पुरी जगन्नाथ मन्दिर (Puri Jagannath temple)

Jai Jaggannath

भगवान जगन्नाथ, ऐसा कहा जाता है, परम ब्रम्हा का एक अवतार या पृथ्वी पर सभी शक्तियों की पूर्ण एकाग्रता है। ब्रम्हा पृथ्वी पर परम रहस्यवादी हैं।

हिंदू धर्म या वेदांतवाद, जैसा कि स्वामी विवेकानंद इसे कहते थे, शायद एकमात्र ऐसा धर्म है जहां सीधे तौर पर ब्रम्हा की पूजा की जाती है।

बद्रीनाथ धाम को जहां जगत के पालनहार भगवान विष्णु का आंठवां बैकुंठ माना जाता है,

वहीं जगन्नाथ धाम को भी धरती के बैकुंठ स्वरूप माना गया है। ओडिशा के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित यह विश्व प्रसिद्ध मंदिर भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है|

Jagannath Temple
Jagannath Temple

यह वैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मन्दिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। पुरी का ये पौराणिक मंदिर अपने आप में काफी अलौकिक है.

जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती।

माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं।

पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ।

पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।

पुरी विश्व प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर और सबसे लंबे गोल्डन बीच के लिए प्रसिद्ध है। यह भारत में चार धामों यानी पुरी, द्वारिका, बद्रीनाथ और रामेश्वर में से एक धाम (पवित्र स्थान का सबसे पवित्र स्थान) है।

पुरी (पुरुषोत्तम क्षेत्र) में भगवान जगन्नाथ, देवी सुभद्रा और बड़े भाई बलभद्र की पूजा की जा जाती है। देवताओं को बेजवेल्ड पेडस्टल (रत्ना सिंहासन) पर विराजमान किया जाता है।

श्री जगन्नाथ पुरी मंदिर भारतीय राज्य ओडिशा के सबसे प्रभावशाली स्मारकों में से एक है, जिसका निर्माण गंगा राजवंश के एक प्रसिद्ध राजा अनंत वर्मन चोदगंगा देव ने 12 वीं शताब्दी में समुद्र के किनारे पुरी में किया था।

जगन्नाथ का मुख्य मंदिर कलिंग वास्तुकला में निर्मित एक प्रभावशाली और अद्भुत संरचना है, जिसकी ऊंचाई 65 मीटर है और इसे एक ऊंचे मंच पर रखा गया है।

पुरी में वर्ष के दौरान श्री जगन्नाथ के कई त्यौहार मनाए जाते हैं। जो स्नान यात्रा, नेत्रोत्सव, रथ यात्रा (कार उत्सव), सायन एकादशी, चितलगी अमावस्या, श्रीकृष्ण जन्म, दशहरा आदि हैं।

सबसे महत्वपूर्ण त्योहार विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा और बहुदा यात्रा है। इस त्योहार को देखने के लिए भगवान जगन्नाथ रथयात्रा को देखने के लिए भारी भीड़ जमा होती है

इसमें मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं।

श्री जगन्नथपुरी पहले नील माघव के नाम से पुजे जाते थे। जो भील सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे। अब से लगभग हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार विष्वासु नील पर्वत की गुफा के अन्दर नील माघव जी की पुजा किया करते थे ।

मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है।

यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और सन्त रामानन्द से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पन्थ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी

जगन्नाथपुरी की वार्षिक रथ यात्रा

कहा जाता है कि भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने एक दिन ने उनसे द्वारका के दर्शन करने की इच्छा जताई।

तभी भगवान जगन्नाथ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और सुभद्रा की इच्‍छा पूर्ति के लिए उन्‍हें रथ में बिठाया और पूरे नगर का भ्रमण करवाया।

बस इसके बाद से ही जगन्नाथपुरी की रथयात्रा की शुरुआत हुई थी। इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव पूरे विश्व में प्रसिद्ध है।

मध्य काल से ही यह उत्सव बेहद हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता रहा है। इसमें मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों की ही तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथ यात्रा निकाली जाती है।

जगन्नाथपुरी वैष्णव परंपराओं और संत रामानंद से जुड़ा है। इसका विशेष महत्व गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के लिए है।

पुरी जगन्नाथ मन्दिर रथ यात्रा का महत्व

माना जाता है कि इस दिन स्वयं भगवान अपने पूरे नगर में भ्रमण करते हैं। वह लोगों के बीच स्वयं आते हैं और उनके सुख-दुख में सहभागी बनते हैं।

