भारत में कई चमत्कारिक और रहस्यमयी मंदिर हैं जिसमें दक्षिण भारत में स्थित भगवान तिरुपति बालाजी का मंदिर भी शामिल है।
भगवान तिरुपति बालाजी का चमत्कारिक और रहस्यमयी मंदिर भारत समेत पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। यह मंदिर भारतीय वास्तु कला और शिल्प कला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
तिरुपति बालाजी मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। यह मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुमला पर्वत पर स्थित है और यह भारत के मुख्य तीर्थ स्थलों में से एक है।
“तिरुपति” एक तमिल शब्द है तिरु का अर्थ है “श्री” एवं पति का अर्थ है “प्रभु” | तिरुपति यानि श्रीपति यानि श्रीविष्णु और तिरुमलै का अर्थ श्रीपर्वत है इस पर्वत पर साक्षात् लक्ष्मी संग विष्णु स्वयं विराजमान है।
मंदिर तिरुमाला पहाड़ी की चोटी पर स्थित है, जिसे वेंकटाद्री के नाम से भी जाना जाता है । वेंकटाद्री हिंदुओं द्वारा पवित्र मानी जाने वाली सात पहाड़ियों (सप्तगिरी) में से एक है। ये सात पहाड़ियाँ हैं- शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरुड़द्रि, अंजनाद्री, वृषभभद्री, नारायणाद्री और वेंकटाद्री।
और यहाँ का पूरा शहर इसी पर्वत के नीचे बसा हुआ है यह सात पहाड़ियों का समूह है जिसे वैंकटेश्वर कहते है दक्षिण भारत का पवित्रतम मंदिर बन जाता है|
मंदिर का मुख्य भाग यानी ‘अनंदा निलियम’ देखने में काफी आकर्षक है। ‘अनंदा निलियम’ में भगवान श्रीवेंकटेश्वर अपनी सात फूट ऊंची प्रतिमा के साथ विराजमान हैं।
मंदिर के तीन परकोटों पर लगे स्वर्ण कलश काफी हद तक यहां आने वाले आगंतुकों को प्रभावित करते हैं। मंदिर के अंदर आप कई खूबसूरत मूर्तियों को देख सकते हैं।
मंदिर विष्णु के एक रूप वेंकटेश्वर को समर्पित है , जिनके बारे में माना जाता है कि वे मानव जाति को कलियुग के परीक्षणों और परेशानियों से बचाने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए थे । इसलिए इस स्थान का नाम कलियुग वैकुंठ भी पड़ा और यहाँ भगवान को कलियुग प्रथ्याक्ष दैवं कहा जाता है।
मंदिर को अन्य नामों से भी जाना जाता है जैसे तिरुमाला मंदिर, तिरुपति मंदिर और तिरुपति बालाजी मंदिर। वेंकटेश्वर को कई अन्य नामों से जाना जाता है: बालाजी, गोविंदा और श्रीनिवास।
समुद्र तल से 3200 फीट ऊंचाई पर स्थित तिरुमला की पहाड़ियों पर बना श्री वैंकटेश्वर मंदिर यहां का सबसे बड़ा आकर्षण है।
तमिल के शुरुआती साहित्य में से एक संगम साहित्य में तिरुपति को त्रिवेंगदम कहा गया है। तिरुपति के इतिहास को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि 5वीं शताब्दी तक यह एक प्रमुख धार्मिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था। कहा जाता है कि चोल, होयसल और विजयनगर के राजाओं का आर्थिक रूप से इस मंदिर के निर्माण में खास योगदान था।
कहा जाता है मेरु पर्वत के सप्त शिखरों पर बना हुआ है यहाँ स्थित जो भव्य मंदिर है उसमे जो मूर्ति उपस्थित है उसे आजतक कोई यह नहीं बता पाया की यह मूर्ति कहाँ से आया ? कौन लाया ? क्या यह प्रकट हुई है ? क्या यह जमीन से निकली है ? या कोई अन्य करण है ? इन सवालो का जवाब एक रहस्य बना हुआ है|
मंदिर के गर्भगृह स्थान पर भगवान श्री विष्णु और माँ लक्ष्मी स्वयं विराजमान है मंदिर का बनावट नक्काशी और खूबसूरती इतना भव्य है की हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है छोटे-छोटे मुर्तिओं का हजारो के संख्या में दिवालो पर उकेरा गया नक्काशी अपने आप ही लोगो का मन आकर्षित करता है|
तिरुपति बालाजी मंदिर के दर्शन
सद्गुरु जग्गी वासुदेवजी ने अपने एक प्रवचन में कहा था अगर आप इस स्थान पर जाते है तो आपको एक अद्भुत शांति और दिव्यता का एहसास होगा आपको इस स्थान पर एक बार अवश्य जाना चाहिये भगवान के दर्शन करने मात्र से ही आपको ईश्वर की विशेष कृपा प्राप्त होती है|
मंदिर का वर्णन
श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है।
यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कलियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है।
पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।
श्री वैंकटेश्वर का यह प्राचीन मंदिर तिरुपति पहाड़ की सातवीं चोटी (वैंकटचला) पर स्थित है। यह श्री स्वामी पुष्करिणी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है।
माना जाता है कि वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने के कारण ही इन्हें वैंकटेश्वर कहा जाने लगा। इन्हें सात पहाड़ों का भगवान भी कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान वैंकटेश्चर साक्षत विराजमान है। यह मुख्य मंदिर के प्रांगण में है। मंदिर परिसर में अति सुंदरता से बनाए गए अनेक द्वार, मंडपम और छोटे मंदिर हैं। मंदिर परिसर में मुख्श् दर्शनीय स्थल हैं:पडी कवली महाद्वार संपंग प्रदक्षिणम, कृष्ण देवर्या मंडपम, रंग मंडपम तिरुमला राय मंडपम, आईना महल, ध्वजस्तंभ मंडपम, नदिमी पडी कविली, विमान प्रदक्षिणम, श्री वरदराजस्वामी श्राइन पोटु आदि।
कहा जाता है कि इस मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय से हुई है। यह संप्रदाय समानता और प्रेम के सिद्धांत को मानता है। इस मंदिर की महिमा का वर्णन विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है।
माना जाता है कि भगवान वैंकटेश्वर का दर्शन करने वाले हरेक व्यक्ति को उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। हालांकि दर्शन करने वाले भक्तों के लिए यहां विभिन्न जगहों तथा बैंकों से एक विशेष पर्ची कटती है। इसी पर्ची के माध्यम से आप यहां भगवान वैंकटेश्वर के दर्शन कर सकते है।
देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में तिरुपति बालाजी मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। देश-विदेश के कई बड़े उद्योगपति, फिल्म सितारे और राजनेता यहां अपनी उपस्थिति देते हैं.
