सूरदास हिन्दी के भक्तिकाल के महान कवि थे। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं।
सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में विद्वानों में मतभेद है। भक्तमाल के रचयिता श्रीनाभा जी ने लिखा है कि सूरदासजी उद्धवजी के अवतार थे।
15 वीं सदी को अपनी रचनाओं से प्रभावित करने वाले कवि, महान् संगीतकार और संत थे सूरदास जी। सूरदास जी ने सिर्फ एक सदी को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व को अपने काव्य से रोशन किया है।
सूरदास जी की रचना की प्रशंसा करते हुए डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि काव्य गुणों की विशाल वनस्थली में सूरदास जी का एक अपना सहज सौन्दर्य है।
सूरदास जी उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिनका सौन्दर्य पद पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता हो। बल्कि उस अकृत्रिम वन भूमि की तरह है, जिसका रचयिता स्वंय रचना में घुलमिल गया हो।
सूरदास जी ने अपनी वीणा का आश्रय लेकर जो कुछ भी गाया, उसके स्वर जन्म – जन्मान्तर तक भारतीय लोक – जीवन और संस्कृति में व्याप्त रहेगे हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल की सगुणोपासक धारा की कृष्णाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि महात्मा सूरदास जी का अपना विशिष्ठ स्थान है |
इनकी कृति सूरसागर हिन्दी साहित्य का “गौरव – ग्रन्थ” है |भक्त शाखा के कवियों में अष्टछाप के कवि ही प्रधान है और उनमे भी श्रेष्ठतम कवि हिंदी सहित्य के सूर्य सूरदास जी है सूरदास जी वात्सल्य रस के “सम्राट” माने जाते है |
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार – ‘जयदेव की देववाणी की स्निग्ध पीयूषधारा, जो काल की कठोरता में दब गयी थी अवकाश पाते ही लोकभाषा की सरलता में परिणत होकर मिथिला की अमराइयों में विद्यापति के कोकिल – कंठ से प्रकट हुई और आगे चलकर ब्रज के कुंजो के बीच फैलकर मुरझाये मनो को सीचने लगी आचार्यो की छाप लगी हुई आठ वीणाएँ श्री कृष्णा की प्रेम – लीला का कीर्तन कर उठी, जिनमे सबसे ऊँची और मधुर क्षंकार अन्धे कवि “सूरदास” की वीणा की थी |
महाकवि सूरदास के लिए इससे श्रेष्ठ कान्यात्मक उक्ति दूसरी नहीं हो सकती |
सूरदास जी सगुण ईश्वर के उपासक थे | इसलिए उनकी भक्ति को सगुण भक्ति कहते हैं | भक्ति उनके लिए साधन नहीं साध्य थी |
उनके काव्य में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जहां गोपियां श्री कृष्ण के विरह में तड़पना पसंद करती हैं | उन्हें कृष्ण से अलग होकर मिली मुक्ति भी अस्वीकार्य है |
वैधी भक्ति को स्वीकार करते हुए भी वह प्रेम-भक्ति को अधिक महत्व देते हैं | उनके काव्य में दास्य, सख्य, वत्सल, मधुर तथा शांत मुख्य पाँच भावों की भक्ति का प्रतिपादन मिलता है |
सूरदास जी ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है | श्री कृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं और क्रियाओं का यथार्थवादी वर्णन करने में वे सफल हुए हैं |
सूरदास ने पुष्टिमार्ग में दीक्षा प्राप्त की | संभवतः इसी से प्रभावित होकर सूरदास ने अपने काव्य में वात्सल्य भाव को अधिक महत्व दिया |
उन्होंने अपने पदों में श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव, उनकी बाल-छवि, उनकी वेशभूषा, बाल-चेष्टाओं, गोधन, गोचरण तथा बाल-कृष्ण के मन के भावों का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है |
अंधे होते हुए भी सूरदास जी ने प्रकृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय है | उनके काव्य का क्षेत्र ब्रज प्रदेश का परिवेश है |
उनके काव्य में ब्रजमण्डल की संपूर्ण प्राकृतिक शोभा सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत होती है | उनके काव्य में प्रकृति का उद्दीपनगत रूप में वर्णन मिलता है |
उन्हें प्रकृति के कोमल रूप से अधिक लगाव था इसलिए उन्होंने उसी रूप में प्रकृति का वर्णन किया |
सूरदास जी की सद्गुरु देव और ब्रज रज में अगाध आस्था देखने को मिलती है। कहा जाता है, अंतिम समय में उन्हें सीधा लिटाया गया तो उन्होंने गुंसाई से उल्टा लिटाने का अनुरोध किया। गुंसाईजी के कारण पूछने पर उन्होंने बताया वह अंतिम समय में ब्रजरज को पीठ दिखाकर नहीं जाना चाहते।
सूरदास भक्तिकाल के कृष्ण काव्य-धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। भगवान कृष्ण की लीलाओं का गायन करना ही उनका प्रमुख उद्देश्य था।
कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं और मातृ-भावना को लेकर सूरदास ने जो मनोहारी और प्रभावशाली वर्णन किया है, वह अद्वितीय है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूरदास की प्रशंसा करते हुये लिखा है, कृष्ण जन्म की आनन्द-बधाई के उपरान्त ही बाल-लीला प्रारम्भ हो जाती है।
जितने विस्तृत और विशुद्ध रूप में बाल्य जीवन का चित्रण इन्होंने किया है उतने विस्तृत रूप में और किसी कवि ने नहीं किया। शैशव से लेकर कौमार अवस्था तक के क्रम से लगे हुये न जाने कितने चित्र मौजूद हैं।
उनमें केवल बाहरी रूपों और चेष्टाओं का ही विस्तृत और सूक्ष्म वर्णन नहीं है, कवि ने बालकों की अन्तःप्रकृति में भी पूरा प्रवेश किया है और अनेक बाल्यभावों की सुन्दर स्वाभाविक व्यंजना की है।
आचार्य शुक्ल ने अन्यत्र भी लिखा है सूरदास वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आये हैं।
कहते हैं कि द्वापर युग में भी सूरदासजी का जन्म हुआ था। तब भी वे अंधे थे और वे प्रभु श्रीहरि की भक्ति में रमकर भजन गाया करते थे।
एक बार वे गाते हुए ऋषि गर्ग के आश्रम पहुंच और उन्होंने पूछा कि हे मुनिवर! मैंने सुना है कि मेरे प्रभु ने श्रीकृष्ण रूप में अवतार लिया है।
मेरे अंतरमन की आंखें उन्हें देख रही है। क्या मुझे प्रभु के चरणों में मुक्ति मिलेगी।
यह सुनकर गर्ग मुनि आंखें बंद करके भविष्य में झांकते हैं। फिर वे आंखें खोलकर कहते हैं कि अभी नहीं कविराज। यह सुनकर कविराज निराश हो जाते हैं।
फिर आगे मुनि कहते हैं कि अभी तो आपकी आवश्यकता कलयुग में पड़ेगी। यह सुनकर वह अंधा गायक कहता है कलयुग में?
