महाभारत ग्रंथ के रचयिता,अट्ठारहपुराण,श्रीमद्भागवत और मानव जाती को अनगिनत रचनाओं का भंडार देने वाले ‘वेद व्यास’ को भगवान का रूप माना जाता है ।
वेद व्यास का पूरा नाम कृष्णद्वैपायन है लेकिन वेदों की रचना करने के बाद वेदों में उन्हें वेद व्यास के नाम से ही जाना जाने लगा।्उनके द्वारा रची गई श्रीमद्भागवत भी उनके महान ग्रंथ महाभारत का ही हिस्सा है.
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
यह दिन महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन महर्षि व्यास जी का जन्मदिन है।
उन्होंने चारों वेदों की रचना की। इस कारण उनका नाम वेद व्यास भी है। उन्हें आदिगुरु कहा जाता है। गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा नाम से भी जाना जाता है।
भारतवर्ष में कई विद्वान हुए, किन्तु महर्षि वेदव्यास प्रथम विद्वान थे, जिन्होंने सनातन धर्म के चारों वेदों की व्याख्या की।
महर्षि वेदव्यास को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है। भारतीय संस्कृति में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के समान पूज्य माना गया है।
गुरु की महिमा अपरंपार है। गुरु के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। गुरु को भगवान से भी ऊपर दर्जा दिया गया है।
गुरु को ब्रह्म कहा गया है, जिस प्रकार से वह जीव का सर्जन करते हैं, ठीक उसी प्रकार से गुरु शिष्य का सर्जन करते हैं।
महर्षि वेदव्यास जी को भगवान विष्णु का अंश-अवतार माना जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि वे द्वापरयुग में इस ब्रह्मांड में सभी वैदिक ज्ञान को लिखित शब्दों के रूप में रखने और इसे सभी के लिए उपलब्ध कराने के लिए पृथ्वी पर आए थे।
वेद व्यास से पहले वैदिक ज्ञान केवल बोले गए शब्दों के रूप में मौजूद था।
वह पांडवों और कौरवों के दादा थे।
उन्हें वेद व्यास कहा जाता है क्योंकि उन्होंने वेदों के मूल संस्करण को चार भागों में विभाजित किया था; वेद व्यास का शाब्दिक अर्थ है ‘वेदों का विभक्त’।
क्योंकि वेद व्यास ने वेदों को विभाजित कर दिया था, इसलिए लोगों के लिए इसे समझना आसान हो गया। इस प्रकार दिव्य ज्ञान सभी को उपलब्ध कराया गया।
वव्यास का जीवन इतिहास रोचक है। महान महाकाव्य महाभारत के रचयिता वेद व्यास सनातन धर्म के प्रथम और महान आचार्य थे।
वह चार वेदों को वर्गीकृत करने, 18 पुराणों को लिखने और महान महाभारत का पाठ करने के लिए जिम्मेदार है।
वास्तव में, महाभारत को अक्सर पांचवां वेद कहा जाता है। सबसे महत्वपूर्ण और सबसे गौरवशाली खंड भगवद गीता है, जो युद्ध के मैदान में भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को सुनाई गई शिक्षा है।
महाभारत के अलावा, उन्होंने हिंदू दर्शन पर उनके सबसे छोटे धर्मशास्त्रों में से एक ब्रह्मसूत्र भी लिखा।
कहा जाता है कि वेद व्यास अमर हैं वेद व्यास का जीवन आधुनिक समय में सभी के लिए एक उदाहरण है कि कैसे निस्वार्थ होना चाहिए और निर्वाण प्राप्त करने के लिए अपने आप को पूरी तरह से भगवान को समर्पित करना चाहिए।
प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं।
पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य, चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए।
इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए।
इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया। उन्होने ही अट्ठारह पुराणों की भी रचना की, ऐसा माना जाता है।
वेदव्यास यह व्यास मुनि तथा पाराशर इत्यादि नामों से भी जाने जाते है। वह पराशर मुनि के पुत्र थे, अत: व्यास ‘पाराशर’ नाम से भी जाने जाते है
समय-समय पर वेदों का विभाजन किस प्रकार से हुआ, इसके लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत है। कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ने ब्रह्मा की प्रेरणा से चार शिष्यों को चार वेद पढ़ाये-
1.मुनि पैल को ॠग्वेद
2.वैशम्पायन को यजुर्वेद
3.जैमिनि को सामवेद तथा
4.सुमंतु को अथर्ववेद पढ़ाया।
व्यास का अर्थ
व्यास का अर्थ है ‘संपादक’। यह उपाधि अनेक पुराने ग्रन्थकारों को प्रदान की गयी है, किन्तु विशेषकर वेदव्यास उपाधि वेदों को व्यवस्थित रूप प्रदान करने वाले उन महर्षि को दी गयी है जो चिरंजीव होने के कारण ‘आश्वत’ कहलाते हैं।
यही नाम महाभारत के संकलनकर्ता, वेदान्तदर्शन के स्थापनकर्ता तथा पुराणों के व्यवस्थापक को भी दिया गया है। ये सभी व्यक्ति वेदव्यास कहे गये है।
विद्वानों में इस बात पर मतभेद है कि ये सभी एक ही व्यक्ति थे अथवा विभिन्न। भारतीय परम्परा इन सबको एक ही व्यक्ति मानती है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा।
धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जायगा। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ्य से बाहर हो जायेगा।
इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें।
व्यास जी ने उनका नाम रखा – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये।
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया।
वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है।
पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्यों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं।
व्यास जी ने महाभारत की रचना की। जिसमें पाण्डवों की उत्पत्ति से लेकर स्वर्गगमन तक की कथा है। एक लाख श्लोकों के कारण इसे शतसाहस्रीसं हिता भी कहते हैं।
कुछ लोग इसे पंचम वेद भी कहते हैं। इसी महाग्रंथ के कारण से ही वेदव्यास जी प्रसिद्ध हैं| इनके मस्तिष्क की अप्रतिहत प्रतिभा से आज तक हमारे धार्मिक जीवन और विश्वासो का प्रत्येक अंग प्रभावित है।
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्यास स्वयं ईश्वर के स्वरूप थे। निम्नोक्त श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है।
नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रः।
येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।
अर्थात् – जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है।
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।
अर्थात् – व्यास विष्णु के रूप है तथा विष्णु ही व्यास है ऐसे वसिष्ठ-मुनि के वंशज का मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे ‘शक्ति’; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र व्यास।
महर्षि वेदव्यास का जीवन परिचय
वेदव्यास एक अलौकिक शक्ति सम्पन्न महापुरुष थे। इनके पिता का नाम महर्षि पराशर और माता का नाम सत्यवती था।
इनका जन्म एक द्वीप के अन्दर हुआ था और वर्ण श्याम था, अतः इनका एक नाम कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास भी है।
वेदों का विस्तार करने के कारण ये वेदव्यास तथा बदरीवन में निवास करने कारण बादरायण भी कहे जाते हैं।
इन्होंने वेदों के विस्तार के साथ विश्व के सबसे बड़े काव्य-ग्रंथ महाभारत, अठारह महापुराणों तथा ब्रह्मसूत्र का भी प्रणयन किया।
शास्त्रों की ऐसी मान्यता है कि भगवान ने स्वयं व्यास के रूप में अवतार लेकर वेदों का विस्तार किया। अतः व्यास जी की गणना भगवान् के चौबीस अवतारों में की जाती है।
व्यास-स्मृति के नाम से इनके द्वारा प्रणीत एक स्मृति ग्रन्थ भी है। भारतीय वाङ्मय एवं हिन्दू संस्कृति व्यासजी की ऋणी है।
संसार में जब तक हिन्दू जाति एवं भारतीय संस्कृति जीवित है, तबतक वेदव्यास जी का नाम अमर रहेगा।महर्षि वेदव्यास महाभारत के रचयिता हैं, बल्कि वह उन घटनाओ के भी साक्षी रहे हैं जो घटित हुई हैं।
संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिखे काव्य ‘आर्ष काव्य’ के नाम से विख्यात हैं।
व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है।
उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विचक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है।
त्रिकालदर्शी महर्षि वेदव्यास जी
महर्षि व्यास त्रिकालदर्शी थे। इन सभी बातों से यह पता चलता है।
जब पाण्डव एकचक्रा नगरी में निवास कर रहे थे, तब व्यास जी उनसे मिलने आये।
उन्होंने पाण्डवों को द्रौपदी के पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाकर कहा कि यह कन्या विधाता के द्वारा तुम्हीं लोगों के लिये बनायी गयी है, अतः तुम लोगों को द्रौपदी स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिये अब पाञ्चालनगरी की ओर जाना चाहिये।
महाराज द्रुपद को भी इन्होंने द्रौपदी के पूर्व जन्म की बात बताकर उन्हें द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों से विवाह करने की प्रेरणा दी थी।
महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर वेदव्यास जी अपने शिष्यों के साथ इन्द्रप्रस्थ पधारे।
वहाँ इन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि आज से तेरह वर्ष बाद क्षत्रियों का महासंहार होगा, उसमें दुर्योधन के विनाश में तुम्हीं निमित्त बनोगे।
पाण्डवों के वनवास काल में भी जब दुर्योधन, दुःशासन तथा शकुनि की सलाह से उन्हें मार डालने की योजना बना रहा था, तब महर्षि व्यास जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसे जान लिया।
इन्होंने तत्काल पहुँचकर कौरवों को इस दुष्कृत्य से निवृत्त किया। इन्होंने धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहा, “तुमने जुए में पाण्डवों का सर्वस्व छीनकर और उन्हें वन भेजकर अच्छा नहीं किया।
दुरात्मा दुर्योधन पाण्डवों को मार डालना चाहता है। तुम अपने लाडले बेटे को इस काम से रोको अन्यथा इसे पाण्डवों के हाथ से मरने से कोई नहीं बचा पाएगा।”
भगवान वेदव्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे युद्ध दर्शन के साथ उनमें भगवान के विश्व-रूप एवं दिव्य चतुर्भुजरूप के दर्शन की भी योग्यता आ गयी।
उन्होंने कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में भगवान् श्री कृष्ण के मुखारविन्द से निःसृत श्रीमद्भगवद्गीता का श्रवण किया, जिसे युद्धक्षेत्र में अर्जुन के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया था।
एक बार जब धृतराष्ट्र वन में रहते थे, तब महाराज युधिष्ठिर अपने परिवार सहित उनसे मिलने गये।
वेदव्यास जी भी वहाँ आये। धृतराष्ट्र ने उनसे जानना चाहा कि महाभारत के युद्ध में मारे गये वीरों की क्या गति हुई?
