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गौतम बुद्ध (Goutam Buddha) और उनके उपदेश

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गौतम बुद्ध का उल्लेख सभी प्रमुख पुराणों तथा सभी महत्वपूर्ण हिन्दू ग्रन्थों में हुआ है।

गौतम बुद्ध को भगवान बुद्ध व महात्मा बुद्ध आदि नामों से भी जाना जाता है।

वे विश्व प्रसिद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक माने जाते हैं।

उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।

लुम्बिनी वन नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान के पास स्थित है।

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पूर्व लुम्बिनी मैं इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन के घर में हुआ था ।

उनकी माँ का नाम महामाया था जो कोलीय वंश से थीं, जिनका इनके जन्म के सात दिन बाद निधन हो गया था ।

गौतम बुद्ध का  पालन पोषण महारानी की छोटी सगी बहन महाप्रजापती गौतमी ने किया।

शिशु का नाम सिद्धार्थ रखा गया । जिसका अर्थ है “वह जो सिद्धी प्राप्ति के लिए जन्मा हो”। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम भी कहलाए।

जन्म समारोह के दौरान, साधु द्रष्टा आसित ने अपने पहाड़ के निवास से घोषणा की- बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र पथ प्रदर्शक बनेगा।

शुद्दोधन ने पांचवें दिन एक नामकरण समारोह आयोजित किया और आठ ब्राह्मण विद्वानों को भविष्य पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। सभी ने एक सी दोहरी भविष्यवाणी की, कि बच्चा या तो एक महान राजा या एक महान पवित्र आदमी बनेगा।

सिद्धार्थ की शिक्षा

सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ को तो पढ़ा ही , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली।

कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता।

सिद्धार्थ के मन में बचपन से ही करुणा भरी थी। उनसे किसी भी प्राणी का दुख नहीं देखा जाता था सिद्धार्थ का मन वचपन से ही करुणा और दया का स्रोत था।

इसका परिचय उनके आरंभिक जीवन की अनेक घटनाओं से पता चलता है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता।

खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था।

सिद्धार्थ ने चचेरे भाई देवदत्त द्वारा तीर से घायल किए गए हंस की सहायता की और उसके प्राणों की रक्षा की।महात्मा बनने से पहले बुद्ध एक राजा थे।

वो बचपन से ही ऐसे प्रश्नों के उत्तर की तलाश में खोए रहते थे जिनका जवाब बड़े- बड़े संत और महात्माओं के पास भी नहीं था।

सिद्धार्थ का विवाह

सोलह वर्ष की उम्र में सिद्धार्थ का कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ।

पिता द्वारा ऋतुओं के अनुरूप बनाए गए वैभवशाली और समस्त भोगों से युक्त महल में वे यशोधरा के साथ रहने लगे जहाँ उनके पिता राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया।

तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए।

पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया।

उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था।

दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था।

चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे।

पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया।

उन्होंने सोचा कि ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है।

क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य? चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा।

संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया।

ज्ञान की प्राप्ति

सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े।

वह राजगृह पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचे। उनसे योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा।

पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचे और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे।

सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया।

शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।l

एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा थे।

उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।

बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है।

अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है ओर इसके लिए कठोर तपस्या करनी पड़ती है।

बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे,जिनसे उन्होंने संन्यास काल में शिक्षा प्राप्त की। ३५ वर्ष की आयु में वैशाखी पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे।

बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की तथा सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर उपवास तोड़ा। समीपवर्ती गाँव की एक स्त्री सुजाता को पुत्र हुआ।

वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मन्नत पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था।

उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’

उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से सिद्धार्थ ‘बुद्ध’ कहलाए।

जिस पीपल वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध मिला वह बोधिवृक्ष कहलाया और गया का समीपवर्ती वह स्थान बोधगया।

गया और सारनाथ को बौद्ध धर्म के पवित्र स्थानों के रूप में मानते हैं।

गौतम बुद्ध की बीस प्रमुख शिक्षाएं

1. गौतम बुद्ध कहते थे कि यदि आप वास्तव में अपने आप से प्रेम करते हैं,तो आप कभी भी दूसरों को दुःख नहीं पहुंचा सकते हैं।

2. हम अकेले पैदा होते हैं , और अकेले मृत्यु को प्राप्त होते हैं, इसलिए हमें अपना रास्ता स्वयं को ही बनाना चाहिए ।हमारे अलावा कोई और हमारी किस्मत का फैसला नहीं कर सकता।

3. वह कहते थे कि हमारा स्वास्थ्य हमारे जीवन का सबसे बड़ा उपहार है,संतोष सबसे बड़ा धन है और वफादारी सबसे बड़ा सम्बन्ध है।

4. हमें हमेशा अच्छी चीजों के बारे में  सोचना चाहिए क्योंकि हम वही बनते हैं जो हम सोचते हैं। इसलिए सकारात्मक बातें सोचें और खुश रहें।

5. आकाश में पूरब और पश्चिम का कोई भेद नहीं है, लोग अपने मन से भेदभाव को जन्म देते हैं और फिर विश्वास करते हैं कि यह सच है।

6. आपको क्रोधित होने के लिए दंड नहीं दिया जायेगा,बल्कि आपका क्रोध खुद आपको दंड देगा।

7. इंसान के अंदर ही शांति का वास होता है,उसे हमें बाहर नहीं तलाशना चाहिए

8. एक जलते हुए दीपक से हजारों दीपक रौशन किए जा सकते हैं,फिर भी उस दीपक की रौशनी कम नहीं होती। उसी तरह खुशियां बांटने से दोगुनी होती है,  कम नहीं होतीं। 

9. क्रोधित रहना ,जलते हुए कोयले को किसी दूसरे व्यक्ति पर फेंकने की इच्छा से अपने हाथ में पकड़े रहने के समान है, यह सबसे पहले आप को ही जलाता है।

10. दूसरों के सामने कुछ भी साबित करने से पहले यह जरूरी है कि हम खुद को साबित करें। हर इंसान की प्रतिस्पर्धा पहले खुद से होती है।

11. खुशी हमारे दिमाग में है- खुशी,पैसों से खरीदी गई चीजों में नहीं, और ना ही पैसों से खरीदी जा सकती है, बल्कि इस बात में है कि हम किसी चीज से कैसा महसूस करते हैं। वास्तव में खुशी हमारे मस्तिष्क में है।

12. घृणा से घृणा कभी खत्म नहीं हो सकती। घृणा को केवल प्रेम द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। यह शास्वत सत्य है।