तिरुमाला तिरुपति बालाजी मंदिर की वास्तुकला
तिरुमाला तिरुपति बालाजी गोपुरम जो मंदिर का शीर्ष है।
मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली का अनुसरण करता है । मंदिर में तीन प्रवेश द्वार हैं जो मुख्य मंदिर (आनंद निलयम) की ओर जाते हैं।
पहला प्रवेश द्वार – महाद्वारा गोपुरम जिसमें पीतल का दरवाजा है ।
दूसरा प्रवेश द्वार – चांदी के प्रवेश द्वार के साथ नदीमीपदी कवाली ।
तीसरा प्रवेश द्वार – बंगारू वकीली एक सुनहरे दरवाजे के साथ ।
भगवान की मुख्य मूर्ति ” ब्रह्मस्थान ” नामक एक मंच पर खड़ी स्थिति में है । दाईं ओर देवी लक्ष्मी और बाईं ओर देवी पद्मावती मौजूद हैं। मुख्य गर्भगृह के ऊपर स्थित गोपुरम (प्रवेश मीनार) एक सुनहरे फूलदान से ढका हुआ है। इसके शीर्ष पर विमान वेंकटेश्वर की मूर्ति भी मौजूद है।
पुजारी कभी भी भगवान की मुख्य मूर्ति को विस्थापित नहीं कर सकते। इसलिए, कई देवताओं की छोटी मूर्तियां पूजा के लिए गर्भगृह में मौजूद हैं। वे हैं भोग श्रीनिवास, उग्रा श्रीनिवास, कोलुवु श्रीनिवास, श्री मलयप्पन और श्री चक्रथलवर। श्रीकृष्ण , श्री राम, माता सीता, लक्ष्मण , सुग्रीव भी उपस्थित हैं।
मंदिर की चढ़ाई-
पैदल यात्रियों हेतु पहाड़ी पर चढ़ने के लिए तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम नामक एक विशेष मार्ग बनाया गया है। इसके द्वारा प्रभु तक पहुंचने की चाह की पूर्ति होती है। साथ ही अलिपिरी से तिरुमाला के लिए भी एक मार्ग है।
तिरुपति बालाजी के दर्शन
भगवान के दर्शन तीन बार हो सकते है सामान्य रूप से, लेकिन अगर किसी को किन्ही विशेष परिष्तिथि में विशेष समय दर्शन करना है तो उसका भी प्रावधान है वो अतिरिक्त टिकेट या “तिरुपति बालाजी दर्शन पास” लेकर अन्दर जा सकता है और पूजा अर्चना कर सकता है अन्यथा पहला दर्शन प्रभातकाल में जिसे विश्वरूप दर्शन कहते है दूसरा दर्शन मध्यकाल और तीसरा दर्शन रात्रिकाल दर्शन होता है|
यहाँ मंदिरों के दर्शन और पूजा का नियम और मंदिरों के अपेक्षा थोडा अलग है कपिल आश्रम में स्नान करके सबसे पहले कपिलेश्वर का दर्शन करें, फिर वेंकटाचलम जाकर वेंकटेश्वर महाराज का दर्शन करें फिर ऊपर के अन्य तीर्थो का दर्शन कर नीचे आकर तिरुपति में गोविन्दराज और कोदंड रामस्वामी का दर्शन करें और अंत मे तिरुचनूर जाकर भगवान विष्णु का दर्शन करने का विधान है यही तिरुपति बालाजी का सच है|
मंदिर का इतिहास-
माना जाता है कि इस मंदिर का इतिहास 9वीं शताब्दी से प्रारंभ होता है, जब कांचीपुरम के शासक वंश पल्लवों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था, परंतु 15 सदी के विजयनगर वंश के शासन के पश्चात भी इस मंदिर की ख्याति सीमित रही।
15 सदी के पश्चात इस मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैलनी शुरू हो गई। 1843 से 1933 ई. तक अंग्रेजों के शासन के अंतर्गत इस मंदिर का प्रबंधन हातीरामजी मठ के महंत ने संभाला।
1933 में इस मंदिर का प्रबंधन मद्रास सरकार ने अपने हाथ में ले लिया और एक स्वतंत्र प्रबंधन समिति ‘तिरुमाला-तिरुपति’ के हाथ में इस मंदिर का प्रबंधन सौंप दिया।
आंध्रप्रदेश के राज्य बनने के पश्चात इस समिति का पुनर्गठन हुआ और एक प्रशासनिक अधिकारी को आंध्रप्रदेश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया।
मंदिर के विषय में आश्चर्यजनक तथ्य
तिरुपति बालाजी का वास्तविक नाम श्री वेंकटेश्वर स्वामी है जो स्वयं भगवान विष्णु हैं। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक, भगवान श्री वेंकटेश्वर अपनी पत्नी पद्मावती के साथ तिरुमला में निवास करते हैं। मान्यता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से भगवान वेंकटेश्वर के सामने प्रार्थना करते हैं, उनकी सभी मुरादें पूरी हो जाती हैं
कहा जाता है भगवान वेंकटेश्वर स्वामी की मूर्ति पर बाल लगे हैं जो असली हैं। यह बाल कभी भी उलझते नहीं हैं और हमेशा मुलायम रहते हैं। मान्यता है कि यहां भगवान खुद विराजमान हैं।
जब मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करेंगे तो ऐसा लगेगा कि भगवान श्री वेंकेटेश्वर की मूर्ति गर्भ गृह के मध्य में है। लेकिन आप जैसे ही गर्भगृह के बाहर आएंगे तो चौंक जाएंगे क्योंकि बाहर आकर ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान की प्रतिमा दाहिनी तरफ स्थित है। अब यह सिर्फ भ्रम है या कोई भगवान का चमत्कार इसका पता आज तक कोई नहीं लगा पाया है।
मान्यता है कि भगवान के इस रूप में मां लक्ष्मी भी समाहित हैं जिसकी वजह से श्री वेंकेटेश्वर स्वामी को स्त्री और पुरुष दोनों के वस्त्र पहनाने की परम्परा है
तिरुपति बाला मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर की प्रतिमा अलौकिक है। यह विशेष पत्थर से बनी है। यह प्रतिमा इतनी जीवंत है कि ऐसा प्रतीत होता है जैसे भगवान विष्णु स्वयं यहां विराजमान हैं। भगवान की प्रतिमा को पसीना आता है, पसीने की बूंदें देखी जा सकती हैं। इसलिए मंदिर में तापमान कम रखा जाता है।
