दान
दान का शाब्दिक अर्थ है – ‘देने की क्रिया’।
सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है।
हिन्दू धर्म में दान की बहुत महिमा बतायी गयी है। आधुनिक सन्दर्भों में दान का अर्थ किसी जरूरतमन्द को सहायता के रूप में कुछ देना है।
परिचय
दान किसी वस्तु पर से अपना अधिकार समाप्त करके दूसरे का अधिकार स्थापित करना दान है।
साथ ही यह आवश्यक है कि दान में दी हुई वस्तु के बदले में किसी प्रकार का विनिमय नहीं होना चाहिए।
इस दान की पूर्ति तभी कही गई है जबकि दान में दी हुईं वस्तु के ऊपर पाने वाले का अधिकार स्थापित हो जाए।
मान लिया जाए कि कोई वस्तु दान में दी गई किंतु उस वस्तु पर पानेवाले का अधिकार होने से पूर्व ही यदि वह वस्तु नष्ट हो गई तो वह दान नहीं कहा जा सकता।
हर धर्म में दान करने का बहुत महत्व माना जाता है।
सनातन धर्म में दान का अत्यधिक महत्व बताया गया है। माना जाता है कि दान करने से मनुष्य का इस लोक के बाद परलोक में भी कल्याण होता है।
लेकिन आज के बदलते समय में लोगों के लिए दान का अर्थ केवल धन दान तक ही सीमित रह गया है चाहें इसे समय की कमी कहें या कुछ और।
दान कर्म को पुण्य कर्म में जोड़ा जाता है। भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही दान करने की परंपरा चली आ रही है।
हिंदू सनातन धर्म में पांच प्रकार के दानों का वर्णन किया गया है। ये पांच दान हैं, विद्या, भूमि, कन्या, गौ और अन्न दान। इन पांचो दानों का बहुत महत्व माना जाता है।
लेकिन दान करते समय ध्यान रखें कि किसी भी प्रकार का दान निस्वार्थ भाव से किया जाना चाहिए। वह तभी फलीभूत होता है।
गीता में भी लिखा है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो। हमारा अधिकार केवल अपने कर्म पर है, उसके फल पर नहीं।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, यह तो संसार एवं विज्ञान का धारण नियम है।
इसलिए उन्मुक्त हृदय से श्रद्धापूर्वक एवं सामर्थ्य अनुसार दान एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ-साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें प्राप्त होगा।
दान धन का ही हो, यह कतई आवश्यक नहीं। भूखे को रोटी, बीमार का उपचार, किसी व्यथित व्यक्ति को अपना समय, उचित परामर्श, आवश्यकतानुसार वस्त्र, सहयोग, विद्या- ये सभी जब हम सामने वाले की आवश्यकता को समझते हुए देते हैं और बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं करते, तो ये सब दान ही हैं।
व्यक्ति को दान दिया जाता है उसे दान का पात्र कहते हैं।
तपस्वी, वेद और शास्त्र को जाननेवाला और शास्त्र में बतलाए हुए मार्गं के अनुसार स्वयं आचरण करनेवाला व्यक्ति दान का उत्तम पात्र है। यहाँ गुरु का प्रथम स्थान है।
इसके अनंतर विद्या, गुण एवं वय के अनुपात से पात्रता मानी जाती है। इसके अतिरिक्त जामाता, दौहित्र तथा भागिनेय भी दान के उत्तम पात्र हैं।
ब्राह्मण को दिया हुआ दान षड्गुणित, क्षत्रिय को त्रिगुणित, वैश्य का द्विगुणित एवं शूद्र को जो दान दिया जाता है वह सामान्य फल को देनेवाला कहा गया है।
उपर्युक्त पात्रता का परिगणन विशेष दान के निमित्त किया गया
सनातन धर्म में सदियों से दान देने की परंपरा का पालन किया जाता है।
गुप्त दान (जिसका जिक्र न किया जाए) को सर्वश्रेष्ठ दान माना गया है। जो दान बिना स्वार्थ के गुप्त रूप से किया जाता है वह बहुत ही पुण्य कारी माना जाता है।
इससे व्यक्ति को पापकर्मों का नाश होता है और पुण्य कर्मों में बढ़ोत्तरी होती है।
दान करते समय भी कुछ बातों को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। दान का अर्थ ये नहीं है कि जो वस्तु आपके काम की न हो यानि उपयोग करने के लायक न हो, उसे दान कर दिया जाए। ऐसा दान मान्य नहीं होता है।
दान तन, मन और धन किसी भी तरह से किया जाए, बस निस्वार्थ भाव से किया जाना चाहिए। वैसे तो कभी भी दान किया जा सकता है। पर कुछ समय ऐसा भी होता जिसमें यदि दान किया जाए तो बहुत शुभफलदायी माना जाता है।
मान्यता के अनुसार कुछ ऐसी चीजें हैं जिनका दान यदि प्रतिदिन सुबह किया जाए तो घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है।
सामान्यत: व्याकरण के आचार्यों ने दान को एक प्रकार का व्यवसाय मानते हुए कहा है कि वह व्यापार, जिसमें किसी वस्तु पर से अपना स्वत्व (अधिकार) दूर कर दूसरों का हो जाए।
धर्मशास्त्रकारों ने धन (अर्थ) का अधिक महत्व समझ कर कहा है-‘श्रेष्ठ पात्र देखकर श्रद्धापूर्वक द्रव्य (धन) का अर्पण करने का नाम दान है।
ऐसा इसलिए, क्योंकि भौतिक साधनों की संपन्नता से मनुष्य सांसारिक सुख-साधनों को धन से प्राप्त कर लेता है।
