संत कबीर दास जी ने समाज को एक नई दिशा प्रदान की । उनके दोहे आज भी पथप्रदर्शक के रूप में प्रासंगिक है ।
उनके द्वारा बताये रास्ते पर चलकर ब्रह्म तक पहुँचा जा सकता है ।वे निर्गुन ब्रह्म के उपासक थे । हिंदू–मुस्लिम एकता के समर्थक थे ।
लेकिन उन्होंने दोनों ही धर्मो के रूढ़िवाद और अंधविश्वास का जमकर विरोध किया ।
एक तरफ तो उन्होंने ‘ढाई आखर प्रेम का पढै सो पंडित होय ‘
आपसी भाई चारे और प्रेम का सन्देश दिया तो दूसरी ओर एक क्रांतिकारी विचारक के रूप दृष्टिगत होते है :
‘कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठा हाथ, जो घर फूंके आपना ,चले हमारे साथ ‘
अर्थात स्वयं के स्वार्थ को त्याग कर ही व्यक्ति अपना और समाज का उत्थान कर सकता है ।
कबीर जी ने अपने जीवन काल में बहुत सारी चीजे अनुभव किये और उन्हें दोहे के माध्यम से कहा है।
कबीरदास का जीवन परिचय (Kabir das jivan parichay)
संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे :
कस्तूरी कुंडल बसे,मृग ढूँढत बन माही।
ज्योज्यो घट– घट राम है,दुनिया देखें नाही ।।
अर्थ : कबीर दास जी ईश्वर की महत्ता बताते हुये कहते है कि कस्तूरी हिरण की नाभि में होता है ,लेकिन इससे वो अनजान हिरन उसके सुगन्ध के कारण पूरे जगत में ढूँढता फिरता है ।ठीक इसी प्रकार से ईश्वर भी प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय में निवास करते है ,परन्तु मनुष्य इसें नही देख पाता । वह ईश्वर को मंदिर ,मस्जिद, और तीर्थस्थानों में ढूँढता रहता है ।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर विष से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान है। यदि आपको अपना सर अर्पण करके भी सच्चा गुरु मिलता है, तो भी यह सौदा बहुत सस्ता है।
जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि।
सब अँधियारा मिटि गया, दीपक देख्या माहि।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मेरे अंदर “मैं” अर्थात अहंकार का भाव था तब तक परमात्मा मुझसे दूर थे, अब जब मेरे अंदर से “मैं” अर्थात अहंकार हो गया है तो परमात्मा मुझे मिल गए हैं। जब मैंने ज्ञान रूपी दीपक के उजाले में अपने अंदर देखा तो मेरे अंदर व्याप्त अहंकार रूपी अँधेरे का नाश हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए अहंकार का त्याग आवश्यक है।
मेरा मुझमे कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मोर।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मुझमे मेरा कुछ भी नहीं है, जो कुछ है वो सब तेरा (परमात्मा का) है। यदि परमात्मा का परमात्मा को सौंप दिया जाये तो मेरा क्या है। भाव यह है कि मनुष्य अपने अहंकार में हमेशा मेरा–मेरा करता रहता है जबकि उसका कुछ भी नहीं हैं सब परमात्मा का है।
कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं।
गले राम की जेवड़ी, जित कैंचे तित जाउं।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ और मोती मेरा नाम है। मेरे गले में राम नाम की जंजीर है, जिधर वह ले जाता है मैं उधर ही चला जाता हूँ।
कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि आप यदि ठगे जाते हैं तो कोई बात नहीं। लेकिन आप किसी को ठगने का प्रयास मत कीजिये। यदि आप ठगे जाते हैं तो आपको सुख का अनुभव होता है क्योंकि आपने कोई अपराध नहीं किया है। लेकिन यदि आप किसी और को ठगते हैं तो आप अपराध करते हैं जिससे आपको दुःख ही होता
माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया ।
जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया ।।
अर्थ: – लोग पूजा पाठ में आडंबर और दिखावा करते है, मसलन साप की पूजा करने के लिए वे माटी का साप बनाते है। लेकिन वास्तव में जब वही साप उसके घर चला आता है तो उसे लाठी से पिट पिट कर मार दिया जाता है। अथार्थ कबीर जी पूजा की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए संदेश देते है कि दिखावे के पूजे से कोई लाभ नहीं। दिखावे के पूजे से मन को झूठी तसल्ली दी जा सकती है, ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती।
