स्वस्थ-निरोगी जीवन के स्वर्णिम सूत्र

एक सुखी, संतुलित एवं सफल जीवन का आधार है स्वस्थ-निरोगी काया। सांसारिक सुख, प्रगति हो या आत्मिक विकास-बिना स्वस्थ शरीर के कुछ भी दूभर ही रहता है।

जीवन के चारों पुरूषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इसी के बल पर संभव बनते है। शास्त्रों में कहा गया है कि शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्-अर्थात् शरीर सभी धर्मों(कर्तव्यो) को पूरा करने का साधन है। इसका ध्यान रखना हमारा पहला कर्तव्य है । सर्वसामान्य सूत्रों का पालन करते हुए हम स्वस्थ एवं निरोगी जीवन की नींव रख सकते हैं।

आज जितने शारीरिक रोग एवं विकृतियाँ मानव जीवन को आक्रांत किए है, उनमें अधिकांश विकृत जीवनशैली की ही देन है। सर्वसामान्य होते मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हदयाघात, मोटापा जैसे रोग इसके उदाहरण हैं।

आज के कुछ दशक पहले इनका गाँव-कस्बो में कोई नामोनिशान नही था, लेकिन आज तो ये जैसे आम जीवन के अंग बनते जा रहे हैं। आज की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में यदि व्यक्ति थोड़ी-सी सावधानी बरते और नियम-संयम से रहते हुए अपनी दिनचर्या को संतुलित कर ले वह कुछ अनुभूत सूत्रों का पालन करे, तो जीवन को बोझिल करते इन रोग-विकारों से बचा रह सकता है।

प्रस्तुत हैं ऐस ही कुछ स्वर्णिम सूत्र-

संयम- शारीरिक स्वास्थ्य का आधार है संयम। हर तरह की अस्वस्थता एवं रोग का मुख्य कारण है असंयम। असंयम से ऊर्जा का क्षय होता है और शरीर-मन की प्रतिरोधक क्षमता कम होती जाती है, जिसके फलस्वरूप छोटे-छोटे कारण रोग का माध्यम बन जाते हैं। असंयम में मुख्य रूप् से अहार-विहार और इंद्रियों का असंयम आता है।

अतः आहार-संयम स्वस्थ रहने का पहला सूत्र है, जिसकी आज-कल भरपूर अनदेखी होती है। जब चाहे, जो मन करे खा लेना, आज की जीवनशैली में शुमार है। पेट भर गया है, फिर भी इसमें स्वादु व्यंजन को ठूस रहे हैं।

शरीर की आवश्यकता क्या है, आहार की गुणवत्ता क्या है, शरीर की प्रकृति के अनुरूप वह लाभकारी है भी या नहीं, कुछ भी ध्यान में नहीं रहता।

भोजन की मात्रा कार्यशैली पर निर्भर करती है। खेत में 12 घंटे श्रम में लगे किसान और ऑफिस में 12 घंटे कुर्सी पर बैठकर काम करने वाले के आहार में अंतर होना स्वाभाविक है।

साधकों के लिए तो शास्त्रों में आधा पेट भोजन का निर्देश है। जो भी हो भोजन इतनी मात्रा में ही लें कि आपके कार्य को प्रभावित न करे और आलस्य हम पर हावी न हो सके। जब कड़़ी भूख लगे, तभी भोजन करें।

बिना भूख लगे या यों ही भोजन करना बिना आग की अँगीठी में लीकड़ियाँ झोंकने जैसा है, जिससे धुआँ ही उठने वाला है।

खुब चबा-चबाकबर भोजन करना चाहिए। इतना चबाएँ कि दाँत का काम आँत को न करना पड़े। जल्दबाजी में किया गया भोजन पेट के लिए बहुत भारी पड़ता है।

पेट की आधी ऊर्जा तो भोजन को पचाने में ही लग जाती है। भोजन सुपाच्य, यथासंभव मौसमी, सात्विक, शाकाहारी हो तो उचित है। व्यक्ति की प्रकृति के अनुरूप, देश, काल, परिस्थिति एवं कार्यशैली के अनुरूप इसमें हेर-फेर हो सकता है।

साधनाकाल में तो भोजन की मात्रा पर विशेष ध्यान रखना होता है। आधा पेट भोजन के लिए, एक-चैथाई पानी के लिए और एक-चैथाई हवा के लिए रहे।

भोजन तभी ग्रहण करें, जब मनःस्थिति शांत और प्रसन्न हो। तनावग्रस्त या चिंता की आवस्था में शरीर से विषाक्त जैवरसायन निकलते हैं, जिससे पाचन-प्रकिया बिगड़ती है और स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। शांत-प्रसन्न अवस्था में पाचन तंत्र अपनी पूरी सक्रियता में रहता है।

आहार के साथ इंद्रिय-संयम अहम है। धर्म-मर्यादा के अंतर्गत इंद्रियभोग स्वास्थ्यकारी होता है। पशु-पक्षी प्रकृतिजन्य प्रेरणा के तहत आचरण करते हुए स्वस्थ तथा नीरोग बने रहते है।