मान्यता है कि जो भक्त रथयात्रा के दौरान भगवान के दर्शन करते हैं और रास्ते की धूल कीचड़ में लेट-लेट कर यात्रा पूरी करते हैं उन्हें श्री विष्णु के उत्तम धाम की प्राप्ति होती है।

पुरी जगन्नाथ मन्दिर इतिहास

औमंदिर का निर्माण गंगा वंश के राजा अनंतवर्मन चोदगंगा ने 12 वीं शताब्दी ईस्वी में किया था, जैसा कि उनके वंशज नरसिम्हदेव द्वितीय के केंदुपट्टन ताम्रपत्र शिलालेख से पता चलता है किअनंतवर्मन मूल रूप से एक शैव थे , और 1112 ईस्वी में उत्कल क्षेत्र (जिसमें मंदिर स्थित है) पर विजय प्राप्त करने के कुछ समय बाद वे वैष्णव बन गए ।

1134-1135 ई. के एक शिलालेख में मंदिर के लिए उनके दान को दर्ज किया गया है। अत: मंदिर निर्माण का कार्य 1112 ईस्वी के कुछ समय बाद शुरू हुआ होगा।

मंदिर के इतिहास में एक कहानी के अनुसार, इसकी स्थापना अनंगभीम-देव  द्वारा की गई थी विभिन्न कालक्रम में निर्माण के वर्ष का उल्लेख 1196, 1197, 1205, 1216 या 1226 के रूप में किया गया है।

इससे पता चलता है कि मंदिर का निर्माण पूरा हो गया था या कि अनंतवर्मन के पुत्र अनंगभीम के शासनकाल के दौरान मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया था।

गंगा वंश और सूर्यवंशी (गजपति) वंश सहित बाद के राजाओं के शासनकाल के दौरान मंदिर परिसर को और विकसित किया गया था।

पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं।

मन्दिर का उद्गम

मंदिर के शिखर पर स्थित चक्र और ध्वज। चक्र सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ इस मंदिर के भीतर हैं, इस का प्रतीक है।

गंग वंश के हाल ही में अन्वेषित ताम्र पत्रों से यह ज्ञात हुआ है, कि वर्तमान मन्दिर के निर्माण कार्य को कलिंग राजा अनन्तवर्मन चोडगंग देव ने आरम्भ कराया था।

मन्दिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल (१०७८ -११४८) में बने थे। फिर सन ११९७ में जाकर ओडिआ शासक अनंग भीम देव ने इस मन्दिर को वर्तमान रूप दिया था।

मन्दिर में जगन्नाथ अर्चना सन १५५८ तक होती रही। इस वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बन्द करा दी, तथा विग्रहो को गुप्त मे चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे रखागया। बाद में, रामचन्द्र देब के खुर्दा में स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने पर, मन्दिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई

पुरी जगन्नाथ मन्दिर का ढांचा

मंदिर का वृहत क्षेत्र 400,000 वर्ग फुट (37,000 मी2) में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है।

कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है।

मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं।

यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फीट (65 मी॰) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं।

यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेरे हुए अन्य छोटे पहाड़ियों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है।

मुख्य मढ़ी (भवन) एक 20 फीट (6.1 मी॰) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।

देवताओं

जगन्नाथ , बलभद्र और सुभद्रा मंदिर में पूजे जाने वाले देवताओं की तिकड़ी हैं। मंदिर के आंतरिक गर्भगृह में इन तीन देवताओं की मूर्तियाँ हैं, जिन्हें पवित्र नीम के लट्ठों से उकेरा गया है, जिन्हें दारू के नाम से जाना जाता है, जो कि रत्नाबेदी या रत्नाबेदी पर बैठे हैं , साथ ही सुदर्शन चक्र , मदनमोहन , श्रीदेवी और विश्वधात्री की मूर्तियाँ भी हैं ।

देवताओं को ऋतु के अनुसार विभिन्न वस्त्रों और रत्नों से अलंकृत किया जाता है। इन देवताओं की पूजा मंदिर के निर्माण से पहले की है और हो सकता है कि इसकी उत्पत्ति एक प्राचीन आदिवासी मंदिर में हुई हो।

भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा, इस मंदिर के मुख्य देव हैं। इनकी मूर्तियां, एक रत्न मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित हैं।

इतिहास अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण से कहीं पहले से की जाती रही है। सम्भव है, कि यह प्राचीन जनजातियों द्वारा भी पूजित रही हो।