धर्मशास्त्रकारों ने दान के छह प्रमुख अंग बताए हैं-‘दान लेने वाला, दान देने वाला, श्रद्धायुक्त, धर्मयुक्त, देश और काल।
श्रद्धा और धर्मयुक्त होकर अच्छे देश (तीर्थ) या पुण्य स्थल और अच्छे काल (शुभ-मुहूर्त) में अच्छे दान द्वारा सुपात्र को दिया गया दान ही श्रेष्ठ दान कहलाता है।
दान के प्रकार
बिना किसी प्रत्युपकार के सत्पात्र की श्रद्धा और धर्मपूर्वक किया गया दान सात्विक कहलाता है।
प्रत्युपकार या यज्ञ की अभिलाषा से किया गया दान राजसिक कहलाता है।
देश, काल, पात्र आदि का ध्यान दिए बगैर किसी भी पात्र-अपात्र को असत्कार पूर्वक किया गया दान तामसिक दान कहलाता है।
प्राचीन काल में भारतीय सभ्यता और संस्कृति के आधार पर दान की प्रचलित परंपराओं में परिवर्तन हुए हैं।
आचार्यो द्वारा दान की पद्धतियों पर विचार करते हुए कहा गया है कि जिसे जिस वस्तु की आवश्यकता हो, उसे उसी वस्तु का दान देना चाहिए।
धार्मिक ग्रंथों में ग्रहों की शांति के लिए दान को प्रमुखता दी गई है। निर्धारित मर्यादाओं में शिथिलता के कारण दान की परंपरा विलुप्त होती जा रही
सफल जीवन क्या है? सफल जीवन उसी का है जो मनुष्य जीवन प्राप्त कर अपना कल्याण कर ले।
भौतिक दृष्टि से तो जीवन में सांसारिक सुख और समृद्धि की प्राप्ति को ही अपना कल्याण मानते हैं परंतु वास्तविक कल्याण है-सदा सर्वदा के लिए जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होना अर्थात भगवद् प्राप्ति।
अपने शास्त्रों तथा अपने पूर्वज ऋषि-महर्षियों ने सभी युगों में इसका उपाय बताया है।
चारों युगों में अलग-अलग चार बातों की विशेषता है- सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में एकमात्र दान मनुष्य के कल्याण का साधन है।
दान श्रद्धापूर्वक करना चाहिए, विनम्रतापूर्वक देना चाहिए। दान के बिना मानव की उन्नति अवरुद्ध हो जाती है।
gitadaan.in (भगवत गीता दान)
दान का महत्व
एक बार देवता, मनुष्य और असुर तीनों की उन्नति अवरुद्ध हो गई।
अत: वे पितामह प्रजापति ब्रह्मा जी के पास गए और अपना दुख दूर करने के लिए उनसे प्रार्थना करने लगी। प्रजापति ब्रह्मा ने तीनों को मात्र एक अक्षर का उपदेश दिया- द।
स्वर्ग में भोगों के बाहुल्य से, देवगण कभी वृद्ध न होना सदा इंद्रिय भोग भोगने में लगे रहते हैं, उनकी इस अवस्था पर विचार कर प्रजापति ने देवताओं को ‘द’ के द्वारा दमन, इंद्रिय दमन का संदेश दिया।
असुर स्वभाव से हिंसा वृत्ति वाले होते हैं, क्रोध और हिंसा इनका नित्य व्यापार है। अत: प्रजापति ने उन्हें दुष्कर्म से छुड़ाने के लिए ‘द’ के द्वारा जीव मात्र पर दया करने का उपदेश दिया।
मनुष्य कर्मयोगी होने के कारण सदा लोभवश कर्म करने तथा धनोपार्जन में लगे रहते हैं, इसलिए ‘द’ के द्वारा उनके कल्याण के लिए दान करने का उपदेश दिया।
विभव और दान देने की सामर्थ्य अर्थात मानसिक उदारता- ये दोनों महान तप के ही फल हैं। विभव होना तो सामान्य बात है पर उस विभव को दूसरों के लिए देना यह मन की उदारता पर निर्भर करता है।
यही है दान शक्ति जो जन्म जन्मांतर के पुण्य से प्राप्त होती है।
जो दान किसी जीव के प्राणों की रक्षा करे, उससे उत्तम और क्या हो सकता है?
हमारे शास्त्रों में ऋषि दधीचि का वर्णन है जिन्होंने अपनी हड्डियां तक दान में दे दी थीं, कर्ण का वर्णन है जिसने अपने अंतिम समय में भी अपना स्वर्ण दंत याचक को दान दे दिया था।
देना तो हमें प्रकृति रोज ही सिखाती है।
सूर्य अपनी रोशनी, फूल अपनी खुशबू, पेड़ अपने फल, नदियां अपना जल, धरती अपना सीना छलनी करके भी दोनों हाथों से हम पर अपनी फसल लुटाती है।
इसके बावजूद न तो सूर्य की रोशनी कम हुई, न फूलों की खुशबू, न पेड़ों के फल कम हुए, न नदियों का जल।
अत: दान एक हाथ से देने पर अनेक हाथों से लौटकर हमारे ही पास वापस आता। बस, शर्त यह है कि नि:स्वार्थ भाव से श्रद्धापूर्वक समाज की भलाई के लिए किया जाए।
दान देने वाले की सभी प्रशंसा करते हैं।
राजा शिवि, मुनि दधीच, कर्ण आज भी दान के कारण अमर हैं। आपके पास जो भी है यथा-धन, वस्तु, अन्न, बल, बुद्धि, विद्या उसे किसी अन्य जीव को उसकी आवश्यकता पर, चाहे वह मांगे या न मांगे, उसे देना परम धर्म, मानवता या कर्तव्य है।
प्रकृति अपना सब कुछ जीवों को बिना मांगे ही दे रही है। ईश्वर भी, भले हम मांगें या न मांगें हमारी योग्यता और आवश्यकता के अनुसार हमें देता है।
अत: वह हमसे भी अपेक्षा करता है कि हम भी, हमारे पास जो है उसे दूसरों को दें।
शास्त्रों में कई ऐसे प्रसंग हैं कि जो दीनों की सहायता नहीं करता वह कितना भी यज्ञ, जप, तप, योग आदि करे उसे स्वर्ग या सुख नहीं प्राप्त होता।