मल मल धोए शरीर को, धोए न मन का मैल ।
नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल ।।
अर्थ: – कबीर जी कहते है कि लोग शरीर का मैल अच्छे से मल मल कर साफ़ करते है किन्तु मन का मैल कभी साफ़ नहीं करते। वे गंगा और गोमती जैसे नदी में नाहा कर खुद को पवित्र मानते है परन्तु वे मुर्ख के मुर्ख ही रहते है।
अथार्थ जब तक कोई व्यक्ति अपने मन का मेल साफ़ नहीं करता तब तक वो कभी एक सज्जन नहीं बन सकता फिर चाहे वो कितना ही गंगा और गोमती जैसे पवित्र नदी में नाहा ले वो मुर्ख का मुर्ख ही रहेगा।
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥
अर्थ जहाँ दया है वहीं धर्म है और जहाँ लोभ है वहाँ पाप है, और जहाँ क्रोध है वहाँ काल (नाश) है । और जहाँ क्षमा है वहाँ स्वयं भगवान होते हैं ।
संत ना छोड़े संतई ,कोटिक मिले असंत ।
चन्दन विष व्यापत नही, लिपटे रहत भुजंग ।।
अर्थ : सज्जन व्यक्ति को चाहे करोड़ो दुष्ट पुरुष मिल जाये फिर भी वह अपने सभ्य विचार ,सद्गुण नहीं छोड़ता । जिस प्रकार चंदन के पेड़ से साँप लिपटें रहते है । फिर भी वह अपनी शीतलता नही छोड़ता ।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ ख़जूर ।
पंछी को छाया नही फल लागे अति दूर ।।
अर्थ : ख़जूर के पेड़ के समान बड़े होने से क्या लाभ , जो न ठीक से किसी को छांव दे पाता है और न ही उसके फल आसानी से उपलब्ध हो पाते है । उनके अनुसार ऐसे बड़े होने का क्या फ़ायदा जब वो किसी की सहायता न करता हो या फिर उसके अंदर इंसानियत न हो ।
दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करे, दुख कहे को होय ।।
अर्थ कबीर दास जी कहते हैं की दु :ख में तो परमात्मा को सभी याद करते हैं लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। जो इसे सुख में याद करे तो फिर दुख हीं क्यों हो
तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।
कबहूँ उड़ आँखों मे पड़े, पीर घनेरी होय ।।
अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि हमें कभी भी किसी मनुष्य का छोटा या बड़ा नहीं समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार एक तिनका छोटा होकर भी यदि वह उड़कर आपकी आँखों में चला जाए तो बहुत तकलीफ देता है ।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ।।
अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि माला फेरते–फेरते युग बीत गया तब भी मन का कपट दूर नहीं हुआ है । हे मनुष्य ! हाथ का मनका छोड़ दे और अपने मन रूपी मनके को फेर, अर्थात मन का सुधार कर लें।
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय ।।
अर्थ:हमारे सामने गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ खड़े है तो आप किसके चरणस्पर्श करेगे ।गुरु ने अपने ज्ञान के द्वारा हमे ईश्वर से मिलने का रास्ता बताया है ।इसलिए गुरु की महिमा ईश्वर से भी ऊपर है ।अतः हमे गुरु का चरणस्पर्श करना चाहिए ।
पानी कर बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिन छिप जायेगा, ज्यो तारा प्रभात ।।
अर्थ :जैसे पानी का बुलबुला कुछ ही पलो में नष्ट हो जाता है ,उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी क्षणभंगुर है । जैसे सुबह होते ही तारे छिप जाते है । वैसे ही शरीर भी एक दिन नष्ट हो जायेगा ।
करता रहा सो क्यों रहा,अब करी क्यों पछताय ।
बोया पेड़ बबुल का, अमुआ कहा से पाये ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि जब तू बुरे कार्यो को करता था ,संतो के समझाने से भी नही समझ पाया तो अब क्यों पछता रहा है ।जब तूने काँटों वाले बबुल का पेड़ बोया है तो बबूल ही उत्पन्न होंगे ।आम कहाँ से मिलेगा । अर्थात जो मनुष्य जैसा कर्म करता है बदले में उसको वैसा ही परिणाम मिलता है ।
कबीर माला मनहि कि, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥
अर्थ कबीरदास ने कहा है कि माला तो मन कि होती है बाकी तो सब लोक दिखावा है । अगर माला फेरने से ईश्वर मिलता हो तो रहट के गले को देख, कितनी बार माला फिरती है । मन की माला फेरने से हीं परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है
