उपनिषद् की उक्ति है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।‘
अर्थात- उठो, जागो और तब तक आगे बढ़ो, जब तक अपने लक्ष्य तक न पहुँच जाओ। शास्त्र, चिंतक, अवतार, गुरू, ऋषि-सभी मनुष्य को यह आदेश तदेते हैं कि जीवन का लक्ष्य प्राप्त करो, उत्थान करो, उत्कर्ष को प्राप्त होओ।
मानवीय जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति करना हरेक मनुष्य का धर्म है। परमपिता का यह उद्घोष ही प्रत्येक के अंतस्तल में निंरतर गुंजायमान हो रहा है।
ऐसा नहीं है कि हम इस उद्घोष से अपरिचित हैं। हर जीव के अंतर्जगत को, उसकी अंतश्चेतना को प्रभु की यह पुकार निरंतर कचोटती है।
सब कुछ मिल जाने के बाद भी अंदर से कचोटती रिक्तता-इसी प्रेरणा के कारण है। जीवन में मिलने वाले हर दुख, घटने वाली हर गबलती के बाद हमारी अंतरात्मा हमें पुकार-पुकारकर यही कहती है कि उठो, जागो, आगे बढ़ो! रूको नहीं, ठहरो नहीं। कदमों को थमने मत दो।
अपने उत्थान के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहो। हमारे अंदर उपस्थित आत्मदेव, उसकी दिन की प्रतीक्षा में निरत प्रतीत होते हैं- जब अंधकार की इस रात्रि का अंत होगा एवं नवप्रकाश से सुसज्जित उत्थान के मार्ग के हम अनुगामी बनेंगे।
फूल को खिलने के लिए नहीं कहना पड़ता, नदी को बहने के लिए नहीं कहना पड़ता, बादल को बरसने के लिए नहीं कहना पड़ता, आश्चर्य! मनुष्य को मानवोचित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कहना पड़ता है, याद दिलाना पड़ता है। समय रहते हम भी चेंते।
याद करें कि हम किस उद्देश्य के साथ धरती पर आए थे? क्यों हम अपने जीवन-पथ से भटककर बैठे हैं? क्यों हम सहज स्वाभाविक क्रम में अपने जीवनोद्देश्य की ओर नहीं बढ़ पाते?
अपनी संभावनाओं को हमें भूल नहीं जाना है। प्रकृति के कण-कण से यह शिक्षा लेनी है कि जीवन में पूर्णता कैसे प्राप्त करें? अपने जीवन को विकसित कैसे करें?
जो इस समर्पण के भाव से स्वयं को विराट ब्रह्या को समर्पित कर देता है, वो अपने जीवनलक्ष्य को पा लेता है। उसे पा लेने तक रूकना नहीं है, ठहरना नहीं है-बस, आगे और आगे बढ़ते ही जाना है।
अद्भिर्गात्राणि शुद्धयन्ति मन: सत्येन शुद्धयन्ति |
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धि ज्ञानेन शुद्धयति || – मनुस्मृति
अर्थात जल से शरीर के अंग शुद्ध होते हैं, सत्य अपनाने से मन शुद्ध होता है, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होती है और ज्ञान से बुद्धि शुद्ध होती है।