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तिरूपति बालाजी मंदिर

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भारत को मंदिरों का देश कहा जाता है यहां के मंदिर लोगों की श्रद्धा और भक्ति का केंद्र होते हैं जो हजारों किमी दूर से लोगों को खींचते हैं। यहां हजारों मंदिर हैं जिनका अपना इतिहास और रहस्य है जिनसे आज तक कोई पर्दा नहीं उठा सका। इनमें से एक है तिरुपति बालाजी मंदिरआंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित भारत के प्रमुख और पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है और यह भारत का एक अमीर मंदिर भी है। चमत्कारों और रहस्यों से भरपूर यह मंदिर न केवल भारत में प्रसिद्ध है बल्कि पूरे विश्व में भी मशहूर है। इस मंदिर के मुख्य देवता श्री वेंकटेश्वर स्वामी है जिन्हें भगवान विष्णु के अवतार माना जाता है और वे तिरुमाला पर्वत पर अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास करते हैं।

तिरूपति बालाजी मंदिर एक बहुत प्रसिद्ध हिंदू वैष्णव मंदिर है जो भगवान विष्णु के अवतार भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित है, जो आंध्र प्रदेश के तिरूपति के पहाड़ी शहर तिरुमल में स्थित है। ऐसा माना जाता है कि कष्टकारी कलियुग में मानव जाति को बचाने के लिए भगवान विष्णु स्वयं यहां प्रकट हुए थे। इस मान्यता के अनुरूप, इस स्थान को कलियुग वैकुंठम के नाम से भी जाना जाता है और भगवान को कलियुग प्रत्यक्ष दैवम भी कहा जाता है।

तिरुमाला पहाड़ियाँ समुद्र तल से 853 मीटर ऊपर स्थित हैं और इसमें सात चोटियाँ शामिल हैं, जो आदिशेष (पवित्र साँप और भगवान विष्णु के रक्षक) के सात सिरों का प्रतिनिधित्व करती हैं। सात चोटियों के नाम शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरुड़ाद्रि, अंजनाद्रि, वृषभाद्रि, नारायणाद्रि और वेंकटाद्रि हैं। यह मंदिर सातवीं चोटी – वेंकटाद्रि, श्री स्वामी पुष्करिणी, एक पवित्र जल कुंड के दक्षिणी तट पर स्थित है। इसलिए मंदिर को “सात पहाड़ियों का मंदिर” भी कहा जाता है।

 इस मंदिर से आस्था, प्रेम और रहस्य जुड़ा हुआ है, जिसकी वजह से यहां भक्तों की भारी भीड़ देखने को मिलती है. ऐसा कहा जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर नेअपने भक्तों को तमाम तरह की परेशानियों से बचाने के लिए कलयुग में जन्म लिया था. मान्यता है कि तिरुपति बालाजी भगवान विष्णु के अवतार हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि कलयुग में जब तक भगवान वेंकटेश्वर रहेंगे, तब तक कलयुग का अंत नहीं हो सकता है


श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कल‍ियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।

धन और प्राप्त दान के मामले में तिरुमाला तिरुपति दुनिया का सबसे अमीर मंदिर है। मंदिर में प्रतिदिन लगभग 50,000 से 100,000 तीर्थयात्री आते हैं (औसतन 30 से 40 मिलियन लोग सालाना), जबकि वार्षिक ब्रह्मोत्सवम जैसे विशेष अवसरों और त्योहारों पर, तीर्थयात्रियों की संख्या 500,000 तक बढ़ जाती है, जिससे यह सबसे अधिक देखा जाने वाला पवित्र स्थान बन जाता है।

श्री वैंकटेश्वर का यह प्राचीन मंदिर तिरुपति पहाड़ की सातवीं चोटी (वैंकटचला) पर स्थित है। यह श्री स्वामी पुष्करिणी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। माना जाता है कि वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने के कारण ही इन्‍हें वैंकटेश्‍वर कहा जाने लगा। इन्‍हें सात पहाड़ों का भगवान भी कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान वैंकटेश्चर साक्षत विराजमान है। यह मुख्य मंदिर के प्रांगण में है। मंदिर परिसर में अति सुंदरता से बनाए गए अनेक द्वार, मंडपम और छोटे मंदिर हैं। मंदिर परिसर में मुख्श् दर्शनीय स्थल हैं:पडी कवली महाद्वार संपंग प्रदक्षिणम, कृष्ण देवर्या मंडपम, रंग मंडपम तिरुमला राय मंडपम, आईना महल, ध्वजस्तंभ मंडपम, नदिमी पडी कविली, विमान प्रदक्षिणम, श्री वरदराजस्वामी श्राइन पोटु आदि।

कहा जाता है कि इस मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय से हुई है। यह संप्रदाय समानता और प्रेम के सिद्धांत को मानता है। इस मंदिर की महिमा का वर्णन विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। माना जाता है कि भगवान वैंकटेश्‍वर का दर्शन करने वाले हरेक व्यक्ति को उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। हालांकि दर्शन करने वाले भक्‍तों के लिए यहां विभिन्‍न जगहों तथा बैंकों से एक विशेष्‍ा पर्ची कटती है। इसी पर्ची के माध्‍यम से आप यहां भगवान वैंकटेश्‍वर के दर्शन कर सकते है।

देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में तिरुपति बालाजी मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। देश-विदेश के कई बड़े उद्योगपति, फिल्म सितारे और राजनेता यहां अपनी उपस्थिति देते हैं.

धार्मिक मान्यता के अनुसार तिरुपति बालाजी मंदिर को कलयुग का वैकुंठ भी कहा जाता है. भगवान वेंकटेश्वर को श्रीनिवासा, बालाजी और गोविंदा के नाम से भी जानते हैं. आपने देखा या सुना होगा कि भगवान वेंकटेश्वर की आंखें हमेशा बंद रहती है जबकि अन्य मंदिरों में देवी-देवताओं की आंखें बंद नही रहती हैं


तिरुपति बालाजी की आंखें बंद रखते है

धार्मिक मान्यता के मुताबिक भगवान वेंकटेश्वर का कलयुग में निवास तिरुपति मंदिर माना जाता है. यह मंदिर आंध्र प्रदेश के तिरुपति जिले के पहाड़ी शहर तिरुमला में स्थित है. भगवान श्रीहरि के अवतार वेंकटेश्वर को उनकी शक्तिशाली और चमकीली आंखों के लिए जाना जाता है. कहा जाता है कि उनके भक्त भगवान वेंकटेश्वर की आंखों में सीधा नहीं देख सकते हैं, क्योंकि उनकी आंखें ब्रह्मांडीय ऊर्जा से परे हैं. इसी वजह से उनकी आंखों को मुखौटे से ढक दिया जाता है. वहीं, सिर्फ गुरुवार के दिन भगवान वेंकटेश्वर की आंखों से सफेद मुखौटा बदला जाता है. ऐसे में भक्त सिर्फ उसी दौरान पलभर के लिए भगवान वेंकटेश्वर की आंखों का दर्शन कर सकते हैं.