श्री वेंकेटेश्वर स्वामी के मंदिर से 23 किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है जहां गांव वालों के अलावा कोई बाहरी व्यक्ति प्रवेश नहीं कर सकता। इस गांव लोग बहुत ही अनुशासित हैं और नियमों का पालन कर जीवन व्यतीत करते हैं। मंदिर में चढ़ाया जाने वाला पदार्थ जैसे की फूल, फल, दही, घी, दूध, मक्खन आदि इसी गांव से आते हैं।
गुरुवार को भगवान वेंकेटेश्वर को चंदन का लेप लगाया जाता है जिसके बाद अद्भुत रहस्य सामने आता है। भगवान का श्रृंगार हटाकर स्नान कराकर चंदन का लेप लगाया जाता है और जब इस लेप को हटाया जाता है तो भगवान वेंकेटेश्वर के हृदय में माता लक्ष्मी जी की आकृति दिखाई देती है।
श्री वेंकेटेश्वर स्वामी मंदिर में एक दीया हमेशा जलता रहता है और सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि इस दीपक में कभी भी तेल या घी नहीं डाला जाता। यहां तक कि यह भी पता नहीं है कि दीपक को सबसे पहले किसने और कब प्रज्वलित किया था।
भगवान वेंकेटेश्वर की प्रतिमा पर पचाई कपूर लगाया जाता है। कहा जाता है कि यह कपूर किसी भी पत्थर पर लगाया जाता है तो पत्थर में कुछ समय में दरारें पड़ जाती हैं। लेकिन भगवान बालाजी की प्रतिमा पर पचाई कपूर का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
मंदिर में मुख्य द्वार के दरवाजे पर दाईं तरफ एक छड़ी है। इस छड़ी के बारे में मान्यता है कि बाल्यावस्था में इस छड़ी से ही भगवान वेंकेटेश्वर की पिटाई की गई थी जिसकी वजह से उनकी ठुड्डी पर चोट लग गई थी। तब से आज तक उनकी ठुड्डी पर शुक्रवार को चंदन का लेप लगाया जाता है। ताकि उनका घाव भर जाए।
भगवान वेंकेटेश्वर की मूर्ति पर कान लगाकर सुनें तो समुद्र की लहरों की ध्वनि सुनाई देती है। यह भी कहा जाता है कि भगवान की प्रतिमा हमेशा नम रहती है।
बालाजी की मूर्ति पर चोट क निशान है, जिसको लेकर एक पौराणिक किवदंती जुड़ी है, माना जाता है कि भगवान बालाजी का एक भक्त रोजाना दुर्गम पहाड़ियों को पार को भगवान को दूध चढ़ाने के लिए आया करता था, भक्त की भक्ति और उसकी कठिनाई को देखते हुए भगवान बालाजी से यह निर्णय किया कि वो रोज उस भक्त की गौशाला में जाकर दूधपान करके आएंगे। अपने निर्णय के अनुसार भगवान ने जाना शुरू किया, जिसके लिए उनको मनुष्य का रूप धारण करना पड़ता था।
किवदंती के अनुसार एक बार उस भक्त ने उने मनुष्य रूप में भगवान को दूध पीते देख लिया, उसने गुस्से में आकर उनकर प्रहार कर दिया। माना जाता है कि उस प्रहार का निशान आज भी भगवान के शरीर पर मौजूद है, इसलिए औषधि के रूप में यहां भगवान को चंदन का लेप लगाया जाता है।
प्रतिमा
भगवान की मूर्ति है रहस्यमयी
कहते हैं मंदिर में स्थापित तिरूपति बालाजी की दिव्य काली मूर्ति किसी ने बनाई नहीं बल्कि वह जमीन से प्रकट हुई है।
वेंकटाचल पर्वत को भी भगवान का रूप माना जाता है, जहां भक्त नंगे पैर ही आते हैं।
इतना ही नहीं, मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर की मूर्ति पर लगे बाल असली हैं, जो कभी उलझते नहीं हैं।
मान्यता है कि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि यहां भगवान वेंकटेश्वर खुद ही विराजते हैं।
तुलसी
भगवान को चढ़ाई गई तुलसी को फेंका जाता है कुएं में
भगवान विष्णु को तुलसी के पत्ते विशेष प्रिय हैं, इसलिए इनकी पूजा में तुलसी के पत्ते का बहुत महत्व है।
इतना ही नहीं, सभी मंदिरों में भी भगवान को चढ़ाई गयीं तुलसी की पत्तियां बाद में प्रसाद के रूप में भक्तों को दी जाती हैं।
तिरूपति बालाजी में भी भगवान को रोज तुलसी की पत्तियां चढ़ाई जाती हैं, लेकिन उसे भक्तों को प्रसाद के रूप में नहीं दी जाती बल्कि मंदिर परिसर के कुंए में डाल दी जाती है।
अनुश्रुतियां
इस मंदिर के विषय में एक अनुश्रुति इस प्रकार से है। प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु अवतार ही है। ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक सरोवर के किनारे निवास किया था। यह सरोवर तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला- तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं ‘सप्तगिरि’ कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है, जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।
वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार, 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ कर गये थे। प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं, जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
उत्सव
ब्रह्मोत्सव
तिरुपति का सबसे प्रमुख पर्व ‘ब्रह्मोत्सवम’ है जिसे मूलतः प्रसन्नता का पर्व माना जाता है। नौ दिनों तक चलने वाला यह पर्व साल में एक बार तब मनाया जाता है, जब कन्या राशि में सूर्य का आगमन होता है (सितंबर, अक्टूबर)। इसके साथ ही यहाँ पर मनाए जाने वाले अन्य पर्व हैं – वसंतोत्सव, तपोत्सव, पवित्रोत्सव, अधिकामासम आदि।
विवाह संस्कार
यहाँ पर एक ‘पुरोहित संघम’ है, जहाँ पर विभिन्न संस्कारों औऱ रिवाजों को संपन्न किया जाता है। इसमें से प्रमुख संस्कार विवाह संस्कार, नामकरण संस्कार, उपनयन संस्कार आदि संपन्न किए जाते हैं। यहाँ पर सभी संस्कार उत्तर व दक्षिण भारत के सभी रिवाजों के अनुसार संपन्न किए जाते हैं।
