अधिपत्य प्राप्त हुआ था l षष्ट्म , जो कि सबसे महत्वपूर्ण है, भगवान के भक्त को कोई भी भय नहीं होता। इस प्रकरण में यह तथ्य शंकर भगवान ने पार्वती जी को व सभा में अन्य उपस्थित जन को समझाइए है l

यह है चित्रकेतु/वृतासुर का पावन इतिहास। परमहंस शुकदेवजी के विचार से इस इतिहास के पाठ से परम गति प्राप्त होती है,बंधनों से मुक्ति होती है।इसे ऐसा ज्ञान था, जो भगवान स्वयं ने शिव-संकट मोचन के समय बताया कि भगवान जिसपर कृपा करते हैं उसका अर्थ,धर्म काम संबंधी प्रयास विफल कर देते हैं

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