13. जिस तरह एक मोमबत्ती बिना आग के खुद नहीं जल सकती,उसी तरह एक इंसान बिना अध्यात्म के जीवित नहीं रह सकता।

14. तीन चीजों को लम्बी अवधि तक छुपाया नहीं जा सकता,सूर्य, चन्द्रमा और सत्य।

15. भूतकाल में मत उलझो,भविष्य के सपनों में मत खो जाओ, वर्तमान पर ध्यान दो, यही खुश रहने का रास्ता है। वर्तमान में खुश रहना ही वास्तविक सच्चाई है

16. मैं कभी नहीं देखता की क्या किया जा चुका है; मैं हमेशा देखता हूँ कि क्या किया जाना बाकी है।

17. हजारों लड़ाइयां जीतने से बेहतर है आप खुद को जीत लें।फिर वो जीत आपकी अपनी होगी, जिसे कोई आपसे नहीं छीन सकता।

18. प्रत्येक अनुभव कुछ न कुछ सिखाता है–हर अनुभव महत्वपूर्ण है, क्योंकि हम अपनी गलतियों से ही सीखते हैं।

 19. हर इंसान को यह अधिकार है कि वह अपनी दुनिया की खोज स्वयं करे।

20. हर दिन की अहमियत समझें– इंसान हर दिन एक नया जन्म लेता है ,एक नए मकसद को पूरा करने के लिए है, इसलिए प्रत्येक दिन की अहमियत को समझें।

गौतम बुद्ध के उपदेश

भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया।

उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की। बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है –

महात्मा बुद्ध ने सनातन धरम के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया, जैसे

अग्निहोत्र तथा गायत्री मन्त्र

ध्यान तथा अन्तर्दृष्टि

मध्यमार्ग का अनुसरण

चार आर्य सत्य

अष्टांग मार्ग

बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति के 49 दिनों के बाद उनसे पढ़ाने के लिए अनुरोध किया गया था। इस अनुरोध के परिणामस्वरूप, योग से उठने के बाद बुद्ध ने धर्म के पहले चक्र को पढ़ाया था।

इन शिक्षणों में चार आर्य सत्य और अन्य प्रवचन सूत्र शामिल थे जो हीनयान और महायान के प्रमुख श्रोत थे।

हीनयान शिक्षाओं में बुद्ध बताते हैं कि कष्टों से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना होगा और महायान में वह बताते हैं कि दूसरों की खातिर कैसे पूर्ण ज्ञान, या बुद्धत्व प्राप्त कर सकते हैं।

दोनों परंपराएं एशिया में  सर्वप्रथम भारत और तत्पश्चात तिब्बत सहित आसपास के अन्य देशों में धीरे-धीरे विस्तारित होने लगी। अब ये पश्चिम में पनपने की शुरुआत कर रहीं हैं।

चार आर्य सत्य और या अष्टांगिक मार्ग बौद्ध शिक्षाओं का मजबूत आधार हैं।

बौद्ध धर्म के मूल शिक्षाओं के रूप में चार आर्य सत्य निम्नलिखित हैं:

दुनिया दुःख और कष्टों से भरी है।

सभी पीड़ाओं का एक कारण (समुदाय) हैं जो ईच्छा (तृष्णा) है।

दर्द और दुःख का अंत इच्छाओं के छुटकारा मिलने से किया जा सकता है (निरोध)।

तृष्णा को अष्टांगिक मार्ग के द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।

गौतम बुद्ध के अष्टांग मार्ग (Goutam buddha ashtanga marga)

1) सम्यक विचार

2) सम्यक विश्वास

3) सम्यक वाक

4) सम्यक कर्म

5) सम्यक जीविका

6) सम्यक प्रयास

7) सम्यक स्मृति

8) सम्यक समाधि

बौद्ध धर्म अष्टांग मार्ग
बौद्ध धर्म अष्टांग मार्ग

अष्टांग मार्गों में तीन बुनियादी श्रेणियां शामिल हैं जिनके नाम एकाग्रता (समाधि स्कंद), ज्ञान (प्रज्ञा स्कंद) और नैतिक आचरण (शील स्कंद) है।

समाधि स्कंद के अंतर्गत सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि आते हैं जबकि सम्यक वाक, सम्यक जीविका और सम्यक प्रयास शील स्कंद के अंतर्गत विभाजित हैं। प्रज्ञा स्कंद में सम्यक विचार, सम्यक कर्म और सम्यक विश्वास शामिल हैं।

बौद्ध धर्म में निर्वाण की संकल्पना को इस प्रकार परिभाषित किया गया है ।

बौद्ध धर्म में बताया गया है कि निर्वाण के द्वारा मृत्यु और जन्म के चक्र से छुटकारा मिल सकता है। 

बौद्ध धर्म के अनुसार, इसे आप जीवन भर हासिल कर सकते हैं और मृत्यु के बाद नहीं। हालांकि, यह मोक्ष की अवधारणा से इनकार करता है और आचरण के नैतिक मूल्यों को प्राप्त करने के लिए आचरण की नैतिक आचार- संहिता की जरूरत पर बल देता है।

बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व के करोड़ों लोग वैशाख पूर्णिमा को बुद्ध पूर्णिमा के दिन गौतम बुद्ध जयंती मनाते हैं।

हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं इसलिए हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है।

इस दिन भगवान महावीर का निर्वाण दिवस भी होता है। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी।

गौतम बुद्ध ने कहा है कि जो मनुष्य दुख से पीड़ित है, उनके पास बहुत सारा हिस्सा ऐसे दुखों का है, जिन्हें मनुष्य ने अपने अज्ञान, ग़लत ज्ञान या मिथ्या दृष्टियों से पैदा कर लिया हैं उन दुखों का निराकरण सही ज्ञान द्वारा ही किया जा सकता है।

गौतम बुद्ध स्वयं कहीं प्रतिबद्ध नहीं हुए और न ही अपने शिष्यों को उन्होंने कहीं बांधा।

उन्होंने कहा है कि मेरी बात को इसलिए चुपचाप न मानो उसे मैंने यानी बुद्ध ने कहा है। उस पर भी सन्देह करो और विविध परीक्षाओं द्वारा उसकी परीक्षा करो।

जीवन की कसौटी पर उन्हें परखो, अपने अनुभवों से मिलान करो, यदि तुम्हें सही जान पड़े तो स्वीकार करो, अन्यथा छोड़ दो।