केशदान
इसके अंतर्गत श्रद्धालु प्रभु को अपने केश समर्पित करते हैं जिससे अभिप्राय है कि वे केशों के साथ अपना दंभ व घमंड छोड़ देते है ओर मानव योनी मे जन्म ओर सम्सत पिढी की तरफ से कृतज्ञता हेतु केश समर्पिण किया जाता हैं ।
पुराने समय में यह संस्कार घरों में ही नाई के द्वारा संपन्न किया जाता था, पर समय के साथ-साथ इस संस्कार का भी केंद्रीकरण हो गया और मंदिर के पास स्थित ‘कल्याण कट्टा’ नामक स्थान पर यह सामूहिक रूप से संपन्न किया जाने लगा। अब सभी नाई इस स्थान पर ही बैठते हैं। केशदान के पश्चात यहीं पर स्नान करते हैं और फिर पुष्करिणी में स्नान के पश्चात मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं।
भाषा
यहां के लोग मुख्यत:तेलुगु बोलते हैं। लेकिन तमिल, कन्नड़ और अंग्रेजी समझने वाले लोगों की भी बड़ी संख्या हैं। हिंदी भाषा बोलने वाले और हिंदी में किये प्रश्न का जवाब हिंदी में देने वाले कम हैं तिरुपति शहर में।
तापमान
गर्मियों में अधिकतम 43 डि. और न्यूनतम 22 डि., सर्दियों में अधिकतम 32 डि. और न्यूनतम 14 डि. तापमान रहता है।
मौसम
तिरुपति में आमतौर पर वर्षभर गर्मी होती है। तिरुमला की पहाड़ियों में वातावरण ठंडा होता है।
अन्य आकर्षण
श्री पद्मावती समोवर मंदिर
तिरुचनूर (इसे अलमेलुमंगपुरम भी कहते हैं) तिरुपति से पांच किमी. दूर है।
यह मंदिर भगवान श्री वेंकटेश्वर विष्णु की पत्नी श्री पद्मावती लक्ष्मी जी को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमला की यात्रा तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक इस मंदिर के दर्शन नहीं किए जाते।
तिरुमला में सुबह 10.30 बजे से दोपहर 12 बजे तक कल्याणोत्सव मनाया जाता है। यहां दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाता हैं। शुक्रवार को दर्शन सुबह 8बजे के बाद शुरु होता हैं। तिरुपति से तिरुचनूर के बीच दिनभर बसें चलती हैं।
श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर
श्री गोविंदराजस्वामी भगवान बालाजी के बड़े भाई हैं। यह मंदिर तिरुपति का मुख्य आकर्षण है। इसका गोपुरम बहुत ही भव्य है जो दूर से ही दिखाई देता है।
इस मंदिर का निर्माण संत रामानुजाचार्य ने 1130 ईसवी में की थी। गोविंदराजस्वामी मंदिर में होने वाले उत्सव और कार्यक्रम वैंकटेश्वर मंदिर के समान ही होते हैं।
वार्षिक बह्मोत्सव वैसाख मास में मनाया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में संग्रहालय और छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें भी पार्थसारथी, गोड़ादेवी आंदल और पुंडरिकावल्ली का मंदिर शामिल है।
मंदिर की मुख्य प्रतिमा शयनमूर्ति (भगवान की निंद्रालीन अवस्था) है।
दर्शन का समय है- प्रात: 9.30 से दोपहर 12.30, दोपहर 1.00 बजे से शाम 6 बजे तक और शाम 7.00 से रात 8.45 बजे तक
श्री कोदंडरामस्वमी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति के मध्य में स्थित है। यहां सीता, राम और लक्ष्मण की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण चोल राजा ने दसवीं शताब्दी में कराया था।
इस मंदिर के ठीक सामने अंजनेयस्वामी का मंदिर है जो श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर का ही उपमंदिर है। उगडी और श्री रामनवमी का पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर
कपिला थीर्थम भारत के आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति में स्थित एक प्रसिद्ध शिव मंदिर और थीर्थम है।
मा यह मूर्ति कपिला मुनि द्वारा स्थापित की गई था और इसलिए यहां भगवान शिव को कपिलेश्वर के रूप में जाना जाता है। यह तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है।
यह तिरुपति शहर से तीन किमी.दूर उत्तर में, तिरुमला की पहाड़ियों के नीचे ओर तिरुमाला जाने के मार्ग के बीच में स्थित है कपिल तीर्थम जाने के लिए बस, ऑटो रिक्शा यातायात का मुख्य साधन हैं ओर सरलता से उपलब्ध भी है।
यहां पर कपिला तीर्थम नामक पवित्र नदी भी है। जो सप्तगिरी पहाड़ियों में से बहती पहाड़ियों से नीचे कपिल तिर्थम मे आती हैं जो अति मनोरम्य लगता हैं। इसे अलिपिरि तीर्थम के नाम से भी जाना जाता है।
यहां पर श्री वेनुगोपाल ओर लक्ष्मी नारायण के साथ गौ माता कामधेनु कपिला गाय का य हनुमानजी का अनुपम मंदिर भी स्थित हैं।
यहां महाबह्मोत्सव, महा शिवरात्रि, स्खंड षष्टी और अन्नभिषेकम बड़े धूमधाम से मनाया जाता हैं। वर्षा ऋतु में झरने के आसपास का वातावरण बहुत ही मनोरम होता है।
श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 12 किमी.पश्चिम में श्रीनिवास मंगापुरम में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने से पहले भगवान वेंकटेश्वर यहां ठहरे थे।
यहां स्थापित भगवान वेंकटेश्वर की पत्थर की विशाल प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों, आभूषणों और फूलों से सजाया गया है। वार्षिक ब्रह्मोत्सव और साक्षात्कार वैभवम यहां धूमधाम से मनाया जाता है।