उन्होंने व्यास जी से एक बार अपने मरे हुए सम्बन्धियों का दर्शन कराने की प्रार्थना की। धृतराष्ट्र के प्रार्थना करने पर वेदव्यास जी ने अपनी अलौकिक शक्ति के प्रभाव से गंगा जी में खड़े होकर युद्ध में मरे हुए वीरों का आवाहन किया और युधिष्ठिर, कुन्ती तथा धृतराष्ट्र के सभी सम्बन्धियों का दर्शन कराया।
वैशम्पायन के मुख से इस अद्भुत वृत्तान्त को सुनकर राजा जनमेजय के मन में भी अपने पिता महाराज परीक्षित का दर्शन करने की लालसा पैदा हुई। वेदव्यास जी वहाँ उपस्थित थे।
उन्होंने महाराज परीक्षित को वहाँ बुला दिया। जनमेजय ने यज्ञान्त स्नान के समय अपने पिता को भी स्नान कराया। तदनन्तर महाराज परीक्षित वहाँ से चले गये।
अलौकिक शक्ति से सम्पन्न तथा महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास के चरणों में शत-शत नमन है।
वेदव्यास के जन्म की कथा
महर्षि वेदव्यास का जन्म आषाढ़ पूर्णिमा को लगभग 3000 ई. पूर्व में हुआ था।
उनके सम्मान में ही हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा और व्यास पूर्णिमा का पर्व मनाया जाता है। वेद, उपनिषद और पुराणों का प्रणयन करने वाले वेद व्यासजी को समस्त मानव जाति का गुरु माना जाता है।
बहुत से लोग इस दिन व्यासजी के चित्र का पूजन और उनके द्वारा रचित ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। बहुत से मठों और आश्रमों में लोग ब्रह्मलीन संतों की मूर्ति या समाधी की पूजा करते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे।
वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया।
समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया।
दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी।
मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई। गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया।
निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ।
बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा।
पराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, “देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।” सत्यवती ने कहा, “मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।”
तब पराशर मुनि बोले, “बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।” इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।”
समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, “माता!
तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा। ” इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये।
द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा।
महाभारत और वेद व्यास जी
महाभारत हिन्दुओं का एक प्रमुख काव्य ग्रंथ है, जो स्मृति वर्ग में आता है।
कभी कभी केवल “भारत” कहा जाने वाला यह काव्यग्रंथ भारत का अनुपम धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ हैं।
विश्व का सबसे लंबा यह साहित्यिक ग्रंथ और महाकाव्य, हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। इस ग्रन्थ को हिन्दू धर्म में पंचम वेद माना जाता है।
यद्यपि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह ग्रंथ प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है।
यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है।
पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं।
हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं।
इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। .
वेदव्यासजी और बौद्ध धर्म:
बौद्ध धर्म में भी वेद व्यास का उल्लेख मिलता है। उनकी दो जातक कथाओं में कान्हा-दिपायन और घट कहा जाता है।
वह कान्हा-दिपायन में एक बोधिसत्व के रूप में प्रकट हुए, जिसका उनके हिंदू वैदिक कार्यों से कोई संबंध नहीं है और घट जकाता में उनकी भूमिका का महाभारत से घनिष्ठ संबंध है।
घाट में, वृष्णियों ने वेद व्यास पर अपनी दिव्य शक्तियों का परीक्षण करने के लिए एक मजाक खेला। वे उसके पेट पर तकिया बांधकर एक लड़के को एक महिला के रूप में तैयार करते हैं।
फिर वे उसे व्यास के पास ले गए और उससे पूछा कि क्या वह उन्हें बता सकता है कि बच्चा कब होने वाला है। तब वह कहता है कि उसके सामने वाला व्यक्ति अकरिया की लकड़ी की एक गांठ को जन्म देगा और वासुदेव की जाति को नष्ट कर देगा।
