भारत अपनी संस्कृति के लिए पूरे विश्व में यूं ही इतना विख्यात नहीं है।
भारतभूमि पर ऐसे कई संत और महात्मा हुए हैं जिन्होंने धर्म और भगवान को रोम-रोम में बसा कर दूसरों के सामने एक आदर्श के रुप में पेश किया है।
मोक्ष और शांति की राह को भारतीय संतों ने सरल बना दिया है। भजन और स्तुति की रचनाएं कर आमजन को भगवान के और समीप पहुंचा दिया है।
ऐसे ही संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है।
नारी संतों में ईश्वर प्राप्ति हेतु लगी रहने वाली साधिकाओं में सर्वप्रथम नाम आता है मीरा जी का, उनका भक्ति से ओत-प्रोत साहित्य अन्य भक्तों का भी मार्ग दर्शन करता है।
मीरा जी के काव्य में सांसारिक बंधनों का त्याग एवं ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भाव मिलता है। उसकी दृष्टि में सुख, वैभव, सम्मान, उच्च पद आदि मिथ्या हैं, यदि कोई सत्य है तो वह है गिरधर गोपाल।
कृष्ण को वह परमात्मा और अविनाशी मानती थी। उसकी भक्ति में ढोंग, आडंबर और मिथ्या मान्यताएँ दिखाई नहीं देती, बल्कि भक्ति का सरलतम मार्ग – स्मरण, नृत्य और गायन थे। मीरा ने ज्ञान पर उतना बल नहीं दिया जितना भावना और श्रद्धा पर ।
मीरा का काल, वह समय था जबकि हिन्दू मुस्लिम संस्कृतियों का संघर्ष, धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता पनप रही थी।
इसलिए उसने बल्लभ संप्रदाय के अनुयायियों से सत्संग तो किया, किन्तु आचार्य जी महाप्रभु की सेविका नहीं बनी। उसने ज्ञानी एवं योगियों से ज्ञान चर्चा तो की, परंतु कभी किसी संत महात्माओं की सेविका नहीं बनी।
उसने ज्ञानी एवं योगियों से ज्ञान चर्चा तो की, किन्तु जोगी होय जुगत न जाणी, उलट जनम री फाँसी को भी वह नहीं भूली। जीव गोस्वामी के पौरुष को ब्रजभाव के नारीत्व से तो रंगा, किन्तु स्वयं कृष्ण की दासी ही रही।
वह किसी संप्रदाय विशेष के घेरे में बंद नहीं हुई। डॉ.भगवानदास तिवारी के अनुसार, मीरा का भक्ति मार्ग साम्प्रदायिक पगडंडी न होकर स्वतंत्र राजमार्ग था।
उसके विचार अतीत और वर्तमान से संबंधित होकर भी मौलिक थे, परंपरा समर्थित होकर भी पूर्णतः स्वतंत्र थे, व्यापक होकर भी सर्वथा व्यक्तिनिष्ठ थे।
मीराबाई जहां जाती थीं, वहां उन्हें लोगों का सम्मान मिलता था. मीराबाई कृष्ण की भक्ति में इतना खो जाती थीं कि भजन गाते-गाते वह नाचने लगती थीं।
यह कहा जाता है की मीराबाई का कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से अपने चरम पर पहुंचा था।
मीराबाई के बचपन में एक दिन उनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहां बारात आई थी। सभी स्त्रियां छत से खड़ी होकर बारात देख रही थीं।
मीराबाई भी बारात देख रही थीं, बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि मेरा दूल्हा कौन है? इस पर मीराबाई की माता ने कृष्ण की मूर्ति के तरफ इशारा कर कह दिया कि वही तुम्हारे दुल्हा हैं।
यह बात मीरा बाई के बालमन में एक गांठ की तरह बंध गई। और उसी दिन से वह श्री कृष्ण को अपना पति मानने लगी।
यदि मीरा के पदों का गहन अध्ययन किया जाय तो मीरा की आध्यात्मिक यात्रा तीन सोपानों में दिखाई देती है।
पहला सोपान, प्रारंभ में उसका कृष्ण के लिये लालायित रहने का है, जब वह व्यग्र होकर गा उठती है मैं विरहणी बैठी जागूँ, जग सोवे री आली तथा मिलन के लिए वह तङफ उठती है, दरस बिन दूखण लागे नैण।
दूसरा सोपान वह है जब उसे कृष्ण भक्ति से उपलब्धियों की प्राप्ति हो जाती है और वह कहती है,
पायोजी मैंने रामरतन धन पायो मीरा के ये उद्गार प्रसन्नता के सूचक हैं और प्रसन्नता में वह पुनः कहती है, साजन म्हारे घरि आया हो, जुगा-जुगारी जोवता, वरहणी पिव पाया हो।
तीसरा और अंतिम सोपान है जब उसे आत्म बोध हो जाता है, अँसुवन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई, अब तो बेल फैल गयी आनंद फल होई।
सायुज्य भक्ति की चरम सीमा पर खङी मीरा बङे सहज भाव से कहती है मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई। मीरा अपने प्रियतम से मिलकर एकाकार हो गयी है।
भक्ति, ईश्वर के प्रति प्रेम रूपा है और प्रेम रूपा भक्ति को प्राप्त करने के बाद न किसी वस्तु की इच्छा रहती है, न शोक रहता है और न द्वेष रहता है और जिसे प्राप्त कर मनुष्य उन्मत्त हो जाता है। मीरा ने वही पा लिया है और मीरा की भक्ति की चरम सीमा भी यही है।
मीरा की भक्ति सगुण थी अथवा निर्गुण, इस संबंध में विद्वानों में मिथ्या मतभेद हैं। कुछ विद्वानों ने तो यहाँ तक कह दिया है कि मीरा योग अथवा नाथ पंथ से प्रभावित थी।
लेकिन मीरा के आराध्य के स्वरूप के विषय में कोई भ्रांति नहीं होनी चाहिए। मीरा का संपूर्ण प्रेम और भक्ति सगुण लीलाधारी कृष्ण के प्रति निवेदित हुआ है जिसका गिरधर नाम ही मीरा को सर्वाधिक प्रिय था।
ये ही गिरधर गोपाल मीरा के एकमात्र आराध्य देव थे। कुछ विद्वानों ने यह प्रश्न उठाया है कि जैसे राम शब्द भक्तों और संतों के संदर्भ में सगुण और निर्गुण दोनों का ही वाचक है, वैसे ही क्या मीरा का गिरधर भी निर्गुण ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता?