उत्सव

यहां विस्तृत दैनिक पूजा-अर्चनाएं होती हैं। यहां कई वार्षिक त्यौहार भी आयोजित होते हैं, जिनमें सहस्रों लोग भाग लेते हैं। इनमें सर्वाधिक महत्व का त्यौहार है, रथ यात्रा, जो आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को, तदनुसार लगभग जून या जुलाई माह में आयोजित होता है।

इस उत्सव में तीनों मूर्तियों को अति भव्य और विशाल रथों में सुसज्जित होकर, यात्रा पर निकालते हैं। यह यात्रा ५ किलोमीटर लम्बी होती है। इसको लाखो लोग भाग लेते है।

वर्तमान मंदिर

थेन्नणगुर का पाण्डुरंग मंदिर, पुरी के जगन्नाथ मंदिर के समान ही बनाया गया है

आधुनिक काल में, यह मंदिर काफी व्यस्त और सामाजिक एवं धार्मिक आयोजनों और प्रकार्यों में व्यस्त है। जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है।

यह रसोई भारत की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए ५०० रसोईए तथा उनके ३०० सहयोगी काम करते हैं।

इस मंदिर में प्रविष्टि प्रतिबंधित है। इसमें गैर-हिन्दू लोगों का प्रवेश सर्वथा वर्जित है।पर्यटकों की प्रविष्टि भी वर्जित है। वे मंदिर के अहाते और अन्य आयोजनों का दृश्य, निकटवर्ती रघुनंदन पुस्तकालय की ऊंची छत से अवलोकन कर सकते हैं।

इसके कई प्रमाण हैं, कि यह प्रतिबंध, कई विदेशियों द्वारा मंदिर और निकटवर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ और श्रेणिगत हमलों के कारण लगाये गये हैं।

बौद्ध एवं जैन लोग मंदिर प्रांगण में आ सकते हैं, बशर्ते कि वे अपनी भारतीय वंशावली का प्रमाण, मूल प्रमाण दे पायें। मंदिर ने धीरे-धीरे, गैर-भारतीय मूल के लेकिन हिन्दू लोगों का प्रवेश क्षेत्र में स्वीकार करना आरम्भ किया है।

भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के हाथ, पैर और कान क्यों नहीं हैं!

सुनी जाने वाली कहानियों के अनुसार कवि तुलसीदास एक बार भगवान राम की खोज में पुरी गए थे, जिसे वे रघुनाथ कहते थे। भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने के बाद, वह बेहद निराश हुए। वह इतना दुखी हुआ कि वहां से चले गए।

तुलसीदास तब मालतीपथपुर नामक गाँव में पहुँचे। वहां वह एक पेड़ के नीचे बैठ गया और रोने लगा। पास से गुजर रहा एक लड़का उसके पास आया और उससे उसकी पीड़ा का कारण पूछा।

कवि ने लड़के को समझाया कि उसका रघुनाथ, जिसे वह बहुत प्यार करता था, वास्तव में उसे पुरी से दूर कर दिया था और वह मंदिर में जो कुछ भी देखता था उसमें उसका कोई अस्तित्व नहीं था।

लड़के ने तब तुलसीदास को समझाया कि रघुनाथ परम ब्रम्हा की एक शाखा के रूप में हैं, जो बिना पैरों के चल सकते हैं, बिना आँखों के देख सकते हैं और बिना कानों के सुन सकते हैं, “बिना पड़ा चांस”, “बिना आंख देखे”, “बीना कान सुने”। यह तब था जब तुलसीदास को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और वे अपने रघुनाथ को खोजने के लिए पुरी वापस चले गए।

यह बताता है कि जगन्नाथ के कान, हाथ और पैर क्यों नहीं हैं।

मूर्ति के कान, पैर और हाथ न होने के पीछे एक और कहानी है

पुराने समय के लोगों के अनुसार, ऐसा कहा जाता है कि मंदिर की अध्यक्षता मूल रूप से विष्णु की एक मूर्ति द्वारा की गई थी, जिसके चार हाथों में हस्ताक्षर शंख, चक्र, गदा, पद्म, शंख, पहिया, गदा और नीलम नीलम से बना कमल था। नाम नीला माधब। जगन्नाथ को आज भी नीला माधव के रूप में पूजा जाता है।

इस मंदिर पर कई बार मुगल बादशाह और बाद में 16वीं सदी के लुटेरे कालापहाड़ ने हमला किया था। मूर्ति को कई बार बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया गया था।

पुरी के राजा ने तब इसे किसी ऐसी चीज़ से बदलने का निर्णय लिया जिसे बार-बार फिर से बनाया जा सकता है, चाहे वह कितनी भी बार नष्ट हो जाए। नई प्रतिमा संभवतः आस-पास के गांवों से उधार ली गई आदिवासी कला का एक उदाहरण है। इस कला रूप में एक मजबूत बौद्ध प्रभाव है, क्योंकि राजा के निर्णय का समय संभवतः 16वीं शताब्दी के आसपास था