वे अंत में उसे मार डालते हैं लेकिन उनकी भविष्यवाणी सच हो गई।
इसके अतिरिक्त पुराणों की अधिकांश कथाओं द्वारा हमारे देश, समाज तथा धर्म का पूरा इतिहास महाभारत में आया है। महाभारत की कथाएं बड़ी रोचक और उपदेशप्रद हैं।
सब प्रकार की रुचि रखने वाले लोग भगवान की उपासना में लगें और इस प्रकार सभी मनुष्यों का कल्याण हो। इसी भाव से व्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना की।
इन पुराणों में भगवान के सुंदर चरित्र व्यक्त किए गए हैं। भगवान के भक्त, धर्मात्मा लोगों की कथाएं पुराणों में सम्मिलित हैं।
इसके साथ-साथ व्रत-उपवास की विधि, तीर्थों का माहात्म्य आदि लाभदायक उपदेशों से पुराण परिपूर्ण है।
वेदांत दर्शन के रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास ने वेदांत दर्शन को छोटे-छोटे सूत्रों में लिखा गया है, लेकिन गंभीर सूत्रों के कारण ही उनका अर्थ समझने के लिए बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे हैं।
धार्मिक मान्यता के अनुसार ही गुरुपूर्णिमा पर गुरुदेव की पूजा के साथ ही महर्षि व्यास की पूजा भी की जाती है। हिन्दू धर्म के सभी भागों को व्यासजी ने पुराणों में भली-भांति समझाया है। महर्षि व्यास सभी हिन्दुओं के परम पुरुष हैं। पुण्यात्मा भक्तों को उनके दर्शन भी हुए हैं।
महारषि वेदव्यासजी ने 18 पुराणों की सृष्टि की, जो इस प्रकार हैं:
1. ब्रह्म पुराण
ब्रह्म पुराण सब से प्राचीन है। इस पुराण में 246 अध्याय तथा 14000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महानता के अतिरिक्त सृष्टि की उत्पत्ति, गंगा आवतरण तथा रामायण और कृष्णावतार की कथायें भी संकलित हैं।
2. पद्म पुराण।
पद्म पुराण में 55000 श्र्लोक हैं और यह ग्रंथ पाँच खण्डों में विभाजित है जिन के नाम सृष्टिखण्ड, स्वर्गखण्ड, उत्तरखण्ड, भूमिखण्ड तथा पातालखण्ड हैं। इस ग्रंथ में पृथ्वी आकाश, तथा नक्षत्रों की उत्पति के बारे में उल्लेख किया गया है।
3. विष्णु पुराण
विष्णु पुराण में 6 अँश तथा 23000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में भगवान विष्णु, बालक ध्रुव, तथा कृष्णावतार की कथायें संकलित हैं।
4. शिव पुराण
शिव पुराण में 24000 श्र्लोक हैं तथा यह सात संहिताओं में विभाजित है। इस ग्रंथ में भगवान शिव की महानता तथा उन से सम्बन्धित घटनाओं को दर्शाया गया है।
5. श्रीमदभागवत पुराण
भागवत पुराण में 18000 श्र्लोक हैं तथा 12 स्कंध हैं। इस ग्रंथ में अध्यात्मिक विषयों पर वार्तालाप है। भक्ति, ज्ञान तथा वैराग्य की महानता को दर्शाया गया है।
6. नारद पुराण
नारद पुराण में 25000 श्र्लोक हैं तथा इस के दो भाग हैं। इस ग्रंथ में सभी 18 पुराणों का सार दिया गया है। प्रथम भाग में मन्त्र तथा मृत्यु पश्चात के क्रम आदि के विधान हैं।
7. अग्नि पुराण
अग्नि पुराण में 383 अध्याय तथा 15000 श्र्लोक हैं। इस पुराण को भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोष (इनसाईक्लोपीडिया) कह सकते है।
8.मतस्य पुराण
इस पुराण में 290 अध्याय तथा 14000 श्लोक हैं
9.ब्रह्मवैवर्त पुराण
ब्रह्माविवर्ता पुराण में 18000 श्र्लोक तथा 218 अध्याय हैं। इस ग्रंथ में ब्रह्मा, गणेश, तुल्सी, सावित्री, लक्ष्मी, सरस्वती तथा क़ृष्ण की महानता को दर्शाया गया है तथा उन से जुड़ी हुयी कथायें संकलित हैं। इस पुराण में आयुर्वेद सम्बन्धी ज्ञान भी संकलित है।
10.वराह पुराण
वराह पुराण में 217 स्कन्ध तथा 10000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में वराह अवतार की कथा के अतिरिक्त भागवत गीता महामात्या का भी विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
11.स्कन्द पुराण
स्कन्द पुराण सब से विशाल पुराण है तथा इस पुराण में 81000 श्र्लोक और छः खण्ड हैं। स्कन्द पुराण में प्राचीन भारत का भूगौलिक वर्णन है
12.मार्कण्डेय पुराण
अन्य पुराणों की अपेक्षा यह छोटा पुराण है। मार्कण्डेय पुराण में 9000 श्र्लोक तथा 137 अध्याय हैं।
13.वामन पुराण
वामन पुराण में 95 अध्याय तथा 10000 श्र्लोक तथा दो खण्ड हैं। इस पुराण का केवल प्रथम खण्ड ही उपलब्ध है। इस पुराण में वामन अवतार की कथा विस्तार से कही गयी हैं जो
14.कूर्म पुराण