किन्तु मीरा ने अपने अनेक पदों में उसी सगुण साकार कृष्ण को ही अपना आराध्य देव स्वीकार किया है तथा अपने आराध्य के सगुण स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा है-
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहिनी मूरति सांवरी सूरति, नैना बने विसाल।
अधर सुधारस मुरली, राजति, उर वैजंती माल।।
अतः मीरा की सगुण भक्ति में हमें कोई संदेह नहीं है।
जहाँ कभी भी मीरा ने अपने गिरधर के लिये निर्गुण ब्रह्मवाची उपाधियों का प्रयोग किया है, वहाँ भी उसके साथ कृष्ण का सगुण स्वरूप अभिन्न संश्लिष्ट रहा है।
जोगी या जोगिया भी वस्तुतः प्रियतम का ही वाचक है। अतः इन शब्दों को लेकर मीरा का नाथ-पंथ या नाथ-संप्रदाय से संबंध जोङना भी निरर्थक है।
सगुणोपासना का क्षेत्र अधिक व्यापक और विस्तृत होता है। अतः कुछ सगुण भक्तों ने अपने आराध्य के गुणगान करने के लिये उसके विशुद्ध निर्गुण रूप का भी स्तवन किया है, किन्तु एकांगी निर्गुणोपासना में सगुण के लिये कोई स्थान हीं होता।
ऐसी स्थिति में यदि मीरा ने भज मन चरण कंवल अविनासी कहकर निर्गुण ब्रह्मवाची अविनासी शब्द का प्रयोग कर भी दिया तब भी उसकी सगुणोपासना पर कोई आँच नहीं आती, क्योंकि इसके साथ ही चरण कंवल शब्दों का प्रयोग भी किया है जिसमें सगुण कृष्ण की निर्मल छवि ही मुस्कराती है।
मीरा के समय सामंतवादी व्यवस्था अपने पूर्ण उत्कर्ष पर थी, जिसमें परंपरागत आचार-विचारों, रूढियों, जाति भेद तथा वर्ग भेद का महत्त्व था।
ऐसी अवस्था में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और नारी के समानाधिकार आदि मूल्यों को कोई स्थान नहीं था। उस प्रचलित व्यवस्था के विरुद्ध मीरा ने विद्रोह का शंखनाद किया जो जन संस्कृति की उत्कर्ष मूलक चेतना का प्रमाण है। अपने विद्रोही स्वर में मीरा ने कहा था –
चोरी करूँ न मारगी, नहीं मैं करूँ अकाज।
पुन्न के मारग चालतां, झक मारो संसार।।
इसमें झक मारो संसार अनीति व्यवस्था के विरुद्ध व्यक्ति स्वातंन्त्रय का स्वर कितनी तीव्रता से फूटा है। वस्तुतः मीरा की काव्य चेतना सामंती परिवेश में पलकर भी लोक धरातल पर विकसित हुई।
राजकुल में जन्म लेकर तथा राजकुल की वधु होकर भी मीरा का जीवन अन्तःपुर के प्रकोष्ठ में ही आबद्ध नहीं रहा, बल्कि अपनी व्यापक प्रेमानुभूति एवं भक्तिभावना के कारण उसका व्यक्तित्व अविनासी लोक के साथ एकरूप हो गया। 16 वीं शताब्दी में भक्ति की जिस सरिता का उद्मम मीरा ने किया था, आज भी वह उसी प्रभा से प्रवाहित हो रही है।
मीरा की महानता और उनकी लोकप्रियता उनके पदों और रचनाओं की वजह से भी है। ये पद और रचनाएं राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषाओं में मिलते हैं. हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीरा के पद हमारे देश की अनमोल संपत्ति हैं।
आंसुओं से गीले ये पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। मीराबाई ने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है।
भावों की सुकुमारता और निराडंबरी सहजशैली की सरसता के कारण मीरा की व्यथासिक्त पदावली बरबस सबको आकर्षित कर लेती हैं।
कहा जाता है कि मीराबाई रणछोड़ जी में समा गई थीं। मीराबाई की मृत्यु के विषय में किसी भी तथ्य का स्पष्टीकरण आज तक नहीं हो सका है.