कैसे ढकी जाती हैं बालाजी की आंखें?

मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर की आंखें पंच कपूर से ढकी जाती हैं. धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, तिरुपति बालाजी की आंखें हमेशा खुली रहती हैं और इनकी आंखों में काफी तेज है, जिसे सीधी नहीं देखा जा सकता है. इसलिए भगवान की आंखें हमेशा कपूर से ढकी जाती हैं. ऐसे में भक्त सिर्फ गुरुवार के दिन ही भगवान वेंकटेश्वर की आंखों का दर्शन कर सकते हैं.

गुरुवार को होता है बालाजी का श्रृंगार

सप्ताह के हर गुरुवार पर भगवान वेंकटेश्वर को चंदन से स्नान कराया जाता है और फिर उनकी मूर्ति पर चंदन का लेप लगाया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि उनके हृदय पर चंदन का लेप लगाने से मां लक्ष्मी की छवि दिखने लग जाती है

बालाजी की माला में होते हैं 27 तरह के फूल

तिरुपति बालाजी के लिए रोजाना 100 फीट लंबी माला बनाई जाती है. उनको 27 तरह के फूल की मालाएं पहनाई जाती हैं. बताया जाता है कि सभी मालाओं में लगे फूल अलग-अलग वाटिकाओं से मंगाए जाते हैं. तो वहीं, वैकुंठोत्सव और ब्रह्मोत्सव के मौके पर विदेशों से भी फूल मगंवाए जाते हैं

तिरुपति बालाजी मंदिर का इतिहास-

इस मंदिर का निर्माण करीब तीसरी शाताब्दी के आसपास में हुआ है और इसका निर्माण समय-समय पर विभिन्न वंशों के शासकों द्वारा जीर्णोद्धार किया गया है। 5वीं शताब्दी तक इस मंदिर ने सनातन धर्म के प्रमुख केंद्र के रूप में बढ़त चढ़त किया। इस मंदिर की उत्पत्ति का श्रेय वैष्णव संप्रदाय को जाता है। 9वीं शताब्दी में कांचीपुरम के पल्लव शासकों ने इसे अपने अधीन किया था। 15वीं शताब्दी के बाद इस मंदिर को प्रसिद्धि मिली और यह प्रसिद्धि आज भी बरकरार है।

तिरुपति बालाजी मंदिर की पौराणिक मान्यता

भगवान विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक सरोवर के किनारे निवास किया था। जो तिरुमाला के पहाड़ी पर स्थित है। इसके कारण तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियां शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनी ‘सप्तगिरि’ कहलाती हैं। इस मंदिर का स्थान सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर है। जिसे वेंकटाद्री भी कहा जाता है। मंदिर में स्थित प्रभु की प्रतिमा किसी द्वारा बनाई नहीं गई है बल्कि यह स्वयं ही उत्पन्न हुई है।

तिरुपति बालाजी मंदिर में मनाए जाने वाले त्योहार

 तिरुपति बालाजी के मंदिर में कौन – कौन से त्यौहार मनाये जाते है|

मान्यताओं के अनुसार भगवान तिरुपति बालाजी का मंदिर सर्वाधिक लोकप्रिय माना जाता है| इस तिरुपति बालाजी मंदिर में प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग तिरुपति बालाजी के दर्शन करने के लिए आते है तथा बालाजी से अपनी सभी समस्याओं को हल करने के लिए प्रार्थना करते है| हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है| भगवान विष्णु ने इस मानवता को कलयुग की परेशानियों व कठिनाइयों से बचाने के लिए भगवान वेंकटेश्वर के रूप में इस धरती पर अवतरित हुए थे|

 

ब्रह्मोत्सवम:

यह तिरुपति बालाजी मंदिर में मनाया जाने वालासबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है| यह त्यौहार कुल नौ दिनों तक मनाया जाता है| जिसकी शुरुआत सितम्बर या फिर अक्टूबर के महीने में आ जाती है| इस त्यौहार की शुरुआत “ध्वज स्तंभम”  नामक एक खम्भे पर झंडे को फहराने से की जाती है| इस त्यौहार सभी भक्तों के द्वारा बहुत ही खुशहाली और भक्ति के भाव 

रथसप्तमी: –

यह त्यौहार फरवरी के महीने में मनाया जाता है| रथसप्तमी का त्यौहार चंद्रमा के बढ़ते हुए चरण को दर्शाता है तथा यह सूर्य देव को समर्पित किया गया है| माना जाता है कि इस दिन सूर्य भगवान अपनी दिशा दक्षिण पूर्व से उत्तर पूर्व की और बदल जाता है| इसी कारण इस दिन से वसंत ऋतू का आरम्भ हो जाता है|

उगादि: –

तेलगु नव वर्ष को ही उगादि के नाम से भी जाना जाता है जो कि मार्च या अप्रैल के महीने में मनाया जाता है| तेलगु लोग इस त्यौहार को बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाते है| इस शुभ अवसर पर भगवान तिरुपति के मंदिर को आम का पत्तों की सहायता से सजाया जाता है| इस त्यौहार की मुख्य प्रथा “पंचांग श्रवणं” है जिसमे पुजारी ज्योतिष विद्या की सहायता से आगे के समय में होने वाली घटनाओं की भविष्यवाक