कुर्मा पुराण में 18000 श्र्लोक तथा चार खण्ड हैं। इस पुराण में चारों वेदों का सार संक्षिप्त रूप में दिया गया है।
15.गरुड़ पुराण
गरुड़ पुराण में 279 अध्याय तथा 18000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में मृत्यु पश्चात की घटनाओं, प्रेत लोक, यम लोक, नरक तथा 84 लाख योनियों के नरक स्वरुपी जीवन आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है।
16.ब्रह्मण्ड पुराण
ब्रह्माण्ड पुराण में 12000 श्र्लोक तथा पू्र्व, मध्य और उत्तर तीन भाग हैं। मान्यता है कि अध्यात्म रामायण पहले ब्रह्माण्ड पुराण का ही एक अंश थी जो अभी एक पृथक ग्रंथ है।
17. लिंग पुराण
लिंग पुराण में 11000 श्र्लोक और 163 अध्याय हैं। सृष्टि की उत्पत्ति तथा खगौलिक काल में युग, कल्प आदि की तालिका का वर्णन है। राजा अम्बरीष की कथा भी इसी पुराण में लिखित है। इस ग्रंथ में अघोर मंत्रों तथा अघोर विद्या के सम्बन्ध में भी उल्लेख किया गया है।
18. भविष्य पुराण
भविष्य पुराण में 129 अध्याय तथा 28000 श्र्लोक हैं। इस ग्रंथ में सूर्य का महत्व, वर्ष के 12 महीनों का निर्माण, भारत के सामाजिक, धार्मिक तथा शैक्षिक विधानों आदि कई विषयों पर वार्तालाप है।
बाल्य काल से बुद्धिमत्ता के धनी रहे महर्षि वेदव्यास हर विषय में इतने कुशल थे की वो किसी भी चीज को समझने में ज्यादा समय नहीं लेते थे ।
अपने पिता के ज्ञान के अनुसार ही वेदव्यास जी भी उतने ही गुणी थे बचपन से अपने पिता के ज्ञान की छाया में रहे वेदव्यास जी अपने पिता को ही अपना गुरु मानते थे ।
वेदों के ज्ञान से संग्रहित होने के बाद वेदव्यास जी पुराण के ज्ञान में निपुण हो गए वेदव्यास के पुराण के ज्ञान के प्रति इतनी बाहुल्यता थी की महज 16 साल की उम्र में ही उन्होंने आश्रमों में होने वाले धार्मिक कार्यो में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था ।
वेदव्यास जी को अपने बाल्यकाल में ही सभी शास्त्रों वेद पुराण का ज्ञान हो गया था और उस समय उनके ज्ञान के आगे कोई नहीं टिक पाता था।
वेदों के अतुलनीय ज्ञान और इनके विस्तार के कारण इन वेदव्यास का नाम की उपाधि दी गई ।हिंदू धर्म में व्यास को माना जाता है भगवान विष्णु का रूप।
महर्षि वेदव्यास में एक अलौकिक शक्ति थी
कुछ समय के बाद में सत्यवती ने हस्तिनापुर के राजा शान्तनु से विवाह कर लिया। शान्तनु भीष्म के पिता थे। इस विवाह के लिए सत्यवती के पिता ने राजा शान्तनु के समक्ष यह शर्त रखी थी कि सत्यवती के गर्भ से जन्म लेने वाला बालक ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी होगा।
हालांकि इससे पहले ही शान्तनु ने अपने पुत्र देवव्रत को हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया था। अपने पिता को दुःखी देख, देवव्रत ने प्रण लिया कि वह कभी भी हस्तिनापुर की राजगद्दी पर नहीं बैठेंगे और न ही विवाह करेंगे।
इसी प्रतिज्ञा की वजह से उनका नाम भीष्म पडा। बाद में उनके पिता शान्तनु ने उन्हें ईच्छा-मृत्यु का वरदान दिया।
कुछ समय बाद सत्यवती दो पुत्रों को जन्म देती हैं। दोनों बेटे मर जाते हैं और उनकी पत्नियों को कोई संतान नहीं रहती है।
अपने पुत्रो के निधन के बाद सत्यवती ने महर्षि व्यास से आग्रह किया कि वह उनकी विधवा पुत्रवधुओं अम्बिका और अम्बालिका को नियोग के माध्यम से सन्तान दें, ताकि हस्तिनापुर को इसका वारिस मिल सके।
प्राचीन काल में नियोग एक ऐसी परम्परा रही थी, जिसका उपयोग संतान उत्पत्ति के लिए किया जाता रहा था।
मान्यताओं के मुताबिक पति के निधन या संतान उत्पन्न करने में अक्षम रहने की स्थित में महिलाएं नियोग की पद्धति को अपना सकतीं थीं।
नियोग किसी विशेष स्थिति में पर-पुरुष से गर्भाधान की प्रक्रिया को कहा जाता था।
व्यास अंबा और अंबिका को गर्भवती करने के लिए सहमत हो जाते हैं। वह इन लड़कियों को अपने करीब आने के लिए कहते है लेकिन अकेले,सबसे पहले अंबिका की बारी आती है वह उनके करीब जाकर शर्म से आंखें बंद कर लेती है।
व्यास जी ये घोषणा करते है की कि बच्चा अंधा पैदा होगा इस बच्चे को धृतराष्ट्र कहा गया।
फिर अंबा की बारी थी,हालांकि अंबालिका ने उसे आराम करने और खुद को शांत करने का निर्देश दिया था। लेकिन वह बहुत घबराई हुई थी और डर के मारे उसका चेहरा पीला पड़ गया था। व्यास ने घोषणा की कि इससे पैदा हुआ बच्चा गंभीर रूप से एनीमिक होगा और निश्चित रूप से राज्य चलाने में सक्षम नहीं होगा-यह पांडु था।