मनुष्य प्रकृति की अवहेलना करते हएु अतिशय असंयम द्वारा अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारता है। इंद्रिय-संयम ऊर्जा क्षय के प्रमुख माध्यमों को कसकर ओजस्वी एवं निरोगी जीवन का आधार रखता है।

करें भरपूर श्रम- संयम के साथ श्रम का अनुपात महत्वपूर्ण है। श्रम के अभाव में भोजन के साथप ग्रहण की गई कैलोरीज संगृहीत होती रहती है। इससे शरीर का मोटापा बढ़ता है और साथ ही मधुमेह, हृदयघात जैसे रोगों के लिए उर्वर जमीन तैयार होती है।

नित्य व्यायाम के साथ कुछ आसन आदि को स्थान देते हुए शारीरिक श्रम की आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

प्रातः भ्रमण इस संदर्भ में बहुत ही लाभकारी है। प्रातः की शुद्ध प्राणवायु में गहरी साँस लेते हुए की गई चहलकदमी दिलोदिमाग को नई स्फूर्ति से भर देती है।

इसके साथ हल्के व्यायाम-आसन आदि को भी जोड़ा जा सकता है। इस सब में नित्य आधा-पौन घंटा का भी समय निकालें तो पर्याप्त होगा।

अपने ऑफिस , स्कूल या कार्यक्षेत्र तक यदि दूरी बहुत ज्यादा नहीं है तो गाड़ी के बजाय पैदल चलकर कसरत की आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

यदि दूरी कुछ अधिक है तो साइकिल का उपयोग किया जा सकता है। ये बस स्वास्थ्य लाभ के सामान्य से, लेकिन उपयोगी सूत्र हैं।

आज हम जिंदगी की भाग-दौड़ में कुछ ऐसा खो गए हैं कि इन सामान्य-सी चीजों को नजरअंदाज कर रहे हैं और आगे चलकर शरीर को रोगों का अड्डा बनाकर छोटी-सी उपेक्षाओं का भारी खामियाजा भुगतने के लिए अभिशप्त हैं।

इसके साथ कुशल मार्गदर्शन में प्राणायाम भी जोड़ सकते हैं, जो तन-मन के लिए बहुत लाभकारी हैै।

विश्राम के साथ गहरी नींद- थके-हारे तन-मन का टाॅनिक-भोजन, श्रम के साथ विश्राम का अनुपान महत्वपूर्ण हैं। इसमें नींद सबसे जरूरी है। नींद एक टाॅनिक का काम करती है।

कुछ देर की गहरी नींद तन-मन को तरोताजा कर देती है। दिनभर की भाग-दौड़ के दौरान हुई शारीरिक-मानसिक थकान-टूटन की भरपाई हो जाती है।

नींद के लिए नित्य 6 से 7 घंटे पर्याप्त हैं। बहुत कम या जरूरत से ज्यादा नींद, दोनों स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक ही हैं।

आपात् स्थिति की बात अलग है, सामान्यतया इतनी नींद लें कि उसके बाद तरोताजा अनुभव करें। शोध के आधार पर पाया गया है कि तीन दिन तक की आधी-अधूरी नींद शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को 60 प्रतिशत तक कम कर देती है।

अतः पर्याप्त नींद व विश्राम महत्त्वपूर्ण हैं। दोपहर भोजन के बाद भी कुछ पल केट नेप के रूप नींद-विश्राम के निर्धारित हो सकते है।

प्रसन्नचित्त, सादा जीवन-उच्च विचार– शांत-प्रसन्न जीवन भी स्वस्थ रहने का गुप्त राज है। चिंताग्रस्त एवं हैरान-परेशान व्यक्ति कितना ही खाए-पिए, उसका तंदुरूस्त रहना संदिग्ध ही है।

जबकि प्रसन्नचित व्यक्ति रूखा-सूखा खाकर भी नीरोग व वलिष्ठ रहता है। यहाँ सादा जीवन-उच्च विचार का सिद्धांत उपयोगी है। एक संतोष से भरा प्रमुदित जीवन एक वरदान से कम नहीं।

जबकि इच्छाओं-कामनाओं से ग्रसित असंतुष्ट जीवन दिन का चैन और रात की नींद सब छीन लेता है और सब कुछ होते हुए भी स्वस्थ जीवन के सुख से वंचित रहता है।

सुव्यवस्थित-संतुलित दिनचर्या- आधी चिंता एवं तनाव तो अस्त-व्यस्त दिनचर्या के कारण होते हैं; जबकि एक व्यवस्थित दिनचर्या जीवन को लयबद्ध करती है तथा मानसिक तनाव से मुक्त रखने का एक कारगर उपाय सिद्ध होती है।

इसका कारण यह है कि तनाव के कारण ही बहुत सारे रोग पनपते हैं; जबकि तनावमुक्त जीवन व्यक्ति को स्वस्थ रखता है। इसके लिए प्रकृति का संग-साथ बहुत ही उपयोगी साबित हो सकता है।