जिस व्यक्ति में या समाज में दान की भावना नहीं होती उसे सभ्य नहीं कहा जाता। उसकी निंदा होती है और उसका पतन होता है, क्योंकि समाज में सुखी-दुखी, और संपन्न-विपन्न होंगे ही और सहयोग की आवश्यकता होगी।
अत: समाज के अस्तित्व और प्रगति के लिए सहयोग आवश्यक है। दान देने के समय आपके मन में, अहं का, पुण्य कमाने का या अहसान करने का नहीं होना चाहिए, उस पात्र का आपको कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने आपके अंदर सद्भाव जगाकर आपको कृतार्थ किया।
ईश्वर के प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए कि उसने आपको कुछ देने के योग्य बनाया।
गीता के अनुसार दान तीन प्रकार का होता है। जो दान कुपात्र व्यसनी को या अनादरपूर्वक या दिखावे के लिए दिया जाए वह अधम, जो बदले में कोई लाभ लेने या यश की आशा से कष्ट से भी दिया जाए वह दान मध्यम है।
परंतु जो दान कर्तव्य समझकर, बिना किसी अहं भाव के, नि:स्वार्थ भाव से किया जाता है वही उत्तम श्रेणी में आता है।
कर्मो के अनुसार पुनर्जन्म होता है और उसी के अनुसार धनी और निर्धन समाज में दिखाई पड़ते हैं। दान ईश्वर की प्रसन्नता में प्रमुख है।
अत: ईश्वर की प्रसन्नता के लिए, अपने को उत्कृष्ट बनाने के लिए और समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए हमें जरूरतमंदों की सहायता करनी ही होगी।
व्यास भगवान ने दान धर्म को चार भागों में विभक्त किया है
नित्य दान : प्रत्येक व्यक्ति को अपने सामर्थ्य अनुसार कर्तव्य बुद्धि से नित्य कुछ न कुछ दान करना चाहिए।
असहाय एवं गरीबों को नित्यप्रति सहायता रूप में दान करना कल्याणकारी है।
जो प्राणी नित्य सुबह उठ कर अपने नित्या कर्म में देवता के ही एक स्वरूप उगते सूरज को जल भी अर्पित कर दे उसे ढेर सारा पुण्य मिलता है।
उस समय जो स्नान करता है, देवता और पितर की पूजा करता है, अपनी क्षमता के अनुसार अन्न, पानी, फल, फूल, कपड़े, पान, आभूषण, सोने का दान करता है, उसके फल असीम है।
जो भी दोपहर में भोजन कि वस्तु दान करता है, वह भी बहुत से पुण्य इकट्ठा कर लेता है। इसलिए एक दिन के तीनों समय कुछ दान जरूर करना चाहिए।
कोई भी दिन दान से मुक्त नहीं होना चाहिए।
शास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ के पांच प्रकार के ऋणों- देवऋण, पितृऋण, ऋषिऋण, भूत ऋण और मनुष्य ऋण से मुक्त होने के लिए प्रतिदिन पांच महायज्ञ करने की विधि है।
अध्ययन-अध्यापन ब्रह्म यज्ञ-ऋषि ऋण से मुक्ति, श्राद्ध तर्पण करना पितृयज्ञ, पितृऋण से मुक्ति, हवन पूजन करना देव यज्ञ देव ऋण से मुक्ति, बलिवैश्व देव यज्ञ करना अर्थात सारे विश्व को भोजन देना।
भूत यज्ञ-भूतऋण से मुक्ति और अतिथि सत्कार करना मनुष्य यज्ञ अर्थात मनुष्य ऋण से मुक्ति। अत: गृहस्थ को यथासाध्य प्रतिदिन इन्हें करना चाहिए।
नैमित्तिक दान : जाने-अनजाने में किए गए पापों को शमन हेतु तीर्थ आदि पवित्र देश में तथा अमावस्या, पूर्णिमा, व्यतिपात, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण आदि पुण्यकाल में जो दान किया जाता है उसे नैमित्तिक दान कहते हैं।
अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी, संक्रांति, माघ, अषाढ़, वैशाख और कार्तिक पूर्णिमा, सोमवती अमावस्या, युग तिथि, गजच्छाया, अश्विन कृष्ण त्रयोदशी, व्यतिपात और वैध्रिती नामक योग, पिता की मृत्यु तिथि आदि को नैमित्तिक समय दान के लिए कहा जाता है।
जो भी देवता के नाम से कुछ भी दान करता है उसे सारे सुख मिलते हैं।
काम्य दान : किसी कामना की पूर्ति के लिए, ऐश्वर्य, धन धान्य, पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति तथा अपने किसी कार्य की सिद्धि हेतु जो दान दिया जाता है उसे काम्य दान कहते हैं।
विमल दान : भगवान की प्रीति प्राप्त करने के लिए निष्काम भाव से बिना किसी लौकिक स्वार्थ के लिए दिया जाने वाला दान विमल दान कहलाता है।
देश, काल और पात्र को ध्यान में रख कर अथवा नित्यप्रति किया गया दान अधिक कल्याणकारी होता है। यह सर्वश्रेष्ठ दान है।
देवालय, विद्यालय, औषधालय, भोजनालय, अनाथालय, गौशाला, धर्मशाला, कुएं, बावड़ी, तालाब आदि सर्वोपयोगी स्थानों पर निर्माण आदि कार्य यदि न्यायोपार्जित द्रव्य से बिना यश की कामना से भगवद प्रीत्यर्थं किए जाएं तो परम कल्याणकारी सिद्ध होंगे।
न्यायपूर्वक अर्जित धन का दशमांश मनुष्य को दान कार्य में ईश्वर की प्रसन्नता के लिए लगाना चाहिए।
दान करने से मिलती है मोह से मुक्ति, होते हैं कष्ट दूर
हर धर्म में दान का खासा महत्व माना गया है. दान देने से जहां मोह से मुक्ति मिलती है वहीं जीवन के दोष भी दूर होते हैं.
अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान, ये सारे दान इंसान को पुण्य का भागी बनाते हैं|
किसी भी वस्तु का दान करने से मन को सांसारिक आसक्ति यानी मोह से छुटकारा मिलता है. हर तरह के लगाव और भाव को छोड़ने की शुरुआत दान और क्षमा से ही होती है.
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है.
दान का महत्व दान एक ऐसा कार्य है, जिसके जरिए हम न केवल धर्म का ठीक-ठीक पालन कर पाते हैं बल्कि अपने जीवन की तमाम समस्याओं से भी निकल सकते हैं|
आयु, रक्षा और सेहत के लिए तो दान को अचूक माना जाता है. जीवन की तमाम समस्याओं से निजात पाने के लिए भी दान का विशेष महत्व है. दान करने से ग्रहों की पीड़ा से भी मुक्ति पाना आसान हो जाता है.
ज्योतिष के जानकारों की मानें तो अलग -अलग वस्तुओं के दान से अलग-अलग समस्याएं दूर होती हैं,
धार्मिक मान्यता के अनुसार कुछ ऐसी चीजें हैं जिनका दान यदि प्रतिदिन सुबह किया जाए तो घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है.
रोज सुबह पहली रोटी गाय को देनी चाहिए।
हिंदू धर्म में गाय को माता का दर्जा दिया जाता है|
मान्यात है कि जिस घर में रोज पहली रोटी गाय को खिलाई जाती है|
वहां हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है. रोज सुबह गाय को जो पहली रोटी दी जाए वह ताजी होनी चाहिए|
सुबह को यदि आप गाय को रोटी खिलाते हैं तो उसके साथ चने और गुड़ भी खिलाना चाहिए।.
शास्त्रों और पुराणों में भी लिखा है और यह बात हम अपने घरों में बुजुर्गों के मुंह से भी सुनते आए हैं कि हमें अपनी कमाई का कुछ हिस्सा दान-पुण्य में भी खर्च करना चाहिए।
ऐसा करके न सिर्फ अपने इस जन्म के अच्छे कर्मों का पुण्य प्राप्त करते हैं बल्कि परलोक में भी अपने लिए बेहतर स्थान प्राप्त करते हैं। आपको क्या वस्तुएं दान करनी हैं इस बारे में कई बार हमें पता नहीं होता है।
सप्ताह के 7 दिनों में दिए जाने वाले दान
सोमवार का दान
सोमवार का दिन भगवान शिव और चंद्रमा से संबंधित माना जाता है।
इस दिन सफेद वस्तुओं को दान करने का सबसे अधिक महत्व होता है।
इस दिन आप चाहें तो चावल, सफेद वस्त्र, सफेद पुष्प व मिश्री-नारियल का दान कर सकते हैं।
ऐसा करने से शिवजी की विशेष कृपा के साथ आपको चंद्रमा भी मजबूत होता
मंगलवार का दान
मंगलवार को दान करना बेहद परमफलदायी माना जाता है।
मंगलवार को लाल फूल, लाल चंदन, लाल वस्त्र, बादाम और तांबे के बर्तनों का दान करना सबसे शुभ माना जाता है।
मंगलवार को दान करने से जहां आपका मंगल मजबूत होता है वहीं संकटमोचन बजरंगबली की कृपा और परिवार में सुख-शांति बनी रहती है।
बुधवार का दान
बुधवार को दान करना हम सबके करियर के लिए बेहद फायदेमंद होता है।
बुधवार को हरी वस्तुओं का दान करना सबसे शुभ माना जाता है।
आप जरूरतमंदों को इस दिन हरी मूंग, हरे रंग के वस्त्र या फिर सुहागिन महिलाओं को हरी चूड़ियां दान कर सकते हैं।
बृहस्पतिवार का दान
बृहस्पतिवार को किया गया दान हमारे सम्मान की रक्षा करता है।
बृहस्पतिवार को दान करना हमें समाज में सम्मान के साथ ही धन, वैभव और यश की प्राप्ति करवाता है।
बृहस्पतिवार पर बृहस्पति ग्रह का प्रभाव होता है तो इस दिन पीली वस्तुओं का दान सबसे शुभ माना जाता है। इस दिन आपको पीले वस्त्र, पीले अनाज, गुड आदि का दान करना चाहिए।
शुक्रवार का दान
शुक्रवार का दान आपको शुक्र ग्रह की शुभता प्रदान करता है।
शुक्रवार का दिन मां लक्ष्मी को भी समर्पित होता है।
इस दिन आप केसर और चावल की खीर बनाकर जरूरतमंदों को दान कर सकते हैं।
इसके अलावा इस दिन आप सफेद वस्तुओं का दान करके लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
इस दिन दान करने से आपके घर में सुख-समृद्धि आती है। इसके साथ ही शुक्रवार को नमक का दान भी विशेष पुण्यदायी होता है।
शनिवार का दान
शनिवार का दिन शनिदेव को समर्पित होता है। इस दिन शनिदेव के निमित्त दान करने से आपके ऊपर से शनिदेव के अशुभ प्रभाव समाप्त होते हैं।
शनिवार को उड़द की दाल, सरसों का तेल, काले वस्त्रों का दान करना सबसे शुभ माना जाता है।
शनिवार का दिन दान पुण्य करने के लिहाज से सबसे शुभफलदायी माना जाता है।शनिवार के दिन सुबह को उड़द, काली दान की खिचड़ी, काले चने आदि चीजों का दान करना चाहिए।
इससे शनिदेव प्रसन्न होते हैं.काली उड़द दाल और काला तिल- शनि ग्रह से जुड़ी समस्याओं के कारण अगर आर्थिक दिक्कतें आ रही हों तो शनिवार को सवा किलो काली उड़द दाल या काला तिल किसी निर्धन और जरूरतमंद व्यक्ति को दान करें|
कम से कम 5 शनिवार तक ये दान करें|
निश्चित तौर पर पैसों से जुड़ी समस्या खत्म हो जाएगी|
लेकिन जिस शनिवार को आप काली उड़द की दाल या काला तिल दान कर रहे हों उस दिन खुद उसका सेवन न करें |
काले तिल के दान से शनिदेव के साथ ही राहु-केतु के दोष भी शांत हो जाते हैं.लोहे से बना कोई सामान या लोहे का बर्तन दान करने से भी शनिदेव प्रसन्न होते हैं और ऐसी मान्यता है कि लोहा शनिदेव को काफी अधिक प्रिय है |
शनिवार के दिन लोहे से बने बर्तन जैसे- तवा, कराही आदि का दान किसी निर्धन या जरूरतमंद व्यक्ति को करने से जीवन की सारे परेशानियां दूर हो जाती हैं और चोट-चपेट या किसी तरह की दुर्घटना से भी बचने में मदद मिलती है |
अगर शनि से जुड़े किसी दोष की वजह से व्यक्ति की सेहत खराब हो गई हो या कोई गंभीर बीमारी हो गई हो जो ठीक ना हो रही तो काली चीजों का दान करने से लाभ हो सकता है |
शनिवार के दिन काले कपड़े और काले जूतों का दान किसी जरूरतमंद व्यक्ति को करना चाहिए |
ऐसा करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं और सेहत में सुधार होने लगता है. इसका कारण ये है कि लोहे की ही तरह काली वस्तुएं भी शनिदेव को बेहद प्रिय हैं.