मुनि कहते हैं हां, कलयुग में करोड़ों प्राणियों को आपको अपने भक्ति रस में डूबोना है।
जब कलयुग में भक्ति का हास होगा तो आपको अपनी दिव्य दृष्टि से प्रभु की लीला दिखाई देने लगेगी और आप उसका वर्णन अपनी वाणी से करेंगे।
उस समय भी आपको नैनहिन शरीर की प्राप्त ही होगी। उसी जन्म में आपको मुक्ति भी मिलेगी। यह सुनकर कविराज प्रसन्न होकर वहां से विदा ले लेते हैं।
सूरदास जी का जीवन परिचय
वात्सल्य रस के सम्राट महाकवि सूरदास का जन्म 1478 ईसवी में रुनकता नामक गांव में हुआ था। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है।
कुछ विद्वानों का मत है कि सीही सूरदास की जन्मस्थली है। इनके पिता का नाम पण्डित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे और इनकी माता का नाम जमुनादास था। सूरदास जी को पुराणों और उपनिषदों का विशेष ज्ञान था।
सूरदास जी ने काव्य की धारा को एक अलग ही गति प्रदान की। जिसके माध्यम से उन्होंने हिंदी गद्य और पद्य के क्षेत्र में भक्ति और श्रृंगाार रस का बेजोड़ मेल प्रस्तुत किया है।
और हिंदी काव्य के क्षेत्र में उनकी रचनाएं एक अलग ही स्थान रखती है। साथ ही ब्रज भाषा को साहित्यिक दृष्टि से उपयोगी बनाने का श्रेय महाकवि सूरदास को ही जाता है।
सूरदास जी अंधे थे या नही ?
सूरदास जी जन्म से अंधे थे या नहीं। इस बारे में कोई प्रमाणित सबूत नहीं है। लेकिन माना जाता है कि श्री कृष्ण बाल मनोवृत्तियों और मानव स्वभाव का जैसा वर्णन सूरदास जी ने किया था।
ऐसा कोई जन्म से अंधा व्यक्ति कभी कर ही नहीं सकता। इसलिए माना जाता है कि वह अपने जन्म के बाद अंधे हुए होंगे। तो वहीं हिंदी साहित्य के ज्ञाता श्यामसुन्दर दास ने भी लिखा है कि सूरदास जी वास्तव में अंधे नहीं थे, क्योंकि श्रृंगार और रूप-रंग आदि का जो वर्णन महाकवि सूरदास ने किया वह कोई जन्मान्ध व्यक्ति नहीं कर सकता है।
“डॉक्टर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है – “सूरसागर के कुछ पदों से यह ध्वनि अवश्य निकलती है कि सूरदास अपने को जन्म का अंधा और कर्म का अभागा कहते हैं, पर सब समय इसके अक्षरार्थ को ही प्रधान नहीं मानना चाहिए।
“इतिहास में सूरदास की रचनाओं की तरह उनके अंधत्व के बारे में भी बहुत चर्चा होती हैं. श्रीनाथ भेट की “संस्कृतवार्ता मणिपाला”, श्री हरिराय कृत “भाव-प्रकाश”, श्री गोकुलनाथ की “निजवार्ता” आदि ग्रन्थों के आधार पर, जन्मांध (जन्म के अन्धे) माने गए हैं।
लेकिन सूरदास ने जिस तरह राधा-कृष्ण के रुप सौन्दर्य का सजीव चित्रण, नाना रंगों का वर्णन, सूक्ष्म पर्यवेक्षणशीलता आदि गुणों के साथ किया हैं। वह किसी भी जन्मांध के लिए करना लगभग असंभव लगता हैं इसीकारण अधिकतर वर्तमान विद्वान सूर को जन्मान्ध स्वीकार नहीं करते।
एक दिव्य दृष्टि
हर शाम सूरदास ने कृष्ण मंदिर में जाकर भजन की रचना की। हर दिन, रचना में ऐसे वाक्यांश शामिल थे जो कृष्ण मूर्ति (देवता) के अलंकारम (पोशाक) का सही वर्णन करते थे।
दर्शकों और पुजारियों को अनिवार्य रूप से आश्चर्य हुआ। ‘वह अंधे होते हुए भी प्रभु के वेश का वर्णन कैसे कर सकता है?’ उन्होंने सोचा।
पुजारियों ने सोचा कि शायद सूरदास सिर्फ देवता के श्रृंगार का अनुमान लगा रहे हैं। इसलिए, उन्होंने एक परीक्षण करने के बारे में सोचा: उन्होंने किसी विशेष शाम को किसी भी पोशाक के साथ देवता को नहीं सजाया।
जब सूरदास मंदिर में भजन के लिए बैठे, तो उन्होंने कृष्ण के प्राकृतिक रंग (मेघश्यामा का अर्थ काले बादल) की बिना अलंकरण की एक रचना से सभी को फिर से आश्चर्यचकित कर दिया।
उस दिन, सभी ने महसूस किया कि भले ही सूरदास अंधे थे, लेकिन उन्हें एक दिव्य दृष्टि से संपन्न किया गया था, जिससे उन्हें अपने सभी वैभव में भगवान को देखने में मदद मिली।
सूरदास का विवाह
कहा जाता है कि सूरदास जी ने विवाह किया था। हालांकि इनके विवाह को लेकर कोई साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं लेकिन फिर भी इनकी पत्नी का नाम रत्नावली माना गया है।
कहा जाता है कि संसार से विरक्त होने से पहले सूरदास जी अपने परिवार के साथ ही जीवन व्यतीत किया करते थे।
सूरदास के गुरु
अपने परिवार से विरक्त होने के पश्चात् सूरदास जी दीनता के पद गाया करते थे।