यही कारण था कि बौद्ध धर्म इस धर्म के मानने वाले अनुयाइयों को रहस्य से मुक्त, मानवीय संवेदनाओं को सीधे स्पर्श करता था।

भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश दिया। उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है। उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।

बौद्ध धर्म में ये है धम्म

भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश “धम्मचक्र प्रवर्तन सूत्र” का प्रारम्भ किया ।

जीवन की पवित्रता बनाए रखना। जीवन में पूर्णता प्राप्त करना। निर्वाण प्राप्त करना। तृष्णा का त्याग करना। यह मानना कि सभी संस्कार अनित्य है।

कर्म को मानव के नैतिक संस्थान का आधार मानना गौतम बुद्ध के अनुसार धम्म है।आत्मा में विश्वास करना। कल्पना-आधारित विश्वास मानना।

धर्म की पुस्तकों का वाचन करना बुद्ध के अनुसार अ धम्म माना यही गौतम बुद्ध के अनुसार अ धम्म है।बुद्ध ने कहा था सिर्फ विवेक की सुनो

बुद्ध के अनुसार सद्धम्म

जो धम्म प्रज्ञा की वृद्धि करे। जो धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे। जो धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना पर्याप्त नहीं है। जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करना है यही बुद्ध के अनुसार सद्धम्म है।

धर्म चक्र परिवर्तन

80 वर्ष की उम्र तक अपने धर्म का संस्कृत के बजाय उस समय की सीधी सरल लोकभाषा पाली में प्रचार करते रहे।

उनके सीधे सरल धर्म की लोकप्रियता तेजी से बढ़ने लगी। चार सप्ताह तक बोधिवृक्ष के नीचे रहकर धर्म के स्वरूप का चिंतन करने के बाद बुद्ध धर्म का उपदेश करने निकल पड़े।

आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदा व उन्होंने सर्वप्रथम धर्मोपदेश दिया और प्रथम पाँच मित्रों को अपना अनुयायी बनाया और फिर उन्हें धर्म प्रचार करने के लिये भेज दिया।

महाप्रजापती गौतमी (बुद्ध की विमाता) को सर्वप्रथम बौद्ध संघ मे प्रवेश मिला।आनंद,बुद्ध का प्रिय शिष्य था। बुद्ध आनंद को ही संबोधित करके अपने उपदेश देते थे।

बुद्ध का उल्लेख सभी प्रमुख पुराणों तथा सभी महत्वपूर्ण हिन्दू ग्रन्थों में हुआ है।

इन ग्रन्थों में मुख्यतः बुद्ध की दो भूमिकाओं का वर्णन है- युगीय धर्म की स्थापना के लिये नास्तिक (अवैदिक) मत का प्रचार तथा पशु-बलि की निन्दा बुद्ध को भी हिन्दुओं के वैष्णव सम्प्रदाय में भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है।

हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म दोनों ही प्राचीन धर्म हैं और दोनों ही भारतभूमि से उपजे हैं। हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदाय में गौतम बुद्ध को दसवाँ अवतार माना गया है हालाँकि बौद्ध धर्म इस मत को स्वीकार नहीं करता।

बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा के सर्वाधिक विकसित रूपों में से एक है और हिन्दुमत (सनातन धर्म) से साम्यता रखता है। हिन्दुमत के दस लक्षणों यथा दया, क्षमा अपरिग्रह आदि बौद्धमत से मिलते-जुलते है।

यदि हिन्दुमत में मूर्ति पूजा का प्रचलन है तो बौद्ध मन्दिर भी मूर्तियों से भरे पड़े हैं।

पालि सिद्धांत के महापरिनिर्वाण सुत्त के अनुसार ८० वर्ष की आयु में बुद्ध ने घोषणा की कि वे जल्द ही परिनिर्वाण के लिए रवाना होंगे।

बुद्ध ने अपना आखिरी भोजन, जिसे उन्होंने कुन्डा नामक एक लोहार से एक भेंट के रूप में प्राप्त किया था, ग्रहण लिया जिसके कारण वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गये।

बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद को निर्देश दिया कि वह कुन्डा को समझाए कि उसने कोई गलती नहीं की है। उन्होने कहा कि यह भोजन अतुल्य है।

दक्षिण मध्य नेपाल में स्थित लुंबिनी में उस स्थल पर महाराज अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व बुद्ध के जन्म की स्मृति में एक स्तम्भ बनवाया था।

बुद्ध का जन्मस्तम्भ बनवाया था। बुद्ध का जन्म दिवस व्यापक रूप से थएरावदा देशों में मनाया जाता है।

Buddh ka janm kahan hua tha?

उनका जन्म 563 ईस्वी पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में हुआ था, जो नेपाल में है।

गौतम बुद्ध के गुरु का नाम

बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे,जिनसे उन्होंने संन्यास काल में शिक्षा प्राप्त की।

सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ को तो पढ़ा ही , राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली।

पूर्णता

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उपनिषद् की उक्ति है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

अर्थात- उठो, जागो और तब तक आगे बढ़ो, जब तक अपने लक्ष्य तक न पहुँच जाओ। शास्त्र, चिंतक, अवतार, गुरू, ऋषि-सभी मनुष्य को यह आदेश तदेते हैं कि जीवन का लक्ष्य प्राप्त करो, उत्थान करो, उत्कर्ष को प्राप्त होओ।

मानवीय जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति करना हरेक मनुष्य का धर्म है। परमपिता का यह उद्घोष ही प्रत्येक के अंतस्तल में निंरतर गुंजायमान हो रहा है।


ऐसा नहीं है कि हम इस उद्घोष से अपरिचित हैं। हर जीव के अंतर्जगत को, उसकी अंतश्चेतना को प्रभु की यह पुकार निरंतर कचोटती है।

सब कुछ मिल जाने के बाद भी अंदर से कचोटती रिक्तता-इसी प्रेरणा के कारण है। जीवन में मिलने वाले हर दुख, घटने वाली हर गबलती के बाद हमारी अंतरात्मा हमें पुकार-पुकारकर यही कहती है कि उठो, जागो, आगे बढ़ो! रूको नहीं, ठहरो नहीं। कदमों को थमने मत दो।

अपने उत्थान के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहो। हमारे अंदर उपस्थित आत्मदेव, उसकी दिन की प्रतीक्षा में निरत प्रतीत होते हैं- जब अंधकार की इस रात्रि का अंत होगा एवं नवप्रकाश से सुसज्जित उत्थान के मार्ग के हम अनुगामी बनेंगे।

फूल को खिलने के लिए नहीं कहना पड़ता, नदी को बहने के लिए नहीं कहना पड़ता, बादल को बरसने के लिए नहीं कहना पड़ता, आश्चर्य! मनुष्य को मानवोचित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कहना पड़ता है, याद दिलाना पड़ता है। समय रहते हम भी चेंते।

याद करें कि हम किस उद्देश्य के साथ धरती पर आए थे? क्यों हम अपने जीवन-पथ से भटककर बैठे हैं? क्यों हम सहज स्वाभाविक क्रम में अपने जीवनोद्देश्य की ओर नहीं बढ़ पाते?