रविवार का दान
रविवार का दान सूर्यदेव को समर्पित होता है।
सूर्यदेव हम सबकी कुंडली में मान-सम्मान के कारक माने जाते हैं।
रविवार को हमें ऐसी वस्तुओं का दान करना चाहिए जो लाल या फिर केसरिया रंग की हों।
रविवार को लाल फूल, नारंगी वस्त्र और लाल रंग के फलों का दान करने से आपके सम्मान की रक्षा होती है
शास्त्रों में बताया गया है 5 दानों को महादान
सबसे पहले यह जानना होगा कि दान क्या है?
दान वास्तव में धर्म से सम्बद्ध है।
भविष्य पुराण में धर्म के 4 चरण बताए गए हैं। वे हैं- सत्य, तप, यज्ञ और दान।
अब यह भी जानना ज़रूरी है कि हम कलियुग में जी रहे हैं। यानी इसके पहले 3 युग बीत गए और यह चौथा है।
सत्य का युग तो सत्ययुग या सतयुग के साथ ही समाप्त हो गया। सतयुग में भगवान विष्णु के जो अवतार हुए हैं, उनमें मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वाराह अवतार और नृसिंह अवतार शामिल हैं।
इसी तरह त्रेतायुग में भगवान विष्णु ने श्रीराम और द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया। त्रेता युग के साथ तप और द्वापर युग के साथ यज्ञ का विधान भी चला गया।
अब बचा कलियुग तो इसमें धर्म का दान रूपी चरण ही बच गया है। यानी इस युग में दान ही सबसे बड़ा और पुनीत कार्य है।
वैसे तो दान 9 प्रकार के होते हैं, लेकिन भविष्य पुराण में तीन दान सर्वश्रेष्ठ बताए गए हैं।
वे हैं- गोदान, भूमि दान और विद्या दान। 9 प्रकार के दान हैं- अन्नदान, कन्यादान, गोदान, गोरस-दान, स्वर्ण/सुवर्ण दान, भूमिदान, विद्यादान, अभय दान और सत्संग।
लेकिन सत्संग दान व्यक्ति को यश प्रदान करता है। यह आप में एक प्रकार का विलक्षण दान है, क्योंकि सत्संग से व्यक्ति का निर्माण होता है।
बुरी आदतें, व्यसन और दूसरे दुर्गुण खत्म होते हैं। सत्संग से भक्ति जाग्रत होती है और व्यक्ति के पाप नष्ट होते हैं। दान करने से क्या फल मिलता है, इसका जवाब है- दांयाँ से यश तो मिलता ही है।
दूसरे जन्म में धन-वैभव, सुख-संपत्ति दान दाता को खोजते हुए उसके पास आती है। अगर दान ईश्वरीय अनुराग के कारण किया गया है तो ईश्वर भी उससे प्रसन्न होते हैं।
कुछ दान ऐसे भी होते हैं जो किसी व्यक्ति विशेष को नहीं दिए जाते हैं। जैसे दीपदान, छायादान, श्रमदान आदि।
मुख्यत: दान दो प्रकार के होते हैं- एक माया के निमित्त किया गया दान और दूसरा भगवान के निमित्त किया गया दान। पहले दान में स्वार्थ होता है और दूसरे दान में भक्ति।
भूमि दान
शास्त्रों के अनुसार भूमि दान को महादान माना गया है
पहले के समय में राजाओं द्वारा योग्य और श्रेष्ठ लोगों को भूमि दान किया जाता था।
भगवान विष्णु ने बटुक ब्राह्मण का अवतार लेकर तीन पग में ही तीनों लोक नाप लिए थे।
यदि सही प्रकार से इस दान को किया जाए तो इसका बहुत महत्व होता है। वहीं अगर आश्रम, विद्यालय, भवन, धर्मशाला, प्याउ, गौशाला निर्माण आदि के लिए भूमि दान की जाए तो श्रेष् श्रेष्ठ दान होता है ।
गोदान
सनातन संस्कृति में गौ दान को विशेष महत्व माना जाता है।
इस दान के संबंध में कहा जाता है कि जो व्यक्ति गौदान करता है। इस लोक को बाद परलोक में भी उसका कल्याण होता है।
दान करने वाले व्यक्ति और उसके पूर्वजों को जन्म मरण के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है।धार्मिक दृष्टि से गाय का दान सभी दानों में श्रेष्ठ माना जाता है। गाय का दान हर सुख और धन-संपत्ति देने वाला माना गया है।
अन्न दान
अन्न दान करना बहुत ही पुण्य का कार्य होता है।
यह एक ऐसा दान है, जिसके द्वारा व्यक्ति भूखे को तृप्त करता है। यह दान भोजन की महत्वता को दर्शाता है। सभी प्रकार की सात्विक खाद्य सामाग्रियां इसमें समाहित होती हैं।
भगवत् गीता में अन्नदान का महादान माना गया है। किसी भूखे को खाना खिलाने से बढ़कर कुछ भी नहीं है। अक्षय तृतीया के दिन जरूरतमंद लोगों को अन्न का दान जरूर करना चाहिए।
ऐसा करने से आपको ईश्वर का जो आशीर्वाद प्राप्त होता है उससे आपका जीवन खुशियों और समृद्धि से भर जाता है।
शास्त्रों में ऐसा बताया गया है कि अक्षय तृतीया पर अन्न का दान करने से नवग्रह शांत होते हैं और मजबूत होते हैं।
इसके साथ अन्न का दान करने से आपके प्रति देवता भी तृप्त होते हैं। अन्न का दान आपका यह जन्म ही नहीं बल्कि परलोक में आपकी स्थिति को भी सुधार देता है।