तभी सूरदास के मुख से भक्ति का एक पद सुनकर श्री वल्लभाचार्य ने इन्हें अपना शिष्य बना लिया।
जिसके बाद वह कृष्ण भगवान का स्मरण और उनकी लीलाओं का वर्णन करने लगे। साथ ही वह आचार्य वल्लभाचार्य के साथ मथुरा के गऊघाट पर स्थित श्रीनाथ के मंदिर में भजन कीर्तन किया करते थे।
महान् कवि सूरदास आचार्य़ वल्लभाचार्य़ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे।
और यह अष्टछाप कवियों में भी सर्वश्रेष्ठ स्थान रखते थे। शिष्य बनने के बाद उनका जीवन बदल गया। गुरु श्री वल्लभाचार्य ने उन्हें अपना जीवन भगवान कृष्ण को समर्पित करने के लिए कहा।
महाकवि सूरदास ने बल्लभाचार्य से ही भक्ति की दीक्षा प्राप्त की। … बल्लभाचार्य ने ही सूरदास जी को ही ‘भागवत लीला’ का गुणगान करने की सलाह दी थी।
सूरदास की कृष्ण भक्ति
वल्लभाचार्य से शिक्षा लेने के बाद सूरदास पूरी तरह कृष्ण भक्ति में लीन हो गए। सूरदास ने अपनी भक्ति को ब्रजभाषा में लिखा। सूरदास ने अपनी जितनी भी रचनाएँ की वह सभी ब्रजभाषा में की।
इसी कारण सूरदास को ब्रजभाषा का महान कवि बताया गया हैं। ब्रजभाषा हिंदी साहित्य की ही एक बोली हैं जो कि भक्तिकाल में ब्रज श्रेत्र में बोली जाती थी। इसी भाषा में सूरदास के अलावा रहीम, रसखान, केशव, घनानंद, बिहारी, इत्यादि का योगदान हिंदी साहित्य में हैं.
सूरदास जी के जीवन का रोचक प्रसंग
सूरदास जी की कृष्ण भक्ति के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक बार सूरदास कृष्ण की भक्ति में इतने डूब गए थे कि वे एक कुंए जा गिरे, जिसके बाद भगवान कृष्ण ने खुद उनकी जान बचाई और आंखों की रोशनी वापस कर दी।
जब कृष्ण भगवान ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर वरदान में कुछ मांगने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि “आप फिर से मुझे अंधा कर दें। मैं कृष्ण के अलावा अन्य किसी को देखना नहीं चाहता।” महाकवि सूरदास के भक्तिमय गीत हर किसी को मोहित करते हैं।
श्रीकृष्ण गीतावली- कहा जाता है कि कवि सूरदास से प्रभावित होकर ही तुलसीदास जी ने महान् ग्रंथ श्री कृष्णगीतावली की रचना की थी। और इन दोनों के बीच तबसे ही प्रेम और मित्रता का भाव बढ़ने लगा था।
सूरदास का राजघरानों से संबंध
महाकवि सूरदास के भक्तिमय गीतों की गूंज चारों तरफ फैल रही थी।
जिसे सुनकर स्वंय महान् शासक अकबर भी सूरदास की रचनाओं पर मुग्ध हो गए थे।
जिसने उनके काव्य से प्रभावित होकर अपने यहां रख लिया था। आपको बता दें कि सूरदास के काव्य की ख्याति बढ़ने के बाद हर कोई सूरदास को पहचानने लगा।
ऐसे में अपने जीवन के अंतिम दिनों को सूरदास ने ब्रज में व्यतीत किया, जहां रचनाओं के बदले उन्हें जो भी प्राप्त होता।उसी से सूरदास अपना जीवन बसर किया करते थे।
सूरदास की रचनाएं (Surdas ki rachna)
माना जाता है कि सूरदास जी ने हिन्दी काव्य में लगभग सवा लाख पदों की रचना की।
साथ ही सूरदास जी द्वारा लिखे पांच ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं, सूर सागर, सूर सारावली, साहित्य लहरी, नल दमयन्ती, सूर पच्चीसी, गोवर्धन लीला, नाग लीला, पद संग्रह और ब्याहलो।
तो वहीं दूसरी ओर सूरदास जी अपनी कृति सूर सागर के लिए काफी प्रसिद्ध हैं, जिनमें उनके द्वारा लिखे गए 100000 गीतों में से 8000 ही मौजूद हैं।
उनका मानना था कि कृष्ण भक्ति से ही मनुष्य जीवन को सद्गति प्राप्त हो सकती है।सूरदास बचपन से साधु प्रवृत्ति के थे। इन्हें गाने की कला वरदान रूप में मिली थी। जल्द ही ये बहुत प्रसिद्ध भी हो गये थे।
इस प्रकार सूरदास जी ने भगवान कृष्ण की भक्ति कर बेहद ही खूबसूरती से उनकी लीलाओं का व्याख्यान किया है।
जिसके लिए उन्होंने अपने काव्य में श्रृंगार, शांत और वात्सल्य तीनों ही रसों को अपनाया है। इसके अलावा काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पुस्तकालय में सूरदास जी द्वारा रचित 25 ग्रंथों की उपस्थिति मिलती है।
साथ ही सूरदास जी के काव्य में भावपद और कलापक्ष दोनों ही समान अवस्था में मिलते है। इसलिए इन्हें सगुण कृष्ण भक्ति काव्य धारा का प्रतिनिधि कवि कहा जाता है।
हिंदी साहित्य में सूरदास द्वारा रचित मुख्य रूप से 5 ग्रंथों का प्रमाण मिलता हैं.