अपनी संभावनाओं को हमें भूल नहीं जाना है। प्रकृति के कण-कण से यह शिक्षा लेनी है कि जीवन में पूर्णता कैसे प्राप्त करें? अपने जीवन को विकसित कैसे करें?

जो इस समर्पण के भाव से स्वयं को विराट ब्रह्या को समर्पित कर देता है, वो अपने जीवनलक्ष्य को पा लेता है। उसे पा लेने तक रूकना नहीं है, ठहरना नहीं है-बस, आगे और आगे बढ़ते ही जाना है।

अद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति मन: सत्येन शुद्धयन्ति |
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धि ज्ञानेन शुद्धयति || – मनुस्मृति


अर्थात जल से शरीर के अंग शुद्ध होते हैं, सत्य अपनाने से मन शुद्ध होता है, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होती है और ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है।

सकारात्मक सोच से ही मिलेगी सफलता

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मेंढकों का एक झुंड किसी जंगल से गुजर रहा था। तभी उनके दो साथी एक गहरे गड्ढे में गिर गए। सभी मेंढकों ने देखा कि ये गड्ढा तो बहुत गहरा है और इससे बाहर निकलना असंभव है।

गड्ढे में गिरे मेंढक लगातार उछल-उछलकर गड्ढे से बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे। गड्ढे के बाहर खड़े मेंढ़कों ने दोनों को उछलते देखा तो वे चिल्लाने लगे कि अब तुम दोनों इसी गड्ढे में मर जाओगे, ये बहुत गहरा है और तुम बाहर भी नहीं निकल पाओगे।

गड्ढे के अंदर दोनों लगातार प्रयास कर रहे थे और बाहर खड़े मेंढक दानों को निराश करने वाली बातें बोल रहे थे। तभी अंदर गिरे एक मेंढक ने बाहर खड़े मेंढकों की बातें सुन ली।

उसने मान लिया कि अब इस गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाएंगे। उसने प्रयास करना बंद कर दिया। दूसरा मेंढक अभी भी कोशिश कर रहा था।

बाहर खड़े मेंढक चिल्ला रहे थे कि अब तुम्हारी मौत निश्चित है, बाहर निकलने का प्रयास मत करो, लेकिन दूसरे मेंढक ने कोशिश बंद नहीं की।

अचानक वह ऊपर उछला और गड्ढे से बाहर आ गया । बाहर खड़े मेंढक ने उससे पूछा कि तुमने हमारी बातें नहीं सुनी? उस मेंढक ने बताया कि वह सुन नहीं सकता।

वह तो गड्ढे में यह सोच रहा था कि वे सभी मेंढक उत्साह बढ़ा रहे है। इसीलिए वो पूरी ताकत से कोशिश कर रहा था और बाहर आ गया। लोगों की नकारात्मक बातों को ध्यान नहीं देना चाहिए।

हमें सकारात्मक सोच के साथ लगातार कोशिश करते रहना चाहिए। सफलता सुनिश्चित है

भक्त के अधीन भगवान

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एक कसाई था सदना। वह बहुत ईमानदार था, वो भगवान के नाम कीर्तन में मस्त रहता था। यहां तक की मांस को काटते-बेचते हुए भी वह भगवद्नाम गुनगुनाता रहता था।

एक दिन वह अपनी ही धुन में कहीं जा रहा था, कि उसके पैर से कोई पत्थर टकराया। वह रूक गया, उसने देखा एक काले रंग के गोल पत्थर से उसका पैर टकरा गया है। उसने वह पत्थर उठा लिया व जेब में रख लिया, यह सोच कर कि यह माँस तोलने के काम आयेगा।

वापिस आकर उसने वह पत्थर माँस के वजन को तोलने के काम में लगाया। कुछ ही दिनों में उसने समझ लिया कि यह पत्थर कोई साधारण नहीं है। जितना वजन उसको तोलना होता, पत्थर उतने वजन का ही हो जाता है।

धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी कि सदना कसाई के पास वजन करने वाला पत्थर है, वह जितना चाहता है, पत्थर उतना ही तोल देता है।

किसी को एक किलो मांस देना होता तो तराजू में उस पत्थर को एक तरफ डालने पर, दूसरी ओर एक किलो का मांस ही तुलता। अगर किसी को दो किलो चाहिए हो तो वह पत्थर दो किलो के भार जितना भारी हो जाता।

इस चमत्कार के कारण उसके यहां लोगों की भीड़ जुटने लगी। भीड़ जुटने के साथ ही सदना की दुकान की बिक्री बढ़ गई।

बात एक शुद्ध ब्राह्मण तक भी पहुंची। हालांकि वह ऐसी अशुद्ध जगह पर नहीं जाना चाहता थे, जहां मांस कटता हो व बिकता हो। किन्तु चमत्कारिक पत्थर को देखने की उत्सुकता उसे सदना की दुकान तक खींच लाई ।

दूर से खड़ा वह सदना कसाई को मीट तोलते देखने लगा। उसने देखा कि कैसे वह पत्थर हर प्रकार के वजन को बराबर तोल रहा था।

ध्यान से देखने पर उसके शरीर के रोंए खड़े हो गए। भीड़ के छटने के बाद ब्राह्मण सदना कसाई के पास गया।

ब्राह्मण को अपनी दुकान में आया देखकर सदना कसाई प्रसन्न भी हुआ और आश्चर्यचकित भी। बड़ी नम्रता से सदना ने ब्राह्मण को बैठने के लिए स्थान दिया और पूछा कि वह उनकी क्या सेवा कर सकता है!