इससे स्वस्थ बच्चा पैदा करने का तीसरा प्रयास होता है लेकिन अंबा और अंबिका अब इतने डरे हुए थे कि उन्होंने इसके बजाय एक नौकर लड़की को भेज दिया। यह नौकरानी आश्वस्त थी और वह एक स्वस्थ बच्चे के साथ गर्भवती हो जाती है यह विदुर थी।
जबाली ऋषि की पिंजला नामक पुत्री से उनका एक और पुत्र सुक हुआ। महर्षि वेदव्यास धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर के जैवीय या आध्यात्मिक पिता थे।
महर्षि व्यास पितमाह भीष्म के सौतेले भाई थे।
उनके चार प्रसिद्ध पुत्र थे, जिनके नाम पांडु, धृतराष्ट्र, विदुर और सुखदेव था, वेद व्यास ने वासुदेव और सनकादिक जैसे महान संतों से ज्ञान प्राप्त किया और उनके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य नारायण या परमात्मा को प्राप्त करना था।
ऐसा कहा जाता है कि वेद व्यास ने स्वयं भगवान गणेश से महाभारत के संकलन में उनकी मदद करने के लिए कहा था।
लेकिन गणेश ने उन पर एक शर्त रखी थी, उन्होंने कहा कि वह उनके लिए महाभारत लिखेंगे यदि केवल वह उन्हें बिना रुके सुनाएंगे।
इस शर्त को खत्म करने के लिए, व्यास ने उस पर एक और शर्त रखी कि वह लिखने से पहले ही छंदों को समझे फिर लिखें जब तक गणेश जी छंदों को समझते जब तक वेदव्यास जी दूसरा छंद सोच लेते थे इस प्रकार वेदव्यास के मुख से निकली वाणी और वैदिक ज्ञान को लिपिबद्ध करने का काम गणेश जी ने किया था।
इस तरह लिखी गई थी महाभारत, वेद व्यास ने सभी उपनिषदों और 18 पुराणों को लगातार भगवान गणेश को सुनाया
वेदव्यास उन मुनियों में से एक हैं, जिन्होंने अपने साहित्य और लेखन के माध्यम से सम्पूर्ण मानवता को यथार्थ और ज्ञान का खजाना दिया है।
महर्षि व्यास ने न केवल अपने आसपास हो रही घटनाओं को लिपिबद्ध किया, बल्कि वह उन घटनाओं पर बराबर परामर्श भी देते थे।
महर्षि वेदव्यास ने समस्त विवरणों के साथ महाभारत ग्रन्थ की रचना कुछ इस तरह की थी कि यह एक महान इतिहास बन गया।
महर्षि व्यास का जन्म त्रेता युग के अन्त में हुआ था। वह पूरे द्वापर युग तक जीवित रहे।
कहा जाता है कि महर्षि व्यास ने कलियुग के शुरू होने पर यहां से प्रयाण किया।
महर्षि व्यास को भगवान विष्णु का 18वां अवतार माना जाता है। भगवान राम विष्णु के 17वें अवतार थे। बलराम और कृष्ण 19वें और 20वें।
इसके बारे में श्रीमद् भागवतम् में विस्तार से लिखा गया है, जिसकी रचना मुनि व्यास ने द्वापर युग के अन्त में किया था। श्रीमद् भागवतम् की रचना महाभारत की रचना के बाद की गई थी।
महर्षि व्यास का जन्म नेपाल में स्थित तानहु जिले के दमौली में हुआ था।
महर्षि व्यास ने जिस गुफा में बैठक महाभारत की रचना की थी, वह नेपाल में अब भी मौजूद है।
व्यासजी के बारे में कहा जाता है कि द्वापर युग के दौरान उन्होंने पुराण, उपनिषद, महाभारत सहित वैदिक ज्ञान के तमाम ग्रन्थों की रचना की थी।
महर्षि व्यास ने वेदों का अलग-अलग खंड में विभाजन किया था।वेदव्यास के बारे में कहा जाता है कि वह सात चिरंजिवियों में से एक हैं।
कलियुग के शुरू होने के बाद वेदव्यास के बारे में कोई ठोस जानकारी या दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं। माना जाता है कि वह तप और ध्यान के लिए पर्वत श्रृंखलाओं में लौट गए थे।
महर्षि वेद व्यास के 30 अनमोल और अमू्ल्य विचार, जो हम सभी के लिए प्रेरणादायी है।
महर्षि वेदव्यास के जीवन प्रेरक विचार
महर्षि वेद व्यास के उपदेश और उनके विचार हमारे जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है।
“महाभारत के रचियता और अपनी अतुल्य बुद्धिमत्तता के विचारो को भी वेदव्यास ने प्रकट किया था वेदव्यास ने मनुष्य जीवन से जुड़े अपने ऐसे विचार रखें जो यदि व्यक्ति अपने जीवन में उन पर अम्ल करें तो उसे हर रास्ते पर सफलता मिलती है” – वेदव्यास”
1. अभीष्ट फल की प्राप्ति हो या न हो, विद्वान पुरुष उसके लिए शोक नहीं करता। निरोगी रहना, ऋणी न होना, अच्छे लोगों से मेल रखना, अपनी वृत्ति से जीविका चलाना और निर्भय होकर रहना ये सभी मनुष्य के सुख हैं ” – वेदव्यास”
2. जो सज्जनता का अतिक्रमण करता है उसकी आयु, संपत्ति, यश, धर्म, पुण्य, आशीष, श्रेय नष्ट हो जाते हैं।
3. किसी के प्रति मन में क्रोध रखने की अपेक्षा उसे तत्काल प्रकट कर देना अधिक अच्छा है, जैसे पल में जल जाना देर तक सुलगने से अच्छा है।