यानी की मरणोपरांत भी परलोक में आपको अन्न की कमी नहीं होती। इस संबंध में पुराणों में एक कथा का भी वर्णन किया गया है।
एक बार श्रीहरि मृत्युलोक में एक महिला के पास ब्राह्मण का वेश धरकर भिक्षा मांगने आए। उस महिला न दान में उन्हें उपले दिए।
मरने के बाद जब वह महिला परलोक पहुंची तो उसे वहां पर उपले ही मिले। इसका कारण पूछने पर भगवान ने उस महिला को उसके दान के बारे में याद दिलाया।
अन्नदान में गेहूं, चावल का दान करना चाहिए। यह दान संकल्प सहित करने पर मनोवांछित फल देता है।
कन्या दान
कन्या दान को महादान कहा जाता है। सनातन धर्म में कन्या दान को सर्वोत्तम माना गया है।
यह दान कन्या के माता-पिता द्वारा उसके विवाह संस्कार पर किया जाता है। इ
स दान में माता-पिता अपनी पुत्री का हाथ वर के हाथ में रखते हुए संकल्प लेते हैं। और उसकी समस्त जिम्मेदारियां वर को सौंप देते है
विद्या दान
इस दान से मनुष्य में विद्या, विनय औऱ विवेकशीलता के गुण आते हैं। जिससे समाज और विश्व का कल्याण होता है।
भारतीय संस्कृति में सदियों से गुरु-शिष्य परंपरा में विद्या दान चला आ रहा है। दोस्तों, शास्त्रों में विद्या का दान सबसे श्रेष्ठ दान माना जाता है।
क्योंकि यहीं एक ऐसा दान है जो बांटने से ओर अधिक बढ़ता ही है।
घी का दान
गाय का घी एक पात्र (बर्तन) में रखकर दान करना परिवार के लिए शुभ और मंगलकारी माना जाता है।
तिल का दान
मानव जीवन के हर कर्म में तिल का महत्व है। खास कर के श्राद्ध और किसी के मरने पर। काले तिलों का दान संकट, विपदाओं से रक्षा करता है।
सोने का दान
सोने का दान कलह का नाश करता है।
चांदी का दान
चांदी का दान बहुत प्रभावकारी माना गया है।
वस्त्रों का दान
इस दान में धोती और दुपट्टा सहित दो वस्त्रों के दान का महत्व है। यह वस्त्र नया और स्वच्छ होना चाहिए।
गुड़ का दान
गुड़ का दान कलह और दरिद्रता का नाश कर धन और सुख देने वाला माना गया है।
नमक का दान
नमक का दान भी काफी कारगर माना गया है। खासकर की श्राद्धों के समय तो नमक दान करने की सलाह दी जाती है।
कहते दान देने से धन घटता नहीं बल्कि बढ़ता है। किसी जरूरतमंद को तो आप कभी भी किसी माह में दान दे सकते हैं लेकिन किसी दिन विशेष, मास विशेष में अलग-अलग चीजों का दान करने का अपना महत्व है।
अष्टधान्य और सप्तधान्य से मिलता है उत्तम फल
कपास, का दान करने से सुख-शांति मिलती है।
सोने का दान करने से लम्बी उम्र की प्राप्ति होती है। भूदान करने से अच्छे घर की प्राप्ति होती है। गौदान से सूर्यलोक मिलता है।
घी का दान करने से धन-धान्य की प्राप्ति होती है। नमक के दान से घर में अन्न के भंडार भरे रहते हैं। सप्तधान्य के दान से संपत्ति मिलती है।
तिल, लोहा, सोना, कपास, नमक, सप्तधान्य, भूमि, गाय इनको अष्टधान्य कहा गया है।
किसी शुभ प्रसंग या त्योहारों पर इनका दान करने से शुभ फल की प्राप्ति होती है।
पितृों को तृप्त करने के लिए गाय, भूमि, तिल, सोना, घी, वस्त्र, धान्य, गुड़, चांदी, नमक ये दस महादान किए जाते हैं।
माह के अनुसार किए जाने वाले दान
पौराणिक ग्रंथों में तमाम तरह के दान का बहुत महत्व बताया गया है।
वही दान जिससे न सिर्फ लेने वाले का कल्याण होता है बल्कि देने वाले को भी शुभ फलों की प्राप्ति होती है।
शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य को अपनी क्षमता के अनुसार जरूर दान करना चाहिए क्योंकि दान से न सिर्फ इहलोक सुधरता है बल्कि परलोक में मोक्ष की प्राप्ति होती है।
गोबर से लीप ले, फिर उसपर बैठकर दान दे और उसके बाद दक्षिणा दे।
जहाँ गंगा आदि तीर्थ हों उन्हीं स्थानों को दान के लिपे उपयुक्त कहा है। इन स्थानों पर गाय, तिल, जमीन और सुवर्ण आदि का दान करना चाहिए। बालकों के लिए खिलौने दान करने से विशेष पुण्य बताया है। ग्रहों की शांति के लिए भी दान विधान है।
श्रद्धा, तुष्टि, भक्ति, ज्ञान अलोभ, क्षमा और सत्य ये सात गुण दाता के लिए आवश्यक है।
पड़गाहना करना, उच्च स्थान देना, चरणों का उदक ग्रहण करना, अर्चन करना, प्रणाम करना, मन वचन और काय तथा भोजन की शुद्धि रखना – इन नौ प्रकारों से दान देनेवाला दाता पुण्य का भागी होता है।
शायद यही कारण है कि हमारे यहां तीज-त्योहारों पर तमाम तरह के दान की परंपरा चली आ रही है।
आइए जानते हैं कि 12 मास में किन चीजों का दान करने से उस मास विशेष और उससे जुड़े देवता का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
1. चैत्र माह का दान
गेहूं, मिट्टी के बर्तन, जल, अन्न, पलंग, अरहर, दही-चावल, बेल का फल, और कपड़े आदि।
2. वैशाख माह का दान
जल का दान, छाता, पंखा, चप्पल आदि का दान करें।
बैसाख के महीने में साबुत जौ या फिर जौ का आटा भी दान किया जाता है। शास्त्रों में जौ को स्वर्ण के समान बताया गया है।
जौ के दान को स्वर्ण के दान के बराबर फलदायी माना गया है। जौ का प्रयोग यज्ञ में भी अनिवार्य रूप से किया जाता है, इसलिए ब्राह्मणों को दान में जौ जरूर देना चाहिए।
3. ज्येष्ठ माह का दान
गर्मी से बचाव करने वाली चीजों का दान जैसे जल, जूते-चप्पल, छाता एवं अन्नदान करें।
पानी से भरे पत्र का दान करना चाहिए।
4. आषाढ़ माह का दान
इस माह में आंवला के दान का बहुत महत्व है। साथ ही कपूर, चंदन, छात्रों के लिए पुस्तकें, धार्मिक पुस्तकें आदि का दान करें।
5. श्रावण माह का दान
सब्जियां, कपड़े, घी, दूध, रत्न अन्न आदि का दान करें।
6. भाद्रपद माह का दान
खीर, शहद और अन्न, फल आदि का दान कर सकते हैं।
7. अश्विन माह का दान
तिल तथा घी का विशेष रूप से दान करें। साथ ही दवा, ब्राह्मणों को भोजन, अन्न, वस्त्र तथा दक्षिणा का दान करें। सौभाग्यवती महिलाओं, कुंआरी कन्याओं को भोजन, वस्त्र आदि का दान करें।
8. कार्तिक माह का दान
चने का दान, पशुओं को विशेष रूप से गाय को हरा चारा, धान्य, बीज, चांदी, दीप, नमक आदि का दान करें।
9. अगहन माह का दान
गुड़, नमक, सूती कपड़े आदि का दान दें।
10. पौष माह का दान
गुड़, निवार, धान्य दान कंबल, ऊनी वस्त्र आदि का दान करें। चूंकि इस महीने में बहुत सर्दी पड़ती है, इसलिए इस महीने में जरूरतमंद लोगों को ऊनी वस्त्र, कंबल, गुड़, अन्न आदि का दान करें.
11. माघ माह का दान
माघ मास में तिल, गुड़, ऊनी वस्त्र, कंबल आदि का दान देने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है.
12. फाल्गुन माह का दान
फाल्गुन मास में शुद्ध घी, तिल, सरसों का तेल, फल एवं गरम कपड़े का दान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है.
दान देते समय ध्यान रखने योग्य बातें
सनातन परंपरा में दान के लिए कहा है कि दान हमेशा श्रद्धा के साथ दें।
दान देते समय मन में अहंकार नहीं आना चाहिए।
दान देते समय किसी को अपमानित या फिर उस पर अहसान नहीं जताना चाहिए।
दान देने के बाद उसका प्रचार-प्रसार न करें। बल्कि गुप्त दान करें।
दान देने के बाद अफसोस या पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए
डर कर या खुश होकर दिया गया दान।
नौ तरह के व्यक्तियों के लिए किया गया दान धन दाता को भोग और मोक्ष से सम्पन्न कर देता है, अक्षय फल की प्राप्ति कराता है। अर्थात ऐसे व्यक्ति को ही दान दिया जाना चाहिए जो कि उसे पाने की पात्रता रखता हो।
दान पाने की पात्रता
जो सदाचारी हो, संयमी व्यक्ति की सेवा या ईश्वरीय कार्य के प्रति समर्पित हो।
जो विनम्र हो।
जो ईमानदार हो, लेकिन दयनीय स्थिति में हो।
जो परोपकारी हो।
अनाथ की सेवा और उनके कल्याण के लिए दान।
माता की सेवा में व्यय।
पिता की सेवा में व्यय।
गुरु की सेवा में धन खर्च करना।
सच्चे मित्र जो खराब स्थिति में हों, उनकी मदद करना।
तुलादान क्या होता है
तुला (तराजू) के रूप में वह विष्णु का स्मरण करता है, फिर वह तुला की परिक्रमा करके एक पलड़े पर चढ़ जाता है, दूसरे पलड़े पर ब्राह्मण लोग सोना रख देते हैं।
तराजू के दोनों पलड़े जब बराबर हो जाते हैं, तब पृथ्वी का आह्वान किया जाता है। दान देने वाला तराजू के पलड़े से उतर जाता है, फिर सोने का आधा भाग गुरु को और दूसरा भाग ब्राह्मण को उनके हाथ में जल गिराते हुए देता है।
यह दान अब दुर्लभ है, सिर्फ धर्मशास्त्र में इसका वर्णन पढ़ने को मिलता है।
तुलादान के लाभ के बारे में विद्वानों का कहना है कि इस दान से सभी ग्रहों का दान होता है।
दरअसल हमारे शरीर के हर भाग पर किसी ना किसी ग्रह का अधिकार होता है।
तुलादान करने से सभी ग्रहों के निमित्त दान हो जाता है जिससे जिन-जिन ग्रहों के दोष आप पर होते हैं वह समाप्त हो जाते हैं।
इससे स्वास्थ्य लाभ और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
पौराणिक कथाओं में तुलादान
पुराणों में तुलादान को महादान कहा गया है और बताया गया है कि इससे विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। पौराणिक काल में समृद्ध लोग सोना से तुलादान किया करते थे।
लेकिन अब अनाज और सिक्कों से भी लोग तुलादान किया करते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार में प्रयाग में ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु के कहने पर तीर्थों का महत्व तय करने के लिए तुलादान करवाया था।
इसमें सभी तीर्थ एक तरफ और प्रयाग को तुला के दूसरी तरफ बैठाया गया था। सभी तीर्थ मिलकर भी प्रयाग के बराबर नहीं हो पाए।
इसके बाद से प्रयाग को तीर्थराज कहा जाने लगा। इस कथा के कारण प्रयाग और कई तीर्थों में भी तुला दान की परंपरा है।
ब्रह्मा की इस परीक्षा से हमेशा के लिए तय हो गया कि प्रयाग ही तीर्थराज हैं।
इनकी पुण्य गरिमा का मुकाबला सातों पुरियां और सभी तीर्थ नहीं कर सकते।
इसीलिए अनेक श्रद्धालु तीर्थराज प्रयाग में आकर अपनी सामर्थ्य के अनुसार तुलादान करते हैं। इससे उनके जन्म जन्मांतर में अर्जित पाप नष्ट हो जाते हैं और उनके परिवार में सुख-समृद्धि आती है।
किन्तु उज्जैन का महत्व इससे कदापि कम नहीं होता। उज्जैन को महाकाल और देवों की पावन भूमि कहा गया है। कहा जाता है यहां आयोजित महाकुंभ में स्वयं देवता शामिल होते हैं।
दान देने का समय और मुहूर्त :
1. यदि कोई याचक आपके द्वार पर आए तो दान दें।
2. यदि कोई अतिथि आपके घर आए तो उसे दान दें।
3. यदि मंदिर में जाएं तो दान दें।
4. यदि किसी तीर्थ क्षेत्र में जाएं तो दान दें।
5. यदि कोई श्राद्ध कर्म करें तो दान दें।
6. यदि कोई संक्रांति पर्व हो तो दान दें।
7. यदि परिवार में किसी को धन, वस्तु या अन्न की आवश्यकता हो तो दान दें।
8. यदि देश, समाज और धर्म पर किसी भी प्रकार का संकट आया हो तो दान दें।
9. विद्यालय, चिकित्सालय, गौशाला, आश्रम, मंदिर, तीर्थ और धर्म के निमित्त दान दें।
10. सभी पर्वों और तीर्थों में दान करने के शुभ मुहूर्त होते हैं। उन्हें जानकर ही दान दें।
दान का वैज्ञानिक पक्ष
अगर दान देने के वैज्ञानिक पक्ष को हम समझें कि जब हम किसी को कोई वस्तु देते हैं तो उस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं रह जाता, वह वस्तु पाने वाले के आधिपत्य में आ जाती है, अत: देने की इस क्रिया से हम कुछ हद तक अपने मोह पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।
दान देना हमारे विचारों एवं हमारे व्यक्तित्व पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालता है, इसलिए हमारी संस्कृति हमें बचपन से ही देना सिखाती है, न कि लेना।
हमें अपने बच्चों के हाथों से दान करवाना चाहिए, ताकि उनमें ये संस्कार बचपन से ही आ जाएं।इसी प्रकार आज के परिप्रेक्ष्य में रक्त एवं अंगदान समाज की जरूरत है।
जो दान किसी जीव के प्राणों की रक्षा करे, उससे उत्तम और क्या हो सकता है।
दान देने के नियम
1 मनुष्य को अपने द्वारा न्यायपूर्वक अर्जित किए हुए धन का दसवां भाग ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किसी सत्कर्मो में लगाना चाहिए।
जो मनुष्य अपने स्त्री, पुत्र एवं परिवार को दुःखी करके दान देता है। वह दान जीवित रहते हुए भी एवं मरने के बाद भी दुःखदायी होता है।
2 स्वयं जाकर दिया हुआ दान उत्तम एवं घर बुलाकर दिया हुआ दान मध्यम फलदायी होता है। गौ, ब्राह्मणों तथा रोगी को जब कुछ दिया जाता हो उस समय जो ना देने की सलाह देता है वह दुःख भोगता है।
3 तिल, कुश, जल और चावल इनको हाथ में लेकर दान देना चाहिए अन्यथा उस दान पर दैत्य अधिकार कर लेते हैं। पितरों को तिल के साथ तथा देवताओं को चावल के साथ दान देना चाहिए।
4 देने वाला पूर्वाभिमुखी होकर दान दें, और लेने वाला उत्तराभिमुखी होकर उसे ग्रहण करें, ऐसा करने से दान देने वाले की आयु बढ़ती है और लेने वाले की भी आयु क्षीण नहीं होती।
5 अन्न, जल, घोड़ा, गाय, वस्त्र, शय्या, छत्र और आसन इन आठ वस्तुओं का दान मृत्युउपरांत के कष्टों को नष्ट करता है।
6 गाय, घर, वस्त्र, शय्या तथा कन्या इनका दान एक ही व्यक्ति को करना चाहिए। रोगी की सेवा करना, देवताओं का पूजन, ब्राह्मणों के पैर धोना गौ दान के समान है।
7 दीन, निर्धन, अनाथ, गूंगे, विकलांग तथा रोगी मनुष्य की सेवा के लिए जो धन दिया जाता है उसका महान पुण्य होता है।
8 विद्याहीन ब्राह्मणों को दान नहीं लेना चाहिए, ब्राह्मण की हानि होती है।
9 गाय, स्वर्ण, चांदी, रत्न, विद्या, तिल, कन्या, हाथी, घोड़ा, शय्या, वस्त्र, भूमि, अन्न, दूध, छत्र तथा आवश्यक सामग्री सहित घर इन 16 वस्तुओं के दान को महादान कहते हैं।