ब्राह्मण बोला- “तुम्हारे इस चमत्कारिक पत्थर को देखने के लिए ही मैं तुम्हारी दुकान पर आया हूँ, या युँ कहें कि ये चमत्कारी पत्थर ही मुझे खींच कर तुम्हारी दुकान पर ले आया है।”

बातों ही बातों में उन्होंने सदना कसाई को बताया कि जिसे पत्थर समझ कर वो माँस तोल रहा है, वास्तव में वो शालीग्राम जी हैं, जोकि भगवान का स्वरूप होता है।

शालीग्राम जी को इस तरह गले-कटे मांस के बीच में रखना व उनसे मांस तोलना बहुत बड़ा पाप है।

सदना बड़ी ही सरल प्रकृति का भक्त था। ब्राह्मण की बात सुनकर उसे लगा कि अनजाने में मैं तो बहुत पाप कर रहा हूं।

अनुनय-विनय करके सदना ने वह शालिग्राम उन ब्राह्मण को दे दिया और कहा कि “आप तो ब्राह्मण हैं, अत: आप ही इनकी सेवा-परिचर्या करके इन्हें प्रसन्न करें। मेरे योग्य कुछ सेवा हो तो मुझे अवश्य बताएं।“

ब्राह्मण उस शालीग्राम शिला को बहुत सम्मान से घर ले आए। घर आकर उन्होंने श्रीशालीग्राम को स्नान करवाया, पँचामृत से अभिषेक किया व पूजा-अर्चना आरम्भ कर दी।

कुछ दिन ही बीते थे कि उन ब्राह्मण के स्वप्न में श्री शालीग्राम जी आए व कहा- हे ब्राह्मण! मैं तुम्हारी सेवाओं से प्रसन्न हूं, किन्तु तुम मुझे उसी कसाई के पास छोड़ आओ।

स्वप्न में ही ब्राह्मण ने कारण पूछा तो उत्तर मिला कि- तुम मेरी अर्चना-पूजा करते हो, मुझे अच्छा लगता है, परन्तु जो भक्त मेरे नाम का गुणगान – कीर्तन करते रहते हैं, उनको मैं अपने-आप को भी बेच देता हूँ।

सदना तुम्हारी तरह मेरा अर्चन नहीं करता है परन्तु वह हर समय मेरा नाम गुनगुनाता रहता है जोकि मुझे अच्छा लगता है, इसलिए तो मैं उसके पास गया था।

ब्राह्मण अगले दिन ही, सदना कसाई के पास गया व उनको प्रणाम करके, सारी बात बताई व श्रीशालीग्रामजी को उन्हें सौंप दिया। ब्राह्मण की बात सुनकर सदना कसाई की आंखों में आँसू आ गए।

मन ही मन उन्होंने माँस बेचने-खरीदने के कार्य को तिलांजली देने की सोची और निश्चय किया कि यदि मेरे ठाकुर को कीर्तन पसन्द है, तो मैं अधिक से अधिक समय नाम-कीर्तन ही करूंगा

इस संदेश को सिर्फ पड़कर भूल मत जाइएगा , हो सके तो मेरी तरह आप भी शेयर कर अपना जीवन धन्य कीजियेगा।

                 धन्यवाद 
            एक भक्त का आग्रह

हम प्रकृति और समाज से बहुत कुछ पाते हैं, उसके बदले हमें भी उसे कुछ लौटाना चाहिए

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बहुत समय पहले की बात है कि एक अत्यंत ही समर्थ व युवा राजा था उसे अपनी प्रजा व राज्य की बहुत चिंता रहती थी। इसलिए वह वेश बदलकर अपने राज्य में घूमता रहता था।

और लोगों से उनकी तकलीफों के बारे में जानता था, ताकि वह उनकी मदद कर सके।

एक दिन दोपहर में जब वह घोड़े पर सवार होकर एक गांव से गुजर रहा था, तो उसने देखा कि एक बुजुर्ग व्यक्ति तपती धूप में फलों के पौधे रोप रहा है।

राजा उस बुजुर्ग के पास गया और उसने उसकी उम्र पूछी। बुजुर्ग ने कहा महाराज मुझे सही तो नहीं पता पर 90 साल से अधिक ही होगी।

राजा ने उससे कहा श्रीमान आप जिन फलों के पौधों को लगा रहे है, उन पर फल आने में कम से कम चार साल का वक्त लगेगा।

क्या आप उनका सेवन करने के लिए जीवित रह पाएंगे? बुजुर्ग ने कहा कि महाराज हमने बचपन से लेकर अब तक जो फल खाए, उन पेड़ों को किसी ओर ने लगाया था।

अगर उन्होंने ये सोचा होता कि इसके फल तो कोई और खाएगा तो वे भी शायद ही पेड़ लगाते। इसलिए जिस तरह से हमारे बुजुर्गों ने वे पेड़ लगाए थे, वैसे ही मैं भी आने वाली पीढ़ी के लिए इन पौधों को लगा रहा हूँ ।

शायद मेरे ही जीवन में इन पर फल भी आ जाए। अगर हम सिर्फ उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल ही करते रहेंगे और आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी नए संसाधन नहीं जुटाएंगे तो यह गलत होगा। राजा बुजुर्ग की बात से बहुत प्रभावित हुआ और उसने अपने राज्य में हर व्यक्ति के लिए कम से कम एक पौधा लगाना अनिवार्य कर दिया।

राजा बुजुर्ग की बात से बहुत प्रभावित हुआ और उसने अपने राज्य में हर व्यक्ति के लिए कम से कम एक पौधा लगाना अनिवार्य कर दिया।

राजा बुजुर्ग की बात से बहुत प्रभावित हुआ और उसने अपने राज्य में हर व्यक्ति के लिए कम से कम एक पौधा लगाना अनिवार्य कर दिया।

सीखः- हममें से सभी लोग समाज व प्रकृति से बहुत कुछ हासिल करते है। यह हमारा दायित्व होना चाहिए कि हम समाज से जो भी हासिल करते हैं, उसके बदले में हमें भी उसे कुछ न कुछ देना चाहिए।

गुस्सा नहीं करेंगे तो एक-दूसरे में प्यार, विश्वास और सम्मान बढ़ेगा

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हमने ऐसे-ऐसे माता-पिता देखे हैं जिनके बच्चे पढ़ने विदेश चले जाते हैं।

माता-पिता उन्हें यहां से फोन करके उठाते हैं, फिर दस मिनट के बाद फोन करते हैं कि अभी वो उठा नहीं होगा।

क्योंकि हम उसी तरीके से चलते आ रहे हैं। फिर कहेंगे बच्चों को उठाने के लिए गुस्सा करना पड़ता है। ऑफिस में काम कराने के लिए गुस्सा करना पड़ता है।