1.सूरसागर
यह सूरदास द्वारा रचित सबसे प्रसिद्द रचना हैं। जिसमे सूरदास के कृष्ण भक्ति से युक्त सवा लाख पदों का संग्रहण होने की बात कही जाती हैं।
लेकिन वर्तमान समय में केवल सात से आठ हजार पद का अस्तित्व बचा हैं. विभिन्न-विभिन्न स्थानों पर इसकी कुल 100 से भी ज्यादा प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुयी हैं.
सूरदास के इस ग्रन्थ में कुल 12 अध्यायों में से 11 संक्षिप्त रूप में व 10वां स्कन्ध बहुत विस्तार से मिलता हैं। इसमें भक्तिरस की प्रधानता हैं। दशम स्कंध को भी दो भाग दशम स्कंध (पूर्वार्ध) और दशम स्कंध (उत्तरार्ध) में बांटा गया हैं।
सूरसागर की जितनी भी प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुयी हैं वह सभी 1656 से लेकर 19वीं शताब्दी के बीच तक की हैं। इन सब में सबसे प्राचीन प्रतिलिपि मिली हैं वह राजस्थान के नाथद्वारा के सरस्वती भण्डार से मिली हैं।
आधुनिक काल के प्रमुख कवि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सूरसागर के बारे में कहा हैं कि “काव्य गुणों की इस विशाल वनस्थली में एक अपना सहज सौन्दर्य है।
वह उस रमणीय उद्यान के समान नहीं जिसका सौन्दर्य पद-पद पर माली के कृतित्व की याद दिलाता है, बल्कि उस अकृत्रिम वन-भूमि की भाँति है जिसका रचयिता रचना में घुलमिल गया है.”
2.सूरसारावली
सूरदास के सूरसारावली में कुल 1107 छंद हैं। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ एक “वृहद् होली” गीत के रूप में रचित है।
हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि सूरदास जी द्धारा रचित सूरसारावली उनके प्रसिद्ध ग्रंथों में से एक है आपको बता दें कि महाकवि सूरदास जी ने अपने इस मशहूर ग्रंथ की रचना अपनी वृद्धावस्था में की थी, जब वे 67 साल के थे, तब उन्होंने सूर सरावली को लिखा।
इतिहासकारों के मुताबिक सूरदास जी ने अपनी इस प्रसिद्ध कृति को 1602 संवत में लिखा था श्री कृष्ण के प्रति अलौकिक प्रेम और उनकी गहरी आस्था देखने को मिलती है।
3.साहित्य-लहरी
साहित्यलहरी सूरदास की 118 पदों की एक लघुरचना हैं। इस ग्रन्थ की सबसे खास बात यह हैं इसके अंतिम पद में सूरदास ने अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया हैं।
जिसके अनुसार सूरदास का नाम “सूरजदास” हैं और वह चंदबरदाई के वंशज हैं। चंदबरदाई वहीँ हैं जिन्होंने “पृथ्वीराज रासो” की रचना की थी। साहित्य-लहरी में श्रृंगार रस की प्रमुखता हैं.
4.नल-दमयन्ती
नल-दमयन्ती सूरदास की कृष्ण भक्ति से अलग एक महाभारतकालीन नल और दमयन्ती की कहानी हैं।
जिसमे युधिष्ठिर जब सब कुछ जुएँ में गंवाकर वनवास करते हैं तब नल और दमयन्ती की यह कहानी ऋषि द्वारा युधिष्ठिर को सुनाई जाती हैं.