तिरुपति बालाजी की कहानी

तिरुपति बाला मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर की प्रतिमा अलौकिक है। यह विशेष पत्थर से बनी है। यह प्रतिमा इतनी जीवंत है कि ऐसा प्रतीत होता है जैसे भगवान विष्णु स्वयं यहां विराजमान हैं। भगवान की प्रतिमा को पसीना आता है, पसीने की बूंदें देखी जा सकती हैं। इसलिए मंदिर में तापमान कम रखा जाता है। तिरुपति बालाजी मंदिर से जुड़ी  दो कथाएं  है। पहली कथा उनके वराह अवतार से जुड़ी है और दूसरी कथा माता लक्ष्मी और उनके वेंकटेश्‍वर रूप से जुड़ी हुई है।

पहली कथा :आदि काल में धरती पर जल ही जल हो गया था। यानी पैर रखने के लिए कोई जमीन नहीं बची थी। कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पवन देव ने भारी अग्नि को रोकने के लिए उग्र रूप से उड़ान भरी जिससे बादल फट गए और बहुत बारिश हुई और धरती जलमग्न हो गई। धरती पर पुन: जीवन का संचार करने के लिए श्रीहरि विष्णु ने तब आदि वराह अवतार लिया।उन्होंने अपने इस अवतार में जल के भीतर की धरती को ऊपर तक अपने तुस्क का उपयोग करके खींच लिया। इसके बाद पुन: ब्रह्मा के योगबल से लोग रहने लगे और आदि वराह ने तब बाद में ब्रह्मा के अनुरोध पर एक रचना का रूप धारण किया और अपने बेहतर आधे (4 हाथों वाले भूदेवी) के साथ कृदचला विमना पर निवास किया और लोगों को ध्यान योग और कर्म योग जैसे ज्ञान और वरदान देने का फैसला किया।

दूसरी कथा: पौराणिक सागर-मंथन की गाथा के अनुसार जब सागर मंथन किया गया था तब कालकूट विष के अलावा चौदह रत्‍‌न निकले थे। इन रत्‍‌नों में से एक देवी लक्ष्मी भी थीं। लक्ष्मी के भव्य रूप और आकर्षण के फलस्वरूप सारे देवता, दैत्य और मनुष्य उनसे विवाह करने हेतु लालायित थे, किन्तु देवी लक्ष्मी को उन सबमें कोई न कोई कमी लगी। अत: उन्होंने समीप निरपेक्ष भाव से खड़े हुए विष्णुजी के गले में वरमाला पहना दी। विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को अपने वक्ष पर स्थान दिया।

यह रहस्यपूर्ण है कि विष्णुजी ने लक्ष्मीजी को अपने ह्वदय में स्थान क्यों नहीं दिया? महादेव शिवजी की जिस प्रकार पत्‍‌नी अथवा अर्धाग्नि पार्वती हैं, किन्तु उन्होंने अपने ह्वदयरूपी मानसरोवर में राजहंस राम को बसा रखा था उसी समानांतर आधार पर विष्णु के ह्वदय में संसार के पालन हेतु उत्तरदायित्व छिपा था। उस उत्तरदायित्व में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हो इसलिए संभवतया लक्ष्मीजी का निवास वक्षस्थल बना।

एक बार धरती पर विश्व कल्याण हेतु यज्ञ का आयोजन किया गया। तब समस्या उठी कि यज्ञ का फल ब्रम्हा, विष्णु, महेश में से किसे अर्पित किया जाए। इनमें से सर्वाधिक उपयुक्त का चयन करने हेतु ऋषि भृगु को नियुक्त किया गया। भृगु ऋषि पहले ब्रम्हाजी और तत्पश्चात महेश के पास पहुंचे किन्तु उन्हें यज्ञ फल हेतु अनुपयुक्त पाया। अंत में वे विष्णुलोक पहुंचे। विष्णुजी शेष शय्या पर लेटे हुए थे और उनकी दृष्टि भृगु पर नहीं जा पाई। भृगु ऋषि ने आवेश में आकर विष्णु जी के वक्ष पर ठोकर मार दी। अपेक्षा के विपरीत विष्णु जी ने अत्यंत विनम्र होकर उनका पांव पक़ड लिया और नम्र वचन बोले- हे ऋषिवर! आपके कोमल पांव में चोट तो नहीं आई? विष्णुजी के व्यवहार से प्रसन्न भृगु ऋषि ने यज्ञफल का सर्वाधिक उपयुक्त पात्र विष्णुजी को घोषित किया। उस घटना की साक्षी विष्णुजी की पत्‍‌नी लक्ष्मीजी अत्यंत क्रुद्व हो गई कि विष्णुजी का वक्ष स्थान तो उनका निवास स्थान है और वहां धरतीवासी भृगु को ठोकर लगाने का किसने अधिकार दिया? उन्हें विष्णुजी पर भी क्रोध आया कि उन्होंने भृगु को दंडित करने की अपेक्षा उनसे उल्टी क्षमा क्यों मांगी? परिणामस्वरूप लक्ष्मीजी विष्णुजी को त्याग कर चली गई। विष्णुजी ने उन्हें बहुत ढूंढा किन्तु वे नहीं मिलीं।

अंतत: विष्णुजी ने लक्ष्मी को ढूंढते हुए धरती पर श्रीनिवास के नाम से जन्म लिया और संयोग से लक्ष्मी ने भी पद्मावती के रूप में जन्म लिया। घटनाचक्र ने उन दोनों का अंतत: परस्पर विवाह करवा दिया। सब देवताओं ने इस विवाह में भाग लिया और भृगु ऋषि ने आकर एक ओर लक्ष्मीजी से क्षमा मांगी तो साथ ही उन दोनों को आशीर्वाद प्रदान किया।

लक्ष्मीजी ने भृगु ऋषि को क्षमा कर दिया किन्तु इस विवाह के अवसर पर एक अनहोनी घटना हुई। विवाह के उपलक्ष्य में लक्ष्मीजी को भेंट करने हेतु विष्णुजी ने कुबेर से धन उधार लिया जिसे वे कलियुग के समापन तक पूरा कर्ज ब्याज सहित चुका देंगे। ऐसी मानता है कि जब भी कोई भक्त तिरूपति बालाजी के दर्शनार्थ जाकर कुछ चढ़ाता है तो वह न केवल अपनी श्रद्धा भक्ति अथवा आर्त प्रार्थना प्रस्तुत करता है अपितु भगवान विष्णु के ऊपर कुबेर के ऋण को चुकाने में सहायता भी करता है। अत: विष्णुजी अपने ऐसे भक्त को खाली हाथ वापस नहीं जाने देते हैं।