ये हमारा तरीका बन गया है, जिससे हमारे संस्कार गहरे होते गए। फिर थोड़े दिन के बाद तो सोचना ही नहीं पड़ेगा गुस्सा अपने आप ही आ जाएगा।

फिर हमने कहा की गुस्सा आना तो सामान्य है। भले ही हमारे आसपास ये दिखेगा भी कि गुस्से से बोलो तो काम जल्दी हो जाता है।

अगर आप किसी को कहेंगे कि टेबल को हटाओ तो कहेगा अभी हटाते हैं, फिर कहते हैं प्लीज टेबल को हटाओ तो कहेगा अभी हटाते हैं।

फिर अगर आप थोड़ा सा जोर से बोलते हैं तो टेबल फटाफट उसी समय हट जाएगा।


जैसे ही हमने ये देखा तो हमारी यह मान्यता बन जाती है कि गुस्से से बोला तो काम जल्दी हो गया।

अब समय की कमी है, अगली बार हम तीन तरीके इस्तेमाल करके नहीं बोलेंगे, क्योंकि काम जल्दी करवाना है तो हम पहली बार में ही गुस्से वाला तरीका ही इस्तेमाल करके बोलते हैं क्योंकि गुस्से से काम होता हुआ दिखाई दे रहा है।

फिर में किसी विशेष व्यक्ति के साथ वो वाला तरीका इस्तेमाल नहीं करूंगी बल्कि अब वो मेरा संस्कार बन चुका है।

फिर वो सिर्फ ऑफिस में नहीं रहेगा जब आप शाम को घर आएंगे तो भी सबके साथ गुस्से से ही बात करेंगे। फिर उसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है।

हम आपने परिवार को खुशी देना चाहते थे और दे क्या रहे है? जितना हम उनको गुस्सा दे रहे हैं वो भी वैसे ही बनते जा रहे है। फिर हम कहते हैं कि आजकल बच्चे और युवा देखो कैसे हो गए है।

आजकल के बच्चों में कुछ भी बदला हुआ नहीं है, लेकिन सारा दिन हम उनको कौन सी एनर्जी दे रहे हैं और ये सब इसलिए हो रहा है। कि हमने कहा कि गुस्से से काम हो जाता है।

गुस्सा करने से हमारे मन, शरीर और रिश्तों का नुकसान होता है और हम कहते हैं कि काम हो जाता है। काम जल्दी क्यों करवाना था? क्योंकि मुनाफा बढ़ेगा।

जितना लाभ होगा उससे हमारे घर में पैसा आएगा। पैसा आएगा तो खुशी आएगी। आखिर हम खुशी प्राप्त करने के लिये ये सब करते गए जो कि सही नहीं था।

लंबे समय से ऐसा करते करते वो हमारा तरीका बन गया है। अब हम इसे बदलने के लिए प्रयोग शुरू करते है। अब हम गुस्से से नहीं बल्कि प्यार से काम करवाकर देखते हैं।

क्या होगा? काम थोड़ा धीरे होगा हो सकता है कि थोड़ा मुनाफा भी कम होगा, लेकिन ऐसा होता नहीं है।

गुस्सा नहीं करने से एक तो हमारी खुशी बढ़ जाती है, हमारी टीम की काम करने की इच्छा बढ़ जाती है, क्योंकि हम एक-दूसरे के ऊपर चिल्लाना बंद कर देते है।

हमारा एक-दूसरे के ऊपर प्यार, विश्वास, सम्मान बढ़ चुका होता है, क्योंकि हमने गलत व्यवहार करना बंद कर दिया।

जब हमारा ये बदल चुका होता है तो घर जाने के बाद बच्चों के साथ व्यवहार भी बदल चुका होता है।

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व्यस्त शब्द को मिटाएं, वह आपकी इमोशनल हेल्थ खराब करेगा

आजकल हम तनाव होने के बाद चीजों का ध्यान रख रहे हैं। पहले से ध्यान रखें तो किसी को तनाव होगा ही नहीं।

जो लोग ज्यादातर देश के बाहर यात्राएं करते हैं तो उनको बाहर जाकर एक अंतर दिखाई देता है कि वही ज्यादातर लोग अकेले रहते है।

सड़कों पर भी ज्यादातर अकेले लोग दिख जाते है। शाम को छः बजे लाइट बंद हो जाती है। उनके यहां अकेले रहना अवसाद और बैचेनी का कारण है।

लेकिन हमारे यहां इसका क्या कारण है? यहां तो मुश्किल से पांच मिनट भी अकेले रहने को नहीं मिलता। ये हमारा अच्छा भाग्य है कि हम भारत देश में है। जहां हम कभी भी अकेले नहीं होते है।

हमारे साथ हमेशा एक दिव्य शक्ति होती है। लेकिन फिर ऐसे माहौल में सबसके बीच रहते हुए भी कभी-कभी अकेले हो जाते है। आज हम खुद से एक प्रतिज्ञा करते हैं कि हम अपने भावनात्मक स्वास्थ्य को 10 प्रतिशत पर लाते है।

डब्ल्यूएचओ ने पिछले साल कहा था कि चार में से एक व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार है। फिर डब्लयूएचओ ने कहा 20220 तक मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण डिप्रेशन होगा।

लेकिन आज अगर हम यह निर्णय लें कि हम अपनी इमोशनल हेल्थ को 10 पर लेकर आएंगे और आने आसपास सारे जो हैं उनकी भी इमोशनल हेल्थ को 10 पर लेकर आएंगे।

तो 2020 के अंत तक कम से कम भारत से डिप्रेशन खत्म हो जायेगा और यह हमारी जिम्मेदारी होनी चाहिए। हमने मेहनत करके अपने देश से पोलियों खत्म किया है।

उसी तरह हमें देश का थोड़ा ध्यान रखकर डिप्रेशन को भी पूरी तरह से खत्म करना है। यह हम सबसकी जिम्मेदारी है कि तनाव, अवसाद और चितंता न मुझे हो और न ही अन्य किसी को हो।

औरो का ध्यान रखने से पहले महत्वूर्ण यह है कि पहले अपना ध्यान रखें। आजकल हम किसी को कहते हैं थोड़ा सा टाइम निकालो सुबह थोड़ी देर मेडिटेश्ज्ञन करो।

इसके जवाब में एक नकारात्मक ऊर्जा वाला शब्द सबके मुंह पर होता है कि मैं बहुत व्यस्त हूं और दूसरा कि मेरे पास वक्त नहीं हैं ये एक शब्द इस समय बहुत सारे दुखों का कारण है।