5.ब्याहलो
ब्याहलो सूरदास का नल-दमयन्ती की तरह अप्राप्य ग्रन्थ हैं. जो कि उनके भक्ति रस से अलग हैं।
सूरदास की भाषा शैली
सूरदास जी ने अपनी काव्यगत रचनाओं में मुक्तक शैली का प्रयोग किया है।
साथ ही उन्होंने अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया है।
तो वहीं सभी पद गेय हैं और उनमें माधुर्य गुण की प्रधानता है।
इसके अलावा सूरदास जी ने सरल और प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया है।
सूरदास का काव्य
सूरदास जी को हिंदी काव्य का श्रेष्ठता माना जाता है।
उनकी काव्य रचनाओं की प्रशंसा करते हुए डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है।
और उपमाओं की बाढ़ आ जाती है और रूपकों की बारिश होने लगती है।
साथ ही सूरदास ने भगवान कृष्ण के बाल्य रूप का अत्यंत सरस और सजीव चित्रण किया है।
सूरदास जी ने भक्ति को श्रृगांर रस से जोड़कर काव्य को एक अद्भुत दिशा की ओर मोड़ दिया था।
साथ ही सूरदास जी के काव्य में प्राकृतिक सौन्दर्य़ का भी जीवांत उल्लेख मिलता है।
इतना ही नहीं सूरदास जी ने काव्य और कृष्ण भक्ति का जो मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया, वह अन्य किसी कवि की रचनाओं में नहीं मिलता।
सूरदास के काव्य में भाषा (Surdas ki bhasha shaili)
सूरदास के काव्य की भाषा ब्रज प्रदेश में बोली जाने वाली बोली है जिसे ब्रज भाषा कहते हैं।
ब्रज प्रदेश के शब्दों के साथ उन्होंने अनेक प्रादेशिक संस्कृत के शब्दों का भी चयन किया है। यों भी ब्रजभाषा का सीधा सम्बन्ध संस्कृत से रहा है
फिर सूरदास ने तो पाली, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी और फारसी तुर्की को भी अपने साहित्य में स्थान दिया है। वैसे भी सूरदास अपने शब्द विधान में एक विस्तृत दायरे को समेटे हुए हैं,
सूरदास के काव्य में शैली
भाषा की भाँति सूरदास की शैली भी अद्वितीय एवं अनुपम है। उन्होंने अपने काव्य में विविध शैलियों को अपनाया है।
शैली कवि या लेखक की अनुभूति को अभिव्यक्त करने का एक ढंग है। कृष्ण के अबाल-स्वरूप और बाल-चरित्र का वर्णन करते हुए सूरदास की वचन चातुरी तो देखिए ऐसा लगता है मानों वे बाल मनोविज्ञान के अध्येता हों।
वात्सल्य के तो वे सम्राट इसीलिए कहलाये कि उनका जैसा मातृ हृदय पारखी कवि कोई दूसरा नहीं था।
उन्होंने जितने भी रसों का वर्णन किया है सब भिन्न शैलियों में हैं।
सुविधा की दृष्टि से उनकी शैलियों को निम्नलिखित शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है – गीत शैली, चित्रात्मक शैली, भावात्मक शैली, व्यंग्य शैली, उपालम्भ शैली और दृष्टकूट शैली।
अलंकार प्रयोग
सूरदास ने सूक्ष्म कथावस्तु को कल्पना और अलंकारों के सहारे ही विस्तार की चरम शिखर पर पहुँचाया है।
उनकी अलंकार योजना ने काव्य में केवल सजावट का ही काम नहीं किया है अपितु भाव, गुण रूप और क्रिया का उत्कर्ष भी बढ़ाया है।
सूरदास शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों का प्रयोग बङे कलात्मक ढंग से किया है।
उनके मुख्य अलंकार ये हैं
उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, रूपक, यों कही-कहीं विभावना और अन्योक्ति, रूपक, यों कहीं-कहीं विभावना और अन्योक्ति भी मिलते हैं।
सूरदास के काव्य में आये हुए अलंकार उनकी उद्भावनाओं के उद्गार हैं ऊपर से थोपी हुई कोई वस्तु नहीं।
जहाँ भी महाकवि सूरदास को उपमानों की आवश्यकता हुई हैं वहाँ उन्होंने अच्छे बुरे को परख नहीं की, अपितु ग्रामीण और साधारण बोलचाल के उपमान भी उनकी कविता के साँचे में ढलकर निखर उठे हैं।
सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ
1.. सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है।
2. सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है।
बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है़-
मैया कबहिं बढैगी चौटी?
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।
सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।
3. जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।
4. सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
5. सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से आगे बढ़ जाती है-
हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।
समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ।
6. सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं।
7. प्रेम के स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है
8. सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।
9. सूर का भ्रमरगीत वियोग-शृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है, उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं।
10. सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।
11. सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।
12. सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।
13. सूर का काव्य भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है, कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सूरदास हिंदी साहित्य के महाकवि हैं, क्योंकि उन्होंने न केवल भाव और भाषा की दृष्टि से साहित्य को सुसज्जित किया, वरन् कृष्ण-काव्य की विशिष्ट परंपरा को भी जन्म दिया।