सुख में सुमिरन न किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीरा ता दास की, कौन सुने फ़रियाद ॥
अर्थ सुख में तो कभी याद किया नहीं और जब दुख आया तब याद करने लगे, कबीर दास जी कहते हैं की उस दास की प्रार्थना कौन सुनेगा ।
साई इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मै भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय ॥
अर्थ कबीर दास जी ने ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं की हे परमेश्वर तुम मुझे इतना दो की जिसमे परिवार का गुजारा हो जाय । मुझे भी भूखा न रहना पड़े और कोई अतिथि अथवा साधू भी मेरे द्वार से भूखा न लौटे ।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥
अर्थ कबीरदास जी ने कहा है की हे प्राणी, चारो तरफ ईश्वर के नाम की लूट मची है, अगर लेना चाहते हो तो ले लो, जब समय निकल जाएगा तब तू पछताएगा । अर्थात जब तेरे प्राण निकल जाएंगे तो भगवान का नाम कैसे जप पाएगा ।
जाति न पुछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥
अर्थ ज्ञान का महत्व धर्म से कही ज्यादा ऊपर है इसलिए किसी भी सज्जन के धर्म को किनारे रख कर उसके ज्ञान को महत्व देना चाहिए। कबीर दास जी उदाहरण देते हुए कहते है कि – जिस प्रकार मुसीबत में तलवार काम आती है न की उसको ढकने वाला म्यान, उसी प्रकार किसी विकट परिस्थिती में सज्जन का ज्ञान काम आता है, न की उसके जाती या धर्म काम आता है।
धीरे–धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय ॥
अर्थ कबीर दस जी कहते है कि किसी भी कार्य को पूरा होने के लिए एक उचित समय सीमा की आवश्यकता होती है, उससे पहले कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए हमे अपने मन में धैर्य रखना चाहिए और अपने काम को पूरी निष्ठा से करते रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पे – यदि माली किसी पेड़ को सौ घड़ा पानी सींचने लगे तब भी उसे ऋतू आने पर ही फल मिलेगा। इसलिए हमे धीरज रखते हुए अपने कार्य को करते रहना चाहिए, समय आने पर फल जरूर मिलेगा।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरी करेगा कब ।।
अर्थ: –जो कल करना है उसे आज कर और जो आज करना है उसे अभी कर । समय और परिस्थितियाँ एक पल मे बदल सकती हैं, एक पल बाद प्रलय हो सकती हैं अतः किसी कार्य को कल पर मत टालिए अर्थात हमें समय के महत्व को समझते हुए कार्य को समय पर कर लेना चाहिए।
कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥
अर्थ कबीरदास जी कहते हैं की वे नर अंधे हैं जो गुरु को भगवान से छोटा मानते हैं क्यूंकि ईश्वर के रुष्ट होने पर एक गुरु का सहारा तो है लेकिन गुरु के नाराज होने के बाद कोई ठिकाना नहीं है ।
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति कैसे होय ॥
अर्थ प्रतिदिन के आठ पहर में से पाँच पहर तो काम धन्धे में खो दिये और तीन पहर सो गया । इस प्रकार तूने एक भी पहर हरि भजन के लिए नहीं रखा, फिर मोक्ष कैसे पा सकेगा ।
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील मे आन ॥
अर्थ जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में हीं निवास करती है
माया मरी न मन मरा, मर–मर गया शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥
अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमे घुसी हुई माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है । यही कारण है कि मनुष्य दु:ख रूपी समुद्र मे सदा गोते खाता रहता है ।
माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय ।
इक दिन ऐसा आएगा, मै रौंदूंगी तोय ॥
अर्थ मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे क्या रौंदता है । एक दिन ऐसा आएगा कि मै तुझे रौंदूंगी । अर्थात मृत्यु के पश्चात मनुष्य का शरीर इसी मिट्टी मे मिल जाएगा ।
भाव यह है कि समय हमेशा एक जैसा किसी का नहीं रहता है। किसी भी चीज का अभिमान नहीं करना चाहिए।