मंदिर मूल रूप से 12 वीं शताब्दी में अशोक की कलिंग विजय के बाद बनाया गया था।

जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा दारू की मूर्तियाँ हैं, या, नीम की लकड़ी से बनी हैं। नीम का उपयोग करने का संभावित कारण सभी प्रकार के क्षय का प्रतिरोध हो सकता है।

मूर्तियों को चंदन के लेप से धार्मिक रूप से विसर्जित किया जाता है। चंदन के औषधीय गुण किसी भी कवक विकास के खिलाफ मूर्तियों को मजबूत करते हैं और गारवाग्लिया के आसपास सुखदायक सुगंध भी बनाते हैं।

पुरी जगन्नाथ मन्दिर से जुड़ी कथाएँ

इस मन्दिर के उद्गम से जुड़ी परम्परागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इन्द्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी।

यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी।

तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा।

उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए।

किन्तु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बन्द रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अन्दर नहीं आये।

माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झाँका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियाँ अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियाँ ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियाँ मन्दिर में स्थापित की गयीं।

चारण परम्परा मे माना जाता है की यहाँ पर भगवान द्वारिकाधिश के अध जले शव आये थे जिन्हे प्राचि मे प्रान त्याग के बाद समुद्र किनारे अग्निदाह दिया गया (किशनजी, बल्भद्र और शुभद्रा तिनो को साथ) पर भरती आते ही समुद्र उफान पर होते ही तिनो आधे जले शव को बहाकर ले गया ,वह शव पुरि मे निकले ,पुरि के राजा ने तिनो शव को अलग अलग रथ मे रखा (जिन्दा आये होते तो एक रथ मे होते पर शव थे इसिलिये अलग रथो मे रखा गया) शवो को पुरे नगर मे लोगो ने खुद रथो को खिंच कर घुमया और अंत मे जो दारु का लकडा शवो के साथ तैर कर आयाथा उशि कि पेटि बनवाके उसमे धरति माता को समर्पित किया, आज भी उश परम्परा को नीभाया जाता है पर बहोत कम लोग इस तथ्य को जानते है, ज्यादातर लोग तो इसे भगवान जिन्दा यहाँ पधारे थे एसा ही मानते है, चारण जग्दम्बा सोनल आई के गुरु पुज्य दोलतदान बापु की हस्तप्रतो मे भी यह उल्लेख मिलता है ।

बौद्ध मूल

कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मन्दिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा था।

बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुँचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था।

महाराजा रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने इस मन्दिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था।

उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मन्दिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।

दंतकथाएं

किंवदंती के अनुसार, पहले जगन्नाथ मंदिर का निर्माण भरत और सुनंदा के पुत्र राजा इंद्रद्युम्न और महाभारत और पुराणों में वर्णित एक मालव राजा द्वारा किया गया था ।

स्कंद-पुराण, ब्रह्म पुराण और अन्य पुराणों और बाद में ओडिया कार्यों में पाए गए पौराणिक खाते में कहा गया है कि भगवान जगन्नाथ को मूल रूप से विश्ववासु नामक एक सावर राजा (आदिवासी प्रमुख) द्वारा भगवान नीला माधबा के रूप में पूजा जाता था।

देवता के बारे में सुनकर, राजा इंद्रद्युम्न ने एक ब्राह्मण पुजारी, विद्यापति को देवता का पता लगाने के लिए भेजा, जिसकी विश्ववासु ने गुप्त रूप से घने जंगल में पूजा की थी।

विद्यापति ने बहुत कोशिश की लेकिन जगह का पता नहीं लगा सके। लेकिन अंत में वह विश्ववासु की बेटी ललिता से शादी करने में कामयाब रहे।

विद्यापति के बार-बार अनुरोध पर, विश्ववासु ने अपने दामाद को एक गुफा में बंद कर दिया, जहाँ भगवान नीला माधबा की पूजा की जाती थी।

विद्यापति बहुत बुद्धिमान थे। रास्ते में उसने राई जमीन पर गिरा दी। कुछ दिनों के बाद बीज अंकुरित हुए, जिससे उन्हें बाद में गुफा का पता लगाने में मदद मिली।

उनकी बात सुनकर, राजा इंद्रद्युम्न देवता को देखने और उनकी पूजा करने के लिए तीर्थ यात्रा पर तुरंत ओद्र देश (ओडिशा) के लिए रवाना हुए।

