संपूर्ण वातावरण में एक अद्भुत नीरवता व्याप्त थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो समय ठहर सा गया हो।
कहने को तो वह आश्रम धरती की परिधि में ही अवस्थित था, तब भी वहां आकर ऐसा प्रतीत होता था मानो किसी अन्य लोक में प्रवेश करने का सौभाग्य मिल गया हो।
वातावरण की सुरम्यता के पीछे का एक कारण तो वहाँ नैसर्गिक रूप से फैली हुई हरीतिमा थी तो वहीं दूसरी ओर, उस दिव्यता के पीछे कारण उस आश्रम के संरक्षक, महर्षि माण्डव्य का उस स्थान पर अनवरत तपस्या में लीन होना भी था।
घोषित तथ्य है कि भूमि विशेष पर किए गए कार्य, उस भूमि की ऊर्जा को तदनुरूप परिवर्तित कर देते है।
जिस स्थान पर निरपराधोें की हत्या होती है, वो भूमि उन कुसंस्कारों को पीढ़ियों तक ढोती है तो वहीं यह भी सत्य है कि जिसव स्थान पर पुण्य के, तप के बीज बोए जाते हैं, उस स्थान का वातावरण भी समय के साथ दिव्यता से सिक्त एवं पवित्रता युक्त हो जाता है।
महर्षि माण्डव्य की तपोभूमि में अनादिकालीन यह सिद्धांत ही साकार रूप लेता दिखाई पड़ रहा था।
तपस्या का स्वरूप एक समान होता है, परंतु उद्देश्य भिन्न हो जाते है। असुरों के लिए तपस्या शक्ति-अर्जन का स्त्रोत है तो ऋषियों के लिए परिष्कार का पथ।
अपनी आत्मचेतना को परमात्मचेतना से एकाकार करने का एकमात्र लक्ष्य महर्षि माण्डव्य की उस दुर्द्धर्ष तपस्या का भी था, परंतु शायद विधि को कुछ और ही मंजूर था।
प्रकृति उनके माध्यम से कुछ ऐसे कार्यो को संपादित करना चाहती थी, जिनको कर पाने का साहस संभवतया किसी अन्य में न हो पाता।
इसीलिए प्रकृति की प्रेरणावश एक दिन एक चरवाहा, अपनी गाय को चराता हुआ महर्षि के आश्रम में जा पहुँचा। वहां तक पहुँचने की यात्रा सरल न थी, सो उसे निकट के एक पेड़ के नीचे विश्राम करते-करते नींद आ गई।
जब उसकी आँखे खुली तो उसने पाया कि उसके साथ चल रही गायों के झुंड में से कुछ गायें वहाँ नहीं है।
सामान्य व्यक्ति के मन में शंका-कुशंका तीव्रता से घर करती हैं। उसे लगा की किसी ने उसकी गायें चुरा ली हैं, परंतु उस निर्जन क्षेत्र में यह अपराध भला कौन करेगा? इधर-उधर ढूंढ़ने में उसे उसकी गायें महर्षि माण्डव्य की कुटिया के पीछे घूमती मिलीं।
मन में शक तो उसने पहले ही पाल लिया था, पर अब प्रमाण पाकर और यह देखकर कि वहाँ महर्षि ध्यानमग्न हैं-उसने यह विश्वास मन में दृढ़ कर लिया कि हो-न-हो यह ध्यानमग्न व्यक्ति ही अपराधी है।
मन तो कल्पनाएँ करने में चतुर होता ही है, पर मन ने चरवाहे को यह भी समझा दिया कि महर्षि गायों को चुराने के बाद ध्यान का अभिनय करने बैठ गए हैं, ताकि उन पर किसी का शक न जा सके।
बुद्वि हर ली जाए तो फिर कोई भी कल्पना, मन में इस प्रकार दृढ़ भाव ले लेती है, जैसे वो ही सत्य हो। उस चरवाहे के साथ भी ऐसा ही कुछ घटा।
मन में उसी भाव को लिए हुए वह उस राज्य के राजा के पास अपनी शिकायत को लेकर पहुँचा।
चरवाहे की शिकायत करने के तरीके में इतना बल था कि राजा ने भी बिना दूसरा पक्ष सुने महर्षि को चोर समझकर नगर कोतवाल को निर्णय सुनाया की जो सजा राज्य में चोर को सुनाई जाती है, वो ही इस चरवाहे के दोषी को भी सुनाई जाए।
उस राज्य में चोरी की सजा सूली पर चढ़ाने की थी, सो वो ही सजा नगर कोतवाल ने महर्षि के लिए भी निर्धारित कर दी।
महर्षि माण्डव्य के शिष्य उस राजा के कुलगुरू थे। उन्हें यह व्यथित कर देने वाला समाचार मिला तो वे भागते हुए राजा के पास पहुँचे व उन्हें चेताया कि कितना गंभीर अपराध उनके द्वारा घट गया है।
राजा ने महर्षि माण्डव्य व उनकी उत्कट तपस्या की कथा सुन रखी थी। वे स्वयं भी महर्षि के दर्शनों को लालायित रहते थे।