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥
अर्थ कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी ! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है । दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा ।
जो टोकू कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥
अर्थ जो तेरे लिए कांटा बोय तू उसके लिए फूल बो । तुझे फूल के फूल मिलेंगे और जो तेरे लिए कांटा बोएगा उसे त्रिशूल के समान तेज चुभने वाले कांटे मिलेंगे । इस दोहे में कबीरदास जी ने या शिक्षा दी है की हे मनुष्य तू सबके लिए भला कर जो तेरे लिए बुरा करेंगें वो स्वयं अपने दुष्कर्मों का फल पाएंगे
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥
अर्थ यह मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है और यह देह बार–बार नहीं मिलती । जिस तरह पेड़ से पत्ता झड़ जाने के बाद फिर वापस कभी डाल मे नहीं लग सकती । अतः इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पहचानिए और अच्छे कर्मों मे लग जाइए ।
आए हैं सो जाएंगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर ॥
अर्थ जो आया है वो इस दुनिया से जरूर जाएगा वह चाहे राजा हो, कंगाल हो या फकीर हो सबको इस दुनिया से जाना है लेकिन कोई सिंहासन पर बैठकर जाएगा और कोई जंजीर से बंधकर । अर्थात जो भले काम करेंगें वो तो सम्मान के साथ विदा होंगे और जो बुरा काम करेंगें वो बुराई रूपी जंजीर मे बंधकर जाएंगे ।
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन ते मरना भला, यही सतगुरु की सीख ॥
अर्थ माँगना मरने के बराबर है इसलिए किसी से भीख मत माँगो । सतगुरु की यही शिक्षा है की माँगने से मर जाना बेहतर है अतः प्रयास यह करना चाहिये की हमे जो भी वस्तु की आवश्यकता हो उसे अपने मेहनत से प्राप्त करें न की किसी से माँगकर ।
जहाँ आपा तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥
अर्थ जहाँ मनुष्य में घमंड हो जाता है उस पर आपत्तियाँ आने लगती हैं और जहाँ संदेह होता है वहाँ वहाँ निराशा और चिंता होने लगती है । कबीरदास जी कहते हैं की यह चारों रोग धीरज से हीं मिट सकते हैं ।
ऐसी बानी बोलिये ,मन का आप खोय ।
औरन को शीतल करे ,आपहु शीतल होय ।।
अर्थ : अपने मन में अहंकार को त्याग कर ऐसे नम्र औए मीठे शब्द बोलना चाहिए जिससे सुनने वाले के मन को अच्छा लगे । ऐसी भाषा दूसरों को सुख पहुंचाती है । साथ ही स्वयं को भी सुख देने वाली होती है ।
चाह मिटी चिंता मिटी ,मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नही चाहिए,वह शहनशाह ।।
अर्थ : दुनिया में जिस व्यक्ति को पाने की इक्छा है ,उसे उस चीज को पाने की चिंता है ,मिल जाने पर उसे खो देने की चिंता है । दुनिया में वही खुश है जिसके पास कुछ नही है अर्थात जिस को कुछ नहीं चाहिए उसे खोने का डर नही है । पाने की चिंता नही है । ऐसा व्यक्ति ही दुनिया का राजा है ।
अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना , अति की भली न घूप ।।
अर्थ कबीर जी उदाहरण लेते हुए बोलते है कि जिस प्रकार जरुरत से ज्यादा बारिस भी हानिकारक होता है और जरुरत से ज्यादा धुप भी हानिकारक होता है उसी प्रकार हम सब का न तो बहुत अधिक बोलना उचित रहता है और न ही बहुत अधिक चुप रहना ठीक रहता है। अथार्थ हम जो बोलते है वो बहुत अनमोल है इसलिए हमे सोच समझ कर काम सब्दो में अपने बातो को बोलना चाहिए।
जब मै था तब हरी नही, अब हरी है मै नाही।
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देख्या माही ।।
अर्थ ; जब मैं अपने अहंकार में डूबा था । तब अपने इष्ट देव को नही देख पाता था । लेकिन जब गुरु ने मेरे अंदर ज्ञान का दीपक प्रकाशित किया तब अन्धकार रूपी अज्ञान मिट गया और ज्ञान के आलोक में ईश्वर को पाया
मालिन आवत देखि के कलियाँ करे पुकार ।
फूले फूले चुन लिये,कालि हमार बारि ।।
