किसी के जन्मदिन पर एक वेदवाक्य अक्सर पढ़ने को मिलता है-‘शतं जीव शरदो वर्धमानः‘।
इसमे सौ साल जीने की बात आती है। लेकिन, वेद में कहा है ये सौ साल निरंतर सेवा करते हुए जीने के लिए है।
इन सौ साल में केवल देह की आयु न बढ़े, बल्कि आत्मा की स्पष्टता भी बढ़े। शास्त्रों के अनुसार जैसे-जैसे आप सौ साल की ओर चलें, पहला काम होना चाहिए शरीर और स्वस्थ होता जाए।
दूसरा मन पवित्र होता रहे तथा तीसरा काम यह हो कि आत्मा की अनुभति और अधिक स्पष्ट होना चाहिए।
तब सौ साल काम हैं। इसी को वर्धमान कहा गया है।
समय के साथ बाहर का शरीर तो जीर्ण-शीर्ण होता जाएगा, देह वैसी नहीं रहेगी, लेकिन भीतर की प्रखरता, ओज बढ़ते रहना चाहिए।
वर्धमान का एक और अर्थ है- नित्य बढ़ने वाला ।
मतलब जिसका रोज-रोज विकास हो। लेकिन विकास होना चाहिए भीतर से। बाहर से तो क्षीण होना ही है।
कोई दावा नही कर सकता कि सौ साल मे उसकी देह वैसी ही रहेगी, जैसी युवा अवस्था में थी।
लेकिन भीतर से ऐसा उत्साह होना चाहिए जैसे अभी-अभी जन्मा, अभी-अभी यौवन अवस्था में थी लेकिन भीतर से ऐसा उत्साह होना चाहिए जैसे अभी-अभी यौवन प्राप्त हुआ हो।
इसलिए शास्त्रो में कहा गया है कि दीन होकर सौ साल मत जीना, सक्षम होकर जीना।
शास्त्रो में तो कही-कही आयु के लिए एक 116 साल लिखा है संभवत 16 का आंकड़ा इसलिए लिया गया हो कि सौ साल के बाद एक बार फिर युवा अवस्था को प्राप्त हो जाओ ।
यह वह अवस्था होगी जिसे भीतर की जागति कहेगे।