4. अमृत और मृत्यु दोनों इस शरीर में ही स्थित हैं। मनुष्य मोह से मृत्यु को और सत्य से अमृत को प्राप्त करता है।
5. दूसरों के लिए भी वही चाहो जो तुम अपने लिए चाहते हो किसी का सहारा लिए बिना कोई ऊंचे नहीं चढ़ सकता, अत: सबको किसी प्रधान आश्रय का सहारा लेना चाहिए” – वेदव्यास”
6. जो वेद और शास्त्र के ग्रंथों को याद रखने में तत्पर है किंतु उनके यथार्थ तत्व को नहीं समझता, उसका वह याद रखना व्यर्थ है।
7. जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं, क्षमा करता है, वह अपनी और क्रोध करने वाले की महा संकट से रक्षा करता है। वह दोनों का रोग दूर करने वाला चिकित्सक है।
8. जहां कृष्ण हैं, वहां धर्म है और जहां धर्म है, वहां जय है।
9. जिसके मन में संशय भरा हुआ है, उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है।
10. अत्यंत लोभी का धन तथा अधिक आसक्ति रखने वाले का काम- ये दोनों ही धर्म को हानि पहुंचाते हैं।
11. जिस मनुष्य की बुद्धि दुर्भावना से युक्त है तथा जिसने अपनी इंद्रियों को वश में नहीं रखा है, वह धर्म और अर्थ की बातों को सुनने की इच्छा होने पर भी उन्हें पूर्ण रूप से समझ नहीं सकता।
12. क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने योग्य हो जाता है।
13. मन में संतोष होना स्वर्ग की प्राप्ति से भी बढ़कर है, संतोष ही सबसे बड़ा सुख है। संतोष यदि मन में भली-भांति प्रतिष्ठित हो जाए तो उससे बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है।
14. दुख को दूर करने की एक ही अमोघ औषधि है- मन से दुखों की चिंता न करना।
15. जो केवल दया से प्रेरित होकर सेवा करते हैं, उन्हें नि:संशय सुख की प्राप्ति होती है।
16. अधिक बलवान तो वे ही होते हैं जिनके पास बुद्धिबल होता है। जिनमें केवल शारीरिक बल होता है, वे वास्तविक बलवान नहीं होते। शूरवीरता, विद्या, बल, दक्षता, और धैर्य, ये पांच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र हैं। यह हर बुद्धिमान और महापुरुष में देखने को मिलते हैं ” – वेदव्यास”
17. जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य सदा पाप ही करता रहता है। पुन:-पुन: किया हुआ पुण्य बुद्धि को बढ़ाता है।
18. जो विपत्ति पड़ने पर कभी दुखी नहीं होता, बल्कि सावधानी के साथ उद्योग का आश्रय लेता है तथा समय आने पर दुख भी सह लेता है, उसके शत्रु पराजित ही हैं।
19. जो मनुष्य अपनी निंदा सह लेता है, उसने मानो सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली।
20. संसार में ऐसा कोई नहीं हुआ है, जो मनुष्य की आशाओं का पेट भर सके। पुरुष की आशा समुद्र के समान है, वह कभी भरती ही नहीं।
21. माता के रहते मनुष्य को कभी चिंता नहीं होती, बुढ़ापा उसे अपनी ओर नहीं खींचता। जो अपनी मां को पुकारता हुआ घर में प्रवेश करता है, वह निर्धन होता हुआ भी मानो अन्नपूर्णा के पास चला आता है। -वेदव्यास
22. मन का दुख मिट जाने पर शरीर का दुख भी मिट जाता है।
23. आशा ही दुख की जननी है और निराशा ही परम सुख शांति देने वाली है।
24. सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से आग जलती है, सत्य से वायु बहती है, सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है। सत्य ही धर्म, तप और योग है। सत्य ही सनातन ब्रह्मा है, सत्य को ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्य पर ही टिका है ” – वेदव्यास”
25. जो मनुष्य नाश होने वाले सब प्राणियों में समभाव से रहने वाले अविनाशी परमेश्वर को देखता है, वही सत्य को देखता है।
26. जैसे जल द्वारा अग्नि को शांत किया जाता है, वैसे ही ज्ञान के द्वारा मन को शांत रखना चाहिए।
27. स्वार्थ की अनुकूलता और प्रतिकूलता से ही मित्र और शत्रु बना करते हैं। सत्पुरुष दूसरों के उपकारों को ही याद रखते हैं, उनके द्वारा किए हुए बैर को नहीं ” वेदव्यास”
28. मनुष्य जीवन की सफलता इसी में है कि वह उपकारी के उपकार को कभी न भूले। उसके उपकार से बढ़कर उसका उपकार कर दे।
29. विद्या के समान कोई नेत्र नहीं है।
30. जैसे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्म के क्षीण हो जाने पर देव भी नष्ट हो जाता है।
वेदव्यास जी को अमरत्व
महर्षि वेदव्यास जी विपत्ति ग्रस्त पांडवों की समय समय पर उनकी सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे।