श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 40 किमी दूर, नारायणवनम में स्थित है। भगवान श्री वेंकटेश्वर और राजा आकाश की पुत्री देवी पद्मावती यही परिणय सूत्र में बंधे थे।
यहां मुख्य रूप से श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी की पूजा होती है। यहां पांच उपमंदिर भी हैं। श्री देवी पद्मावती मंदिर, श्री आण्डाल मंदिर, भगवान रामचंद्र जी का मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर।
इसके अलवा मुख्य मंदिर से जुड़े पांच अन्य मंदिर भी हैं। श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर।
वार्षिक ब्रह्मोत्सव मुख्य मंदिर श्री वीरभद्रस्वामी मंदिर और अवनक्शम्मा मंदिर में मनाया जाता है।
श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर
नगलपुरम का यह मंदिर तिरुपति से 70 किमी दूर है। माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर सोमकुडु नामक राक्षस का यहीं पर संहार किया था।
मुख्य गर्भगृह में विष्णु की मत्स्य रूप में प्रतिमा स्थापित है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। भगवान द्वारा धारण किया हुआ सुदर्शन चक्र सबसे अधिक आकर्षक लगता है।
इस मंदिर का निर्माण विजयनगर के राजा श्री कृष्णदेव राय ने करवाया था। यह मंदिर विजयनगर की वास्तुकला के दर्शन कराता है।
मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य उत्सव ब्रह्मोत्सव और सूर्य पूजा है। यह पूजा फाल्गुन मास की 12वीं, 13वीं और 14वीं तिथि को होती है।
इस दौरान सूर्य की किरण प्रात: 6बजे से 6.15 मिनट तक मुख्य प्रतिमा पर पड़ती हैं। ऐसा लगता है मानो सूर्य देव स्वयं भगवान की पूजा कर रहे हों।
श्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 58 किमी. दूर, कारवेतीनगरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा स्थापित है।
उनके साथ उनकी पत्नियां श्री रुक्मणी अम्मवरु और श्री सत्सभामा अम्मवरु की भी प्रतिमा स्थापित हैं। यहां एक उपमंदिर भी है।
श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर
माना जाता है कि श्री पद्मावती अम्मवरु से विवाह के पश्चात् श्री वैंक्टेश्वरस्वामी अम्मवरु ने यहीं, अप्पलायगुंटा पर श्री सिद्धेश्वर और अन्य शिष्यों को आशीर्वाद दिया था।
अंजनेयस्वामी को समर्पित इस मंदिर का निर्माण करवेतीनगर के राजाओं ने करवाया था। कहा जाता है कि आनुवांशिक रोगों से ग्रस्त रोगी अगर यहां आकर वायुदेव की प्रतिमा के आगे प्रार्थना करें तो भगवान जरुर सुनते हैं।
यहां देवी पद्मावती और श्री अंदल की मूर्तियां भी हैं। साल में एक बार ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है।
श्री चेन्नाकेशवस्वामी मंदिर
तल्लपका तिरुपति से 100 किमी. दूर है। यह श्री अन्नामचार्य (संकीर्तन आचार्य) का जन्मस्थान है।
अन्नामचार्य श्री नारायणसूरी और लक्कामअंबा के पुत्र थे।
अनूश्रुति के अनुसार करीब 1000 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण और प्रबंधन मत्ती राजाओं द्वारा किया गया था।
श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर
श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर (इसे श्री पेरुमला स्वामी मंदिर भी कहते हैं) तिरुपति से 51 किमी. दूर नीलगिरी में स्थित है।
माना जाता है कि यहीं पर प्रभु महाविष्णु ने मकर को मार कर गजेंद्र नामक हाथी को बचाया था। इस घटना को महाभगवतम में गजेंद्रमोक्षम के नाम से पुकारा गया है।
श्री अन्नपूर्णा-काशी विश्वेश्वरस्वामी
कुशस्थली नदी के किनारे बना यह मंदिर तिरुपति से 56 किमी. की दूरी पर,बग्गा अग्रहरम में स्थित है।
यहां मुख्य रूप से श्री काशी विश्वेश्वर, श्री अन्नपूर्णा अम्मवरु, श्री कामाक्षी अम्मवरु और श्री देवी भूदेवी समेत श्री प्रयाग माधव स्वामी की पूजा होती है।
महाशिवरात्रि और कार्तिक सोमवार को यहां विशेष आयोजन किया जाता है।
स्वामी पुष्करिणी
इस पवित्र जलकुंड के पानी का प्रयोग केवल मंदिर के कामों के लिए ही किया जा सकता है। जैसे भगवान के स्नान के लिए, मंदिर को साफ करने के लिए, मंदिर में रहने वाले परिवारों (पंडित, कर्मचारी) द्वारा आदि।
कुंड का जल पूरी तरह स्वच्छ और कीटाणुरहित है। यहां इसे पुन:चक्रित किए जाने व्यवस्था की भी व्यवस्था की गई है।
माना जाता है कि वैकुंठ में विष्णु पुष्करिणी कुंड में ही स्नान करते है, इसलिए श्री गरुड़जी ने श्री वैंकटेश्वर के लिए इसे धरती पर लेकर आए थे।
यह जलकुंड मंदिर से सटा हुआ है। यह भी कहा जाता है कि पुष्करिणी के दर्शन करने से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं और भक्त को सभी सुख प्राप्त होते हैं।
मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व भक्त यहां दर्शन करते हैं। ऐसा करने से शरीर व आत्मा दोनों पवित्र हो जाते हैं।
आकाशगंगा जलप्रपात
आकाशगंगा जलप्रपात तिरुमला मंदिर से तीन किमी. उत्तर में स्थित है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि इसी जल से भगवान को स्नान कराया जाता है।