भाव पक्ष
सूरदास प्रेम और सौन्दर्य के अमर गायक हैं । उनका भावपक्ष अत्यंत सबल है । जिसका विवरण निम्नानुसार है-
1. भक्ति भाव – सूरदास कृष्ण के अनन्य भक्त थे । उनकी रचनाओं में भक्ति भाव की अविरल गंगा बहती है । उनकी भक्ति धारा सख्यभाव की है, किन्तु इसमें विनय, दाम्पत्य और माधुर्य भाव का भी संयोग है ।
2. वात्सल्य रस का अद्वितीय प्रयोग – सूरदास वात्सल्य के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं । इनकी रचनाओं में श्रीकृष्ण के बालचरित, शारीरिक श्री ,एवं नन्द और यशोदा के पुत्र- प्रेम ( वात्सल्य) का अद्भुत सौंदर्य विद्यमान है ।
3.श्रृंगार रस का चित्रण – सूरदास ने श्रृंगार रस का कोना -कोना झांक आए हैं । उनकी रचनाओं में संयोग एवं वियोग दोनों रूपों का मार्मिक चित्रण देखा जा सकता है ।
सूरदास का श्रृंगार वर्णन
सूरदास जी भक्तिकाल की सगुण काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं | उन्हें कृष्ण काव्य धारा का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है |
उन्हें वात्सल्य सम्राट के रूप में जाना जाता है परंतु वात्सल्य के समान श्रृंगार वर्णन में भी सूरदास जी ने कमाल किया है | यही कारण है कि अनेक विद्वान उन्हें श्रृंगार रस का सम्राट भी कहते हैं |
श्रृंगार के सामान्यत: दो पक्ष होते हैं – संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार | सूरदास जी के साहित्य में श्रृंगार के संयोग व वियोग दोनों रूपों का सुंदर वर्णन मिलता है |
संयोग श्रृंगार — सूरदास जी के पदों में संयोग श्रृंगार के अनेक सुंदर चित्र मिलते हैं | अनेक पदों में राधा व श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य का वर्णन किया गया है |
उन्होंने राधा और कृष्ण का नख-शिख वर्णन किया है श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य के सामने सूरदास जी करोड़ों कामदेवों को भी निछावर कर देते हैं | राधा का सौंदर्य रति के सौंदर्य से भी बढ़कर है |
नख-शिख वर्णन के अतिरिक्त वे कृष्ण और राधा के वस्त्रों और आभूषणों का भी विस्तार से वर्णन करते हैं |
श्री कृष्ण के शरीर पर पीत वस्त्र, माथे पर मोर मुकुट कमर में किंकिणि , पैरों में नूपुर, और गले में वैजयंती माला सुशोभित होती है | सूरदास जी ने रूप वर्णन से अनुपम श्रृंगार की सृष्टि की है |
मुख्य रूप से संयोग श्रृंगार वर्णन में नायक-नायिका के हास-परिहास व मिलन के चित्र प्रस्तुत किए जाते हैं |
सूरदास जी ने भी अपने काव्य में राधा-कृष्ण की प्रेम-क्रीड़ाओं का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है |
सूरदास ही प्रेम का चित्रण प्रथम दर्शन से करते हैं | कृष्ण खेलने निकलते हैं |
यमुना तट पर उन्हें राधा अपनी सखियों सहित मिल जाती है | दोनों एक दूसरे को देखते हैं और एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं |
खेलत हरि निकले ब्रज-खोरी |
कटि कछनी पीताम्बर बांधे, हाथ लए भौंरा, चक डोरी |
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औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दीए रोरी |
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सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिले परि ठिगोरी |
प्रेम में नोकझोंक भी होती है | सूरदास जी उनकी आपसी नोक-झोंक के अनेक भव्य चित्र प्रस्तुत करते हैं |
जैसे एक दृश्य में कृष्ण राधा से पूछता है कि तू कौन है, किसकी बेटी है? मैंने कभी तुझे ब्रज में नहीं देखा | इस पर राधा कहती है कि हम बेकार में ब्रज में क्यों आएंगे
हम अपने घर में ही रहते हैं, हम तुम्हारी तरह इधर-उधर नहीं भटकते | वह यह भी कहती हैं कि हमने सुना है कि नंद का बेटा इधर-उधर चोरी करते हुए घूमता रहता है |
यह सुनकर कृष्ण तनिक भी विचलित नहीं होते और वाक चातुर्य का परिचय देते हुए कहते हैं कि हमने तुम्हारा क्या चुरा लिया है? चलो हम दोनों मिलकर खेलते हैं |
इस प्रकार रसिक शिरोमणि श्री कृष्ण भोली भाली-राधा को अपनी बातों से बहला लेते हैं |
राधा और कृष्ण की प्रेम क्रीड़ा के चित्र भी सूरदास जी प्रस्तुत करते हैं |
एक पद में सूरदास जी लिखते हैं कि राधा अपनी भुजा कृष्ण की भुजा पर रख देती है और कृष्ण की भुजा को अपने वक्ष-स्थल पर रख लेती है |
राधा और कृष्ण दोनों ही तमाल वृक्ष के नीचे खड़े प्रेम-क्रीड़ा करने लगते हैं | दोनों के वक्षस्थल आपस में ऐसे मिलते हैं मानो स्वर्ण में मरकत मणियाँ जड़ी हुई हों |
इसी प्रकार संयोग वर्णन में राधा के साथ-साथ गोपियों के साथ की गई अठखेलियों का भी सुंदर वर्णन किया गया है |
वियोग वर्णन
सूरदास जी का वियोग वर्णन संयोग वर्णन से भी अधिक उत्कृष्ट है |
सूरदास ने भ्रमरगीत के माध्यम से वियोग वर्णन किया है | जब कृष्ण ब्रज छोड़कर मथुरा चले जाते हैं तो गोपियां विरह वेदना से तड़प उठती हैं |
उन्हें संयोग की दशा में सुंदर लगने वाली वस्तुएं भी अब प्रिय नहीं लगती | वे कहती हैं –
बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं |
तब ये लता लगती अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं ||