लाभकारी है प्रकृति का संग-साथ- स्वच्छ, शांत व शीतल प्रकृति की गोद स्वास्थ्य के लिए अति लाभकारी है। यहाँ की प्राणदायक वायु और शांति जीवन में नई स्फूर्ति का संचार करती है।

अतः जंगल, झील, खेत, और पर्वत-वादियों की ओर भ्रमण एवं यात्रा के मौकों को तलाश्ते रहना चाहिए। यदि ऐसा वातावरण आस-पास ही है तो फिर तो कहना ही क्या। इसे स्वस्थ जीवन के लिए एक ईश्वरप्रदत्त उपहार कह सकते हैं।

आत्मिक सबलता-स्वस्थ जीवन का सुदृढ़ आधार- नित्य अपने आत्मिक कल्याण के लिए किया गया न्यूनतम पुरूषार्थ स्वस्थ जीवन के लिए संजीवनी के समान काम करता है।

आत्मचिंतन और ईश्वरभजन में बिताए कुछ पल जीवन में एक नई आशा व शक्ति का संचार करते हैं। ऐसे में जीवन का गहनतम स्तर पर सिंचन होता है।

इससे उपजा दैवीय विश्वास विषम परिस्थितियों में जीवट को बनाए रखता है, जो कि निरोगी जीवन का आधार बनता है; जबकि आस्थाहीन जीवन में निराशा एवं चिंता का घुन शरीर की जीवनशक्ति को धीरे-धीरे चूसता है।

इन सामान्य से सू़त्रों का अनुकरण करते हुए व्यक्ति एक स्वस्थ एवं निरोगी जीवन की नींव रख सकता है। ऐसे में जरूरत ही नहीं पडे़गी किसी डाॅक्टर के पास जाने की और व्यर्थ में अपना समय-धन को नष्ट करने की।

इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इन सूत्रों को थोड़ा ही सही, पर जीवन में निरंतर उतारने का प्रयत्न अवश्य करे, ताकि शरीररूपी इस मंदिर की आरोग्यरूपी आभूषण से सज्जा सतत बनाई रखी जा सके एवं जीवन निरोगी रखा जा सके।

जबकि इच्छाओं-कामनाओं से ग्रसित असंतुष्ट जीवन दिन का चैन और रात की नींद सब छीन लेता है और सब कुछ होते हुए भी स्वस्थ जीवन के सुख से वंचित रहता है।

सुव्यवस्थित-संतुलित दिनचर्या- आधी चिंता एवं तनाव तो अस्त-व्यस्त दिनचर्या के कारण होते हैं; जबकि एक व्यवस्थित दिनचर्या जीवन को लयबद्ध करती है तथा मानसिक तनाव से मुक्त रखने का एक कारगर उपाय सिद्ध होती है।

इसका कारण यह है कि तनाव के कारण ही बहुत सारे रोग पनपते हैं; जबकि तनावमुक्त जीवन व्यक्ति को स्वस्थ रखता है। इसके लिए प्रकृति का संग-साथ बहुत ही उपयोगी साबित हो सकता है।

लाभकारी है प्रकृति का संग-साथ- स्वच्छ, शांत व शीतल प्रकृति की गोद स्वास्थ्य के लिए अति लाभकारी है। यहाँ की प्राणदायक वायु और शांति जीवन में नई स्फूर्ति का संचार करती है।

अतः जंगल, झील, खेत, और पर्वत-वादियों की ओर भ्रमण एवं यात्रा के मौकों को तलाश्ते रहना चाहिए। यदि ऐसा वातावरण आस-पास ही है तो फिर तो कहना ही क्या। इसे स्वस्थ जीवन के लिए एक ईश्वरप्रदत्त उपहार कह सकते हैं।

आत्मिक सबलता-स्वस्थ जीवन का सुदृढ़ आधार- नित्य अपने आत्मिक कल्याण के लिए किया गया न्यूनतम पुरूषार्थ स्वस्थ जीवन के लिए संजीवनी के समान काम करता है।

आत्मचिंतन और ईश्वरभजन में बिताए कुछ पल जीवन में एक नई आशा व शक्ति का संचार करते हैं। ऐसे में जीवन का गहनतम स्तर पर सिंचन होता है।

इससे उपजा दैवीय विश्वास विषम परिस्थितियों में जीवट को बनाए रखता है, जो कि निरोगी जीवन का आधार बनता है; जबकि आस्थाहीन जीवन में निराशा एवं चिंता का घुन शरीर की जीवनशक्ति को धीरे-धीरे चूसता है।

इन सामान्य से सू़त्रों का अनुकरण करते हुए व्यक्ति एक स्वस्थ एवं निरोगी जीवन की नींव रख सकता है।

ऐसे में जरूरत ही नहीं पडे़गी किसी डाॅक्टर के पास जाने की और व्यर्थ में अपना समय-धन को नष्ट करने की।

इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति इन सूत्रों को थोड़ा ही सही, पर जीवन में निरंतर उतारने का प्रयत्न अवश्य करे, ताकि शरीररूपी इस मंदिर की आरोग्यरूपी आभूषण से सज्जा सतत बनाई रखी जा सके एवं जीवन निरोगी रखा जा सके।

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