अर्थ : कबीर दास जी ने इस दोहे में जीवन की वास्तविकता का दर्शन कराया है । मालिन को आता देख कर बगीचे की कलियां आपस में बाते करती है । आज मलिन ने फूलों को तोड़ लिया है ।कल हमारी बारी आ जाएगी । कल हम फूल बनेगे ।अर्थात आज आप जवान हो कल आप भी बूढे हो जाओगे और एक दिन मिट्टी में मिल जाओगे ।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।
अर्थ : जब मैं संसार में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई भी बुरा नही मिला । लेकिन जब मैंने अपने मन में देखने का प्रयास किया तो मुझे यह ज्ञात हुआ कि दुनिया में मुझसे बुरा कोई नही है
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सार–सार को गही रहै, थोथी देई उड़ाय ।
अर्थ: – कबीर जी कहते है कि हमे ऐसे सज्जन कि आवश्कता है जिसका स्वभाव अनाज को साफ़ करने वाला सुप की तरह हो, अनाज को बचाते हुए वह वहा से बाकि सारी घास फुस अथवा और गंदगीओ हो हटा दे। अथार्त साधु को ऐसा होना चाहिए जिसे सही गलत का और अच्छे बुरे का फर्क करने आता हो , जो सबकी मदद करे और जो अच्छाई को बचाते हुए सबसे बुराई को निकाल दे।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।
अर्थ: – कबीर जी सच्चे ज्ञानी की परिभाषा देते हुए कहते है की इस दुनिया में न जाने कितने लोग आये और मोटी मोटी किताबे पढ़ कर चले गए पर कोई भी सच्चा ज्ञानी नहीं बन सका। सच्चा ज्ञानी वही है, जो प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ा हो – अथार्त जो प्रेम का वास्तविक रूप पहचानता हो। इस जगत में बहुत से ऐसे लोग है जो बड़ी बड़ी किताबे पढ़ लेते है फिर भी वे लोग प्रेम का सही अर्थ नहीं समझ पते है।
कबीर हमारा कोई नहीं, हम काहू के नाहिं ।
पारै पहुंचे नाव ज्यौ, मीलके बिछुरी जाह ।।
अर्थ: – संत कबीर जी इस दुनिया को एक नाव बताते हुए कहते है कि – इस संसार रूपी नाव में हमारा कोई नहीं है और न ही हम किसी के है। ज्यो ही नाव किनारे पर पहुंचेगी हम सब बिछुड़ जायेगे। अथार्त इस संसार रूपी नाव में हमारा अपना कोई भी नहीं है और न ही हम किसी के अपने है, कोई भी इस संसार में सदा एक साथ नहीं रह सकता एक न एक दिन सबको अलग अलग होना ही पड़ता है।
कबीर यह तनु जात है, सकै तो लेहू बहोरि ।
नंगे हाथूं ते गए, जिनके लाख करोडि॥
अर्थ: – कबीर जी हमारे शरीर की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहते है कि हमारा शरीर बहुत कीमती है और इसका देखभाल नहीं करने से यह जल्द ही नस्ट हो जाएगा। अथार्थ जीवन में सिर्फ धन सम्पत्ति जोड़ने में न लगे रहो – अपने शरीर पर भी धयान दो। क्योकि जिसके पास लाखो कडोलो की सम्पत्ति थी वो भी खली हाथ ही गए है।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
अर्थ: – कबीर जी एक अच्छे और सच्चे व्यक्ति बनने की सलाह देते हुए कहते है कि न किसी से अत्यधिक दोस्ती रखनी चाहिए और न ही अत्यधिक बैर। सबको निस्पक्छ भाव से देखना चाहिए और किसी का भी बुरा नहीं करना चाहिए।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमान,
आपस में दोउ लड़ी मुए, मरम न कोउ जान।
अर्थ: – ईश्वर एक है – यह सीख देते हुए कबीर जी कहते है कि – है हिन्दू कहता है मेरा ईश्वर राम है और मुस्लिम कहता है मेरा ईश्वर अल्लाह है – इसी बात पर दोनों धर्म के लोग लड़ कर मर जाते है उसके बाद भी कोई सच नहीं जान पता है कि ईश्वर एक है।
मन जाणे सब बात, जांणत ही औगुन करै ।
काहे की कुसलात, कर दीपक कूंवै पड़े ॥
अर्थ: – हमारा मन सब कुछ जानता है , सही गलत का फर्क भी जानता है लेकिन फिर भी ये गलत कार्य करता है। कबीर जी कहते है ये ठीक उससे प्रकार है जैसे की कोई हाथ में दीपक पकड़ कर भी कुएँ में गिर जाए। ऐसा व्यक्ति कैसे कुशल रह सकता है।
कबीर नाव जर्जरि, कूड़े खेवनहार ।
हलके हलके तीरी गए, बूड़े तीनी सर भार ॥
अर्थ: – कबीर जी कहते है कि इस संसार रूपी समुन्द्र को पार करने के लिए हमारा ये तन (शरीर ) और मन एक नाव के जैसा है। और इसका मन रुपि नाव पहले हे राग–रंग, शत्रुता और धन जैसी चीज़ो से जर्जर हो चुकी है और यह डूबता ही जा रहा है। और दूसरी तरफ तन रूपी नाव विषय वासनाओ और अंहकार जैसे गलत चीज़ो से बोझ हो चूका है। ऐसे नाव संसार रूपी समुन्द्र को पार कर ही नहीं सकता। इस संसार रूपी समुन्द्र को वही लोग पार कर सकते है जो इन सब चीज़ो को त्याग कर खुद को हल्का कर लिया हो।