महर्षि वेदव्यास जी ने ही धृतराष्ट्र के कहने पर संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। जिसके जरिए संजय ने महाभारत युद्ध को प्रत्यक्ष देख कर अपने महाराज धृतराष्ट्र को महाभारत युद्ध का वर्णन सुनाया था।
वेदव्यास जी के दिए हुए दिव्य दृष्टि के कारण ही संजय ने, महाभारत युद्ध में भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया गीता उपदेश का श्रवण किया था।
महर्षि वेदव्यास जी की ज्ञान शक्ति अलौकिक थी। महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद एक बार जब वेदव्यास जी धृतराष्ट्र तथा गांधारी से मिलने के लिए हस्तिनापुर जाते हैं। तो वह देखते हैं कि धृतराष्ट्र अपने पुत्र शोक में व्याकुल हैं।
उस समय युधिष्ठिर भी सपरिवार वहां पर उपस्थित थे। तब शोकाकुल धृतराष्ट्र ने वेदव्यास जी के सामने अपने मरे हुए पुत्रों स्वजनों को देखने की इच्छा प्रकट की।
तब वेदव्यास जी ने धृतराष्ट्र की यह इच्छा स्वीकार कर ली। इसके पश्चात वेदव्यासजी उन लोगों को लेकर गंगा नदी के तट पर पहुंचे। और सभी को रात होने का इंतजार करने के लिए कहा।
रात होने पर वेदव्यास जी गंगा नदी में प्रवेश कर कुछ मंत्र पढ़कर…. दिवगंत योद्धाओं को पुकारते हैं।
व्यास जी के इस पुकार से गंगा के जल में महाभारत युद्ध जैसे कोलाहल सुनाई देने लगती है।
और देखते ही देखते महाभारत युद्ध में मारे गए समस्त योद्धा गंगा नदी से एक-एक करके प्रकट हो जाते हैं।
वेदव्यास जी का हिंदू धर्म पर उपकार
गंगा नदी से निकले महाभारत के समस्त योद्धा लोग दिव्य देवधारी रूप धारण किए हुए प्रकट हुए।
उन सभी योद्धाओं का मन शांत हो चुका था। किसी के मन में भी कोई भी बैर और क्रोध नहीं था। वह सभी रात्रि में अपने सगे-संबंधियों से मिले।
तथा सूर्य उदय से पूर्व गंगा नदी में पुनः प्रवेश करके दिव्य लोक में चले गए। धर्म और पुराण बतलाते हैं कि महर्षि वेदव्यास जी को अमरत्व प्रदान है। अतः व्यास जी आज भी हमारे बीच व्याप्त हैं।
धर्म ज्ञानियों का मानना है कि महर्षि व्यास जी आज भी अमर हैं। तथा समय समय पर प्रकट होकर धर्म करने वाले पुरुषों को अपना दर्शन देकर उन्हें कृतार्थ करते हैं।
आदि शंकराचार्य को इन्होंने अपना दर्शन देकर उनका उद्धार किया था।
महर्षि वेदव्यास जी का हमारे हिंदू धर्म पर अनंत उपकार हैं। संपूर्ण हिंदू धर्म उन का आभारी है। हम वेदों के ज्ञाता, महाभारत के रचयिता,और 18 पुराणों के संग्रह कारक, अमर युगपुरुष, महान तेजस्वी, महर्षि वेदव्यास जी का सत सत नमन करते हैं।
व्यास पूर्णिमा
प्राचीन काल में, भारत में हमारे पूर्वज, व्यास पूर्णिमा के बाद चार महीनों या ‘चतुर्मास’ के दौरान ध्यान करने के लिए जंगल में जाते थे
इस शुभ दिन पर, व्यास ने अपना ब्रह्म सूत्र लिखना शुरू किया। इस दिन को गुरु पूर्णिमा के रूप में भी जाना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार, हिंदुओं को व्यास और ब्रह्मविद्या गुरुओं की पूजा करनी चाहिए और ‘ज्ञान’ पर ब्रह्म सूत्र और अन्य प्राचीन पुस्तकों का अध्ययन शुरू करना चाहिए।
व्यासजी ने पुराणों तथा महाभारत की रचना करने के पश्चात् ब्रह्मसूत्रों की रचना भी यहाँ की थी। वाल्मीकि की ही तरह व्यास भी संस्कृत कवियों के लिये उपजीव्य हैं।
महाभारत में उपाख्यानों का अनुसरण कर अनेक संस्कृत कवियों ने काव्य, नाटक आदि की सृष्टि की है।
महाभारत के संबंध में स्वयं व्यासजी की ही उक्ति अधिक सटीक है इस ग्रंथ में जो कुछ है, वह अन्यत्र है, पंरतु जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है।
ब्रह्म सूत्र:
ब्रह्म सूत्र, जिसे वेदांत सूत्र के रूप में भी जाना जाता है, व्यास ने बदरायण के साथ लिखा था। उन्हें चार अध्यायों में विभाजित किया गया है, प्रत्येक अध्याय को फिर से चार खंडों में विभाजित किया गया है।
यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि वे सूत्र के साथ शुरू और समाप्त होते हैं जिसका अर्थ है “ब्राह्मण की वास्तविक प्रकृति की जांच में कोई वापसी नहीं है”,
जो “जिस तरह से अमरता तक पहुंचता है और दुनिया में वापस नहीं आता है” की ओर इशारा करता है। इन सूत्रों के रचयिता का श्रेय व्यास जी को दिया जाता है।
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