यह जानकर कि उन्होंने अनजाने में महर्षि को ही प्रणांत का दंड दे डाला है, उनका शरीर काँप उठा। वे तुरंत कुलगुरू को साथ लेकर सजा जिस स्थान पर दी जा रही थी वहाँ पहुँचे, पर देरी बहुत हो चुकी थी।
नगर कोतवाल ने उन्हें सूली पर चढ़ा दिया था, वे प्राण त्यागने को थे। घबराए राजा ने महर्षि के पैर पकड़ लिए व उनसे क्षमा-याचना करने लगे। कुलगुरू के आँसू तो रूकने का नाम न लेते थे।
उनके शिष्य ने ही अपने गुरू को प्राणांत का दंड दे डाला था। उनके मुख से तो जैसे शब्द ही विदा हो गए थे। महर्षि माण्डव्य इन सबके बावजूद निर्द्वन्द , निश्चिंत थे।
शरीर छूटने का भी उन्हें जैसे भान न था। राजा के पैर पकड़ने पर वे बोले- “राजन्! आप निश्चिंत रहें, आप मेरे अपराधी नहीं हैं।
मेरे अपराधी तो वे हैं, जिन्होंने इस कर्मपरिणाम का निर्धारण किया है, अब मैं इसका हिसाब उन्हीं से लूँगा।” इतना कहते-कहते महर्षि माण्डव्य ने अपनी पार्थिव देह को त्याग दिया।
शरीर छूटने के उपरांत महर्षि माण्डव्य की आत्मा यमलोक को पहुँची। स्वयं धर्मराज यम उन्हें लेने के लिए यमलोक के द्वार पर पहुँचे।
उनसे भेंट होते ही महर्षि माण्डव्य ने उनसे प्रश्न किया-“यमराज! मेरे द्वारा कृत वह कौन-सा कर्म था, जिसके परिणामस्वरूप् मुझे सूली पर चढ़ने का घातक कष्ट भुगतना पड़ा़ ?”
यमराज ने उत्तर देने से पूर्व चित्रगुप्त के पास संगृहीत कर्मो के हिसाब की ओर दृष्टि दौड़ाई और फिर महर्षि माण्डव्य से बोले- “महर्षि! जब आप आठ वर्ष के थे, तो आपने एक कृमि की गरदन पर एक धारदार वस्तु से प्रहार कर दिया था। वही कर्म आपको सूली पर चढ़ने के रूप में चुकाना पड़ा”
महर्षि माण्डव्य ने पुनः प्रश्न किया-“यमराज! जब मैं आठ वर्ष का था, तो क्या मुझे किए जा रहे कर्म के शुभ-अशुभ होने का विवेकबोध था ? क्या मुझे इतनी समझ थी कि जो कर्म मैं कर रहा हूँ, उससे दूसरे प्राणी को कष्ट पहुँच रहा होगा।”
प्रत्युत्तर में यमराज के पास मौन रहने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष न था। महर्षि की जिज्ञासा निराधार नहीं थी। आठ वर्ष के बालक में इतनी समझ-बूझ नहीं होती है कि वो अपने कर्म के दूरगामी परिणामों को महसूस कर सके।
यमराज को निरूत्तर देख महर्षि माण्डव्य बोले-“उस स्थिति में इस कर्म का निर्धारण करने की जिम्मेदारी मेरी है। आज के उपरांत मैं यह नियम निर्धारित करता हूँ कि बारह वर्ष के नीचे के बालक अथवा बालिका को उनके द्वारा कृत कर्म का आधा अंश भुगतना पड़ेगा।
शेष आधे की जिम्मेदारी है कि वे अपने पुत्र अथवा पुत्री को शुभ अथवा अशुभ कर्म का बोध कराएँ।”
इतना कहकर महर्षि माण्डव्य थोड़ा ठहरे और पुनः बोले-“कर्म के निर्धारण की सम्यक जिम्मेदारी इस पद पर आसीन होने के कारण तुम्हारी थी यमराज, पर इस जिम्मेदारी को पूर्ण करने में तुम सफल नहीें रहे और इसलिए तुम्हें भी अपने कर्मदोष का परिणाम भुगतना होगा।
इसके परिणामस्वरूप तुम्हें धरती पर जन्म लेना होगा और तुम एक साथ दो व्यक्तियों के रूप में जन्म लोगे। एक रूप में तुम शासक बनोगे, परंतु अधिकार से शून्य रहोगे।”
महर्षि माण्डव्य द्वारा कहे गए उन वचनों के मिथ्या जाने का प्रश्न ही न था। यमराज को धरती पर दो रूपों में जन्म लेना पडा।
पहले रूप में वे युधिष्ठिर बने, जिसमें वे शासक तो थे, परंतु जीवनभर भटकते रहे और दूसरे रूप में वे सूतपुत्र विदुर के रूप में थे, जिसमें वे अधिकार से च्युत रहे।
स्पष्ट है कि कर्मों का परिणाम जब कर्मों का निर्धारण करने वाली शक्तियों को स्वीकारना पड़ता है तो प्रत्येक व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वह कर्मों को उनमें निहित शुभ-अशुभ की भावना को ध्यान में रखते हुए करे।