महात्मा बुद्ध का सौतेला भाई राजा नंद हमेशा राजसी सुख में मग्न रहता था।
प्रजा की भलाई के लिए वह कोई कार्य नहीं करता था, जिससे प्रजा की दशा दिनोदिन खराब होती जा रही थी।
भ्रष्ट राजा के अधीनस्थ मंत्रीगण भी प्रजा को कष्ट देते थे और भ्रष्टाचार करते थे।
एक बार जब महात्मा बुद्ध का कपिलवस्तु में आगमन हुआ तो लोग उनके पास पहुँचे और उनसे अपनी व्यथा कह सुनाई।
भगवान बुद्ध, नंद से मिलने गए। नंद उस समय राजमहल में नृत्य संगीत का आनंद का आनंद ले रहा था।
बुद्धदेव राजदरबार में बहुत देर तक प्रतीक्षा करते रहे, फिर लौट आए। जब थोड़ी देर बाद एक दासी ने उनके वापस जाने की बात नंद को बताई तो उसे दुःख हुआ और उसने बुद्धदेव से माफी माँगने का निश्चय किया।
जाने से पहले जब वर रानी के पास गया तो वह उस समय हाथों पर सुगंधित लेप लगा रही थी। उसने अनमने ढंग से कहा- ‘‘जाइए, मगर मेरे हाथों का लेप सूखने से पहले लौट आइए।‘‘
राजा नंद, बुद्धदेव के पास पहुँचा और उसने उनसे अपनी धृष्टता के लिए क्षमा माँगी। तथागत ने कहा-‘‘नंद यदि तुम्हें सचमुच दुःख है तो मेरा उपदेश ग्रहण करो।‘‘
नंद को रह-रहकर रानी की बात याद आ रही थी- ‘मेरे हाथों का लेप सूखने से पहले लौट आइए।‘
परंतु साथ ही उसे यह भी भान था कि भगवान बुद्ध एक महापुरूष हैं और इसलिए वह उनके सम्मुख पुनः धृष्टता नहीं करना चाहता था। इसलिए उसने तथागत का उपदेश ग्रहण करने के लए हामी भर दी।
तथागत ने स्नेहपूर्वक उसे ज्ञानोपदेश दिया, किंतु नंद का उस ओर बिलकुल ध्यान न था।
बुद्ध ने कहा- ‘‘‘नंद! तुम सुख और आराम का जीवन व्यतीत करना चाहते हो तो आओ, मैं तुम्हें स्वर्ग लिए चलता हूँ।‘‘ उनका इतना कहना ही था कि सारा दृश्य बदल गया।
अब उसे एक प्रकाशित मार्ग दिखाई पड़ा। उस प्रकाशित मार्ग के दूसरे सिरे पर ऐश्वर्यों से युक्त स्वर्गलोक था।
स्वर्ग की समृद्धि देख उसकी आँखें चैंधिया गई। वहाँ की सुंदी अप्सराओं को देखकर उसे अपना राजमहल फीका लगने लगा। स्वर्ग का यह सुख प्राप्त करने लिए उसका मन छटपटा उठा। बुद्धदेव से उसकी यह मानसिक दशा छिप न सकी।
उन्होंने उससे पूछा- ‘‘ नंद! क्या तुम स्वर्ग के इस सुख को पाना चाहते हो?
‘‘ नंद ने हामी भरी। नंद के हामी भरने पर भगवान बुद्ध बोले-‘‘स्वर्ग की प्राप्ति तपस्या से अर्जित पुण्य के फलस्वरूप होती है। यदि तुम स्वर्ग के भोग चाहते हो तो तुम्हें इसके लिए कठिन तप करना पड़ेगा। क्या तुम तप करने के लिए तैयार हो?‘‘
राजा नंद का मन स्वर्ग के ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिए इतना विकल था कि वह तुरंत तप की विधि समझने के लिए तत्परी हो उठाा।
भगवान बुद्ध ने उसे तप का मार्ग। बस, उस दिन से नंद ईश्वर के ध्यान में मग्न रहने लगा। स्वर्ग का सुख पाने के लिए वह इतना अधीर था कि उसे पाने के लिए वह कुछ भी कर सकता था।
धीरे-धीरे उसे तपस्या में आनंद मिलने लगा। उसने महसूस किया मानो उसके ज्ञानचक्षु खुल गए हैं।
बहुत दिनों बाद एक दिन भगवान बुद्ध, नंद के पास गए तो उन्होंने स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-‘‘नंद तुम्हारी तपस्या पूरी हो गई।
अब तुम स्वर्ग का सुख पा सकते हो।‘‘ सुनते ही नंद ने हाथ जोड़कर कहा-‘‘प्रभु! क्षमा करें, अब मुझे स्वर्ग का सुख नहीं चाहिए। मेरी अंतर्दृष्टि खुल गई है।
मुझे सच्चा ज्ञान प्राप्त हो गया है। सच्चा सुख भोग में नहीं, योग में है; तप में है, ध्यान में है, भक्ति में है।
अब मैं भोग-विलास त्यागकर तप, ध्यान में ही आनंद प्राप्त करना चाहता हँू, साथ ही अपना प्रजा की सेवा भी।
‘‘ बुद्धदेव मुस्कराए और नंद से बोले-‘‘अभी तुम्हारा, तुम्हारी पत्नी के प्रति कर्म शेष है। उस जिम्मेदारी से मुक्त होओ।
उसे भी ज्ञान का मार्ग दिखाओ।‘‘ नंद ने इस हेतु सहर्ष हामी भरी। तब से प्राप्त ज्ञान को लेकर वह अपने राज्य को लौटा और उसने अपनी पत्नी सहित सभी के कल्याण का पथ प्रशस्त किया।