मीराबाई ने भक्ति को एक नया आयाम दिया है. एक ऐसा स्थान जहां भगवान ही इंसान का सब कुछ होता है। दुनिया के सभी लोभ उसे मोह से विचलित नहीं कर सकते।
एक अच्छा-खासा राजपाट होने के बाद भी मीराबाई वैरागी बनी रहीं। मीराजी की कृष्ण भक्ति एक अनूठी मिसाल हैं।
भजन और स्तुति की रचनाएँ कर आमजन को भगवान के और समीप पहुँचाने वाले संतों और महात्माओं में मीराबाई का स्थान सबसे ऊपर माना जाता है।
मीरा का सम्बन्ध एक राजपूत परिवार से था। वे राजपूत राजकुमारी थीं, जो मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह के एकमात्र संतान थी।
मीरा बाई एक मध्यकालीन हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और कृष्ण भक्त थीं। वे भक्ति आन्दोलन के सबसे लोकप्रिय भक्ति-संतों में एक थीं।
भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित उनके भजन आज भी उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं और श्रद्धा के साथ गाये जाते हैं। मीरा का जन्म राजस्थान के एक राजघराने में हुआ था।
फिर भी मीरा जी राजसी ठाट बाट को अहमियत नहीं देती थी मीरा बाई के जीवन के बारे में तमाम पौराणिक कथाएँ और किवदंतियां प्रचलित हैं।
ये सभी किवदंतियां मीराबाई के बहादुरी की कहानियां कहती हैं और उनके कृष्ण प्रेम और भक्ति को दर्शाती हैं। इनके माध्यम से यह भी पता चलता है की किस प्रकार से मीराबाई ने सामाजिक और पारिवारिक दस्तूरों का बहादुरी से मुकाबला किया और कृष्ण को अपना पति मानकर उनकी भक्ति में लीन हो गयीं।
उनके ससुराल पक्ष ने उनकी कृष्ण भक्ति को राजघराने के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उनपर अत्याचार किये।
श्री कृष्ण की दीवानी के रूप में मीराबाई को कौन नहीं जानता। मीराबाई एक मशहूर संत होने के साथ-साथ हिन्दू आध्यात्मिक कवियित्री और भगवान कृष्णा की भक्त थी।
वे श्री कृष्ण की भक्ति और उनके प्रेम में इस कदर डूबी रहती थी कि दुनिया उन्हें श्री कृष्ण की दीवानी के रुप में जानती है।मीराबाई जी को श्री कृष्ण भक्ति के अलावा कुछ और नहीं सूझता था।
वह दिन-रात कृष्णा भक्ति में ही लीन रहती और उन्हें पूरा संसार कृष्णमय लगता था, इसलिए वे संसारिक सुखों और मोह-माया से दूर रहती थी, उनका मन सिर्फ श्री कृष्ण लीला, संत-समागम, भगवत चर्चा आदि में ही लगता था।
भगवान कृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए संत मीराबाई हजारो भक्तिमय कविताओ की रचना की है। संत मीरा बाई की श्री कृष्ण के प्रति उनका प्रेम और भक्ति, उनके द्वारा रचित कविताओं के पदों और छंदों मे साफ़ देखने को मिलती है। वहीं श्री कृष्ण के लिए मीरा बाई ने कहा है।
“मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई जाके सर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई” संत मीरा बाई कहती हैं, मेरे तो बस ये श्री कृष्ण हैं।
जिन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठाकर गिरधर नाम पाया है। जिसके सर पे ये मोर के पंख का मुकुट है, मेरा तो पति सिर्फ यही है।”
मीराबाई जी, की श्री कृष्ण भक्ति का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि, उन्हें अपनी कृष्ण भक्ति की वजह से अपने ससुराल वालों से काफी कष्ट भी सहना पड़ा था।
यहां तक की उन्हें कई बार मारने तक की कोशिश भी की गई, लेकिन मीराबाई को इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उनकी आस्था दिन पर दिन अपने प्रभु कृष्ण के प्रति बढ़ती चली गई, उन्होंने खुद को पूरी तरह श्री कृष्ण को समर्पित कर दिया था।
श्री कृष्ण को अपने पति के रुप में मानकर उन्होनें कृष्ण भक्ति के कई स्फुट पदों की भी रचना की है , इसके साथ ही उन्होंने श्री कृष्ण के सौंदर्य का बेहतरीन तरीके से अपनी रचनाओं में वर्णन किया है।
महान संत मीराबाई जी की कविताओं और छंदों में श्री कृष्ण के प्रति उनकी गहरी आस्था और प्रेम की अद्भुत झलक देखने को मिलती है, इसके साथ ही उनकी कविताओं में स्त्री पराधीनता के प्रति एक गहरी टीस दिखाई देती है, जो भक्ति के रंग में रंगकर और भी ज्यादा गहरी हो गई है।
प्रारंभिक जीवन
श्री कृष्ण की सबसे बड़ी साधक एवं महान अध्यात्मिक कवियत्री मीराबाई जी के जीवन से सम्बंधित कोई भी विश्वसनीय ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हैं।
विद्वानों ने साहित्य और दूसरे स्रोतों से मीराबाई के जीवन के बारे में प्रकाश डालने की कोशिश की है। इन दस्तावेजों के अनुसार मीरा का जन्म राजस्थान के मेड़ता में सन 1498 ईसवी राजस्थान के जोधपुर जिले के बाद कुडकी गांव में रहने वाले एक राजघराने में हुआ था।
इनके पिता का नाम रत्नसिंह था, जो कि एक छोटे से राजपूत रियासत के राजा थे।मीराबाई जी जब बेहद छोटी थी तभी उनके सिर से माता का साया उठ गया था,मीरा इकलौती संतान थी।