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाये।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाये।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कितना भी नहा धो लीजिये, यदि मन का मैल ही न धुले तो ऐसे नहाने धोने का क्या फायदा। जिस प्रकार मछली हमेशा पानी में ही रहती है लेकिन फिर भी उससे बदबू नहीं जाती।
ऊँचे कुल का जनमियाँ, करनी ऊंच न होय।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधु निंदा सोय।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि व्यक्ति का ऊँचे कुल में जन्म लेने का क्या लाभ जो उसके कर्म ही अच्छे न हों। यदि स्वर्ण कलश में मदिरा भरी हो तो भी सज्जन उसकी निंदा ही करते हैं।
साँच बराबर तप नहीं, झूट बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि इस संसार में सत्य के सामान कोई तपस्या नहीं है तथा झूट के सामान कोई पाप नहीं है। जिसके ह्रदय में सत्य होता है वहां साक्षात् परमात्मा का वास होता है।
अंषड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारी–निहारी।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि–पुकारि।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि परमात्मा से मिलन की राह देखते देखते अब आँखें थक गयी हैं। मुहं से परमात्मा का नाम लेते लेते अब जीभ में भी छाले पड़ गए हैं लेकिन अभी तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए हैं।
कागा काको धन हरे, कोयल काको देय।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनों कर लेय।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कौवा किसी का धन नहीं लेता है फिर भी कोई उसे पसंद नहीं करता है। कोयल किसी को धन नहीं देती फिर भी वह सबको प्रिय होती है। इसका कारण है कोयल अपनी मीठी वाणी से सबका मन मोह लेती है और समस्त संसार को अपना बना लेती है। जबकि कौवा अपनी कर्कश ध्वनि से किसी को पसंद नहीं आता।
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।
अर्थ: चलती हुई चक्की (अनाज को पीसने वाले पत्थरों की दो गोलाकार आकृति) को देखकर कबीर रोने लगे। कबीर देखते हैं कि चक्की के इन दो भागों (दो पत्थरों) के बीच में आने वाला हर दाना कैसे बारीक पिस गया है और कोई भी दाना साबूत नहीं बचा है।
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कड़वे वचन सबसे बुरे होते हैं जो हमारे शरीर में जलन पैदा करते हैं। जबकि मीठे वचन शीतल जल के समान होते हैं जिससे ऐसा लगता है जैसे अमृत की वर्षा हो रही हो।
राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान।
पडोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि राज पाठ धन सम्पदा पाकर तू इतना अभिमान क्यों करता है। जो दशा तेरे पडोसी की हुई है वही दशा तेरी भी होगी। कहने का भाव है की जो इस धन सम्पदा पर इतना गर्व करते थे वह भी मृत्यु से नहीं बच पाए फिर इस पर इतना गर्व क्यों करते हो। जिस प्रकार राज पाठ तथा अपार धन सम्पदा होने पर भी वह मृत्यु को प्राप्त हो गए। उसी प्रकार तेरा यह अभिमान भी एक दिन समाप्त हो जायेगा।
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।।
अर्थ: जीवन के अंत समय आने पर जब परमात्मा ने बुलावा भेजा तो कबीर रो पड़े और सोचने लगे की जो सुख साधु संतों के सत्संग में है वह बैकुंठ में नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जनों के सत्संग के सम्मुख वैकुण्ठ का सुख भी फीका है।
ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ ही मे है, जाग सके तो जाग।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जैसे तिल के अंदर ही तेल है और अग्नि के अंदर ही प्रकाश है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर को भी इधर उधर ढूंढने की जरुरत नहीं है क्योंकि हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही है, यदि हम ढूंढना चाहें तो उसे ढूंढ सकते हैं।