पहाड़ी से निकलता पानी तेजी से नीचे धाटी में गिरता है। बारिश के दिनों में यहां का दृश्य बहुत की मनमोहक लगता है।
श्री वराहस्वामी मंदिर
तिरुमला के उत्तर में स्थित श्री वराहस्वामी का प्रसिद्ध मंदिर पुष्किरिणी के किनारे स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वराह स्वामी को समर्पित है।
ऐसा माना जाता है कि तिरुमला मूल रूप से आदि वराह क्षेत्र था और वराह स्वामी की अनुमति के बाद ही भगवान वैंकटेश्वर ने यहां अपना निवास स्थान बनाया।
ब्रह्म पुराण के अनुसार नैवेद्यम सबसे पहले श्री वराहस्वामी को चढ़ाना चाहिए और श्री वैंकटेश्वर मंदिर जाने से पहले यहां दर्शन करने चाहिए।
अत्री समहित के अनुसार वराह अवतार की तीन रूपों में पूजा की जाती है: आदि वराह, प्रलय वराह और यजना वराह। तिरुमला के श्री वराहस्वामी मंदिर में इनके आदि वराह रूप में दर्शन होते हैं।
श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर
स्वामी पुष्किरिणी के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर श्री वराहस्वामी मंदिर के ठीक सामने है।
यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। यहां स्थापित भगवान की प्रतिमा के हाथ प्रार्थना की अवस्था हैं।
अभिषेक रविवार के दिन होता है और यहां हनुमान जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।
टीटीडी गार्डन
इस गार्डन का कुल क्षेत्रफल 460 एकड़ है। तिरुमला और तिरुपति के आस-पास बने इन खूबसूरत बगीचों से तिरुमला के मंदिरों के सभी जरुरतों को पुरा किया जाता है।
इन फूलों का प्रयोग भगवान और मंडप को सजाने, पंडाल निर्माण में किया जाता है।
ध्यान मंदिरम
मूल रूप से यह श्री वैंकटेश्वर संग्रहालय था। जिसकी स्थापना 1980 में की गई थी।
पत्थर और लकड़ी की बनी वस्तुएं, पूजा सामग्री, पारंपरिक कला और वास्तुशिल्प से संबंधित वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया है।
प्रसादम
यहाँ पर प्रसाद के रूप में अन्न प्रसाद की व्यवस्था है जिसके अंतर्गत चरणामृत, मीठी पोंगल, दही-चावल जैसे प्रसाद तीर्थयात्रियों को दर्शन के पश्चात दिया जाता है।
लड्डू
पनयारम यानी लड्डू मंदिर के बाहर बेचे जाते हैं, जो यहाँ पर प्रभु के प्रसाद रूप में चढ़ाने के लिए खरीदे जाते हैं।
इन्हें खरीदने के लिए पंक्तियों में लगकर टोकन लेना पड़ता है।
श्रद्धालु दर्शन के उपरांत लड्डू मंदिर परिसर के बाहर से खरीद सकते हैं।
मंदिर में रोजाना बनाए जाते हैं तीन लाख लड्डू।
स्थानीय लोगों द्वारा मिली जानकारी के मुताबिक, तिरुपति बालाजी मंदिर में रोजाना देसी घी के तीन लाख लड्डू बनाए जाते हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि इन लड्डूओं के बनाने के लिए यहां के कारीगर 300 साल पुरानी पारंपरिक विधि का प्रयोग करते हैं।
बता दें कि इन लड्डूओं को तिरूपति बालाजी मंदिर की गुप्त रसोई में बनाया जाता है। इस गुप्त रसोईघर को लोग पोटू के नाम से जानते हैं।
सर्वदर्शनम-
सर्वदर्शनम से अभिप्राय है ‘सभी के लिए दर्शन’। सर्वदर्शनम के लिए प्रवेश द्वार वैकुंठम काम्प्लेक्स है।
वर्तमान में टिकट लेने के लिए यहां कम्प्यूटरीकृत व्यवस्था है। यहां पर निःशुल्क व सशुल्क दर्शन की भी व्यवस्था है। साथ ही विकलांग लोगों के लिए ‘महाद्वारम’ नामक मुख्य द्वार से प्रवेश की व्यवस्था है, जहां पर उनकी सहायता के लिए सहायक भी होते हैं ।
तिरुपति बालाजी के 108 नाम
- श्री वेंकटेश अष्टोत्तर शतनामावली
- ॐ श्री वेङ्कटेशाय नमः
- ॐ श्रीनिवासाय नमः
- ॐ अनानुयाय नमः
- ॐ माधवाय नमः
- ॐ कृष्णाय नमः
- ॐ अमृतांशने नमः
- ॐ यज्ञभोक्रे नमः
- ॐ चिन्मयाय नमः
- ॐ शैर्ये नमः
- ॐ नंदाकिनी नमः
- ॐ अनघाय नमः
- ॐ वनमालिने नमः
- ॐ पद्मनाभाय नमः
- ॐ अश्वरूढाय नमः
- ॐ निरान्तकाय नमः
- ॐ शान्ताय नमः
- ॐ श्रीमते नमः
- ॐ परब्रह्मणे नमः
- ॐ श्रीविभवे नमः
- ॐ जिष्णवे नमः
- ॐ दाशार्हाय नमः
- ॐ श्रीहरे नमः
- ॐ गोविंदाय नमः
- ॐ प्रभवे नमः
- ॐ शाश्वतते नमः
- ॐ श्रीदेवाय नमः
- ॐ केशवाय नमः
- ॐ विष्णवे नमः
- ॐ अच्युताय नमः
- ॐ अमृताय नमः
- ॐ गोपालाय नमः
- ॐ सर्वेशाय नमः
- ॐ गोपीश्वराय नमः
- ॐ सुधातनवे नमः
- ॐ अव्ययाय नमः
- ॐ निरंजनाय नमः
- ॐ निर्गुणाय नमः
- ॐ गदाधराय नमः
- ॐ परमेश्वराय नमः
- ॐ दीनबन्धवे नमः
- ॐ हयरीवाय नमः
- ॐ जनार्धनाय नमः
- ॐ अनेकमूर्तये नमः
- ॐ अव्यक्ताय नमः
- ॐ पापघ्नाया नमः
- ॐ वरप्रदाय नमः
- ॐ अनेकात्मने नमः
- ॐ जगद्व्यापिने नमः
- ॐ दामोदराय नमः
- ॐ जगत्पालाय नमः
- ॐ त्रिविक्रमाय नमः
- ॐ शिंशुमाराय नमः
- ॐ जगतसक्षिणे नमः
- ॐ जगत्कर्त्रे नमः
- ॐ सुरपतये नमः
- ॐ निर्मलाय नमः
- ॐ चतुर्भुजाय नमः
- ॐ चक्रधराय नमः
- ॐ त्रिधामने नमः
- ॐ लक्ष्मिपतये नमः
- ॐ जगद्वन्द्याय नमः
- ॐ त्रिगुणाश्रयाय नमः
- ॐ खड्गधारिणे नमः
- ॐ जगदीश्वराय नमः
- ॐ दशरूपवते नमः
- ॐ ज्ञानपञ्जराय नमः
- ॐ विराभासाय नमः
- ॐ याद वेन्द्राय नमः
- ॐ निर्विकल्पाय नमः
- ॐ देवपूजिताय नमः
- ॐ कटिहस्ताय नमः
- ॐ धरापतये नमः
- ॐ जगत पतये नमः
- ॐ श्री वत्स वक्ष्से नमः
- ॐ मधुसूदनाय नमः
- ॐ वैकुण्ठ पतये नमः
- ॐ निरुप्रदवाय नमः
