हर व्यक्ति जीवन में शांति-सुकून के साथ एक ऐसी बुलंदी चाहता है, जहाँ जीवन खुशियों से आबाद हो, उपलब्धियों से गुलजार हो, लेकिन इसका मार्ग ज्ञात न होने के कारण वह शाॅर्टकट्स के चक्करों में पड़ जाता है और पगडंडियों में भटक जाता है।
राजमार्ग की जानकारी के अभाव में तुरत-फुरत सफलता के सरंजाम शुरू में तो लुभावने आश्वासन देते हैं, लेकिन अपेक्षित परिणाम न मिलने के कारण रास्ते में ही मोहभंग का दौर शुरू हो जाता है और अंततः हताशा-निराशा ही हाथ लगती है।
कितना अच्छा हुआ होता यदि उसे जीवन में समग्र सफलता प्राप्ति के राजमार्ग की प्रक्रिया ज्ञात होती, इसके विविध चरणों की बारीकियों का बोध होता।
स्वयं को गढ़ने की प्रक्रिया निश्चित रूप से विश्व का सबसे कठिन कार्य मानी जाती है, लेकिन इसके सोपानों का बोध इसे सरल एवं रोचक बना देता है।
इसके चार सोपान हैं- आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण और आत्मविश्वास।
आत्मनिरीक्षण– पहला चरण है। यह अपने जीवन का संगोपांग निरीक्षण है, जाँच-पड़ताल है। इसमें अपने व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन किया जाता है।
हमारी शक्तियाँ क्या हैं, विशेषताएँ क्या हैं, दुर्बलताएँ-दोष दुर्गुण क्या हैं, उपेक्षित क्षेत्र क्या हैं, जीवन का लक्ष्य क्या है, हमें बनना क्या है; आदि।
संक्षेप में कहें तो यह जीवनरूपी भवन का नक्शा है, जिसका पूरा खाका तैयार किया जाता है। इसी के बाद जीवन-निर्माण का अगला चरण शुरू होता है, लेकिन यहीं पर प्रायः चूक हो जाती है। भवन-निर्माण में नक्शे के अनुरूप जमीन को तलाशा जाता है। यदि जमीन ऊबड़-खाबड़ है, या कहीं पहाड़ या गड्ढे से भरी है तो सबसे पहले उसको समतल किया जाता है और फिर भवन की नींव डाली जाती है।
जीवन-निर्माण के संबंध में प्रायः हम इन चरणों की उपेक्षा करते है और बिना अपनी दुर्बलताओं, कमजोरियों को दूर किए, बिना आदतों एवं स्वभाव में अपेक्षित परिमार्जन लाए, सफलताओं के स्वप्न देखने लगते हैं।
बिना उचित पात्रता विकसित किए अपेक्षित सफलता हासिल न होने पर निराशा ही हाथ लगती है और आत्म-विकास की प्रक्रिया में ही लोग आस्था खो बैठते हैं। जिस उत्साह के साथ खुद को साधने व जीवन को सँवारने के महत्तर उद्देश्य के पथ पर निकले थे, वह जोश बीच में ही ठंडा पड़ जाता है। आत्मसुधार का चरण इस हताशा-निराशा भरी त्रासदी से बचाता है।
आत्मसुधार- की प्रक्रिया के दूसरे महत्त्वपूर्ण चरण में खोदी खाई को पाटने का प्रयास-पुरूषार्थ किया जाता है। इसमें व्यक्तित्वरूपी छलनी में पड़े उन छिद्रों को बंद करने की चेष्टा रहती है, जिनके चलते अर्जित किया सारा दूध पात्र में ठहरने के बजाय बह निकलता है।
इसके अंतर्गत तन-मन-प्राण को साधना के साँचे में तपाया जाता है, जिससे संगृहीत ऊर्जा का नियोजन आत्म-परिष्कार के साथ लोक-कल्याण के हमत्तर उद्देश्य के लिए किया जा सके।
वास्तव में यही चरण सबसे कठिन रहता है, जो व्यक्ति के धैर्य, जीवट एवं आस्था की परीक्षा करता है।
अधीर व जल्दबाज व्यक्ति इसमें प्रायः चूक जाते हैं और असफलता की जिम्मेदारी खुद पर लेने के बजाय दूसरों को या भाग्य को कोसते रहते हैं, लेकिन यदि पूरे साहस व संकल्प को बटोरकर इस चरण को पूरा कर जाए तो अगला चरण स्वतः ही अनुसरित होता है, जो आत्मनिर्माण का है।
आत्मनिर्माण- के साथ गहरी नींव के ऊपर भव्य भवन का निर्माण शुरू होता है।
यह अपेक्षित योग्यता एवं सद्गुणों के अर्जन, अभिवर्द्धन के साथ आगे बढ़ता हैं। नित्य अभ्यास के साथ इसमें नित नए आयाम जुड़ते जाते हैं और व्यक्तित्व में अपेक्षित गरिमा एवं भव्यता का समावेश प्रारंभ होता है।
यहाँ समग्र सफलता की संतोषभरी झलक मिलना शुरू हो जाती है, जो बाहरी उपलब्धियों के साथ एक संतुष्टि का भाव देती है, लेकिन गहन स्थिरता-शांति के उद्देश्य से अभी भी यह दूर होती है, जो व्यक्तिगत जीवन की उपलब्धियों, विभूतियों एवं प्रतिभा केा परमार्थ में नियोजित करने के साथ आत्मविकास की प्रक्रिया के माध्यम से संपन्न होती है।
आत्मविकास- यह जीवन के भव्य भवन से एक महत्तर प्रयोजन को सिद्ध करने का चरण है, जिसमें अर्जित समय, श्रम, योग्यता, प्रतिभा, विभूति, धन, प्रभाव आदि का नियोजन लोकहित में, परमार्थ में किया जाता है।
यह विराट के हित संकीर्ण स्वार्थ एवं क्षुद्र अंहकार के विसर्जन की प्रक्रिया है। निष्काम भाव के साथ निस्स्वार्थ सेवा के रूप में यह आत्मविस्तार का परम पुरूषार्थ है।
मनुष्य जीवन में सार्थकता की अनुभूति इन्हीं पलों में अंतर से प्रस्फुटित होती है और जीवन की परिपूर्णता इन्हीं पलों में अनुभव होती है।
युगऋषि के अनुसार जीवन का लक्ष्य समाज की सच्ची सेवा करते हुए आत्मकल्याण करना है।
जब व्यक्ति को इस राजमार्ग की समझ आती है, इसके चरणों का बोध होता है तो वह पगडंडियों में भटके बिना राजमार्ग पर बढ़ चलता है और प्रकाश-पथ का रही बनकर जीवन की पूर्णता की ओर अग्रसर होता है।