अपार जनसमुदाय के बीच भी यदि कोई व्यक्ति स्वयं को अकेला महसूस करे तो यह विडंबना ही है। अकेलापान यानी स्वयं को सबसे अलग कर लेना, सबसे संबंध तोड़ लेना, किसी को अपना न मानना और न ही किसी से अपना नाता जोड़ना।
वर्तमान समय में मनुष्यों की इस भीड़ में अकेलापन एक विकराल समस्या हो गई हैं यह समस्या कुछ ईसी तरह से है, जैसे अथाह समुद्र हमारे सामने हो और हमें पीने के लिए एक बूँद पानी भी उपलब्ध नह हो सके। दुर्भाग्यवश आधुनिक जीवन की यही सच्चाई है।
वर्तमान में शहरों में रहने वाले 40 प्रतिशत लोग इसी अकेलेपन की बीमारी से ग्रस्त है। मनोवैज्ञानिक यह कहते हैं कि अकेलेपन से उतना ही नुकसान होता है, जितना रोज 15 सीगरेट पीने से होता है।
अमेरिका की चिकित्सा संबंधी शोध पत्रिका में डाॅ. विवेकमूर्ति के द्वारा किए गए शोध में वे कहते हैं कि ऐसा मत सोचो कि केवल बुजुर्गों को अकेलापन सालता है, बल्कि आजकल तो युवाओं मे भी अकेलेपन का भाव तेजी से देखने को मिल रहा है।
सोशल मीडिया का वर्तमान में फैला हुआ जाल एक तरह की मायावी दुनिया है। वह संबंधों का आभास निर्मित करती है।
यह जानते हुए कि इस मीडिया में जो मित्र बनते हैं, वे असली दोस्त नहीं होते, लेकिन फिर भी लोग उसमें खुद को भुलाने की कोशिश करते हैं, मगर इससे उनका अकेलापन नहीं जाता, बल्कि और बढ़ जाता है।
हम मूलतः सामाजिक प्राणी हैं। चिकित्सकों का यह कहना है कि अकेलेपन के इलाज के लिए महँगी गोलियाँ लेने के बजाय अन्य इन्सानों से अपना सुख-दुःख साझा करना चाहिए, क्योंकि आप अपने भावों को जिताना उँड़ेलेंगे, उतना ही भीतर से हलका महसूस करेंगे।
दरअसल अकेला व एकाकी होना- दो मिलते जुलते शब्द हैं, लेकिन इनके अर्थ भिन्न हैं। एकाकी यानी लोनलीनेस का अर्थ दूसरे का अभाव है और दूसरे की निकटता की चाहत है।
जबकि अकेला होना यानी अलोननेस का अर्थ- जो खुद के साथ है, जो अपने अतंस् के साथ आंनदित है। शिवसूत्र में इसका सुंदर विवरण आया है कि जो अपने साथ स्थिर बैठा है, वह हृदय के सरोवर में सुखपूर्वक डूबता है।
हर मनुष्य के भीतर ही वह सरोवर मौजुद है, जिसके जल से उसकी प्यास बुझ सकती हैै, लेकिन वह दूसरों के अंदर यह सरोवर तलाशता है, जिसमें उसे तृप्ति मिल सके, लेकिन वह अतृप्त रहता है, क्योंकि उसे तृप्त करने वाली जलराशि तो उसकी के अंदर है, कहीं बाहर नहीं।
जिस तरह मृग अपनी ही नाभि में मौजूद कस्तूरी की सुगंध को जान नहीं पाता और उसे बाहर खोजता फिरता है, वही स्थिति मनुष्य की रहती है।
लोग दुःखी इसीलिए हैं, क्योंकि उन्हें अपने भीतर मौजूद आध्यात्मिक संपदा का भान नहीं है, उसका ख्याल नहीं है।
इस सुख व आनंद की तलाश में लोग अपनी पूरी जिंदगी गँवा देते हैं, जबकि इसके लिए कहीं और जाने की जरूरत ही नहीं है।
जब तक हम इस आनंद सरोवर तक नहीं पहुँच पाते, तब तक अतृप्त बने रहते हैं और दूसरों को भी तृप्ति नहीं दे पाते।
जब हम स्वयं इस आनंद-सरोवर के जल से तृप्त हो जाते हैं तो फिर जो भी हमारे पास आते हैं, वो भी एक तरह से आनंदरूपी तृप्ति को महसूस करते है।
हालाँकि हमारे भीतर मौजूद यह आनंद-सरोवर स्थूल नहीं, बल्कि सूक्ष्म है। यह हमें अपनी स्थूल आँखों से नहीं दिखाई देता, बल्कि मन की सूक्ष्म आँखों से ही दृष्टिगोचर होता है, लेकिन इस सरोवर तक पहुँचने का मार्ग आसान नहीं है, इसके लिए हमे अपने अंदर मौजूद चित्तरूपी दरिया को पार करना पड़ता है।
यह चित्तरूपी दरिया हमारे ही पूर्वकर्मों के परिणामस्वरूप बना है, जिसे हमें पार करना होता है।
ज्ञानी जन कहते हैं कि स्वर्ग का रास्ता महानरक से होकर जाता है, यदि हमारे अंतर्मन में मौजूद आनंदरूपी सरोवर स्वर्ग है तो उसके मार्ग में आने वाला यह चित्तरूपी दरिया महानरक के समान है और यही कारण है कि लोग अपने अंतर्मन के द्वार में प्रवेश नहीं करना चाहते।
इसके द्वार पर कदम नहीं रखना चाहते, लेकिन जो साहसी होते हैं, दृढ़ संकल्पी होते हैं, कठिनतम साधना करने में रूचि रखते हैं और निर्भीक होते हैं, वे इस मार्ग पर अवश्य आगे बढ़ते है।
सदियों से हमारे देश में ऋषि-मुनियों ने जो भी अनुसंधान किए, वे अपने अंतर्मन, अंतर्जगत की भूमि पर ही किए और इस खोज-बीन की राह में कई नई विद्याओं, दिव्यमंत्रों, विभूतियों आदि को जानते हुए आत्मा के उस प्रकाश तक भी पहुँचे, जिसे आनंद का सरोवर कहा जाता है।
वर्तमान में मनुष्य अपने आप से ही दूर होता जा रहा है, स्वयं से ही कटता जा रहा है, उसे तो यह आभास ही नहीं है कि उसके अंदर दिव्यता मौजूद है।
उसने तो अपने इस हाड़-मांस के शरीर को ही सब कुछ समझ लिया है, विचारों व भावनाओं को ही जाना है, उनके आगे भी कुछ है, इनके पार भी जीवन का कुछ अस्तित्व है, इसे वह सिरे से नकार देता है, क्योंकि उसे यह सब दृष्टिगोचर नहीं है।
जिस तहर समुद्र में तैरते हुए विशाल हिमखंड का मात्र थोड़ा-सा हिस्सा ही दृष्टिगोचर होता है, शेष उससे भी बड़ा हिस्सा उस विशाल जलराशि में निमग्न होता है, उसी तरह हमारे जीवन का स्थूलस्वरूप् बहुत कम मात्रा में दिखता है और वह सूक्ष्मस्वरूप् जो नहीं दिखता है-वह अधिक बड़ा होता है, जिसे हम जानते भी नहीं है।
मनुष्य केवल एक ही जीवन नहीं जीता, उसके अनेक जन्म होते हैं। एक जीवन जीकर वह मर जाता है, फिर वह पुनः जन्म लेता है, यद्यपि मनुष्य अपने वर्तमान जीवन को ही देख सवकता है, भूतकाल की बातों को याद कर सकता है और भविष्य के बारे में सोच सकता है, उसका आकलन कर सकता है, उसके बारे में कल्पनाएँ कर सकता है, लेकिन इस जन्म से पहले जो जीवन वह जी चुका है, उसका स्मरण उसे नहीं रहता, पर उन सभी जन्मों में उसने जो कर्म किए हैं, उनका हिसाब-किताब उसके चित्त में मौजूद होता है।
मनुष्य का वर्तमान जीवन उसके भूतकाल के बीते हुए जन्मों व कर्मों के परिणामस्वरूप होता है और भविष्य का जीवन भी भूत व वर्तमान जीवन की नींव पर ही रखा जाता है।
यदि वर्तमान जीवन में मनुष्य द्वारा किए गए कर्म अत्यंत निकृष्ट हैं तो हो सकता है उसका अगला जन्म मनुष्य न होकर जीव-जंतु या वृक्ष-वनस्पतियों के रूप में हो, विभिन्न तरह की भोगयोनियो में हो।
इसी तरह यदि वर्तमान जीवन के कर्म उत्कृष्ट हैं, शुभ हैं तो इसके परिणामस्वरूप उसे अच्छे जन्म की प्राप्ति होती है और कभी-कभी तो कर्मशून्य हो जाने पर जन्म-जन्मांतर के चक्र से ही मुक्ति मिल जाती है, फिर वह जीवात्मा जीवनमुक्त हो जाती है।
मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ भी अच्छा या बुरा महसूस करता है, वह उसके मन में होता है। इस तरह उसके मन में ही स्वर्ग या नरक की सृष्टि होती है।
उसके शुभ कर्म उसे स्वर्गरूपी आनंद से आनंदित करते हैं और उसके अशुभ कर्म उसे नरकरूपी दुःख-कष्ट से पीड़ित करते है।
साधना का पूरा नाम है- जीवन-साधना, जीवन को सुव्यवस्थित बनाना। जीवन-संपदा को आत्मपरिष्कार और लोक-मंगल के पुण्य-परमार्थ के साथ जोड़कर, उसे सब प्रकार कृतकृत्य बनाना।
वर्तमान में यदि मनुष्य अकेलेपन से जूझ रहा है तो इसका तात्पर्य है कि वह अपनी देने की परंपरा भूल गया है, क्योंकि यदि वह देगा नहीं, तो उसे मिलेगा नहीं। मनुष्य को जो भी चाहिए, पहले उसे अन्य लोगों को देना होगा।
इसी कारण हमारे समाज में दान की पंरपरा का उद्भव हुआ, क्योंकि देने से हमें एक आंतरिक खुशी मिलती है और जिसे भी दिया जाता है, उसकी भी आवश्यकता पूरी होती है, उसे भी अच्छा लगता है।
यदि आज मनुष्य अकेला है तो इसका मतलब है कि उसने अपने आस-पड़ोस को अकेलापन दिया है, इसीलिए यही उसे मिल रहा है।
इसे दूर करने का एक ही तरीका है कि वह दूसरों के साथ मिल-जुलकर प्रेम के साथ रहने की आदत डाले और अपने आनंद व खुशी को सबमें बिखेरे, तभी वह अपने इस अकेलेपन को दूर कर सकेगा।