बाल्यकाल में मीरा को न भाई-बहन का साथ मिला, न माता-पिता का दुलार।
उनके पिता रतन सिंह, राणा साँगा के साथ तत्कालीन राजनीतिक उथल-पुथल और युद्धों को लेकर व्यस्त रहते थे, जिसके बाद
मीराजी का लालन-पालन उनके दादा के देख-रेख में हुआ जो भगवान् विष्णु के गंभीर उपासक थे और एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय भी थे और साधु-संतोंकाआना-जाना इनके यहाँ लगा ही रहता था।
इस प्रकार अपने दादा जी के धार्मिक विचारों का मीराबाई पर गहरा असर पड़ा था। मीराबाई बचपन से ही श्री कृष्ण की भक्ति में रंग गई थीं।
शिक्षा
मीराबाई जी को संगीत, धर्म, राजनीति और प्राशासन जैसे विषयों की शिक्षा दी गयी। उन्होंने तीर-तलवार, शस्त्र-चालन, घुड़सवारी, रथ-चालन आदि के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा भी पाई।
विवाह
राणा साँगा चित्तौड़ की गद्दी पर बैठे। उनकी पत्नी रानी झाली झालावाड़ के राजा की कन्या रत्नकुँवरी भी प्रभु भक्त थी। वह काशी जाकर गुरु रविदास की शिष्या बन गई थी।
चित्तौड़ के राणा साँगा के परिवार ने आश्रम बनाकर गुरु रविदास को भेंट किया। मेड़ता से मीरा के दादा चित्तौड़ स्थित आश्रम में गुरु रविदास का उपदेश सुनने के लिए आते थे।
रानी झाली का पुत्र कुँवर भोजराज अपनी माता के समान शांत और निश्छल प्रकृति का युवक था। उस समय कुँवर भोजराज की आयु 18 वर्ष थी।
रानी झाली ने अपने पति राणा साँगा की सहमति एवं गुरु रविदास का आशीर्वाद लेकर कुँवर भोजराज के लिए मीरा का हाथ दादाजी से माँगा था।
मीराबाई के परिवार वालों को इस संबंध से कोई आपत्ति नहीं थी इसीलिए दोनों परिवार संबंध सूत्र में बँध गए।
गुरु रविदास की उपस्थिति में कुँवर भोजराज और मीरा का विवाह संपन्न हुआ।
मीरा की आयु उस समय 12 वर्ष की थी। इसके बाद ही मीरा ने अपने पति एवं अपनी सास रानी झाली की अनुमति से गुरु रविदास का शिष्यत्व ग्रहण किया।
समय परिवर्तनशील है। मीरा के भाग्य में गृहस्थ जीवन भोगना विधाता ने नहीं लिखा था। केवल 25 वर्ष की अल्पायु में कुँवर भोजराज का अकस्मात् देहांत हो गया।
ऐसा कहा जाता है कि उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु के बाद मीरा को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास किया गया किन्तु वे इसके लिए तैयार नही हुईं और धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं।
मीराबाई के पति की मृत्यु के बाद उनका ज्यादातर समय श्री कृष्ण की भक्ति में व्यतीत होता था।
वे श्री कृष्ण की भक्ति में इस कदर लीन रहती थीं, कि अपनी परिवारिक जिम्मेदारियों पर भी ध्यान नहीं दे पाती थी, यहां तक की मीराबाई ने एक बार अपने ससुराल में कुल देवी “देवी दुर्गा” की पूजा करने से यह कहकर मना कर दिया था कि, उनका मन गिरधर गोपाल के अलावा किसी औऱ भगवान की पूजा में नहीं लगता।
मीराबाई का रोम-रोम कृष्णमय था, यहां तक की वे हमेशा श्री कृष्ण के पद गाती रहती थी और साधु-संतों के साथ श्री कृष्ण की भक्ति में डूबकर नृत्य आदि भी किया करती थी, लेकिन मीराबाई का इस तरह नृत्य करना राजशाही परिवार को बिल्कुल पसंद नहीं था, वे उन्हें ऐसा करने से रोकते भी थे, और इसका उन्होंने काफी विरोध भी किया था।
मीराबाई के ससुराल वाले इसके पीछे यह तर्क देते थे, वे मेवाड़ की महारानी है, उन्हें राजसी परंपरा निभाने के साथ राजसी ठाठ-वाठ से रहना चाहिए और राजवंश कुल की मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए।
कई बार मीराबाई को अपनी कृष्ण भक्ति की वजह से काफी जिल्लतों का भी सामना करना पड़ा था, बाबजूद इसके मीराबाई ने श्री कृष्ण की आराधना करना नहीं छोड़ी।
मीराबाई की कृष्ण भक्ति को देख कर उनके ससुराल वालों ने उन्हें मारने की कई बार कोशिशें की परंतु वह सभी कोशिशें नाकाम रही।
श्री कृष्ण भक्ति की वजह से मीराबाई जी के अपने ससुराल वालों से रिश्ते दिन पर दिन खराब होते जा रहे थे और फिर ससुराल वालों ने जब देखा कि किसी तरह भी मीराबाई की कृष्ण भक्ति कम नहीं हो रही है, तब उन्होंने कई बार विष देकर मीराबाई को जान से मारने की कोशिश भी की, लेकिन वे श्री कृष्ण भक्त का बाल भी बांका नहीं कर सके।
विक्रमजीतसिंह ने नाना प्रकार के उचित अनुचित साधनों से मीराबाई की इहलीला समाप्त करने की पूरी चेष्टा की। इन अत्याचारों का उल्लेख स्वयं मीरा ने अपने गीतों में किया है :
मीरा मगन भई हरि के गुण गाय।
सांप पिटारा राणा भेज्यो,मीरा हाथ दियो जाय।।
न्हाय धोय जब देखण लागी ,सालिगराम गई पाय।
जहर का प्याला राणा भेज्या ,अमृत दीन्ह बनाय।।
न्हाय धोय जब पीवण लागी हो अमर अंचाय।
मीराबाई को दिया जहर का प्याला:
बड़े साहित्यकारों और विद्धानों के अनुसार एक बार हिन्दी साहित्य की महान कवियित्री मीराबाई के ससुराल वालों ने जब उनके लिए जहर का प्याला भेजा, तब मीराबाई ने श्री कृष्ण को जहर के प्याले का भोग लगाया और उसे खुद भी ग्रहण किया, ऐसा कहा जाता है कि, मीराबाई की अटूट भक्ति और निश्छल प्रेम के चलते विष का प्याला भी अमृत में बदल गया।
मारने के लिए फूलों को टोकरी में भेजा सांप
प्रख्यात संत मीराबाई की हत्या करने के पीछे एक और किवंदित यह भी प्रचलित है कि, जिसके मुताबिक एक बार मीराबाई के ससुराल वालों ने उन्हें मारने के लिए फूलों की टोकरी में एक सांप रख कर मीरा के पास भेजा था, लेकिन जैसे ही मीरा ने टोकरी खोली, सांप फूलों का हार बन गया ।
राणा विक्रम सिंह ने भेजी कांटों की सेज
श्री कृ्ष्ण की दीवानी मीराबाई को मारने की कोशिश में एक अन्य किवंदति के मुताबिक एक बार राणा विक्रम सिंह ने उन्हें मारने के लिए कांटो की सेज (बिस्तर) भेजा, लेकिन, ऐसा कहा जाता है कि, उनके द्धारा भेजा गया कांटो का सेज भी फूलों के बिस्तर में बदल गया।
श्री कृष्ण की अनन्य प्रेमिका और कठोर साधक मीराबाई की हत्या के सारे प्रयास विफल होने के पीछे लोगों का यह मानना है कि, भगवान श्री कृष्ण अपनी परम भक्त की खुद आकर सुरक्षा करते थे, कई बार तो श्री कृष्ण ने उन्हें साक्षात दर्शन भी दिए थे।
द्वारिका में वास
इन सब कुचक्रों से पीड़ित होकर मीराबाई अंतत: मेवाड़ छोड़कर मेड़ता आ गईं, लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया गया।
अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत: द्वारिका में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
सन् 1543 ई. के पश्चात मीरा द्वारिका में रणछोड़ की मूर्ति के सन्मुख नृत्य-कीर्तन करने लगीं। सन् 1546 ई. में चित्तौड़ से कतिपय ब्राह्मण उन्हें बुलाने के लिए द्वारिका भेजे गए।
कहते हैं कि मीरा रणछोड़ से आज्ञा लेने गईं और उन्हीं में अंतर्धान हो गईं। जान पड़ता है कि ब्राह्मणों ने अपनी मर्यादा बचाने के लिए यह कथा गढ़ी थी।
सन् 1554 ई. में मीरा के नाम से चित्तौड़ के मंदिर में गिरिधरलाल की मूर्ति स्थापित हुई। यह मीरा का स्मारक और उनके इष्टदेव का मंदिर दोनों था।
गुजरात में मीरा की पर्याप्त प्रसिद्धि हुई। हित हरिवंश तथा हरिराम व्यास जैसे वैष्णव भी उनके प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने लगे।
मान्यताएँ
एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी, वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था। मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं।
उन दिनों वह राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका विवाह एक गोप से कर दिया गया था।
विवाह के बाद भी गोपिका का कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण त्याग दिए।
बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में 1504 ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-
“आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी।
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥”
मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार, एक बार एक साधु मीरा के घर पधारे।
उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6 साल थी। साधु को मीरा की माँ ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया।
मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं।
इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के प्रेम में मग्न हो गयीं।
मीरा जी की गोस्वामी जी से भेंट
एक प्रचलित कथा के अनुसार मीराबाई वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं। गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे।
उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया और अन्दर से ही कहला भेजा कि- “हम स्त्रियों से नहीं मिलते”। इस पर मीराबाई का उत्तर बडा मार्मिक था।
उन्होंने कहा कि “वृंदावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं, यहाँ आकर जाना कि उनका एक और प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है”।
मीराबाई का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले। इस कथा का उल्लेख सर्वप्रथम प्रियादास के कवित्तों में मिलता है-
मीराबाई द्वारा लिखा गया महान तुलसीदास जी को पत्र
मीराबाई जी ने अपने परिवार वालों के व्यवहार से पीड़ित औरबहुत ज्यादा दुखी होकर द्वारका और फिर वृंदावन आ गई थीं। वह जहाँ भी जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता।
लोग उन्हें देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