हम पूरे दिन में न जाने कितनी बार इस शब्द का प्रयोग करते है। बार-बार हम अपने आपको कह रहे है मेरे पास समय नहीं है।

इस वर्ष हम अपनी एक सोच को बदल सकते है व्यस्त शब्द को सदा के लिए खत्म कर देते है। ये शब्द हमारी इमोशनल हेल्थ को नुकसान पहुंचा रहा है।

समय उतना ही है सभी के पास। लेकिन समय के बारे में हमारा एटीट्यूड कैसा है वो हरेक का अलग अलग होता है।

कुछ लोग 18 घंटे काम करके भी बड़े हल्के रहते हैं और कुछ लोग कुछ न कुछ करते हुए भी कहते है मेरे पास वक्त नहीं है।

वो घर पर रिटायर हो चुके हैं कुछ नहीं कर रहे है लेकिन ऐसा लगेगा कि इनसे ज्यादा कोई व्यस्त नहीं है। दिक्कत मन के अंदर है बाहर नहीं। अब हमें सकारात्मक ऊर्जा वाले शब्दों को इस्तेमाल करना है।

बी.के. शिवानी, ब्रह्याकुमारी

शयन के नियम

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  • सूने तथा निर्जन घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देव मन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। (मनुस्मृति)
  • किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। (विष्णुस्मृति)
  • विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, यदि ये अधिक समय से सोए हुए हों, तो इन्हें जगा देना चाहिए। (चाणक्यनीति)
  • स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। (देवीभागवत) बिल्कुल अँधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। (पद्मपुराण)
  • भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। (अत्रिस्मृति) टूटी खाट पर तथा जूठे मुँह सोना वर्जित है। (महाभारत)
  • ”नग्न होकर/निर्वस्त्र” नहीं सोना चाहिए। (गौतम धर्म सूत्र)
  • पूर्व की ओर सिर करके सोने से विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु तथा दक्षिण की ओर सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। (आचारमय़ूख)
  • दिन में कभी नहीं सोना चाहिए। परन्तु ज्येष्ठ मास में दोपहर के समय 1 मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। (दिन में सोने से रोग घेरते हैं तथा आयु का क्षरण होता है)
  • दिन में तथा सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है। (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
  • सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घण्टे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
  • बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर है।
  • दक्षिण दिशा में पाँव करके कभी नहीं सोना चाहिए। यम और दुष्ट देवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है, स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
  • हृदय पर हाथ रखकर, छत के पाट या बीम के नीचे और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
  • शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।
  • सोते सोते पढ़ना नहीं चाहिए। (ऐसा करने से नेत्र ज्योति घटती है )
  • ललाट पर तिलक लगाकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते समय तिलक हटा दें।

इन १६ नियमों का अनुकरण करने वाला यशस्वी, निरोग और दीर्घायु हो जाता है।

नोट :- यह सन्देश जन जन तक पहुँचाने का प्रयास करें। ताकि सभी लाभान्वित हों
साभार
हमारी पुरातन ज्ञान व संस्कृति

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हनुमान जी का चित्र घर में कहाँ लगायें ?

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श्रीराम भक्त हनुमान साक्षात एवं जाग्रत देव हैं। हनुमानजी की भक्ति जितनी सरल है उतनी ही कठिन भी।

कठिन इसलिए की इसमें व्यक्ति को उत्तम चरित्र और मंदिर में पवित्रता रखना जरूरी है अन्यथा इसके दुष्परिणाम भुगतने होते हैं|

हनुमानजी की भक्ति से चमत्कारिक रूप से संकट खत्म होकर भक्त को शांति और सुख प्राप्त होता है। विद्वान लोग कहते हैं कि जिसने एक बार हनुमानजी की भक्ति का रस चख लिया वह फिर जिंदगी में अपनी बाजी कभी हारता नहीं।

जो उसे हार नजर आती है वह अंत में जीत में बदल जाती है। ऐसे भक्त का कोई शत्रु नहीं होता।
आपने हनुमानजी के बहुत से चित्र देखे होंगे।

जैसे- पहाड़ उठाए हनुमानजी, उड़ते हुए हनुमानजी, पंचमुखी हनुमानजी, रामभक्ति में रत हनुमानजी, छाती चिरते हुए, रावण की सभा में अपनी पूंछ के आसन पर बैठे हनुमानजी,

लंका दहन करते हनुमान, सीता वाटिका में अंगुठी देते हनुमानजी, गदा से राक्षसों को मारते हनुमानजी, विशालरूप दिखाते हुए हनुमानजी, आशीर्वाद देते हनुमानजी, राम और लक्षमण को कंधे पर उठाते हुए हनुमानजी,

रामायण पढ़ते हनुमानजी, सूर्य को निगलते हुए हनुमानजी, बाल हनुमानजी, समुद्र लांगते हुए हनुमानजी, श्रीराम-हनुमानजी मिलन, सुरसा के मुंह से सूक्ष्म रूप में निकलते हुए हनुमानजी, पत्थर पर श्रीराम नाम लिखते हनुमानजी,

लेटे हुए हनुमानजी, खड़े हनुमानजी, शिव पर जल अर्पित करते हनुमानजी, रामायण पढ़ते हुए हनुमानजी, अखाड़े में हनुमानजी शनि को पटकनी देते हुए,

ध्यान करते हनुमानजी, श्रीकृष्ण रथ के उपर बैठे हनुमानजी, गदा को कंधे पर रख एक घुटने पर बैठे हनुमानजी, पाताल में मकरध्वज और अहिरावण से लड़ते हनुमानजी,

हिमालय पर हनुमानजी, दुर्गा माता के आगे हनुमानजी, तुलसीदासजी को आशीर्वाद देते हनुमानजी, अशोक वाटिका उजाड़ते हुए हनुमानजी, श्रीराम दरबार में नमस्कार मुद्रा में बैठे हनुमानजी आदि।


जिस घर में हनुमानजी का चित्र होता है वहां मंगल, शनि, पितृ और भूतादि का दोष नहीं रहता।

हनुमानजी के भक्त हैं तो घर में हनुमानजी के चित्र कहां और किस प्रकार के लगाएं यह जानना जरूरी है। आओ आज हम आपको बताते हैं

श्रीहनुमानजी के चित्र लगाने के कुछ नियम

किस दिशा में लगाएं हनुमानजी का चित्र : वास्तु के अनुसार हनुमानजी का चित्र हमेशा दक्षिण दिशा की ओर देखते हुए लगाना चाहिए। यह चित्र बैठी मुद्रा में लाल रंग का होना चाहिए।