गोपियों की विरह वेदना अत्यंत तीव्र है | वे निरंतर विरह की अग्नि में जलती रहती हैं | हरे भरे वृंदावन को देखकर वे यहां तक कहती हैं कि वह जल क्यों नहीं जाता –
मधुबन तुम क्यों रहत हरे |
बिरहा बियोग श्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे ||
श्री कृष्ण के विरह में गोपियां बहुत दुखी रहती हैं | वे उनके बिना रात-दिन आंसू बहाती रहती हैं | उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता |
उनकी विरह-वेदना के विषय में सूरदास जी ने बड़ी ही सुंदर कल्पना की है | गोपियां कहती हैं कि वे विरह वेदना से जलती रहती हैं लेकिन उनकी आंखों से बहने वाले आंसू उन्हें किसी प्रकार से जीवित रखे हुए हैं |
जब उद्धव गोपियों को समझाने के लिए आता है तो गोपियाँ उसे भी अपनी वाक- चातुर्य से पराजित कर देती हैं और उनसे बार-बार आग्रह करती हैं कि वे उनका संदेशा कृष्ण तक पहुंचा दें |
उनके विरह की विशेषता यह है कि वे इसे अपने जीवन का आधार मानती हैं | वे ऐसी मुक्ति भी नहीं चाहती जो उन्हें श्री कृष्ण यादों से अलग कर दे | इसीलिए वे उद्धव के योग संदेश को नकार देती हैं |
इस प्रकार सूरदास जी के विरह वर्णन में अभिलाषा, चिंता, स्मृति, उन्माद, प्रलाप, जड़ता, मूर्च्छा आदि सभी दशाओं का स्वाभाविक चित्रण मिलता है |
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि सूरदास जी के काव्य में श्रृंगार रस का विस्तृत एवं स्वाभाविक वर्णन हुआ है | उनके काव्य में श्रृंगार की सभी अवस्थाएँ मिलती हैं | अतः उन्हें श्रृंगार सम्राट कहना अनुचित नहीं होगा |
कलापक्ष
1. ब्रज भाषा का लालित्यपूर्ण प्रयोग – सूरदास के पदों की भाषा ब्रज भाषा है । उनके पदों में ब्रज भाषा का लालित्यपूर्ण , परिष्कृत एवं निखरा हुआ रूप देखने को मिलता है । माधुर्य की प्रधानता के कारण इनकी भाषा अत्यंत प्रभावोत्पादक हो गई है ।
2.संगीतमय गेय पद शैली – सूरदास का संपूर्ण काव्य संगीत की राग – रागनियों में बँधा पद शैली का गीत काव्य है । व्यंग्य , वचनवक्रता और वाग्वैदग्धता सूर की रचना की विशेषता है ।
3. अलंकारों का सहज प्रयोग – सूर की रचनाओं में अलंकार का सहज रूप देखने को मिलता है । इनकी रचनाओं में मुख्यतः उपमा , उत्प्रेक्षा और रूपक अलंकार की छटा देखी जा सकती है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था – अलंकारशास्त्र तो सूर के द्वारा अपना विषय वर्णन शुरू करते ही उनके पीछे दौड़ पडता है , उपमानों की बाढ़ आ जाती है ,रूपकों की बर्षा होने लगती है ।
हिन्दी – साहित्य में स्थान
महाकवि सूरदास हिन्दी के भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते है | भाषा की दृष्टि से तो संस्कृत साहित्य में जो स्थान वाल्मीकि का है , वही ब्रजभाषा के साहित्य में सूरदास का है |
अपने सीमित क्षेत्र में जिस चातुर्य और कौशल से कवि शिरोमणि सूरदास ने भावो की व्यंजना की है उसका मूल्यांकन आचार्यो ने खूब किया और उनका सारा साहित्य आलोचना की कसौटी पर खरा उतरा |
सूर की काव्य – रचना इनती काव्यांगपूर्ण है कि आगे आने वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य पर आधारित रचनाएं सूर की जूठन – सी जान पड़ती है |
इसलिए उन्हें हिन्दी काव्य – जगत का सूर (सूर्य) कहा गया है | निश्चय ही सूरदास हिन्दी साहित्याकाश के सूर्य है , जैसे कि निम्न दोहे से स्पष्ट है –
सूर – सूर तुलसी शशि , उडुगन केशवदास |
अब के कवि खगोत सम , जहँ – तहँ करत प्रकास ||
” ‘अस्तु, हिन्दी साहित्य में सूर का स्थान सर्वोच्च है|“
महात्मा सूरदास जी की अनुपम लेखनी का स्पर्श पाकर हिन्दी – साहित्य धन्य हो गयी |
सूरदास भक्तिकाल के अष्टछाप कवियों में श्रेष्ठ कवि हैं । वे वात्सल्य और श्रृंगार रस के सिध्द आचार्य हैं।
भाव तथा कलापक्ष की जो गरिमा सूरदास में है , वह अन्यत्र दुर्लभ है। सूर हिंदी साहित्याकाश के सूर (सूर्य) हैं ।
सूरदास पुष्टि मार्ग के भक्त थे, उनकी भक्ति सखा भाव की है। सूरदास का काव्य ब्रज प्रदेश की सुन्दर प्रकृति के आकर्षक चित्रों से युक्त है।
प्रकृति के आलम्बन, उद्दीपन रूपों की सुन्दर झाँकी सूरदास के काव्य में मिलती है। इस प्रकार भाव योजना की दृष्टि से सूरदास का काव्य पर्याप्त आकर्षक प्रभावशाली और उच्चकोटि का था।
सूरदास जी के विश्व प्रसिद्ध दोहे (surdas ke dohe with meaning in hindi)
चरण कमल बंदो हरि राई।
जाकी कृपा पंगु लांघें अंधे को सब कुछ दरसाई।
बहिरो सुनै मूक पुनि बोले रंक चले छत्र धराई।
सूरदास स्वामी करुणामय बार-बार बंदौ तेहि पाई।।
भावार्थ-
सूरदास के अनुसार, श्री कृष्ण की कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पहाड़ लांघ सकता है। अंधे को सब कुछ दिखाई देने लगता है।
बहरे को सब कुछ सुनाई देने लगता है और गूंगा व्यक्ति बोलने लगता है। साथ ही एक गरीब व्यक्ति अमीर बन जाता है। ऐसे में श्री कृष्ण के चरणों की वंदना कोई क्यों नहीं करेगा।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत।।
भावार्थ-
उपयुक्त दोहे से तात्पर्य़ है कि श्री कृष्ण अपनी माता यशोदा से शिकायत करते हैं कि उनके बड़े भाई बलराम उन्हें यह कहकर चिढ़ाते हैं, कि आपने मुझे पैसे देकर खरीदा है।
और अब बलराम के साथ खेलने नहीं जाऊंगा। ऐसे में श्री कृष्ण बार-बार माता यशोदा से पूछते है कि बताओ माता मेरे असली माता पिता कौन है।