इसीलिए भगवान के इस रूप में मां लक्ष्मी भी समाहित हैं इसीलिए यहां बालाजी को स्त्री और पुरुष दोनों के वस्त्र पहनाने की यहां परम्परा है। बालाजी को प्रतिदिन नीचे धोती और उपर साड़ी से सजाया जाता है।

वास्तुकला

तिरूपति मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का अनुसरण करता है। गर्भगृह या गर्भगृह को आनंद निलयम कहा जाता है, जिसके प्रमुख देवता भगवान वेंकटेश्वर हैं, जिनका मुख पूर्व दिशा की ओर है। गर्भगृह तक जाने वाले तीन द्वारम (प्रवेश द्वार) हैं। बाहरी परिसर की दीवार से महाद्वारम, वेंडीवाकिली, आंतरिक परिसर की दीवार के माध्यम से चांदी का प्रवेश द्वार और बंगारुवाकिली, स्वर्ण प्रवेश द्वार जो गर्भगृह में जाता है।

मंदिर के चारों ओर दो परिक्रमा पथ हैं – संपांगीप्रदक्षिणम् और विमानप्रदक्षिणम्। इष्टदेव खड़ी मुद्रा में हैं और उनके चार हाथ हैं, एक हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है, एक जांघ पर है और अन्य दो हाथ शंख और चक्र पकड़े हुए हैं।

तिरूपति मंदिर न केवल अपने धार्मिक महत्व के लिए बल्कि अपनी स्थापत्य प्रतिभा के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर परिसर द्रविड़ वास्तुकला का एक शानदार उदाहरण है, जो इसके विशाल गोपुरम (प्रवेश द्वार), जटिल नक्काशीदार स्तंभों और उत्कृष्ट मूर्तियों द्वारा पहचाना जाता है।

भगवान वेंकटेश्वर का निवास मुख्य मंदिर, मंदिर परिसर के केंद्र में स्थित है। गर्भगृह, जिसे गर्भगृह के नाम से जाना जाता है, सोने से ढके विमान (मीनार) से सुशोभित है। भगवान वेंकटेश्वर की मूर्ति काले पत्थर से बनी है और लगभग 8 फीट ऊंची है। यह सोने और कीमती रत्नों से सुसज्जित है, जो मंदिर के भक्तों की समृद्धि और भक्ति का प्रतीक है।

मंदिर की सबसे प्रतिष्ठित विशेषताओं में से एक विशाल राजगोपुरम, मुख्य प्रवेश द्वार टॉवर है। लगभग 140 फीट ऊंची, यह एक भव्य संरचना है जो हिंदू पौराणिक कथाओं के विभिन्न प्रसंगों को दर्शाती जटिल मूर्तियों और नक्काशी से सुसज्जित है।

मंदिर में भगवान राम, भगवान कृष्ण और देवी लक्ष्मी सहित विभिन्न देवताओं को समर्पित कई अन्य छोटे मंदिर भी हैं। इनमें से प्रत्येक मंदिर उन कारीगरों की कलात्मक और स्थापत्य उत्कृष्टता का प्रमाण है जिन्होंने मंदिर के निर्माण में योगदान दिया था।

आध्यात्मिक महत्व

तिरूपति मंदिर हिंदुओं के लिए अत्यधिक आध्यात्मिक महत्व रखता है, और इसे अक्सर “आंध्र प्रदेश की आध्यात्मिक राजधानी” के रूप में जाना जाता है। भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद लेने के लिए हर साल दुनिया भर से लाखों भक्त मंदिर में आते हैं। मंदिर की तीर्थयात्रा कई हिंदुओं के लिए आध्यात्मिक यात्रा का एक अनिवार्य हिस्सा मानी जाती है।


भक्तों का मानना ​​है कि तिरूपति मंदिर की यात्रा और भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन से आशीर्वाद मिलेगा, पाप दूर होंगे और उनकी इच्छाएं पूरी होंगी। देवता को प्रसाद के रूप में अपने बाल मुंडवाने की प्रथा भक्तों के बीच एक सामान्य अनुष्ठान है। मंदिर प्रसिद्ध सुप्रभातम, थोमाला, अर्चना और अभिषेकम सहित विभिन्न सेवा (धार्मिक सेवाएं) और अनुष्ठान भी आयोजित करता है, जिसमें भक्त भाग ले सकते हैं।

यह मंदिर अपने धार्मिक महत्व के अलावा दान और सेवा का भी प्रतीक है। निःशुल्क भोजन वितरण की परंपरा, जिसे “धन अन्नप्रसादम” के नाम से जाना जाता है, यह सुनिश्चित करती है कि मंदिर में दर्शन के दौरान कोई भी भक्त भूखा न रहे।

तिरुपति बालाजी में बाल कटवाने का कारण

बाल दान दने के पीछे का कारण यह माना जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर कुबेर से लिए गए ऋण को चुकाते हैं। कथा अनुसार जब भगवान वेंकटेश्वर का पद्मावती से विवाह हुआ था। तब एक परंपरा के अनुसार वर को शादी से पहले कन्या के परिवार को एक तरह का शुल्क देना होता था, लेकिन भगवान वेंकटेश्वर ये शुल्क देने में असमर्थ थे, इसलिए उन्होंने कुबेर देवता से ऋण लेकर पद्मावती से विवाह किया और वचन दिया कि कलयुग के अंत तक वे कुबेर का सारा ऋण चुका देंगे।

उन्होंने देवी लक्ष्मी की ओर से भी वचन देते हुए कहा कि जो भी भक्त उनका ऋण लौटाने में उनकी मदद करेंगे देवी लक्ष्मी उन्हें उसका दस गुना ज्यादा धन देंगी। इस कारण तिरुपति जाने वाले विष्णु भगवान पर आस्था रखने वाले भक्त बालों का दान कर भगवान विष्णु का ऋण चुकाने में उनकी मदद करते हैं।

तिरूपति मंदिर के बारे में 10 रोचक तथ्य

बालाजी के वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी निवास करती हैं। हर गुरूवार को निजरूप दर्शन के समय भगवान बालाजी की चंदन से सजावट की जाती है उस चंदन को निकालने पर लक्ष्मीजी की छवी उस पर उतर आती है। बाद में उसे बेचा जाता है।