परंतु मीराबाई जी के मन में कुछ प्रशन थे जिनका उन्हें समाधान नहीं मिल रहा था अपने प्रश्नों का समाधान ढूंढने के लिएउन्होंने तुलसीदास को एक पत्र लिखा ।
जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार है –
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई। साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई। हमको कहा उचित करीबो है, सो लिखिए समझाई।।
इस पत्र के माध्यम से मीराबाई ने तुलसीदास जी से सलाह मांगी कि, मुझे अपने परिवार वालों के द्धारा श्री कृष्ण की भक्ति छोड़ने के लिए प्रताडि़त किया जा रहा है, लेकिन मै श्री कृष्ण को अपना सर्वस्व मान चुकी हैं, वे मेरी आत्मा और रोम-रोम में बसे हुए हैं।
नंदलाल को छोड़ना मेरे लिए देह त्यागने के जैसा है, मैं कृष्ण के बिना जीवित नहीं रह सकती कृपया ऐसी असमंजस से निकालने के लिए मुझे सलाह दें, और मेरी मदद करें।
जिसके बाद भक्ति शाखा की महान कवियित्री मीराबाई के पत्र का जबाव हिन्दी साहित्य के महान कवि तुलसी दास ने इस तरह दिया था –
“जाके प्रिय न राम बैदेही। सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।
अर्थात तुलसीदास जी ने मीराबाई जी से कहा कि, जिस तरह भगवान विष्णु की भक्ति के लिए प्रहलाद ने अपने पिता को छोड़ा, राम की भक्ति की लिए विभीषण ने अपने भाई को छोड़ा, बाली ने अपने गुरु को छोड़ा और गोपियों ने अपने पति को छोड़ा उसी तरह आप भी अपने सगे-संबंधियों को छोड़ दो जो आपको और श्री कृष्ण के प्रति आपकी अटूट भक्ति को नहीं समझ सकते एवं भगवान राम और कृष्ण की आराधना नहीं करते।
क्योंकि भगवान और भक्त का रिश्ता अनूठा होता है, जो अजर-अमर है और इस दुनिया में सभी संसारिक रिश्तों को मिथ्या बताया है।सांसारिक रिश्ते सब झूठे हैं केवल ईश्वर का रिश्ता ही परमसत्य है।
मीराबाई जी के गुरु
मीराबाई संत रविदास की महान शिष्या तथा संत कवयित्री थीं। अधिकतर विद्वानों ने मीराबाई को गुरु रविदास जी की शिष्या स्वीकार किया है।
काशीनाथ उपाध्याय ने भी लिखा है- “इस विषय पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता कि मीराबाई गुरु रविदास जी की शिष्या थीं, क्योंकि मीराबाई ने स्वयं अपने पदों में बार-बार गुरु रविदास जी को अपना गुरु बताया है।”
खोज फिरूं खोज वा घर को, कोई न करत बखानी। सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर। मीरा श्री रैदास शरण बिन, भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है, मैं सन्ता री दास। चेतन सता सेन ये, दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की, कर बंदना आस। जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी। सतगुरु सैन दई जब आके, ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय। गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।
इस प्रकार मीराबाई की वाणी से स्पष्ट है कि वह गुरु रविदास के समकालीन संत श्रेणी में आती थीं और गुरु रविदास को ही उन्होंने गुरु की उपाधि प्रदान की थी।
अतः मीराबाई गुरु रविदास की विधिवत शिष्या बनीं और साथ ही नाम सबद, संगीत व तंबूरा, जिसे मीराबाई बजाती थीं, गुरु रविदास से ही पाया था।
इसीलिए सम्भवत: यह लगता है कि गुरु दक्षिणा के रूप में उन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में ‘रविदास छत्तरी’का निर्माण करवाया था।
मीराबाई ने भी अपनी वाणी को रागों में ही उच्चारित किया है, जिसमें अधिकतर शब्दों में भैरवी राग को देखा जा सकता है
मीराबाई की काव्य भाषा
मीराबाई के कुछ पदों की भाषा पूर्ण रूप से गुजराती है तो कुछ की शुद्ध ब्रजभाषा। कहीं-कहीं पंजाबी का प्रयोग भी दिखाई देता है।
शेष पद मुख्य रूप से राजस्थानी में ही पाए जाते हैं, इनमें ब्रजभाषा का भी पुट मिला हुआ ये चार बोलियाँ हैं- राजस्थानी, गुजराती, ब्रजभाषा और पंजाबी।
इन बोलियों में मीरांबाई के पदों के उदाहरण भी देखिए –
राजस्थानी
थारी छूँ रमैया मोसूँ नेह निभावो। थारो कारण सब सुख छोड़या, हमकूँ क्यूँ तरसावौ।।
गुजराती
मुखड़ानी माया लागी रे मोहन प्यारा। मुखड़ँ में जोयुँ तारू सर्व जग थायुँ खारू।।
पंजाबी
आवदा जांवदा नजर न आवै।अजब तमाशा इस दा नी।।
ब्रजभाषा
सखी मेरी नींद नसानी हो,
पिय को पंथ निहारत, सिगरी रैन बिहानी हो।
सब सखियन मिलि सीख दई मन एक न मानी हो।।
मीराबाई जी की भाषा को लेकर भी विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। मारवाड़ी भाषा में स्थान की अन्य भाषा-छवियाँ भी विद्यामान हैं।
मीराबाई की भाषा में गुजराती, ब्रज और पंजाबी भाषा के प्रयोग भी मिलते भी हैं। मीराबाई अन्य संतों नामदेव, कबीर, रैदास आदि की भाँति मिली-जुली भाषा में अपने भावों को व्यक्त करती थी।
मीराबाई की साहित्यिक देन
