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ध्यान और आध्यात्मिक साधना

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आध्यात्मिक साधना पद्धतियों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि ‘ध्यान‘ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।

‘ध्यान‘ चित्त की वृत्तियों को शांत करता है। ध्यान से विचार जब बाहर निकलतने लगते हैं तब अविचार की स्थिति आने लगती है, चित्त की एकाग्रता होती है। यही वे बिन्दु हैं, जो आध्यात्मिक साधना की प्रगति में सहायक है।

आध्यात्मिक साधना में ‘ध्यान‘ की प्रमुख भूमिका है। आध्यात्मिक साधना चाहे जिस मार्ग की हो और उसकी पद्धति चाहे जो भी हो उसमें ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है।

चित्त की एकाग्रता ही ध्यान की विशेषता और उपलब्धि है। यह एकाग्रता ही आध्यात्मिक साधना की आधार भूमि है।

आध्यात्मिक साधना का अर्थ-अन्तर्मुखी यात्रा के माध्यम से आत्मा और शुद्ध चैतन्य तक पहुंचना और संसार की अंतव्र्यवस्था का तात्विक बोध प्राप्त करना है।

इसके लिए भारत सहित अन्य देशों में भी बहुत सी साधनाओं की खोज की गयी है। भारत में दार्शनिक दृष्टिकोण से तीन महत्वपूर्ण साधनाओं की चर्चा की जाती है-ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग। इनमें ध्यान का जितना अच्छा और उचित योग मिलेगा, सफलता उसी अनुपात में मिलेगी।

साधनात्मक पद्धति के दृष्टिकोण से हठयोग, लययोग, नाद योग, ध्यान योग और मंत्र योग की चर्चा आती है। इसमें ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है, अगर इन योगों से ध्यान को हटा दिया जाय, तो सफलता मुश्किल है।

स्वर योग और कुण्डलिनी योग में भी ध्यान के माध्यम से ही प्रगति मिलती है। ध्यान जितना दृढ़ होगा, प्रगति और सफलता उतनी सुनिश्चित होगी। राज योग का तो मुख्य आधार ही ‘ध्यान‘ है।

ईश्वरवादी साधनाओं में तो ध्यान की महत्वपूर्ण भूमिका है। जबकि अनीश्वरवादी साधनाओं का कार्य भी ध्यान के बिना नहीं चलता।

अंतर्यात्रा तो ध्यान के बिना असंभव है। सभी साधनाओं में ध्यान की उपयोगिता के चलते इसे स्वीकारा गया हैं।

हठयोग, लययोग और नादयोग में विषय पर ज्यादा महत्व दिया जाता है, लेकिन इन योगों का लक्ष्य भी चित्त की एकाग्रता ही है।

चित्त की एकाग्रता के बिना अंतः संसार (पिण्ड) में प्रवेश नहीं मिलता है। अन्य माध्यमों में भी ध्यान की क्रिया पूर्ण रूप से सम्पन्न होती है।

कुण्डलिनी योग में मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक की यात्रा होती है। मेरूदण्ड के निचले छोर पर मूलाधार चक्र है।

कुण्डलिनी योग की पूरी साधना ध्यान योग से ही संपन्न होती है। साकार साधना में भक्तियोग का महत्वपूर्ण स्थान है, यहां पर किसी अपने आराध्य की उपासना की जाती है जब कि उपास्य में अपनेक देवी-देवता हैं। इनमें से किसी का कोई उपास्य हो सकता है।

इस साधना में भाव की प्रधानता होती है। कभी स्मरण, कभी सिमरन, कभी नाम जाप किया जाता है।

बौद्ध साधना में अनीश्वरवादी साधना है, यहां ध्यान की मुख्य भूमिका है। कोई भी उपास्य नहीं होता, परंतु विषय के रूप में सांसों को ग्रहण किया जाता है। अर्थात् श्वांस-प्रश्वांस पर ध्यान रखना पड़ता है।

यह ध्यान की स्वतंत्र प्रक्रिया ध्यान चागरण है, सुषुप्ति नहीं। इस प्रक्रिया में अतंर्यात्रा शुरू हो जाती है और विचार भी शांत हो जाते हैं।

सभी आध्यात्मिक साधना पद्धतियों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि ‘ध्यान‘ की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। ‘ध्यान‘ चित्त की वृत्तियों को शांत करता है।

ध्यान से विचार जब बाहर निकलतने लगते हैं तब अविचार की स्थिति आने लगती है, चित्त की एकाग्रता होती है। यही वे बिन्दु हैं, जो आध्यात्मिक साधना की प्रगति में सहायक हैं।

जब तक साधक की अंतर्मुखी यात्रा नहीं होती, चित्त के गहरे तलों में नहीं उतरती तब तक उस साधना में विशिष्टता की अनुभूति नहीं होती है, और उसका परिणाम भी नहीं मिल पाता।

अनुभूति और परिणाम का प्रमुख कारण ‘ध्यान‘ ही है। ध्यान से ही सभी साधना पद्धतियों को गति मिलती है।

जहां ध्यान की कमी रहती है, वहां साधक को सिद्धि प्राप्त करने में कठिनाई आती है।

इस तरह यह स्पष्ट है कि किसी भी तरह की साधना में ‘ध्यान‘ की महत्वपूर्ण भूमिका है। आध्यात्मिक साधनाएं तो ‘ध्यान‘ के बिना फलीभूत ही नहीं होती है।