भगवान वेंकेटेश्वर की प्रतिमा पर पचाई कपूर लगाया जाता है। कहा जाता है कि यह कपूर किसी भी पत्थर पर लगाया जाता है तो पत्थर में कुछ समय में दरारें पड़ जाती हैं। लेकिन भगवान बालाजी की प्रतिमा पर पचाई कपूर का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

एक अनजान गांव का रहस्य

मंदिर से 23 किलोमीटर दूर एक गाँव है, उस गाँव में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश निषेध है। वहाँ पर लोग नियम से रहते हैं। वहां की महिलाएँ ब्लाउज नहीं पहनती। वहीँ से लाए गये फूल भगवान को चढाए जाते है और वहीँ की ही वस्तुओं को चढाया जाता है जैसे- दूध,घी, माखन आदि।इस छोटे से गाँव को अपने लोगों के अलावा किसी बाहरी व्यक्ति ने कभी देखा या दौरा नहीं किया है।

देवता की मूर्ति मध्य में नहीं है

भगवान तिरूपति बालाजी की जो मूर्ति रखी गई है वह गर्भगृह के मध्य में खड़ी हुई प्रतीत हो सकती है, लेकिन तकनीकी रूप से ऐसा नहीं है। मूर्ति वास्तव में मंदिर के दाहिने कोने में स्थित है।

बालाजी के असली बाल

भगवान बालाजी द्वारा पहने गए बाल रेशमी, चिकने, उलझन रहित और बिल्कुल असली हैं। उन दोषरहित बालों के पीछे की कहानी इस प्रकार है – भगवान बालाजी ने, पृथ्वी पर अपने शासनकाल के दौरान, एक अप्रत्याशित दुर्घटना में अपने कुछ बाल खो दिए थे। नीला देवी नाम की एक गंधर्व राजकुमारी ने तुरंत इस घटना पर ध्यान दिया और अपने शानदार बाल का एक हिस्सा काट दिया। उसने विनम्रतापूर्वक अपनी कटी हुई जटाएँ देवता को अर्पित कीं और उनसे उन्हें अपने सिर पर लगाने का अनुरोध किया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान ने इस तरह की भेंट स्वीकार कर ली और वादा किया कि जो कोई भी उनके मंदिर में आएगा और उनके चरणों में अपने बाल चढ़ाएगा, उसे आशीर्वाद मिलेगा। तब से, भक्तों के बीच अपनी इच्छा पूरी होने से पहले या बाद में मंदिर में अपना सिर मुंडवाने की प्रथा रही है।

आप विश्वास करने के लिए सुनना चाह सकते हैं, लेकिन अपरिवर्तनीय सत्य यह है कि यदि कोई मंदिर में स्थित देवता की छवि के पीछे अपना कान रखता है तो विशाल समुद्री लहरों की आवाज़ सुनी जा सकती है।

निरंतर जलते दीपक,

ईश्वर के प्रति एक उत्साही भक्त के हृदय की रोशनी कभी नहीं बुझती, उसी प्रकार तिरूपति बालाजी मंदिर के गर्भगृह में देवता की मूर्ति के सामने रखे गए मिट्टी के दीपक भी बुझते नहीं हैं। ये दीपक कब जलाए गए और किसने जलाए, इसके बारे में कोई विश्वसनीय रिकॉर्ड नहीं है। बस इतना पता है कि ये बहुत पहले से जल रहे हैं और जलते रहेंगे.

वेंकटेश्वर स्वामी एक बार साक्षात् प्रकट हुए थे

बहुत पहले, 19वीं सदी के भारत में, क्षेत्र के राजा ने एक जघन्य अपराध करने के लिए बारह लोगों को मौत की सजा दी थी। उनमें से बारह को मृत्यु तक उनकी गर्दनों से फाँसी पर लटका दिया गया। मृत्यु के बाद, मृत अपराधियों के शरीर को बालाजी के मंदिर की दीवारों पर लटका दिया गया था। उसी समय देवता स्वयं प्रकट हुए।

धुंधली मूर्ति

एक अज्ञात कारण से, पुजारियों द्वारा इसे सूखा रखने के लिए कड़ी मेहनत करने के बावजूद, मूर्ति की पीठ हमेशा नम रहती है।

भगवान को चढ़ाए गए फूल वेरपेडु में निकलते हैं

नियम पुस्तिका के अनुसार, मंदिर के पुजारी सुबह की पूजा के दौरान भगवान बालाजी को चढ़ाए गए फूलों को गर्भगुड़ी या गर्भगृह से बाहर नहीं फेंकते हैं। इसलिए, उन्हें मूर्ति के पिछले हिस्से के पीछे बहने वाले झरनों में फेंक दिया जाता है। हालाँकि, पुजारी बाकी दिन पवित्र देवता के पिछले हिस्से को देखने से बचते हैं। हैरानी की बात यह है कि फेंके गए फूलों को येरपेडु नाम की जगह पर देखा जा सकता है जो कि तिरूपति से 20 किलोमीटर दूर है।

मूर्ति मजबूत रासायनिक प्रतिक्रिया से बच जाती है

यह वैज्ञानिक रूप से ज्ञात तथ्य है कि जब कच्चे कपूर या हरे कपूर (पचाई कर्पूरम), सिनामोमम कैम्फोरा पेड़ का व्युत्पन्न, किसी भी पत्थर पर लगाया जाता है, तो इससे वस्तु पर  दरारें पड़ जाती हैं। हालाँकि, श्री तिरूपति बालाजी की मूर्ति कपूर की अस्थिर रासायनिक प्रतिक्रियाओं के प्रति प्रतिरोधी है और इस पर कोई निशान नहीं पड़ता है, भले ही यह अधिकांश समय इस पदार्थ से सनी रहती है।

पसीने से तर देवता

भगवान बालाजी की छवि भले ही पत्थर से बनाई गई हो, लेकिन अगर रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए तो यह पूरी तरह से जीवन से भरपूर और बहुत जीवंत है। पवित्र देवता की मूर्ति 110 डिग्री फ़ारेनहाइट का तापमान बनाए रखती है, भले ही मंदिर की खड़ी स्थिति (3000 फीट) के कारण आसपास का वातावरण ठंडा हो। हर सुबह, अभिषेकम के नाम से जाने जाने वाले पवित्र स्नान के बाद, बालाजी की छवि पर पसीने की बूंदें दिखाई देती हैं जिन्हें पुजारियों द्वारा रेशमी कपड़े से पोंछना पड़ता है। गुरुवार को, जब पुजारी पवित्र स्नान के लिए मूर्ति के आभूषण उतारते हैं, तो वे गर्मी की अनुभूति के साथ निकलते हैं।