मीराबाई,सगुण भक्ति धारा की महान अध्यात्मिक कवियत्री थी, इन्होंने श्री कृष्ण के प्रेम रस में डूबकर कई कविताओं, पदों एवं छंदों की रचना की।
मीराबाई जी की रचनाओं में उनका श्री कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम, श्रद्धा, तल्लीनता, सहजता एवं आत्मसमर्पण का भाव साफ दिखते हैं ।
मीराबाई ने अपनी रचनाएं राजस्थानी, ब्रज और गुजराती भाषा शैली में की है।
सच्चे प्रेम से परिपूर्ण मीराबाई जी की रचनाओं एवं उनके भजनों को आज भी पूरा संसार तन्मयता से गाता हैं।
मीराबाई जी ने अपनी रचनाओं में बेहद शानदार तरीके से अलंकारों का भी इस्तेमाल किया है।
मीराबाई ने बेहद सरलता और सहजता के साथ अपनी रचनाओं में अपने प्रभु श्री कृष्ण के प्रति प्रेम का वर्णन किया है।
इसके साथ ही उन्होंने प्रेम पीड़ा को भी व्यक्त किया है। आपको बता दें कि मीराबाई जी की रचनाओं में श्री कृष्ण के प्रति इनके ह्रदय के अपार प्रेम देखने को मिलता है,
भारतीय परंपरा में भगवान् कृष्ण के गुणगान में लिखी गई हजारों भक्तिपरक कविताओं का सम्बन्ध मीरा के साथ जोड़ा जाता है पर विद्वान ऐसा मानते हैं कि इनमें से कुछ कवितायेँ ही मीरा द्वारा रचित थीं बाकी की कविताओं की रचना 18वीं शताब्दी में हुई प्रतीत होती है।
ऐसी ढेरों कवितायेँ जिन्हें मीराबाई द्वारा रचित माना जाता है, दरअसल उनके प्रसंशकों द्वारा लिखी मालूम पड़ती हैं। ये कवितायेँ ‘भजन’ कहलाती हैं और उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हैं।
मीराबाई की रचनाएं
मीराबाई द्धारा लिखी गईं कुछ प्रसिद्ध रचनाओं के नाम नीचे लिखी गए हैं, जो कि इस प्रकार है –
- नरसी जी का मायरा
- मीराबाई की मलार
- गीत गोविंन्द टिका
- राग सोरठ के पद
- राग गोविन्दा
- राग विहाग
- गरबा गीत
इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रंथ में किया गया है।।
मीराबाई का साहित्य में स्थान
कृष्ण को आराध्य मानकर कविता करने वाली मीराबाई की पदावलियाँ हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल हैं। कृष्ण के प्रति मीरा की विरह वेदना सूरदास की गोपियों से कम नहीं है तभी तो सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है कि
‘‘मीराबाई राजपूताने के मरूस्थल की मन्दाकिनी हैं।’’ ‘हेरी मैं तो प्रेम दीवाणी, मेरो दर्द न जाने कोय।’ प्रेम दीवाणी मीरा का दरद हिन्दी में सर्वत्र व्याप्त है।
मीराबाई का केन्द्रीय भाव
मीरा के पदों का वैशिष्ट्य उनकी तीव्र आत्मानुभूति में निहित है। मीरा के काव्य का विषय है- श्रीकृष्ण के प्रति उनका अनन्यप्रेम और भक्ति ।
मीरा ने प्रेम के मिलन (संयोग) तथा विरह (वियोग) दोनों पक्षों की सुंदर अभिव्यक्ति की है। श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम में मीरा किसी भी प्रकार की बाधा या यातना से विकल नहीं होती।
लोक का भय अथवा परिवार की प्रताड़ना दोनों का ही वे दृढ़ता के साथ सामना करती हैं।
मीरा बाई की कविताएँ
हरि आप हरो जन री पीर। द्रोपदी री लाज राखी, आप बढ़ायो चीर। भगत कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
बूढ़तो गजराज राख्यो, काटी कुञ्जर पीर। दासी मीरा लाल गिरधर, हरो म्हारी पीर॥
चाकरी में दरसण पास्यू, सुमरण पास्यू खरची। भाव भगती जागीरी पास्यू, तीनूं बाता सरसी।
मोर मुगट पीताम्बर सौहे, गल वैजंती माला। बिंदरावन में धेनु चरावे, मोहन मुरली वाला।
मीराबाई का प्रसिद्ध पद –
“बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।”
मीराबाई की जयंती
हिन्दू कलैंडर के मुताबिक शरद पूर्णिमा के दिन मीराबाई जी की जयंती मनाई जाती है।
मीराबाई को आज भी लोग श्री कृष्ण की दीवानी और उनकी परम भक्त के रुप में जानते हैं इसके साथ ही उनके प्रेम रस में डूबे भजन को गाते हैं।
इसके साथ ही कई हिन्दी फिल्मों में भी मीराबाई के पदों का इस्तेमाल किया गया है।
अर्थात मीराबाई ने जिस तरह तमाम कष्ट झेलते हुए एकाग्र होकर अपने प्रभु को चाहा, वो वाकई सराहनीय है, अर्थात हर किसी को सच्चे मन के साथ प्रभु में आस्था रखनी चाहिए और अपने लक्ष्य के प्रति अडिग रहना चाहिए।
“जिन चरन धरथो गोबरधन गरब- मधवा- हरन।। दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।”
मीराबाई द्वारा प्रयुक्त सांगितिक पद्धति
संगीत की दृष्टि से मीराबाई मध्य काल में प्रचलित संगीत की राग-रागिनी पद्धति से भली प्रकार से परिचत थीं तथा वाणी का उच्चारण रागों में करना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जो कि वर्तमान में शोध का विषय बन कर सामने आया है।
गुरु प्यारी साध संगत जी, ऐसा सर्वविदित है कि समस्त जगत नाद के अधीन है तथा संगीत नाद का सबसे बड़ा रूप है, जिसे मीराबाई ने 45 रागों के रूप में अपनाते हुए अपनी वाणी को रागों में बद्धित किया और ईश्वर की प्राप्ति में दोनों नादों का प्रयोग किया।