दान दिए धन ना घटे, नदी न घाटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥
अर्थ– दान देने से कभी धन घटता नहीं है। जिस तरह उपयोग के बाद भी नदी का पानी कभी कम नहीं होता। इसे आप अपनी आँखों से खुद देख सकते हैं। कबीर दास को कहने की जरूरत नहीं।
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥
अर्थ– जिसको गुणों की पहचान हो उसी के सामने गुणों को प्रकट करना चाहिए। अन्यथा चुप रहने में ही भलाई है।
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि करे तन क्षार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार ॥
अर्थ– कभी किसी को कुटिलतापूर्ण वचन नहीं कहने चाहिए। क्योंकि ऐसे वचनों से शरीर अंदर से जल जाता है। जबकि प्रिय वचन अमृत के समान शीतलता प्रदान करते हैं
जग में बैरी कोई नहिं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥
अर्थ– अगर मन शान्त है तो संसार में कोई शत्रु नहीं हैं। मनुष्य घमण्ड त्याग दे तो सभी उस पर दया करते हैं।
वस्तु है सागर नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥
अर्थ ज्ञान रूपी अमूल्य वस्तु तो आसानी से उपलब्ध है परन्तु उसको लेने वाला कोई नहीं है क्योंकि ज्ञान रूपी रत्न बिना सत्कर्म और सेवा के नहीं मिलता । लोग बिना कर्म किए ज्ञान पाना चाहते हैं अतः वे इस अनमोल वस्तु से वंचित रह जाते हैं ।–
कली खोटा जग आंधरा शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आईना, जो जग बैरी होय ॥
अर्थ यह कलयुग खोटा है और सारा जग अंधा है मेरी बातों को कोई नहीं मानता बल्कि जिसको भली बात बताता हूँ वही मेरा दुश्मन हो जाता है ।
लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभी चोंच जरि जाय ।
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥
अर्थ जिस वस्तु कि किसी को लगन लग जाती है उसे वह नहीं छोड़ता । चाहे कितनी हीं हानि क्यूँ न हो जाय, जैसे अंगारे में क्या मिठास होती है जिसे चकोर (पक्षी) चबाता है ? अर्थ यह है कि चकोर कि जीभ और चोंच भी जल जाय तो भी वह अंगारे को चबाना नहीं छोड़ता वैसे हीं भक्त को जब ईश्वर कि लगन लग जाती है तो चाहे कुछ भी हो वह ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ता ।
घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल स्नेही साइयाँ, आवा अन्त का यार ॥
अर्थ कबीरदास जी कहते हैं की जो तुम्हारे बचपन का मित्र और आरंभ से अन्त तक का मित्र है, जो हमेशा तुम्हारे अन्दर रहता है । तू जरा अपने अन्दर के परदे को हटा कर देख । तुम्हारे सामने हीं भगवान आ जाएंगे ।
अंतर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।
जो तुम छोड़ो हांथ तो, कौन उतारे पार ॥
अर्थ हे प्रभु आप हृदय की बात जानने वाले और आप हीं आत्मा के मूल हो, जो तुम्हीं हांथ छोड़ दोगे तो हमें और कौन पार लगाएगा ।
में अपराधी जन्म का, नख–शिख भरा विकार ।
तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥
अर्थ मै जन्म से हीं अपराधी हूँ, मेरे नाखून से लेकर चोटी तक विकार भरा हुआ है, तुम ज्ञानी हो दु:खों को दूर करने वाले हो, हे प्रभु तुम मुझे संभाल कर कष्टों से मुक्ति दिलाओ ।
प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा प्रजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥
अर्थ प्रेम न तो बागों में उगता है और न बाज़ारों में बिकता है, राजा या प्रजा जिसे वह अच्छा लगे वह अपने आप को न्योछावर कर के प्राप्त कर लेता है ।
प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥
अर्थ जो प्रेम का प्याला पीता है वह अपने प्रेम के लिए बड़ी से बड़ी आहूति देने से भी नहीं हिचकता, वह अपने सर को भी न्योछावर कर देता है । लोभी अपना सिर तो दे नहीं सकता, अपने प्रेम के लिए कोई त्याग भी नहीं कर सकता और नाम प्रेम का लेता है ।
सुमिरन सों मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजे तेहि संग ॥