अन्य मंदिर

श्री पद्मावती समोवर मंदिर
तिरुचनूर (इसे अलमेलुमंगपुरम भी कहते हैं) तिरुपति से पांच किमी. दूर है।यह मंदिर भगवान श्री वेंकटेश्वर विष्णु की पत्नी श्री पद्मावती लक्ष्मी जी को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमला की यात्रा तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक इस मंदिर के दर्शन नहीं किए जाते।

तिरुमला में सुबह 10.30 बजे से दोपहर 12 बजे तक कल्याणोत्सव मनाया जाता है। यहां दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाता हैं। शुक्रवार को दर्शन सुबह 8बजे के बाद शुरु होता हैं। तिरुपति से तिरुचनूर के बीच दिनभर बसें चलती हैं।


श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर

श्री गोविंदराजस्वामी भगवान बालाजी के बड़े भाई हैं। यह मंदिर तिरुपति का मुख्‍य आकर्षण है। इसका गोपुरम बहुत ही भव्य है जो दूर से ही दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण संत रामानुजाचार्य ने 1130 ईसवी में की थी। गोविंदराजस्वामी मंदिर में होने वाले उत्सव और कार्यक्रम वैंकटेश्वर मंदिर के समान ही होते हैं। वार्षिक बह्मोत्‍सव वैसाख मास में मनाया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में संग्रहालय और छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें भी पार्थसारथी, गोड़ादेवी आंदल और पुंडरिकावल्ली का मंदिर शामिल है। मंदिर की मुख्य प्रतिमा शयनमूर्ति (भगवान की निंद्रालीन अवस्था) है। दर्शन का समय है- प्रात: 9.30 से दोपहर 12.30, दोपहर 1.00 बजे से शाम 6 बजे तक और शाम 7.00 से रात 8.45 बजे तक

श्री कोदंडरामस्वमी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति के मध्य में   स्थित है। यहां सीता, राम और लक्ष्मण की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण चोल राजा ने दसवीं शताब्दी में कराया था। इस मंदिर के ठीक सामने अंजनेयस्वामी का मंदिर है जो श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर का ही उपमंदिर है। उगडी और श्री रामनवमी का पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर

कपिला थीर्थम भारत के आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति में स्थित एक प्रसिद्ध शिव मंदिर और थीर्थम है। यह मूर्ति कपिला मुनि द्वारा स्थापित की गई था और इसलिए यहां भगवान शिव को कपिलेश्वर के रूप में जाना जाता है। यह तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है। यह तिरुपति शहर से तीन किमी.दूर उत्तर में, तिरुमला की पहाड़ियों के नीचे ओर तिरुमाला जाने के मार्ग के बीच में स्थित है कपिल तीर्थम जाने के लिए बस, ऑटो रिक्शा यातायात का मुख्य साधन हैं ओर सरलता से उपलब्ध भी है।

यहां पर कपिला तीर्थम नामक पवित्र नदी भी है। जो सप्तगिरी पहाड़ियों में से बहती पहाड़ियों से नीचे कपिल तिर्थम मे आती हैं जो अति मनोरम्य लगता हैं। इसे अलिपिरि तीर्थम के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर श्री वेनुगोपाल ओर लक्ष्मी नारायण के साथ गौ माता कामधेनु कपिला गाय व हनुमानजी का अनुपम मंदिर भी स्थित हैं।


यहां महाबह्मोत्‍सव, महा शिवरात्रि, स्खंड षष्टी और अन्नभिषेकम बड़े धूमधाम से मनाया जाता हैं। वर्षा ऋतु में झरने के आसपास का वातावरण बहुत ही मनोरम होता है।

श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति से 12 किमी.पश्चिम में श्रीनिवास मंगापुरम में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने से पहले भगवान वेंकटेश्वर यहां ठहरे थे। यहां स्थापित भगवान वेंकटेश्वर की पत्थर की विशाल प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों, आभूषणों और फूलों से सजाया गया है। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव और साक्षात्कार वैभवम यहां धूमधाम से मनाया जाता है।

श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति से 40 किमी दूर, नारायणवनम में स्थित है। भगवान श्री वेंकटेश्वर और राजा आकाश की पुत्री देवी पद्मावती यही परिणय सूत्र में बंधे थे। यहां मुख्य रूप से श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी की पूजा होती है। यहां पांच उपमंदिर भी हैं। श्री देवी पद्मावती मंदिर, श्री आण्डाल मंदिर, भगवान रामचंद्र जी का मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर। इसके अलवा मुख्य मंदिर से जुड़े पांच अन्य मंदिर भी हैं। श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव मुख्य मंदिर श्री वीरभद्रस्वामी मंदिर और अवनक्शम्मा मंदिर में मनाया जाता है।

श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर

नगलपुरम का यह मंदिर तिरुपति से 70 किमी दूर है। माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मत्‍स्‍य अवतार लेकर सोमकुडु नामक राक्षस का यहीं पर संहार किया था। मुख्य गर्भगृह में विष्णु की मत्स्य रूप में प्रतिमा स्‍थापित है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। भगवान द्वारा धारण किया हुआ सुदर्शन चक्र सबसे अधिक आकर्षक लगता है। इस मंदिर का निर्माण विजयनगर के राजा श्री कृष्णदेव राय ने करवाया था। यह मंदिर विजयनगर की वास्तुकला के दर्शन कराता है। मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य उत्सव ब्रह्मोत्सव और सूर्य पूजा है। यह पूजा फाल्‍गुन मास की 12वीं, 13वीं और 14वीं तिथि को होती है। इस दौरान सूर्य की किरण प्रात: 6बजे से 6.15 मिनट तक मुख्य प्रतिमा पर पड़ती हैं। ऐसा लगता है मानो सूर्य देव स्वयं भगवान की पूजा कर रहे हों।

श्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति से 58 किमी. दूर, कारवेतीनगरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा स्थापित है। उनके साथ उनकी पत्नियां श्री रुक्मणी अम्मवरु और श्री सत्सभामा अम्मवरु की भी प्रतिमा स्‍थापित हैं। यहां एक उपमंदिर भी है।