- ॐ शार्ञ्ङपाणये नमः
- ॐ भक्तवत्सलाय नमः
- ॐ कारुण्डकाय नमः
- ॐ निष्कलान्काया नमः
- ॐ नित्य त्रिप्ताय नमः
- ॐ पुरुषोतमाय नमः
- ॐ पद्मनीप्रियाय नमः
- ॐ परञ्ज्योतिषे नमः
- ॐ सच्चितानन्दरूपाय नमः
- ॐ चतुर्वेदात्मकाय नमः
- ॐ दोदण्ड विक्रमाय नमः
- ॐ शङ्खदारकाय नमः
- ॐ देवकी नन्दनाय नमः
- ॐ पीताम्बर धराय नमः
- ॐ शेशाद्रिनिलायाय नमः
- ॐ नित्य यौवनरूपवते नमः
- ॐ नीलमोघश्याम तनवे नमः
- ॐ जटाकुट शोभिताय नमः
- ॐ बिल्वपत्त्रार्चन प्रियाय नमः
- ॐ कन्याश्रणतारेज्याय नमः
- ॐ मृग यासक्त मानसाय नमः
- ॐ आकाशराजवरदाय नमः
- ॐ योगिहृत्पद्शमन्दिराय नमः
- ॐ चिन्तितार्ध प्रदायकाय नमः
- ॐ जगन्मंगल दायकाय नमः
- ॐ धनार्जन समुत्सुकाय नमः
- ॐ परमार्ध प्रदायकाय नमः
- ॐ आर्तलोकाभयप्रदाय नमः
- ॐ शंख मध्योल सन्मुज
- किङ्किण्याढ्य नमः
- ॐ आलिवेलु मंगा सहित
- वेंडटेश्वराय नमः
- ॐ घनतारल संमध्य कस्तूरी
- तिल्कोज्वालय नमः
कैसे पड़ा तिरुपति बालाजी का नाम “गोविंदा”
एक अत्यंत रोचक घटना है, माँ महालक्ष्मी की खोज में भगवान विष्णु जब भूलोक पर आए, तब यह सुंदर घटना घटी।
भूलोक में प्रवेश करते ही, उन्हें भूख एवं प्यास मानवीय गुण प्राप्त हुए, भगवान श्रीनिवास ऋषि अगस्त्य के आश्रम में गए और बोले, “मुनिवर मैं एक विशिष्ट कार्य से भूलोक पर (पृथ्वी) पर आया हूँ और कलयुग का अंत होने तक यहीं रहूँगा।
मुझे गाय का दूध अत्यंत पसंद है और और मुझे अन्न के रूप में उसकी आवश्यकता है। मैं जानता हूँ कि आपके पास एक बड़ी गौशाला है, उसमें अनेक गाये हैं, मुझे आप एक गाय दे सकते हैं क्या ?”
ऋषि अगस्त्य हँसे और कहने लगे, “स्वामी मुझे पता है कि आप श्रीनिवास के मानव स्वरूप में, श्रीविष्णु हैं।
मुझे अत्यंत आनंद है कि इस विश्व के निर्माता और शासक स्वयं मेरे आश्रम में आए हैं, मुझे यह भी पता है की आपने मेरी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए यह मार्ग अपनाया है, फिर भी स्वामी, मेरी एक शर्त है कि मेरी गौशाला की पवित्र गाय केवल ऐसे व्यक्ति को मिलनी चाहिए जो उसकी पत्नी संग यहाँ आए, मुझे आप को उपहार स्वरूप गाय देना अच्छा लगेगा, परंतु जब तुम मेरे आश्रम में देवी लक्ष्मी संग आओगे, और गौदान देने के लिए पूछोगे, तभी मैं ऐसा कर पाऊँगा।”
भगवान श्रीनिवास हँसे और बोले’ “ठीक है मुनिवर, तुम्हें जो चाहिए वह मैं करूँगा।” ऐसा कहकर वे वापस चले गए।
बाद में भगवान श्रीनिवास ने देवी पद्मावती से विवाह किया। विवाह के कुछ दिन पश्चात भगवान श्रीनिवास, उनकी दिव्य पत्नी पद्मावती के साथ, ऋषि अगस्त्य महामुनि के आश्रम में आए पर उस समय ऋषि आश्रम में नहीं थे।
भगवान श्रीनिवासन से उनके शिष्यों ने पूछा, “आप कौन हैं ? और हम आपके लिए क्या कर सकते हैं ?”
प्रभु ने उत्तर दिया, “मेरा नाम श्रीनिवासन है, और यह मेरी पत्नी पद्मावती है। आपके आचार्य को मेरी प्रतिदिन की आवश्यकता के लिए एक गाय दान करने के लिए कहा था, परंतु उन्होंने कहा था कि पत्नी के साथ आकर दान मांगेंगे तभी मैं गाय दान दूँगा।
यह तुम्हारे आचार्य की शर्त थी, इसीलिए मैं अब पत्नी संग आया हूँ।”
शिष्यों ने विनम्रता से कहा, “हमारे आचार्य आश्रम में नहीं है इसीलिए कृपया आप गाय लेने के लिए बाद में आइये।”
श्रीनिवासन हंँसे और कहने लगे, “मैं आपकी बात से सहमत हूंँ, परंतु मैं संपूर्ण जगत का सर्वोच्च शासक हूंँ, इसीलिए तुम सभी शिष्यगण मुझ पर विश्वास रख सकते हैं और मुझे एक गाय दे सकते हैं, मैं फिर से नहीं आ सकता।”
शिष्यों ने कहा, “निश्चित रूप से आप धरती के शासक हैं बल्कि यह संपूर्ण विश्व भी आपका ही है, परंतु हमारे दिव्य आचार्य हमारे लिए सर्वोच्च हैं, और उनकी आज्ञा के बिना हम कोई भी काम नहीं कर सकते।”
धीरे-धीरे हंसते हुए भगवान कहने लगे, “आपके आचार्य का आदर करता हूँ कृपया वापस आने पर आचार्य को बताइए कि मैं सपत्नीक आया था।” ऐसा कहकर भगवान श्रीनिवासन तिरुमाला की दिशा में जाने लगे।
कुछ मिनटों में ऋषि अगस्त्य आश्रम में वापस आए, और जब उन्हें इस बात का पता लगा तो वे अत्यंत निराश हुए।
“श्रीमन नारायण स्वयं माँ लक्ष्मी के संग, मेरे आश्रम में आए थे। दुर्भाग्यवश मेैं आश्रम में नहीं था, बड़ा अनर्थ हुआ। फिर भी कोई बात नहीं, प्रभु को जो गाय चाहिए थी, वह तो देना ही चाहिए।”
ऋषि तुरंत गौशाला में दाखिल हुए, और एक पवित्र गाय लेकर भगवान श्रीनिवास और देवी पद्मावती की दिशा में भागते हुए निकले, थोड़ी दूरी पर श्रीनिवास एवं पत्नी पद्मावती उन्हें नजर आए।
उनके पीछे भागते हुए ऋषि तेलुगु भाषा में पुकारने लगे, स्वामी (देवा) गोवु (गाय) इंदा (ले जाओ) तेलुगु में गोवु अर्थात गाय, और इंदा अर्थात ले जाओ।
स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… स्वामी, गोवु इंदा… (स्वामी गाय ले जाइए).. कई बार पुकारने के पश्चात भी भगवान ने नहीं देखा, इधर मुनि ने अपनी गति बढ़ाई, और स्वामी ने पुकारे हुए शब्दों को सुनना शुरू किया।
भगवान की लीला, उन शब्दों का रूपांतर क्या हो गया। स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, स्वामी गोविंदा, गोविंदा गोविंदा गोविंदा !!