नाद दो प्रकार के माने गए हैं
अनाहत नाद – इसे संतो ने ‘अनहत सबद बजावणया’ की संज्ञा दी। यह योगियों द्वारा ध्यान से मन मस्तिष्क में सुनी जाती है, जिसे मध्य काल के संतों ने खोजा है।
आहत नाद – यह नाद आघात द्वारा पैदा होती है। संगीत इसी का एक रूप है। इसीलिए मीराबाई ने नाम शब्दों से ध्यान लगाया तथा अपनी वाणी को संगीत (रागों) के रूप में उच्चारित किया।
संगीत को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो यह मोहनजोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति तथा देवी-देवताओं के काल से चला आ रहा अध्यात्म और मनोरंजन का आलौकिक साधन है, जिसे अति प्राचीन काल और प्राचीन काल से लेकर जन-साधारण और विद्वानों द्वारा प्रर्युक्त कई विधाओं को जन्म मिला तथा आते-आते मध्य काल में यह राग-रागिनी पद्धति बनकर सामने आया, जोकि तत्कालीन समय के प्रत्येक संगीत विद्वान द्वारा अपनाई गई पद्धति थी।
इसी प्रकार मध्य काल के संत-महात्माओं ने भी गायन के लिए इसी पद्धति का प्रयोग कर अपनी वाणी रचनाओं को उद्धृत किया। यह पद्धति मुख्यतः सांगीतिक ग्रन्थों में शिव-मत, भरत, कल्लिनाथ, हनुमत, नारद मुनि, पुण्डरीक विठ्ठल आदि द्वारा अपनाई गई थी।
अतः संगीत को अपनाना मीराबाई की संगीत जगत के लिए सराहनीय योगदान है। इस काल में कई महान संत, जैसे- संत रविदास, संत कबीर, संत सदना, संत सैन, संत नामदेव, संत धन्ना, संत बैणी, संत भीखा, संत पीपा, संत त्रिलोचन तथा संत जयदेव आदि हुए, जो कि अधिकतर निम्न संप्रदाय से संबंध रखने वाले थे।
इन सभी संतों ने सामाजिक कुरीतियों का खण्डन कर भेदभावों का भी विरोध किया जो कि समाज को दीमक के समान खोखला करने पर तुले हुए थे। इन सभी संतों ने अपनी वाणी को रागों में उच्चारा है।
मीराबाई की वाणी लगभग 45 रागों में उपलब्ध होती है-
1.राग झिंझोटी 2.राग काहन्ड़ा 3.राग केदार 4.राग कल्याण 5.राग खट 6.राग गुजरी 7.राग गोंड 8.राग छायानट 9.राग ललित 10.राग त्रिबेणी 11.राग सूहा 12.राग सारंग 13.राग तोड़ी 14.राग धनासरी 15.राग आसा 16.राग बसंत 17.राग बिलाबल 18.राग बिहागड़ो 19.राग भैरों 20.राग मल्हार 21.राग मारु 22.राग रामकली 23.राग पीलु 24.राग सिरी 25.राग कामोद 26.राग सोरठि 27.राग प्रभाती 28.राग भैरवी 29.राग जोगिया 30.राग देष 31.राग कलिंगडा़ 32.राग देव गंधार 33.राग पट मंजरी 34.राग काफी 35.राग मालकौंस 36.राग जौनपुरी 37.राग पीलु 38.राग श्याम कल्याण 39.राग परज 40.राग असावरी 41.राग बागेश्री 42.राग भीमपलासी 43.राग पूरिया कल्याण 44.राग हमीर 45.राग सोहनी
अतः इस प्रकार वाणी का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि मीराबाई ने अपनी वाणी में छन्द, अलंकार, रस और संगीत का पूर्णतया प्रयोग किया और इसे आध्यात्म का मार्ग बनाया, जो कि वर्तमान के लिए प्रेरणा है।
मीराबाई ने ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत’ को संजोए रखने में एक अनोखी कड़ी जोड़ दी, जिसका प्रमाण तथा पुष्टि विभिन्न ग्रन्थों के अवलोकन करने पर स्पष्ट होती है।
अतः इस पद्धति को मीराबाई ने अपनाया और अपनी वाणी को संगीत के साथ जोड़कर आध्यात्म के साथ-साथ संगीत का भी प्रचार-प्रसार किया, साथ ही संगीत को जीवित रखने में भी अपनी सहमति तथा हिस्सेदारी पाई।
मीराबाई की मृत्यु
स्पष्ट रूप से मीराबाई की मृत्यु के विषय में विवरण उपलब्ध नहीं हैं. उनकी मृत्यु आज भी एक रहस्य है इस सम्बन्ध में अलग अलग कहानियां प्रचलित हैं. विद्वानों की राय भी मीरा बाई की मौत के बारे में अलग अलग हैं.
लूनवा के भूरदान का मानना हैं कि मीरा का मृत्यु वर्ष 1546 में हुई जबकि एक अन्य इतिहासकार डॉ शेखावत मीराबाई की मृत्यु का साल 1548 बताते हैं.
मृत्यु स्थान के बारे में सभी की राय लगभग एक ही हैं, मीरा ने अपना आखिरी वक्त द्वारिका में बिताया और वही उनकी मृत्यु हो गई. वर्ष 1533 के आसपास मीरा ने मेड़ता में रहना शुरू किया, अगले ही वर्ष बहादुरशाह ने चित्तौड पर आक्रमण कर दिया|
मीराबाई राजभवन का त्याग कर वृंदावन की यात्रा पर चली गई। लम्बे समय तक ये उत्तर भारत में यात्रा करती रही.
वर्ष 1546 में ये द्वारिका चली गई। सर्वाधिक लोकप्रिय मान्यता के अनुसार वो द्वारिका में कृष्ण भक्ति में लीन रही और यही मूर्ति में समा गई।
मीरा के बारे में यह भी मान्यता हैं कि वह पूर्व जन्म में कृष्ण की प्रेमिका गोपी व राधा की सहेली थी।
राधा से कृष्ण ने विवाह किया तो मीरा ने स्वयं को घर में बंद कर दिया और तडप तडप कर जान दे दी।
अगले जन्म में कृष्ण की प्रेयसी के रूप में इन्होने मेड़ता में जन्म लिया, स्वयं मीराबाई अपने एक दोहे में उल्लेख किया है।।व