माता यशोदा गोरी हैं परंतु मैं काला कैसे हूं। श्रीकृष्ण के इन सवालों को सुनकर ग्वाले सुनकर मुस्कुराते हैं।
अबिगत गति कछु कहत न आवै।
ज्यो गूंगों मीठे फल की रास अंतर्गत ही भावै।
भावार्थ-
जिस प्रकार से एक गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद चख तो सकता है लेकिन उसके स्वाद के बारे में किसी से जिक्र तक नहीं कर सकता।
ठीक उसी प्रकार से निराकार ब्रह्मा की गति के विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता।
जसोदा हरि पालनै झुलावै।
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोई सोई कछु गावै।।
भावार्थ-
यशोदा जी भगवान श्री कृष्ण को पालने में झूला रही है। कभी उन्हें झूला झूलाते है और कभी उन्हें प्यार से पुचकारती है।
कभी गाते हुए कहती है कि निंद्रा तू मेरे लाल के पास आ जा। तू आकर इसे क्यों नहीं सुलाती है।
मैया मोहि मैं नही माखन खायौ।
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुबन मोहि पठायौ।।
भावार्थ-
सूरदास के अनुसार, श्री कृष्ण अपनी माता यशोदा से कहते हैं कि मैंने माखन नहीं खाया है।
आप सुबह होते ही गायों के पीछे मुझे भेज देती हैं। और जिसके बाद में शाम को ही लौटता हूं। ऐसे में मैं कैसे माखन चोर हो सकता हूं।
सूरदास जयंती उत्सव
सूरदास जी की जयंती पर हिंदी साहित्य के प्रेमी मथुरा, वृंदावन घाट, धार्मिक स्थलों एवं कृष्ण जी के मंदिर में संगोष्ठी करते है।
इस दिन मंदिरों में सूरदास जी के दोहों का उच्चारण किया जाता है। कृष्ण भक्ति में लीन होकर भजन-कीर्तन किया जाता है।
इस दिन स्कूल, कालेजो में सूरदास जी के जीवनी के बारे में छात्रों को बताया जाता है, उनके दोहो को समझाया जाता है।
भगवान कृष्ण जी के भक्त और गायन, लेखन, साहित्य, प्रतिभा के धनी महान भक्त सूरदास जी को इस दिन शत शत नमन किया जाता है।
सूरदास की मृत्यु
एक समय सूरदास के गुरु आचार्य वल्लभ, श्रीनाथ जी और गोसाई विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती के समय सूरदास को अनुपस्थित पाया।
सूरदास कभी भी श्रीनाथ जी की आरती नहीं छोड़ते थे। अनुपस्थित पाकर उनके गुरु समझ गए उनका अंतिम समय निकट आ गया हैं।
पूजा करके गोसाई जी रामदास, कुम्भनदास, गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास सूरदास की कुटिया पहुंचे। सूरदास अपनी कुटिया में अचेत पड़े हुए थे।
सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात् भगवान के रूप में अभिनन्दन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की।
चतुर्भुजदास ने इस समय शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, परन्तु आचार्य वल्लभ का यशगान क्यों नहीं किया।
सूरदास ने बताया कि उनके निकट आचार्य जी और भगवान में कोई अन्तर नहीं है, जो भगवद्यश है, वही आचार्य जी का भी यश है।
गुरु के प्रति अपना भाव उन्होंने “भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो” वाला पद गाकर प्रकट किया। इसी पद में सूरदास ने अपने को “द्विविध आन्धरो” भी बताया।
गोसाई विट्ठलनाथ ने पहले उनके ‘चित्त की वृत्ति’ और फिर ‘नेत्र की वृत्ति’ के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो उन्होंने क्रमश: ‘बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी’ तथा ‘खंजन नैन रूप रस माते’ वाले दो पद गाकर सूचित किया कि उनका मन और आत्मा पूर्णरूप से राधा भाव में लीन है। इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया।
सूरदास की मृत्यु संवत् 1642 विक्रमी (1580 ईस्वी) को गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में हुई।
पारसौली वहीँ गाँव हैं जहाँ पर भगवान् कृष्ण अपनी रासलीलायें रचाते थे। सूरदास ने जिस जगह अपने प्राण त्यागे उस जगह आज एक सूरश्याम मंदिर (सूर कुटी) की स्थापना की गयी हैं|
सूरदास के गुरु कौन थे (Surdas ke guru kaun the)
श्री वल्लभाचार्य सूरदास के गुरु थे|
सूरदास किसके भक्त थे (Surdas kiske bhakt the)
सूरदास श्री कृष्णा के अनन्य भक्त थे|
सूरदास किस काल के कवि थे (Surdas kis kaal ke kavi the)
सूरदास भक्तिकाल के महान कवि थे।
सूरदास किस भाषा के कवि है (Surdas kis bhasha ke kavi hai)
सूरदास ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि है| सूरदास ने अपनी जितनी भी रचनाएँ की वह सभी ब्रजभाषा में की है|
सूरदास की मृत्यु कब हुई ?(Surdas ki mrityu kab hui)
सूरदास की मृत्यु संवत् 1642 विक्रमी (1580 ईस्वी) को गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में हुई।
साहित्य लहरी किसकी रचना है (Sahitya lahari kiski rachna hai)
साहित्यलहरी सूरदास की 118 पदों की एक लघुरचना हैं। इस ग्रन्थ की सबसे खास बात यह हैं इसके अंतिम पद में सूरदास ने अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया हैं।
सूरसागर किसकी रचना है (Sursagar kiski rachna hai)
यह सूरदास द्वारा रचित सबसे प्रसिद्द रचना हैं। जिसमे सूरदास के कृष्ण भक्ति से युक्त सवा लाख पदों का संग्रहण होने की बात कही जाती हैं।
लेकिन वर्तमान समय में केवल सात से आठ हजार पद का अस्तित्व बचा हैं. विभिन्न-विभिन्न स्थानों पर इसकी कुल 100 से भी ज्यादा प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुयी हैं|