श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर

माना जाता है कि श्री पद्मावती अम्मवरु से विवाह के पश्चात् श्री वैंक्टेश्वरस्वामी अम्मवरु ने यहीं, अप्पलायगुंटा पर श्री सिद्धेश्वर और अन्य शिष्‍यों को आशीर्वाद दिया था। अंजनेयस्वामी को समर्पित इस मंदिर का निर्माण करवेतीनगर के राजाओं ने करवाया था। कहा जाता है कि आनुवांशिक रोगों से ग्रस्त रोगी अगर यहां आकर वायुदेव की प्रतिमा के आगे प्रार्थना करें तो भगवान जरुर सुनते हैं। यहां देवी पद्मावती और श्री अंदल की मूर्तियां भी हैं। साल में एक बार ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है।

श्री चेन्नाकेशवस्वामी मंदिर

तल्लपका तिरुपति से 100 किमी. दूर है। यह श्री अन्नामचार्य (संकीर्तन आचार्य) का जन्मस्थान है। अन्नामचार्य श्री नारायणसूरी और लक्कामअंबा के पुत्र थे। अनूश्रुति के अनुसार करीब 1000 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण और प्रबंधन मत्ती राजाओं द्वारा किया गया था।

श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर

श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर (इसे श्री पेरुमला स्वामी मंदिर भी कहते हैं) तिरुपति से 51 किमी. दूर नीलगिरी में स्थित है। माना जाता है कि यहीं पर प्रभु महाविष्णु ने मकर को मार कर गजेंद्र नामक हाथी को बचाया था। इस घटना को महाभगवतम में गजेंद्रमोक्षम के नाम से पुकारा गया है।

श्री अन्नपूर्णा-काशी विश्वेश्वरस्वामी

कुशस्थली नदी के किनारे बना यह मंदिर तिरुपति से 56 किमी. की दूरी पर,बग्गा अग्रहरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से श्री काशी विश्वेश्वर, श्री अन्नपूर्णा अम्मवरु, श्री कामाक्षी अम्मवरु और श्री देवी भूदेवी समेत श्री प्रयाग माधव स्वामी की पूजा होती है। महाशिवरात्रि और कार्तिक सोमवार को यहां विशेष्‍ा आयोजन किया जाता है।

स्वामी पुष्करिणी

इस पवित्र जलकुंड के पानी का प्रयोग केवल मंदिर के कामों के लिए ही किया जा सकता है। जैसे भगवान के स्नान के लिए, मंदिर को साफ करने के लिए, मंदिर में रहने वाले परिवारों (पंडित, कर्मचारी) द्वारा आदि। कुंड का जल पूरी तरह स्वच्छ और कीटाणुरहित है। यहां इसे पुन:चक्रित किए जाने व्यवस्था की भी व्‍यवस्‍था की गई है।

माना जाता है कि वैकुंठ में विष्णु पुष्‍करिणी कुंड में ही स्‍नान करते है, इसलिए श्री गरुड़जी ने श्री वैंकटेश्वर के लिए इसे धरती पर लेकर आए थे। यह जलकुंड मंदिर से सटा हुआ है। यह भी कहा जाता है कि पुष्करिणी के दर्शन करने से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं और भक्त को सभी सुख प्राप्त होते हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व भक्त यहां दर्शन करते हैं। ऐसा करने से शरीर व आत्मा दोनों पवित्र हो जाते हैं।

आकाशगंगा जलप्रपात

आकाशगंगा जलप्रपात तिरुमला मंदिर से तीन किमी. उत्तर में स्थित है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि इसी जल से भगवान को स्‍नान कराया जाता है। पहाड़ी से निकलता पानी तेजी से नीचे धाटी में गिरता है। बारिश के दिनों में यहां का दृश्‍य बहुत की मनमोहक लगता है।

श्री वराहस्वामी मंदिर

तिरुमला के उत्तर में स्थित श्री वराहस्वामी का प्रसिद्ध मंदिर पुष्किरिणी के किनारे स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वराह स्वामी को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि तिरुमला मूल रूप से आदि वराह क्षेत्र था और वराह स्वामी की अनुमति के बाद ही भगवान वैंकटेश्वर ने यहां अपना निवास स्थान बनाया। ब्रह्म पुराण के अनुसार नैवेद्यम सबसे पहले श्री वराहस्वामी को चढ़ाना चाहिए और श्री वैंकटेश्वर मंदिर जाने से पहले यहां दर्शन करने चाहिए। अत्री समहित के अनुसार वराह अवतार की तीन रूपों में पूजा की जाती है: आदि वराह, प्रलय वराह और यजना वराह। तिरुमला के श्री वराहस्वामी मंदिर में इनके आदि वराह रूप में दर्शन होते हैं।

श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर

स्वामी पुष्किरिणी के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर श्री वराहस्वामी मंदिर के ठीक सामने है। यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। यहां स्थापित भगवान की प्रतिमा के हाथ प्रार्थना की अवस्था मे हैं।  भगवान का अभिषेक रविवार के दिन होता है और यहां हनुमान जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।

टीटीडी गार्डन

इस गार्डन का कुल क्षेत्रफल 460 एकड़ है। तिरुमला और तिरुपति के आस-पास बने इन खूबसूरत बगीचों से तिरुमला के मंदिरों के सभी जरुरतों को पुरा किया जाता है। इन फूलों का प्रयोग भगवान और मंडप को सजाने, पंडाल निर्माण में किया जाता है।

ध्यान मंदिरम

मूल रूप से यह श्री वैंकटेश्वर संग्रहालय था। जिसकी स्थापना 1980 में की गई थी। पत्थर और लकड़ी की बनी वस्तुएं, पूजा सामग्री, पारंपरिक कला और वास्तुशिल्प से संबंधित वस्‍तुओं का इसमे  प्रदर्शन किया गया है।

तिरुमाला तिरूपति के दर्शन के लाभ

कई पुराणों (धार्मिक ग्रंथों) का दावा है कि तिरूपति बालाजी मंदिर में भगवान वेनटेश्वर की पूजा करना और उनका दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करना मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करने और जन्म और मृत्यु के चक्र से स्वयं को मुक्त करने का एक निश्चित तरीका है। मंदिर की पवित्रता का उल्लेख कई पुराणों जैसे गरुड़ पुराण, वराह पुराण, मार्कंडेय पुराण, ब्रह्म पुराण आदि में किया गया है।