अर्थ कबीर साहब कहते हैं की भक्त ईश्वर की साधना में इस प्रकार मन लगाता है, उसे एक क्षण के लिए भी भुलाता नहीं, यहाँ तक की प्राण भी उसी के ध्यान में दे देता है । अर्थात वह प्रभु भक्ति में इतना तल्लीन हो जाता है की उसे शिकारी (प्राण हरने वाला) के आने का भी पता नहीं चलता ।
सुमिरत सूरत जगाय कर, मुख से कछु न बोल ।
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल ॥
अर्थ एकचित्त होकर परमात्मा का सुमिरन कर और मुँह से कुछ न बोल, तू बाहरी दिखावे को बंद कर के अपने सच्चे दिल से ईश्वर का ध्यान कर ।
छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ।
अर्थ परमात्मा का सच्चा नाम दूध के समान है और पानी के जैसा इस संसार का व्यवहार है । पानी मे से दूध को अलग करने वाला हंस जैसा साधू (सच्चा भक्त) होता है जो दूध को पानी मे से छानकर पी जाता है और पानी छोड़ देता है ।
ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥
अर्थ जिस तरह तिलों में तेल और चकमक पत्थर में आग छुपी रहती है वैसे हीं तेरा सांई (मालिक) परमात्मा तुझमें है अगर तू जाग सकता है तो जाग और अपने अंदर ईश्वर को देख और अपने आप को पहचान ।
जा कारण जग ढूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ।।
अर्थ जिस भगवान को तू सारे संसार में ढूँढता फिरता है वह मन में ही है । तेरे अंदर भ्रम का परदा दिया हुआ है इसलिए तुझे भगवान दिखाई नहीं देते ।
जबही नाम हिरदे धरा, भया पाप का नाश ।
मानो चिंगारी आग की, परी पुरानी घास ।।
अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान का नाम लेते ही पाप का नाश हो जाता है जिस तरह अग्नि की चिंगारी पुरानी घास पर पड़ते ही घास जल जाती है इसी तरह ईश्वर का नाम लेते ही सारे पाप दूर हो जाते हैं ।
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ।।
अर्थ कबीर जी कहते है कि न तो शीतलता चंद्रमा में है न ही शीतलता बर्फ में है वही सज्जन शीतल हैं जो परमात्मा के प्यारे हैं अर्थात वास्तविकता मन की शांति ईश्वर–नाम में है ।
सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज |
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ||
अर्थ – अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बनाऊं और दुनियां के सभी वृक्षों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है
जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान |
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ||
अर्थ – जिस इंसान अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के समान है
जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश |
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ||
अर्थ – कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।
तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय |
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि लोग रोजाना अपने शरीर को साफ़ करते हैं लेकिन मन को कोई साफ़ नहीं करता। जो इंसान अपने मन को भी साफ़ करता है वही सच्चा इंसान कहलाने लायक है।
प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए |
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और नाही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीश(क्रोध, काम, इच्छा, भय) त्यागना होगा।
जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही |
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं
पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत |
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर |
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे इंसान होने से क्या फायदा।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा
नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय |
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ||
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिम(बर्फ) भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं