अष्टावक्र दुनिया के प्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने सत्य को जैसा जाना वैसा कह दिया। न वे कवि थे और न ही दार्शनिक।
चाहे वे ब्राह्मणों के शास्त्र हों या श्रमणों के, उन्हें दुनिया के किसी भी शास्त्र में कोई रुचि नहीं थी। उनका मानना था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है।
शास्त्रों में तो सिद्धांत और नियम हैं, सत्य नहीं, ज्ञान नहीं। ज्ञान तो तुम्हारे भीतर है। अष्टावक्र ने जो कहा वह ‘अष्टावक्र गीता’ नाम से प्रसिद्ध है।
अष्टावक्र अद्वैत वेदान्त के महत्वपूर्ण ग्रन्थ अष्टावक्र गीता के ऋषि हैं। अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। ‘अष्टावक्र’ का अर्थ ‘आठ जगह से टेढा’ होता है। कहते हैं कि अष्टावक्र का शरीर आठ स्थानों से टेढ़ा था।
आज हम बात करते हैं ऋषि अष्टावक्र के बारे में, अष्टावक्र गीता के बारे में कि किस प्रकार अष्टावक्र जी का जन्म हुआ, उनके शरीर में 8 विकार कैसे आए? और किस तरह से उन्होंने शास्त्रार्थ में अनेक ऋषियों को पराजित किया।
उनका एक- एक प्रश्न एवं एक – एक उत्तर प्रत्युत्तर बहुत ही गूढ़ एवं सारगर्भित है तथा अपने आप में ही विलक्षण है। इसके साथ हम यह अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारे ऋषि मुनि कितने विद्वान थे, एवं उनके द्वारा जो शास्त्रार्थ होता था, जो तर्क दिए जाते थे वह कितने यथार्थ एवं शाश्वत होते थे। यह पूरी ही कथा बहुत ही सुंदर एवं रोचक है।
महाराजा जनक के गुरु अष्टावक्र जी का संपूर्ण परिचय
अष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। मिथिला के राजा जनक के दरबार मे इनसे बहुत सुंदर दार्शनिक चर्चा और वादविवाद हुआ था।
इनके वाद विवाद के आधार पर अष्टावक्र ने गीता भी लिखी गयी है। इनके जन्म की अद्भुत कथा पुराणों में मिलती है।
कहते हैं, उद्दालक ऋषि के पुत्र का नाम श्वेतकेतु था। उद्दालक ऋषि के एक शिष्य का नाम कहोड़ था। कहोड़ को सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान देने के पश्चात् उद्दालक ऋषि ने उसके साथ अपनी रूपवती एवं गुणवती कन्या सुजाता का विवाह कर दिया।
कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के ही आश्रम में रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पण्डित थे। वे रोज रातभर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे।
उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ से बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, हे पिता ! आप रात भर वेद पढ़ते रहते हैं। लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता।
मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।’’ गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ ? सत्य स्वयं में है।
ऋषि कहोड़ के पास अन्य ऋषि भी बैठे थे। अजन्मे गर्भस्थ बालक की इस तरह की बात सुनकर उन्होंने अत्यन्त अपमानित महसूस किया।
बेटा अभी पैदा भी नहीं हुआ और इस तरह की बात कहे। वेद पण्डित पिता का अहंकार चोट खा गया था। वे क्रोध से आग बबूला हो गये। क्रोध में पिता ने बेटे को अभिशाप दे दिया।
‘‘हे बालक ! तुम गर्भ में रहकर ही मुझसे इस तरह का वक्र वार्तालाप कर रहे हो। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि कि तुम आठ स्थानों से वक्र होकर अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न होगे।’’
कुछ दिनों पश्चात् बालक का जन्म हुआ। शाप के अनुसार वह आठ स्थानों पर से ही वक्र था। आठ जगह से कुबड़े, ऊँट की भाँति इरछे-तिरछे। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा।
अष्टावक्र के जन्म के पूर्व ही पिता ऋषि कहोड़ धन अर्जन की आवश्यकतावश राजा जनक के वहाँ गये जहाँ शास्त्रार्थ का आयोजन था। एक हजार गाएँ राजमहल के द्वार पर खड़ी की गई थीं। उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलों में हीरे-जवाहरात लटका दिये गये थे।
शास्त्रार्थ की शर्त यह थी कि जो विजेता होगा वह इन गायों को हाँक ले जाएगा। तथा विजेता हारने वाले का किसी भी तरह से वध कर सकेगा।
शास्त्रार्थ राज्य के महापण्डित वंदिन से करना होता था। कहते हैं शास्त्रार्थ में ऋषि कहोड़ हार गये। इसलिए विजेता पण्डित वंदिन ने उन्हें पानी में डुबाकर मरवा डाला।
जब काफी दिनों कर ऋषि कहोड़ आश्रम में लौटकर नहीं आये तो उछालक ने उनकी खोज कराई। उनके शिष्य द्वारा ज्ञात हुआ कि कहोड़ को शास्त्रार्थ में पराजित होने के फलस्वरूप वंदिन ने मरवा डाला है।
इस तथ्य को बालक अष्टावक्र से छुपा कर रखा गया था। बालक अष्टावक्र अपने नाना उछालक को ही अपना पिता जानता था।
बारह वर्ष बीत गये। अष्टावक्र तो गर्भ में ही महान पण्डित और ज्ञानी हो चुका था। इसके साथ ही उसने अपने नाना उछालक के आश्रम में बारह वर्ष तक और अध्ययन किया।
तब तो वह ब्रह्मा के समान मेधावी हो चुका था। तभी एक दिन अचानक उसे अपने पिता के बारे में वास्तविक तथ्य की जानकारी हुई। उसने अपनी माता से इस सम्बन्ध में पूछा। तब उसकी माँ ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
बालक अष्टावक्र को बड़ा आघात लगा। उसने उसी समय माँ से कहा ‘‘माँ मुझे आज्ञा दो, मैं अभी जाकर उस दुष्ट को परास्त करता हूँ तब मैं अपने पिता का बदला अच्छी तरह से लूँगा।’’
माँ ने बालक को बहुत मनाया कि यह इसके लिए घातक होगा। वह अभी बालक है। लेकिन अष्टावक्र नहीं माने। वह अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर राजा जनक के नगर की ओर चल पड़ा।
उस समय जनक के वहाँ महायज्ञ हो रहा था। उसमें भाग लेने के लिए देश भर से अनेक पण्डित बुलाए गए थे।
अष्टावक्र सीधे राजप्रसाद की ओर पहुँच गए। लेकिन द्वारपाल ने अन्दर जाने से रोक दिया। उसने कहा कि वृद्ध और चतुर ब्राह्मण ही यज्ञ में जाने के अधिकारी हैं। बालकों को इसके अन्दर जाने का अधिकार नहीं है। अष्टावक्र ने अनेक प्रकार से द्वारपाल से वाद-विवाद किया।
अन्त में उन्होंने कहा ‘‘द्वारपाल ! सिर के बाल सफेद होने से कोई मनुष्य वृद्ध नहीं हो जाता। जो व्यक्ति बालक होकर भी ज्ञानी है उसे ही देवताओं ने स्थविर कहा है।
अगर ऋषियों के द्वारा स्थापित धर्म के अनुसार विचार करो तो अवस्था से, बाल पकने से, धन से या बन्धुओं के अधिक होने से मनुष्य को कोई महत्त्व नहीं मिलता है।
सांगोपांग वेद को जानने वाले विद्वान् ही महत् और वृद्ध हैं। हम तुम्हारे महापण्डित वंदिन को देखने आए हैं। हम उस वंदिन को शास्त्रार्थ में परास्त करके विद्वानों को चकित कर देंगे।
तब तुम्हें हमारी मेधा के बारे में मालूम होगा’’ तब कहीं द्वारपाल ने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया।
अष्टावक्र दरबार में भीतर चले गये। महापण्डित भीतर इकट्ठे थे। पण्डितों ने उसे देखा। उसका आठ भागों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर।
वह चलता तो भी लोगों को देखकर हँसी आ जाती। उनका चलना भी बड़ा हास्यपद था। सारी सभा अष्टावक्र को देखकर हँसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिलाकर हँसा। जनक को विचित्र लगा।
उन्होंने पूछा, और सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ गया कि क्यों हँसते हैं। परंतु बालक तुम क्यों हँसे ?बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र ने कहा
‘‘मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि चमड़े के पारखियों (मूर्खों) की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है। यह सभी सुनकर सन्न रह गये। सभा में सन्नाटा छा गया। महापण्डितों की जमात तिलमिला उठी। सम्राट् जनक ने धैर्य पूर्वक पूछा ‘‘धृष्ट बालक! तुम्हारा मतलब क्या है ?’’
अष्टावक्र जरा भी विचलित नहीं हुआ। उसने जवाब दिया ‘‘बड़ी सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मैं नहीं दिखाई पड़ता। इनको आड़ा-टेढ़ा शरीर दिखाई पड़ता है। ये चमड़ी के पारखी हैं। इसलिए ये चमार हैं। राजन् ! मन्दिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है ? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है ? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ देखो।’’
बालक के मुख से ज्ञानपूर्ण उपहास सुनकर सभी पण्डित हतप्रभ और लज्जित रह गये। उन्हें अपने अहंकार और मूर्खता पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ।
अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा—हे राजन् ! अब मैं आपके उस मेघावी राजपण्डित से मिलना चाहता हूँ, जो पण्डितों के बीच में भय बना हुआ है।
उसी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं यहाँ आया हूँ। मैं अद्वैत ब्रह्मवाद के विषय में उससे वार्ता करूँगा। राजा जनक ने कई तरह से उसे विचलित करने के लिए डराया और समझाया।
शास्त्रार्थ के विचार को त्याग देने के लिए कहा लेकिन अष्टावक्र अडिग रहा और स्वर कठोर करके कहा—‘‘हे राजन् ! बालक कहकर आप मुझे हीन क्यों कहते हैं ?
मेरा आग्रह है कि आप वंदिन को शास्त्रार्थ के लिए बुलाइए फिर आप देखेंगे कि मैं उसको किस प्रकार परास्त करता हूँ।’’ राजा को विश्वास होने लगा कि यह बालक असाधारण है। उन्होंने परीक्षा के लिए कुछ प्रश्न किये।
जनक ने पूछा—हे ब्राह्मणपुत्र ! जो मनुष्य तीस अंग वाले, बारह अंश वाले, चौबीस पर्व वाले, तीन सौ साठ आरे वाले पदार्थ के अर्थ को जानता है वही सबसे बड़ा पण्डित है।’’
अष्टावक्र ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘‘हे राजन् ! चौबीस पर्व छः नाभि, बारह प्रधि और तीन सौ साठ आरे वाला वही शीघ्रगामी कालचक्र आपकी रक्षा करे।’’
राजा जनक ने फिर कहा, ‘‘जो दो वस्तुएँ अश्विनी के समान से संयुक्त और बाज पक्षी के समान टूट पड़ने वाली हैं उनका देवताओं में से कौन देवता गर्भाधान कराता है ? वे वस्तुएँ क्या उत्पन्न करती हैं?’’
अष्टावक्र ने कहा ‘‘ हे राजन् ! ऐसी अशुभ वस्तुओं की आप कल्पना भी न करें। वायु उनका सारथी है, मेघ उनका जन्मदाता है। फिर वे भी मेघ को उत्पन्न करती हैं।’’राजा जनक ने पूछा, ‘‘सोते समय आँख कौन नहीं मूँदता ? जन्म लेकर कौन नहीं हिलता ? हृदय किसके नहीं है ? और कौन सी वस्तु वेग के साथ बढ़ती है ?’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘मछली सोते समय अपनी आँख नहीं मूँदती। अण्डा उत्पन्न होकर नहीं हिलता। पत्थर के हृदय नहीं होता। नदी वेग से बढ़ती है।’’
अष्टावक्र के वचनों को सुनकर राजा जनक प्रसन्न हो गये।
उन्होंने उस ब्राह्मण बालक के हाथ जोड़कर कहा—
‘‘हे ब्राह्मणपुत्र ! आपकी जैसी अवस्था है वैसे आप बालक नहीं हैं। ज्ञान में आप निश्चित ही वृद्ध हैं। मुझे आपकी मेधा पर निश्चित ही विश्वास हो गया है। आप जाइए, इस मण्डप के भीतर महापण्डित वंदिन बैठे हैं। उनके सामने बैठकर शास्त्रार्थ प्रारम्भ कीजिये।’’
अष्टावक्र ने अन्दर पहुँचकर वंदिन को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा।
वंदिन देखकर चौंक पड़ा। बिना उत्तर दिये उसकी नादानी पर हँसा। अष्टावक्र ने कहा—हे महाभिमानी पण्डित वंदिन। कायरों की भाँति चुप क्यों बैठा है। आ मेरे सामने शास्त्रार्थ कर।’’
वंदिन ने अपमानपूर्ण वाणी सुनकर आवेश में प्रश्न प्रारम्भ किये। उसने कहा, ‘‘एक अग्नि कई प्रकार से प्रज्वलित की जाती है। सूर्य एक होकर भी सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। एक वीर इन्द्र सब शत्रुओं का नाश करता है और यमराज सब पितरों के स्वामी हैं।’’
अष्टावक्र ने कहा—‘‘इन्द्र और अग्नि दोनों सखा के रूप में साथ-साथ विचरते हैं। नारद और पर्वत दोनों देवर्षि हैं। अश्विनीकुमार दो हैं। रथ के पहिये दो होते हैं ! और विधाता के विधान के अनुसार स्त्री और पति दो व्यक्ति होते हैं।
फिर वंदिन बोला—‘‘कर्म से तीन प्रकार के जन्म होते हैं। तीन वेद मिलकर वाजपेय यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। अव्वर्यु गण तीन प्रकार के स्नानों की विधि बताते हैं। लोक तीन प्रकार के हैं और लोक तीन प्रकार के हैं और ज्योंति के भी तीन भेद कहे गये हैं।’’
अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘ब्राह्मणों के आश्रम चार प्रकार के हैं। चार वर्ण यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। दिशाएँ चार हैं। वर्ण चार प्रकार के हैं। और गाय के चार पैर होते हैं।’’
वंदिन ने कहा, ‘‘अग्नि पाँच हैं। पंक्ति द्वंद्व में पाँच चरण होते हैं। यज्ञ पाँच प्रकार के हैं। वेद में चैत्नय प्रमाण विकल्प, विपर्यय, निद्र और स्मृति ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ कही गई हैं। और पंचनद देश सर्वत्र पवित्र कहा गया है।’’
फिर अष्टावक्र ने कहा- ‘‘अग्न्याधान की दक्षिणा में छः गोदान की विधि है। ऋतुएँ छः हैं। इन्द्रियाँ छः हैं और सारे वेद में छः साद्यस्क यज्ञ की विधि का वर्णन है।’’
वंदिन बोला,‘‘ ग्राम्य पशु सात प्रकार के होते हैं। वन के पशु भी सात प्रकार के होते हैं। सात छन्दों से एक यज्ञ सम्पन्न होता है। ऋषि सात हैं। पूजनीय सात हैं और वीणा का नाम सप्ततंत्री है।’’
अष्टावक्र ने कहा—‘‘ आठ गोपों का एक शतमान होता है। सिंह को मारने वाले शरभ के आठ पैर होते हैं। देवताओं में आठ वसु हैं। और सभी यज्ञों में आठ पहर का यूप होता है।’’
वंदिन ने उत्तर दिया, ‘‘पितृ यज्ञ में नौ समधेनी होती है। नौ भागों से सृष्टि क्रिया होती है। बृहती छंद के चरण में नौ अक्षर होते हैं। और गणित के अंक नौ हैं।’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘दिशाएँ दस हैं। दस सैकड़ों का एक हजार होता है। स्त्रियों का गर्भ दस महीने में पूर्णावस्था को पहुँचता है। तत्व के उपदेसक दस हैं। अधिकारी दस हैं। और द्वेष करने वाले भी दस हैं।
दिन बोला—‘‘इंद्रियों के विषय ग्यारह प्रकार के होते हैं। ग्यारह विषय ही जीव रूपी पशु के बन्धन स्तम्भ हैं। प्राणियों के विकार ग्यारह प्रकार के हैं। और रुद्र ग्यारह प्रसिद्ध हैं।’’
अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘वर्ष बारह महीने में पूर्ण होता है। जगती द्वंद्व के बारह अक्षर होते हैं। बारह दिनों में प्राकृत यज्ञ पूरा होता है। और आदित्य सर्वत्र विख्यात है।’’
फिर वंदिन बोला—‘‘त्रयोदशी तिथि पुण्यतिथि कहीं गयी है। पृथ्वी के तेरह द्वीप हैं।’’ बस इतना कहकर वंदिन चुप पड़ गया।
उसको आगे बोलते न देख अष्टावक्र ने विषय की पूर्ति करते हुए कहा—आत्मा के भोग तेरह प्रकार के हैं। और बुद्धि आदि तेरह उसकी रुकावटें हैं।बस इतना सुनते ही वंदिन ने अपना सिर झुका लिया।
दूसरे ही क्षण सभा में कोलाहल मच गया। सभी अष्टावक्र की जय-जयकार करने लगे।
आज महात्मा कहोड़ की आत्मा किसी अज्ञात लोक से अपने पुत्र अष्टावक्र को कितना आशीर्वाद दे रही होगी। सभी उपस्थित ब्राह्मण हाथ जोड़कर अष्टावक्र की वंदना करने लगे।
तब अष्टावक्र ने कहा ‘‘हे ब्राह्मणों ! मैंने इस अहंकारी वंदिन को आज परास्त कर दिया है। इस अत्याचारी ने कितने ही पुण्यात्मा ब्राह्मणों को पराजित करके पानी में डुबवा दिया है। इसलिए मैं भी आज्ञा देता हूँ कि इस पराजित वंदिन को उसी तरह पानी में डुबा दिया जाय।’’
अष्टावक्र राजा जनक की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। राजा स्तब्ध बैठे थे। अष्टावक्र क्रुद्ध होने लगा और कहा कि आप डुबाए जाने की आज्ञा क्यों नहीं देते।
इस तरह चुप बैठे रहना मेरा अपमान है।
राजा जनक ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा ‘‘हे ब्राह्मण ! आप साक्षात् ब्रह्मा हैं। इसलिए मैं आपके इस कठोर स्वर को भी सुन रहा हूँ। आपने वंदिन को जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसका मैं समर्थन करता हूँ।’’
वंदिन ने आज्ञा स्वीकार करते हुए कहा इससे मेरा उपकार होगा। मुझे अपने पिता वरुण का दर्शन होगा।
अष्टावक्र की ओर मुड़कर वंदिन ने कहा, ‘‘हे ऋषि अष्टावक्र ! आप महान हैं। सूर्य के समान दीप्यमान आपकी मेधा है। और अग्नि के समान आपका तेज है। मैं चलते समय आपको वरदान देता हूँ कि आप इसी क्षण अपने स्वर्गीय पिता कहोड़ को फिर से जीवित अवस्था में पाएँगे। उनके साथ अन्य ब्राह्मण भी जल से निकल आयेंगे।’’
उसी क्षण अन्य ब्राह्मणों के साथ कहोड़ जल से बाहर निकल आये। उन्होंने राजा जनक की वंदना की।
राजा ने प्रसन्न होकर अनेकों बहुमूल्य उपहार देकर उन्हें विदा किया।
कहोड़, अष्टावक्र और श्वेतकेतु के साथ उद्यालक आश्रम में वापस आये। कहोड़ ने पत्नी सुजाता और अष्टावक्र को समंगा नदी में स्नान करने के लिए कहा। अष्टावक्र ने जाकर उस नदी में स्नान किया। उसी क्षण उसका कुबड़ापन दूर हो गया। वह सुन्दर शरीर वाले युवक की तरह जल से बाहर निकला।
राजा जनक अष्टावक्र के ज्ञान से अत्यन्त प्रभावित हुए थे।
उन्हें अपनी पूर्व धारणा पर पश्चाताप था। अष्टावक्र की बातों ने उन्हें झकझोर दिया था। दूसरे दिन जब सम्राट् घूमने निकले तो उन्हें अष्टावक्र राह में दिख गये।
उतर पड़े घोड़े से और अष्टावक्र को साष्टांग प्रणाम् किया।
उन्होंने निवेदन किया, महापुरुष ! राजमहल में पधारें। कृपया मेरी जिज्ञासाओं का समाधान करें।
राजमहल विशेष अतिथि के सत्कार के लिये सजाया गया। बारह वर्ष के अष्टावक्र को उच्च सिंहासन पर बैठाया गया। उससे जनक ने अपनी जिज्ञासाएँ बतायीं। जनक की जिज्ञासा पर ज्ञान का संवाद प्रवाहित हो चला। जनक अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते। अष्टावक्र उनको समझाते। जनक की जिज्ञासाओं के समाधान में अष्टावक्र अपना ज्ञान उड़ेलते गये। ज्ञान की गंगा बह चली। जनक अष्टावक्र का संवाद 298 सूत्र-श्लोकों में निबद्ध हुआ है।
इस प्रकार अष्टावक्र गीता की रचना हुई। अध्यात्म ज्ञान का अनुपम शास्त्र ग्रंथ रचा गया। इसमें 82 सूत्र जनक द्वरा कहे गये हैं और शेष 216 अष्टावक्र के मुख से प्रस्फुटित हुए हैं।
यह ग्रंथ अष्टावक्र संहिता के नाम से भी जाना जाता है।संवाद का प्रारम्भ जनक की जिज्ञासा से हुआ है। सचेतन पुरुष की अपने को जानने की शाश्वत जिज्ञासा।
वही तीन मूल प्रश्न कि-
पुरुष को ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ?
मुक्ति कैसे होगी ?
वैराग्य कैसे प्राप्त होगा ?
तीन बीज प्रश्न हैं ये।
इन्हीं में से और प्रश्न निकलते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर आकार फिर इन्हीं प्रश्नों में विलीन हो जाते हैं।
राजा जनक द्वारा पूछा गया महत्वपूर्ण प्रश्न
पहला प्रश्न : वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं – हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं। के
श्रीअष्टावक्र उत्तर देते हैं – यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिए।
आप ब्राह्मण आदि सभी जातियों अथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैं। आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ।
धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं।
सदा केवल आत्मा का दर्शन करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति भोजन कराने पर या पीड़ित करने पर न प्रसन्न होते हैं और न क्रोध ही करते हैं।
इन प्रश्नों के संधान में खोजियों के खोज के अनुभव का ज्ञान अपार भण्डार सृजित हुआ है। अनेकानेक पथ और पंथ बन गये। भारत में अध्यात्म आत्मन्वेषण की परम्परा प्राचीनकाल से सतत सजीव है।
इन प्रश्नों के जो समाधान-उपाय ढूँढ़े गये, उन्हें सामान्यतया तीन मुख्य धाराओं में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात् भक्ति मार्ग, कर्ममार्ग और ज्ञानयोग मार्ग।
भागवत् गीता जो युद्धक्षेत्र-कर्मक्षेत्र में कृष्ण-अर्जुन का संवाद है, जो हिन्दुओं का शीर्ष ग्रन्थ है, में तीनों मार्गों को समन्वित किया गया है।
समन्वयवादी दृष्टिकोण है कृष्ण की गीता का। भक्ति भी, ज्ञान भी, कर्म भी। जिसे जो रुचे चुन ले। इसलिए गीता की सहस्त्रों टीकाएँ हैं, अनेकानेक भाष्य हैं।
सबने अपने-अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन गीता के भाष्य में किया है। अपने दृष्टिकोण की पुष्टि गीता से प्रमाणित की है। इसलिए गीता हिन्दुओं का गौरव ग्रंथ है, सर्वमान्य है।
परन्तु अष्टावक्र गीता एक निराला, अनूठा ग्रंथ है। सत्य का सपाट, सीधा व्यक्तव्य। सत्य जैसा है वैसा ही बताया गया है। शब्दों में कोई लाग-लपेट नहीं है।
इतना सीधा और शुद्धतम व्यक्तव्य कि इसका कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता। इसमें अपने-अपने अर्थ खोजने की गुंजाइश ही नहीं है। जो है, वही है। में मअन्यथा नहीं कहा जा सकता। इसलिए अष्टावक्र गीता के भाष्य नहीं है, विभिन्न व्याख्याएँ नहीं है।
यह अपने आप में ही अनूठा, अनुपम ग्रंथ है।जीवन में एक बार हो सके तो इसे अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
बस अधिक और क्या कहना ।
महाभारत के वन पर्व में अष्टावक्र का वर्णन
महाभारत के वन पर्व में अष्टावक्र की कथा का अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है।
कौरवों के साथ पासा का खेल हारने पर पांचों पांडव राजकुमारों और द्रौपदी को बारह साल के लिए वनवास दिया जाता है।
अपनी तीर्थयात्रा पर, वे ऋषि लोमण से मिलते हैं, और वह पांडव राजकुमारों को महाभारत के वन पर्व के तीन अध्यायों में अष्टावक्र की कथा सुनाते हैं ।
मानव अस्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर अष्टावक्र के ज्ञान का वर्णन महाभारत में किया गया है। उदाहरण के लिए:
धूसर सिर से वृद्ध
नहीं होता, न वर्षों से, न धूसर बालों से, न धन से और न सम्बन्धियों से, न द्रष्टाओं ने व्यवस्था बनाई,
जो हमारे लिए महान है , वही ज्ञानी है ।
महाभारत के वन पर्व में लोमश ऋषि युधिष्ठिर को अष्टावक्र की कथा सुनाते हैं।
अष्टावक्र गीता
हिन्दू धर्म मे श्रीमद भगवत गीता को सबसे पवित्र ग्रंथ माना जाता है। लेकिन कहा जाता है, कि महान विद्वान अष्टावक्र के द्वारा लिखी गयी गीता जिसे महागीता के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
उसकी श्रीमद भगवत गीता से कोई तुलना नही है। महागीता मे लिखे गए हर श्लोक मे बहुत ही महान बाते कम शब्दों मे बताई गयी है इसलिए एक बार अष्टवक्र गीता का अध्ययन जरूर करना चाहिए।
अष्टावक्र गीता प्रस्तावना हिन्दी में
अष्टावक्र गीता ज्ञान योग की सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तकों में से एक है जिसकी प्रशंसा श्री रामकृष्ण परमहंस और श्री रमण महर्षि ने भी की है।
जैसे गीता में श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद है वैसे ही अष्टावक्र गीता के श्रोता श्री जनक और वक्ता श्री अष्टावक्र जी हैं।
गीता में कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों का वर्णन हुआ है पर अष्टावक्र गीता में केवल ज्ञान योग का ही विवेचन हुआ है।
अष्टावक्र के नाना ऋषि उद्दालक का छान्दोग्य उपनिषद् में एक ब्रह्मज्ञानी के रूप में उल्लेख किया गया है।
वेदांत के सबसे महत्त्वपूर्ण महावाक्य तत्त्वमसि का उपदेश इनके नाना उद्दालक के द्वारा इनके मामा श्वेतकेतु को दिया गया है जो अष्टावक्र के समवयस्क हैं, अतः अष्टावक्र उपनिषद् कालीन ऋषि हैं।
वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्डमें अष्टावक्र ऋषि का बड़े आदर से उल्लेख हुआ है।
रावण-वध के पश्चात्, देवराज इंद्र के साथ राजा दशरथ अपने प्रिय पुत्र श्रीराम से मिलने आते हैं, उस समय वे श्रीराम से कहते हैं–“हे महात्मा राम तुम्हारे जैसे सुपुत्र के द्वारा मैं वैसे ही बचा लिया गया हूँ जैसे कि धर्मात्मा कहोड ब्राह्मण अपने पुत्र अष्टावक्र के द्वारा।”
हिन्दू धर्म में अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का ग्रन्थ है जो ऋषिअष्टावक्र और राजा जनक के संवाद के रूप में है।
भगवद्गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के सामान अष्टावक्र गीता अमूल्य ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और समाधिस्थ योगी की दशा का सविस्तार वर्णन है।
इस पुस्तक के बारे में किंवदंती है कि रामकृष्ण परमहंस ने भी यही पुस्तक नरेंद्र को पढ़ने को कहा था।जिसके पश्चात वे उनके शिष्य बने और कालांतर में स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुए।
इस ग्रंथ का प्रारम्भ राजा जनक द्वारा किये गए तीन प्रश्नों से होता है। (१) ज्ञान कैसे प्राप्त होता है? (२) मुक्ति कैसे होगी? और (३) वैराग्य कैसे प्राप्त होगा?
ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं। ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है।
ये सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य हैं। इनमें एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है जो है ज्ञान का मार्ग। ये सूत्र ज्ञानोपलब्धि के, ज्ञानी के अनुभव के सूत्र हैं।
स्वयं को केवल जानना है—ज्ञानदर्शी होना, बस। कोई आडम्बर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस हो जाना वही जो हो।
इसलिए इन सूत्रों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है, मत मतान्तर का कोई झमेला नहीं है; पाण्डित्य और पोंगापंथी की कोई गुंजाइश नहीं है।
अष्टावक्र गीता में २० अध्याय हैं–
1.साक्षी
2.आश्चर्यम्
3.आत्माद्वैत
4.सर्वमात्म
5.लय
6.प्रकृतेः परः
7.शान्त
8.मोक्ष
9.निर्वाण
10.वैराग्य
11.चिद्रूप
12.स्वभाव
13.यथासुखम्
14.ईश्वर
15.तत्त्वम्
16.स्वास्थ्य
17.कैवल्य
18.जीवन्मुक्ति
19.स्वमहिमा
20.अकिंचनभाव
अष्टावक्र जी ने अपने आचरण से जो गीता-ज्ञान दिया है, उसका सार सन्देश यह है कि शरीर नाशवान है तथा शरीर के अंदर विद्यमान चैतन्य ऊर्जा अर्थात आत्मा अमर है।यही बात मन-बुद्धि से समझ लेना ही ज्ञान प्राप्ति या आत्मबोध है।
आत्मबोध की स्थिति मे जगत या संंसार मे आकर्षण समाप्त हो जाता है।
इसे माया से निवृत्ति कहा जाता है।जीव और परमात्मा के बीच से माया समाप्त होने पर आनंद स्वरूप परमात्मा की अनुभूति होती है।
अन्त मे गीता-सार यह है कि शरीर की शक्ति-सौंदर्य का गुमान न कर ,परमात्म ज्ञान के लिए तन,मन,चित्त को लगाना चाहिए।यही सत्य है, शेष सब मिथ्या है।
अष्टावक्र के विवाह की रोचक कथा
अष्टावक्र का विवाह
एक बार महर्षि, अष्टावक्र महर्षि वदान्य के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने की इच्छा प्रकट की।
तब महर्षि वदान्य ने मुस्कराते हुए अष्टावक्र से कहा, ‘‘पुत्र! मैं अवश्य तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा और तुम्हारे साथ ही अपनी कन्या का पाणिग्रहण करूँगा; लेकिन इसके लिए तुम्हें मेरी एक आज्ञा माननी पड़ेगी।’’
अष्टावक्र ने कौतूहल से पूछा, ‘‘वह क्या महर्षि?’’
महर्षि वदान्य ने कहा, ‘‘तुम्हें उत्तर दिशा में जाना होगा। अलकापुरी और हिमालय पर्वत के आगे जाने पर तुम्हें कैलाश पर्वत मिलेगा।
वहाँ महादेव जी अनेक सिद्ध चारण, भूत-पिशाच गणों के साथ विचरण करते हैं। उस स्थान के पूर्व और उत्तर की ओर छहों ऋतुएँ, काल, रात्रि, देवता और मनुष्य आदि महादेव जी की उपासना किया करते हैं।
इस स्थान को लाँघने के बाद तुम्हें मेघ के समान एक नीला वन मिलेगा। उस स्थान पर एक वृद्धा तपस्विनी रहती है। तुम उसके दर्शन करके लौट आना। मैं उसी क्षण अपनी पुत्री का विवाह तुम्हारे साथ कर दूँगा।’’
अष्टावक्र ने महर्षि वदान्य की बात स्वीकार कर ली और यात्रा के लिए चल पड़े।
पहले तो वे हिमालय पर्वत पर पहुँचे और वहाँ धर्मदायिनी बाहुदा नदी के पवित्र जल में स्नान और देवताओं का तर्पण करके उसी पवित्र स्थान पर कुशासन बिछाकर विश्राम करने लगे।
वहीं रात भर सुखपूर्वक सोये। वहीं प्रातःकाल अग्नि प्रज्वलित करके उन्होंने यज्ञ किया। वहीं पास में एक तालाब था जहाँ शिव-पार्वती की मूर्ति थी। अष्टावक्र ने मूर्ति के दर्शन किये और फिर अपनी यात्रा पर चल दिये।
चलते-चलते वे कुबेर की नगरी में पहुँचे। उसी समय मणिभद्र के पुत्र रक्षक राक्षसगण के साथ उधर आये। ऋषि ने उन्हें देखकर कहा, ‘‘हे भद्र! आप जाकर कुबेर को मेरे आने की सूचना दे दें।’’
मणिभद्र ने कहा, ‘‘महर्षि, आपके आने का समाचार तो भगवान कुबेर को पहले ही प्राप्त हो चुका है। वे स्वयं आपका समुचित सत्कार करने के लिए आ रहे हैं।’’
कुबेर ने आकर महर्षि अष्टावक्र का स्वागत किया और उन्हें अपने भवन में ले गये।तपस्वी अष्टावक्र एक वर्ष तक कुबेर के यहाँ रुके रहे।
फिर उन्हें महर्षि वदान्य के आज्ञा की याद आयी और उन्होंने कुबेर से चलने की आज्ञा माँगी। कुबेर ने और ठहरने का ऋषि से काफी आग्रह किया लेकिन अष्टावक्र अपनी यात्रा पर चल पड़े।
वे कैलास, मन्दर और सुमेरु आदि अनेक पर्वतों को लाँघकर किरातरूपी महादेव के स्थान की प्रदक्षिणा करके उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। कुछ ही आगे जाने पर एक सुन्दर वन उन्हें दिखाई दिया।
उस वन में एक दिव्य आश्रम था। उस आश्रम के पास अनेक रत्नों से विभूषित पर्वत, सुन्दर तालाब और तरह-तरह के सुन्दर पदार्थ थे।
देखने में वह कुबेर की नगरी से भी कहीं अधिक शोभायमान दीख पड़ता था। वहीं अनेक प्रकार के सोने और मणियों के पर्वत दिखाई देते थे जिन पर सोने के विमान रखे हुए थे।
मन्दार के फूलों से अलंकृत मन्दाकिनी कलकल निनाद करती हुई बह रही थी। चारों ओर मणियों की जगमगाहट से उस दिव्य वन की कल्पना श्री से ऊँची उठ जाती थी लेकिन उसकी समता कहीं भी मस्तिष्क खोज नहीं पाता था।
अष्टावक्र यह देखकर आश्चर्यचकित-से खड़े थे। वे सोच रहे थे कि यहीं ठहर कर आनन्द से विचरण करना चाहिए। अब वे अपने लिए एक उपयुक्त स्थान ढूँढ़ने लगे।
और बढ़कर उन्होंने देखा कि यह तो एक पूरा नगर है। इस नगर के द्वार पर जाकर उन्होंने पुकारकर कहा, ‘‘मैं अतिथि हूँ।’’
उसी समय द्वार से सात परम सुन्दरी कन्याएँ अतिथि के स्वागत के लिए निकल आयीं।
उन सुन्दरियों ने कहा, ‘‘आइए भगवन्! पधारिए। हम आपका स्वागत करती हैं।’’
महर्षि एक भव्य प्रासाद के अन्दर चले गये। वहाँ उन्हें सामने ही एक वृद्धा बैठी मिली। वह स्वच्छ वस्त्र पहने थी और उसके शरीर पर अनेक तरह के आभूषण थे।
महर्षि को देखते ही वह वृद्धा उठकर खड़ी हो गयी और उनका समुचित स्वागत करके बैठ गयी। महर्षि भी वहीं पास में बैठ गये।
उन्होंने उन सुन्दरी कन्याओं की तरफ बढ़कर कहा, ‘‘हे कन्याओ! तुममें से जो बुद्धिमती और धैर्यवती हो वही यहाँ रहे, बाकी सब यहाँ से चली जाएँ।’’
एक को छोड़कर सभी कन्याएँ वहाँ से चली गयीं। वृद्धा वहीं बैठी रही। रात होने पर महर्षि के लिए एक स्वस्थ शैया की व्यवस्था कर दी गयी।
जब महर्षि सोने लगे तो उन्होंने उस वृद्धा से भी जाकर अपनी शैया पर सोने के लिए कहा। उनके कहने पर वृद्धा अपनी शैया पर जाकर लेट गयी।
रात्रि का एक ही प्रहर बीता होगा कि वृद्धा जाड़े का बहाना करती हुई काँपती हुई महर्षि की शैया पर आ लेटी और कामातुर होकर अष्टावक्र के शरीर का आलिंगन करने लगी।
यह देखकर महर्षि काष्ठ के समान कठोर और निर्विकार पड़े रहे।
अष्टावक्र को इस तरह अविचलित देखकर वृद्धा ने कहा, ‘‘हे भगवन्! पुरुष के शरीर का स्पर्श करने मात्र से ही स्त्री के अंग-अंग में कामोद्दीपन हो उठता है।
स्त्री उस समय किसी तरह अपने मन को अपने वश में नहीं रख सकती। यही उसका स्वभाव है। इसलिए आपके शरीर से स्पर्श के कारण मैं काम-पीड़ा में जल रही हूँ। अब आप मेरे साथ रमण करके मेरी इच्छा को पूर्ण कीजिए।
‘‘हे ऋषि! मैं जीवन भर आपकी कृतज्ञ रहूँगी। यही आपकी तपस्या का अभीष्ट फल है। मेरी यह सारी सम्पत्ति आपकी ही है। आप यहीं मेरे पास रहिए। देखिए, हम यहाँ लौकिक और अलौकिक अनेक प्रकार के सुख भोगते हुए रहेंगे।
‘‘हे नाथ! अब इस तरह मेरा तिरस्कार न कीजिए क्योंकि इससे मेरी आत्मा को बड़ा कष्ट पहुँचेगा। पुरुष-संसर्ग से बढ़कर स्त्रियों के लिए श्रेष्ठ सुख नहीं है।
काम से पीड़ित होकर स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी हो जाती हैं। उस समय तपी हुई बालू पर या कठोर शीत में विचरण करने से भी उनको तनिक भी कष्ट नहीं होता। आप किसी भी तरह मेरी अतृप्त कामना को तृप्त कीजिए।’’
वृद्धा की प्रार्थना सुनकर अष्टावक्र बोले, ‘‘हे देवी! मैं एक तपस्वी हूँ और बचपन से अभी तक पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी रहा हूँ।
किसी भी स्त्री का शरीर मैंने स्पर्श नहीं किया। धर्मशास्त्र में व्यभिचार की बड़ी निन्दा की गयी है, इसलिए इस तरह का पाप नहीं कर सकता। मेरा
उद्देश्य तो विधिपूर्वक विवाह करके पुत्र उत्पन्न करना है और उसी हेतु मैं अपनी स्त्री के साथ सम्भोग करूँगा। इसके अतिरिक्त परायी स्त्री से विषय-भोग करना पाप है।
‘‘हे शुभे! तुम उसकी ओर मुझे प्रवृत्त न करो।’’
यह सुनकर वृद्धा ने कहा, ‘‘हे महर्षि! यह तो आप जानते ही हैं कि स्त्रियाँ स्वभाव से ही कामातुर होती हैं। उनको पुरुष का संसर्ग देवताओं की आराधना से भी कहीं अधिक प्रिय और सुखकर होता है।
तुम पतिव्रता की बातें करते हो तो हे स्वामी! सच तो यह है कि हजारों स्त्रियों में कहीं एक पतिव्रता स्त्री दिखाई पड़ती है और सती तो लाखों में एक होती है।
जब स्त्रियों का कामोन्माद चढ़ जाता है तो वे इसके सामने पिता, माता, भाई, पति, पुत्र आदि किसी की भी परवाह नहीं करती हैं और अपनी काम-वासना की तृप्ति के उपाय सोचा करती हैं। यहाँ तक कि कुछ भी करके वे अपनी इच्छा पूरी करके ही मानती हैं।
‘‘हे भगवन्! काम के वश होकर ही स्त्री कुलटा हो जाती है।’’
वृद्धा की बात सुनकर अष्टावक्र मन ही मन धिक्कार रहे थे लेकिन फिर भी अपने को दृढ़ रखकर उन्होंने अविचलित भाव से उत्तर दिया,
‘‘हे देवी! मनुष्य जिस विषय का स्वाद जानता है उसी के लिए उसकी तीव्र इच्छा होती है। मैं तो विषय-भोग जानता ही नहीं, फिर मैं किसी भी हालत में तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं कर सकता।”
वृद्धा ने कहा, ‘‘यह न कहें नाथ! आप यहाँ कुछ दिन ठहरिए, तब अपने आप ही आपको सम्भोग-सुख का स्वाद मिल जाएगा। तब मैं और आप पूर्ण सुख के साथ रहा करेंगे।’’
इस पर अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे देवी! जोतुम कह रही हो वह सम्भव नहीं है।’’
यह कहने के पश्चात् महर्षि अष्टावक्र सोचने लगे कि यह वृद्धा इस तरह काम से पीड़ित क्यों है। तभी उनके हृदय में संशय जागा कि हो सकता है कि यह कुछ समय पूर्व इस प्रासाद की अधिष्ठात्री देवी कोई युवती हो और किसी शाप के कारण इस तरह कुरूप वृद्धा हो गयी हो। यह संशय पैदा होते ही उन्होंने उसकी कुरूपता और वृद्धावस्था का कारण पूछना चाहा लेकिन उचित न समझ नहीं पूछा।
एक दिन बीत गया। सन्ध्या होने पर वृद्धा ने आकर कहा, ‘‘हे महर्षि! वह देखिए, सूर्य अस्त हो रहा है। अब आपकी क्या आज्ञा है?’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे शुभे! स्नान करके मैं सन्ध्यावन्दन करूँगा।’’
वृद्धा ने जल का प्रबन्ध किया।
महर्षि स्नान कर चुके। इसके बाद वृद्धा ने पूछा, ‘‘हे भगवान्! अब मैं क्या करूँ?’’
अष्टावक्र कुछ भी उत्तर नहीं दे पाये और चिन्तामग्न होकर सोचने लगे। इसी बीच उत्तर की प्रतीक्षा न करती हुई वृद्धा उठी और अन्दर से एक थाल में सजाकर स्वादिष्ट भोजन ले आयी।
महर्षि भोजन करने लगे। फिर भोजन करते-करते उन्हें पूरा दिन बीत गया। रात्रि आयी। वृद्धा ने अलग-अलग पलंग बिछवा दिये। महर्षि जाकर अपने पलंग पर लेट गये और कुछ देर बाद उनको नींद आ गयी। आधी रात्रि के समय वृद्धा फिर सम्भोग की इच्छा रखती हुई उनके पलंग पर आ गयी।
महर्षि सहसा जागकर कहने लगे, ‘‘हे देवी! तुम व्यर्थ प्रयत्न न करो। परस्त्री के साथ सम्भोग के लिए मेरा हृदय गवाही नहीं देता। यह कार्य मुझे धर्म-विरुद्ध लगता है, इसलिए इसे त्याज्य समझकर मैं इसमें कदापि प्रवृत्त नहीं होऊँगा।’’
इस पर वृद्धा कहने लगी, ‘‘हे भगवन्! आपकी शंका निर्मूल है। मैं स्वाधीन स्त्री हूँ। माता-पिता या पति किसी का भी मेरे ऊपर अधिकार नहीं है। मेरे साथ सहवास करने से आपको परस्त्री-गमन का दोष क्यों लगेगा?’’
अष्टावक्र वृद्धा के तर्क पर पूर्ण दृढ़ता के साथ कहा, ‘‘हे देवी! तुम्हारा यह कहना कि तुम स्वाधीन हो, निराधार है। प्रजापति ने कहा है कि स्त्री जाति कभी स्वाधीन नहीं हो सकती।’’
वृद्धा ने कौतूहलवश पूछा, ‘‘क्यों?’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘हे शुभे! प्रजापति ने कहा है कि लोक में कोई भी स्त्री स्वाधीन नहीं है। बाल्यावस्था में पिता, यौवनावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र स्त्रियों की रक्षा करते हैं, इसलिए वे इन्हीं के अधीन रहती हैं। फिर बताओ, तुम किस प्रकार स्वतन्त्र हो?’’
अष्टावक्र के तर्क के साथ किसी तरह न उलझते हुए वृद्धा ने दूसरा पैंतरा लेकर कहना प्रारम्भ किया, ‘‘हे देव! मैं इस समय काम से पीड़ित हूँ और आपके साथ सम्भोग की कामना करती हूँ।’’
वृद्धा के इतना कह देने पर भी अष्टावक्र अडिग रहे और उसी दृढ़ता के साथ कहने लगे, ‘‘हे शुभे! साधारणतया मनुष्य काम, क्रोध आदि दोषों के वशीभूत होकर इस संसार में कितने ही जघन्य पाप करता है लेकिन मैंने कठोर संयम से अपने मन को अपने वश में कर लिया है।
तुम किसी भी तरह उसको विचलित नहीं कर पाओगी, इसलिए तुम्हारा इस तरह आग्रह करना व्यर्थ है। जाओ, अपने पलंग पर चली जाओ।’’
अब तो वृद्धा को गहरा धक्का लगा लेकिन फिर भी उसने धैर्य नहीं छोड़ा और फिर वह आशा लेकर अष्टावक्र से बोली, ‘‘हे महर्षि! यदि आप मुझे परस्त्री समझते हैं और इसी कारण पाप समझकर सम्भोग करते हुए डरते हैं तो मुझे अपनी स्त्री बना लीजिए। मैं इसके लिए सहर्ष तैयार हूँ। आप विश्वास रखिए, मैं अभी तक कुँवारी हूँ। इससे आपको किसी तरह का पाप नहीं लगेगा और मेरी काम-पीड़ा भी शान्त हो जाएगी।’’
कुछ ही क्षणों बाद जब उन्होंने कुछ कहने के लिए अपना मुँह ऊपर उठाया और उनकी दृष्टि उस स्त्री पर पड़ी तो महान आश्चर्य के कारण वे सहसा हिल उठे। वह वृद्धा अब एक सोलह वर्ष की अत्यन्त सुन्दरी कन्या का रूप धारण करके सामने बैठी मुस्करा रही थी।
अष्टावक्र ने अधीर होकर पूछा, ‘‘हे देवी! यह तुम्हारा कैसा रूप? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है कि तुम कौन हो। मैं तुम्हारा परिचय प्राप्त करने के लिए लालायित हूँ। बताओ कल्याणी! तुम कौन हो?’’
उस कन्या ने मुस्कराते हुए ही कहा, ‘‘हे महर्षि अष्टावक्र! स्वर्ग, मृत्यु आदि सभी लोकों के स्त्री-पुरुषों में विषय वासना पायी जाती है। मैं परस्त्री-गमन के लिए आपके मन को विचलित करके आपकी परीक्षा ले रही थी लेकिन अपने कठोर संयम के कारण आपने धर्म की मर्यादा को नहीं छोड़ा। इसलिए मेरा विश्वास है कि जीवन में आप कभी किसी प्रकार का कष्ट नहीं भोगेंगे।
‘‘मैं उत्तर दिशा हूँ। स्त्रियों के चपल स्वभाव का प्रदर्शन करने के लिए ही मैंने यह वृद्धा का रूप रखा था।
इससे आप यह जान लीजिए भगवन् कि इस संसार में वृद्धावस्था को प्राप्त स्त्री-पुरुषों को भी काम सताता है।
मुझे प्रसन्नता है कि आपने स्त्री की कितनी भी चंचलता देखकर अपने ब्रह्मचर्य व्रत को नहीं छोड़ा, इसलिए ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवता आप पर अत्यन्त प्रसन्न हैं।
जिस काम के लिए महात्मा वदान्य ने आपको यहाँ भेजा है वह अवश्य पूरा होगा। महर्षि की कन्या से आपका अवश्य विवाह होगा और वह कन्या पुत्रवती भी होगी।’’
अष्टावक्र यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उस देवी से चलने की आज्ञा माँगने लगे। उत्तर दिशा ने आदर के साथ अष्टावक्र को विदा कर दिया।
जब वे लौटकर महर्षि वदान्य के पास आये तो उन्होंने उनसे उनकी यात्रा का सारा वृत्तान्त पूछा और फिर अपने मन में पूर्णतः सन्तुष्ट होते हुए अपनी कन्या का पाणिग्रहण उनके साथ कर दिया।