सात पहाड़ियों के भगवान अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करते हैं और उन्हें शांतिपूर्ण और समृद्ध जीवन का आशीर्वाद देते हैं। जो लोग भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन के लिए आते हैं, उन्हें तीर्थ स्थलों के दर्शन, ऋषियों से मिलने और पूर्वजों को जानने का पूरा लाभ मिलता है।

भक्त योगदान

तिरूपति मंदिर की समृद्धि का श्रेय काफी हद तक इसके भक्तों की अटूट भक्ति को जाता है। जीवन के सभी क्षेत्रों से तीर्थयात्री और भक्त देवता को नकदी, सोना, आभूषण और भूमि सहित उदारतापूर्वक चढ़ावा देते हैं। इन प्रसादों को कृतज्ञता व्यक्त करने और भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने का एक तरीका माना जाता है।

मंदिर की हुंडी (दान पेटी) में प्रतिदिन लाखों रुपये का चढ़ावा आता है, जो इसे दुनिया के सबसे धनी धार्मिक संस्थानों में से एक बनाता है। एकत्रित धन का उपयोग मंदिर परिसर के रखरखाव और विकास के साथ-साथ टीटीडी द्वारा की जाने वाली विभिन्न धर्मार्थ गतिविधियों के लिए किया जाता है।

तिरुमाला के लिए एक प्राचीन पैदल मार्ग है, जो अलीपिरी से शुरू होता है जिसे अलीपिरी मेटलू के नाम से जाना जाता है। भगवान वेंकटेश्वर के प्रति अपनी मन्नत पूरी करने के लिए भक्त तिरुमाला से पैदल चलकर तिरुमाला पहुंचने के लिए इस मार्ग का सहारा लेंगे। इसमें कुल 3550 सीढ़ियाँ हैं जिससे 12 किमी की दूरी बनती है।

मंदिर में मुख्य द्वार के दरवाजे पर दाईं तरफ एक छड़ी है। इस छड़ी के बारे में मान्यता है कि बाल्यावस्था में इस छड़ी से ही भगवान वेंकेटेश्वर की पिटाई की गई थी जिसकी वजह से उनकी ठुड्डी पर चोट लग गई थी। तब से आज तक उनकी ठुड्डी पर शुक्रवार को चंदन का लेप लगाया जाता है। ताकि उनका घाव भर जाए।

देवताओं

मंदिर की संरचना में कई अलग-अलग देवताओं के मंदिर हैं। भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान का मंदिर उनमें से एक है। रुक्मिणी, उनकी पत्नी, विश्वक्सेन, सुग्रीव और अंगद सभी मंदिर के मंदिरों में प्रतिष्ठित हैं। भगवान विष्णु के निजी सेवक विश्वक्सेन हिंदू महाकाव्य रामायणम के एक प्रसिद्ध पात्र हैं। इन देवताओं के अलावा, पाँच अन्य प्रमुख देवता हैं:

  • तिरुमाला ध्रुव बेरा – ऐसी मान्यता है कि ध्रुव बेरा, प्रमुख देवता, ऊर्जा का स्रोत है। भगवान वेंकटेश्वर की स्वयंभू मूर्ति स्थापित की गई है। श्रीनिवास को पृथ्वी पर भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। 
  • भोग श्रीनिवास – मुख्य देवता के चरणों में स्थित, यह भगवान की चांदी की मूर्ति है। पल्लव वंश की रानी सामवई ने 614 ई. में इस मूर्ति को मंदिर को दान कर दिया था। मूर्ति को झुलाने के लिए चांदी के पालने का उपयोग किया जाता है, और उसे सुलाने के लिए सोने की खाट का उपयोग किया जाता है। 
  • उग्र श्रीनिवास – गर्भगृह के अंदर, उग्र श्रीनिवास की मूर्ति को हर दिन पवित्र जल, दूध और घी, दही आदि से साफ किया जाता है।

भगवान को चढ़ाई गई तुलसी को फेंका जाता है कुएं में

भगवान विष्णु को तुलसी के पत्ते विशेष प्रिय हैं, इसलिए इनकी पूजा में तुलसी के पत्ते का बहुत महत्व है।

इतना ही नहीं, सभी मंदिरों में भी भगवान को चढ़ाई गयीं तुलसी की पत्तियां बाद में प्रसाद के रूप में भक्तों को दी जाती हैं।

तिरूपति बालाजी में भी भगवान को रोज तुलसी की पत्तियां चढ़ाई जाती हैं, लेकिन उसे भक्तों को प्रसाद के रूप में नहीं दी जाती बल्कि मंदिर परिसर के कुंए में डाल दी जाती है।

प्रसाद

मंदिर में रोजाना बनाए जाते हैं तीन लाख लड्डू

स्थानीय लोगों द्वारा मिली जानकारी के मुताबिक, तिरुपति बालाजी मंदिर में रोजाना देसी घी के तीन लाख लड्डू बनाए जाते हैं।

हैरानी की बात तो यह है कि इन लड्डूओं के बनाने के लिए यहां के कारीगर 300 साल पुरानी पारंपरिक विधि का प्रयोग करते हैं।

बता दें कि इन लड्डूओं को तिरूपति बालाजी मंदिर की गुप्त रसोई में बनाया जाता है। इस गुप्त रसोईघर को लोग पोटू के नाम से जानते हैं।

तिरुपति बालाजी- दर्शन नियम
तिरूपति बालाजी मंदिर के सामान्य तौर पर दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि जब आप तिरुपति दर्शन करने जाते हैं तो, यहां दर्शन करने के भी कुछ नियम भी हैं।

नियम के अनुसार दर्शन करने से पहले आपको कपिल तीर्थ पर स्नान करके , कपिलेश्वर के दर्शन करने होते हैं। इसके बाद ही वेंकटाचल पर्वत पर जाकर बालाजी के दर्शन करने चाहिए।
वहीं इसके पश्चात देवी पद्मावती के दर्शन करें। यहां ये भी जान लें कि पद्मावती देवी का मंदिर भगवान वेंकटेश्वर स्वामी की पत्नी पद्मावती लक्ष्मी जी को समर्पित है। माना जाता है कि जब तक भक्त इस मंदिर के दर्शन नहीं करते, तब तक आपकी तिरुमला की यात्रा पूरी नहीं होती।