दक्षिण दिशा की ओर मुख करके हनुमानजी का चित्र इसलिए अधिक शुभ है क्योंकि हनुमानजी ने अपना प्रभाव सर्वाधिक इसी दिशा में दिखाया है।

हनुमानजी का चित्र लगाने पर दक्षिण दिशा से आने वाली हर बुरी ताकत हनुमानजी का चित्र देखकर लौट जाती है। इससे घर में सुख और समृद्धि बढ़ती है।


शयनकक्ष में न लगाएं हनुमान चित्र : शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी बाल ब्रह्मचारी हैं और इसी वजह से उनका चित्र शयनकक्ष में न रखकर घर के मंदिर में या किसी अन्य पवित्र स्थान पर रखना शुभ रहता है।

शयनकक्ष में रखना अशुभ है।


भूत, प्रेत आदि से बचने हेतु : यदि आपको लगता है कि आपके घर पर नकारात्मक शक्तियों का असर है तो आप हनुमानजी का शक्ति प्रदर्शन की मुद्रा में चित्र लगाएं।

आप चाहे तो पंचमुखी हनुमानजी का चित्र मुख्य द्वारा के ऊपर लगा सकते हैं या ऐसी जगह लगाएं जहां से यह सभी को नजर आए। ऐसा करने से घर में किसी भी तरह की बुरी शक्ति प्रवेश नहीं करेगी।


पंचमुखी हनुमान:- वास्तुविज्ञान के अनुसार पंचमुखी हनुमानजी की मूर्ति जिस घर में होती है वहां उन्नति के मार्ग में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं और धन संपत्ति में वृद्घि होती है।


जलस्रोत दोष : यदि भवन में गलत दिशा में कोई भी जल स्रोत हो तो इस वास्तु दोष के कारण परिवार में शत्रु बाधा, बीमारी व मन मुटाव देखने को मिलता है।

इस दोष को दूर करने के लिए उस भवन में ऐसे पंचमुखी हनुमान का चित्र लगाना चाहिए।


जिनका मुख उस जल स्रोत की ओर देखते हुए दक्षिण पाश्चिम दिशा की तरफ हो।

बैठक रूप में : बैठक रूम में आप श्रीराम दरबार का फोटो लगाएं, जहां हनुमानजी प्रभु श्रीरामजी के चरणों में बैठे हुए हैं।

इसके अलावा बैठक रूम में पंचमुखी हनुमानजी का चित्र, पर्वत उठाते हुए हनुमानजी का चित्र या श्रीराम भजन करते हुए हनुमानजी का चित्र लगा सकते हैं। ध्यान रखें कि उपरोक्त में से कोई एक चित्र लगा सकते हैं।


पर्वत उठाते हुए हनुमान का चित्र : यदि यह चित्र आपके घर में है तो आपमें साहस, बल, विश्वास और जिम्मेदारी का विकास होगा।

आप किसी भी परिस्थिति से घबराएंगे नहीं। हर परिस्थिति आपके समक्ष आपको छोटी नजर आएगी और तुरंत ही उसका समाधान हो जाएगा।


उड़ते हुए हनुमान: यदि यह चित्र आपके घर में है तो आपकी उन्नती, तरक्की और सफलता को कोई रोक नहीं सकता।

आपमें आगे बढ़ने के प्रति उत्साह और साहस का संचार होगा। निरंतर आप सफलता के मार्ग पर बढ़ते जाएंगे


श्रीराम भजन करते हुए हनुमान : यदि यह चित्र आपके घर में है तो आपमें भक्ति और विश्वास का संचार होगा। यह भक्ति और विश्वास ही आपके जीवन की सफलता का आधार है।

   - डॉO विजय शंकर मिश्र

असफल होने पर सफलता के लिए कोशिश न करने से उपजती है पराजय की मानसिकता

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एक बार की बात है वन में एक ऋषि आश्रम बनाकर रहते थे। उनके पास एक विशाल हाथी था। इसके बावजूद वह एक पतली व कमजोर रस्सी से बंधा रहता था।

एक बार कोई राहगीर उनके आश्रम में आया और यह देखकर चकित हो गया कि इतना बड़ा हाथी एक कमजोर रस्सी से बंधा है और इसके बावजूद वह इससे आजाद नहीं हो पा रहा है।

जबकि एक हाथी तो जंजीरो को भी तोड़ सकता है। उसके मन में जिज्ञासा हुई कि हाथी इस कमजोर रस्सी को क्यों नहीं तोड़ पाता है। वह ऋषि के पास गया। जहां वह शिष्यों को ज्ञान दे रहे थे। उसने ऋषि को प्रणाम करके अपनी उत्सुकता के बारे में पूछा।

राहगीर की बात सुनकर ऋषि ने बताया कि यह हाथी जब बहुत छोटा था तो उनके पास आया था। तब वह उसे इसी रस्सी से बांधते थे।

उस समय जोर लगाने पर भी उसके लिए इस रस्सी को तोड़ पाना बहुत ही मुश्किल था। तब हाथी ने इस रस्सी को तोड़ने का भरसक प्रयास किया।

इस कोशिश में वह कई बार चोटिल हुआ। उसके पैरों से खून भी निकला, लेकिन वह रस्सी नहीं तोड़ सका। काफी प्रयास करने के बाद असफल होकर हाथी ने हार मान ली और असंभव मानकर रस्सी पर जोर लगाना भी छोड़ दिया ।

धीरे-धीरे जब यह बड़ा हुआ तो भी उसे लगता था कि यह रस्सी इससे नहीं टूटेगी। इसलिए उसने रस्सी को तोड़ने का प्रयास ही नहीं किया। आज जब वह एक वयस्क व बलवान हाथी तो भी इसी पतली रस्सी में जकड़ा है।

असल में उसने रस्सी से हार मान ली है। जबकि, वह किसी भी समय रस्सी को तोड़कर अपने आपको बंधन से मुक्त कर सकता है।

लेकिन बचपन की हार को जीवन की हार मानकर यह अब भी कोशिश ही नहीं करता । इस हाथी के समान ही, हम में से जाने कितने लोग ऐसे है, जो यह मान लेते हैं, कि वो जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते। क्योंकि पहले उन्होंने कोशिश की थी। लेकिन असफल रहे।

सीखः- कई बार हम लोग किसी काम में एक बार असफल होने पर उसे असंभव मानकर दोबारा नहीं करते। जबकि, असफल होने की वजह हमारी कोशिश में कमी या और कुछ भी हो सकता है।