ऋषि के बार बार पुकारने के पश्चात भगवान श्रीनिवास वेंकटेश्वर एवं देवी पद्मावती वापिस मुड़े और ऋषि से पवित्र गाय स्वीकार की।
श्रीनिवासन जी ने ऋषि से कहा, “मुनिवर तुमने ज्ञात अथवा अज्ञात अवस्था में मेरे सबसे प्रिय नाम गोविंदा को 108 बार बोल दिया है, कलयुग के अंत तक पवित्र सप्त पहाड़ियों पर मूर्ति के रूप में भूलोक पर रहूँगा, मुझे मेरे सभी भक्त “गोविंदा” नाम से पुकारेंगे।
इन सात पवित्र पहाड़ियों पर, मेरे लिए एक मंदिर बनाया जाएगा, और हर दिन मुझे देखने के लिए बड़ी संख्या में भक्त आते रहेंगे। भक्त पहाड़ी पर चढ़ते हुए, अथवा मंदिर में मेरे सामने मुझे, गोविंदा नाम से पुकारेंगे।
मुनिराज कृपया ध्यान दीजिए, हर समय मुझे इस नाम से पुकारे जाते वक्त, तुम्हें भी स्मरण किया जाएगा क्योंकि इस प्रेम भरे नाम का कारण तुम हो, यदि किसी भी कारणवश कोई भक्त मंदिर में आने में असमर्थ रहेगा, और मेरे गोविंदा नाम का स्मरण करेगा। तब उसकी सारी आवश्यकता मैं पूरी करूँगा। सात पहाड़ियों पर चढ़ते हुए जो गोविंदा नाम को पुकारेगा, उन सभी श्रद्धालुओं को मैं मोक्ष दूँगा।
गोविंदा हरि गोविन्दा वेंकटरमणा गोविंदा, श्रीनिवासा गोविन्दा वेंकटरमणा गोविन्दा!!
मंदिर की सप्ताहिक सेवाएं
तिरुमाला साप्ताहिक सेवा
सोमवार को विशेष पूजा – यह पूजा सुबह 7:30 बजे से सुबह 9 बजे तक शुरू होती है। पुजारी कई स्तोत्रों का पाठ करते हैं और अभिषेक करते हैं। फिर, वे 14 कलश देवताओं के सामने रखते हैं। इनमें तेल, दूध, दही, चावल और पवित्र जल होता है।
मंगलवार को अष्टदला – पद पद्मराधना – यह सेवा सुबह 6:30 बजे से सुबह 7:30 बजे तक शुरू होती है। पुजारी भगवान विष्णु के 108 नामों का पाठ करते हैं, प्रत्येक नाम के साथ कमल का फूल होता है। लोग देवी लक्ष्मी और पद्मावती की पूजा भी करते हैं और फिर रथ आरती भी करते हैं। टिकट की कीमत रुपये है। 5 व्यक्तियों के लिए 2500।
बुधवार को सहस्र कलाभिषेक – अनुष्ठान सुबह 6:30 बजे से सुबह 8:30 बजे तक शुरू होता है। इस अनोखे अनुष्ठान में पुजारी 1008 चांदी के बर्तन , 8 परिवार के बर्तन और एक सोने के बर्तन को विभिन्न चीजों से भरते हैं। वे उन्हें मुख्य मंडपम में रखते हैं। भक्त विभिन्न पंच सूक्तों और शांति मंत्रों का भी पाठ करते हैं। टिकट की कीमत रु। 6 व्यक्तियों के लिए 5000।
गुरुवार को तिरुप्पुवाड़ा सेवा – यह सेवा सुबह 6:30 बजे शुरू होती है। पुजारी देवता से सभी आभूषण और फूल हटा देते हैं। फिर, वे मूर्ति को केवल धोती और उत्तरीयम पहनाते हैं । लागत रुपये है। 6 व्यक्तियों के लिए 5000।
शुक्रवार को श्रीवारी अभिषेकम – यह सुबह 4:30 बजे – सुबह 6 बजे शुरू होता है। पुजारी दूध, घी, चंदन और केसर के साथ पवित्र गंगा में देवता को स्नान कराते हैं। टिकट की कीमत रु। 750 प्रति व्यक्ति।
आवधिक सेवान
अर्जिता कल्याणोत्सवम सेवा – यह अनुष्ठानभगवान वेंकटेश्वर के देवी लक्ष्मी और पद्मावती के साथ विवाह का प्रतीक है। टिकट की कीमत रु। 2 व्यक्तियों के लिए 1000।
अर्जिता ब्रह्मोत्सवम – लोग देवी लक्ष्मी और पद्मावती के साथ भगवान वेंकटेश्वर की पूजा करते हैं। वे इस अनुष्ठान में कई स्तोत्र का पाठ भी करते हैं। टिकट की कीमत रु। 5 व्यक्तियों के लिए 1000।
उंजल सेवा – पुजारी तीनों देवताओं की मूर्तियों को दीपक की पृष्ठभूमि में झूले पर रखते हैं। टिकट की कीमत रु। 5 व्यक्तियों के लिए 1000।