लेकिन देवता गायब हो गए थे। राजा निराश हो गया। देवता रेत में छिपे थे। राजा ने ठान लिया था कि वह देवता के दर्शन किए बिना वापस नहीं लौटेगा और नीला पर्वत पर आमरण अनशन पर रहेगा, तब एक दिव्य आवाज ने पुकारा कि तू उसे देखेगा।

बाद में, राजा ने एक घोड़े की बलि दी और विष्णु के लिए एक शानदार मंदिर का निर्माण किया। नारद द्वारा लाई गई नरसिंह मूर्ति को मंदिर में स्थापित किया गया था।

नींद के दौरान राजा को भगवान के दर्शन हुएजगन्नाथ । साथ ही एक सूक्ष्म आवाज ने उन्हें समुद्र के किनारे सुगंधित वृक्ष प्राप्त करने और उससे मूर्तियाँ बनाने का निर्देश दिया। तदनुसार, राजा ने भगवान जगन्नाथ , बलभद्र , सुभद्रा और चक्र सुदर्शन की छवि को दिव्य वृक्ष की लकड़ी से बनाया और उन्हें मंदिर में स्थापित किया।

इंद्रद्युम्न की भगवान ब्रह्मा से प्रार्थना

राजा इंद्रद्युम्न ने जगन्नाथ के लिए दुनिया का सबसे ऊंचा स्मारक बनवाया। यह 1,000 हाथ ऊँचा था। उन्होंने ब्रह्मांडीय निर्माता भगवान ब्रह्मा को मंदिर और छवियों को पवित्र करने के लिए आमंत्रित किया ।

ब्रह्मा इस उद्देश्य के लिए स्वर्ग से आए। मंदिर को देखकर वे उस पर बहुत प्रसन्न हुए। ब्रह्मा ने इंद्रद्युम्न से पूछा कि वह (ब्रह्मा) किस तरह से राजा की इच्छा पूरी कर सकता है, क्योंकि भगवान विष्णु के लिए सबसे सुंदर मंदिर बनाने के लिए उससे बहुत प्रसन्न थे ।

हाथ जोड़कर इन्द्रद्युम्नने कहा, “मेरे भगवान, यदि आप वास्तव में मुझ पर प्रसन्न हैं, तो कृपया मुझे एक चीज का आशीर्वाद दें, और वह यह है कि मैं निर्दयी हो जाऊं और मैं अपने परिवार का अंतिम सदस्य बन जाऊं।” यदि उसके बाद कोई जीवित रहता है, तो वह केवल मंदिर के मालिक के रूप में गर्व महसूस करेगा और समाज के लिए काम नहीं करेंगा।

राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर

राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन।

कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया।

एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍

तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति।

विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है।

वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है।

चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया।

उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए।

भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे।

राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है।

राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी।

सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।

अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका।

तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे।

कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई।

वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी।

अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।

जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे।

राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।

वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।

मंदिर की उत्पत्ति के आसपास की किंवदंती

भगवान जगन्नाथ मंदिर की उत्पत्ति से संबंधित पारंपरिक कहानी यह है कि यहां द्वापर युग के अंत में जगन्नाथ ( विष्णु का एक देवता रूप ) की मूल छवि एक बरगद के पेड़ के पास, समुद्र तट के पास इंद्रनीला मणि या नीले रंग के रूप में प्रकट हुई यह गहने के रूप में थी।

यह इतना चकाचौंध था कि यह तुरंत मोक्ष प्रदान कर सकता था , इसलिए भगवान धर्म या यम इसे पृथ्वी में छिपाना चाहते थे और सफल रहे।

कलियुग में मालवा के राजा इंद्रद्युम्न ने उस रहस्यमयी छवि को खोजना चाहा और ऐसा करने के लिए उन्होंने कठोर तपस्या की ।

उसके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए। तब विष्णु ने उसे पुरी समुद्र तट पर जाने और उसकी सूंड से एक छवि बनाने के लिए एक तैरता हुई लकड़ी का लट्ठा खोजने का निर्देश दिया।

राजा को लकड़ी का लट्ठा मिला। उन्होंने एक यज्ञ किया जिसमें से भगवान यज्ञ नृसिंह प्रकट हुए और निर्देश दिया कि नारायण को चार गुना विस्तार के रूप में बनाया जाना चाहिए, अर्थात वासुदेव के रूप में परमात्मा, संकर्षण के रूप में उनका व्यूह, सुभद्रा के रूप में योगमाया और सुदर्शन के रूप में उनका विभाव ।

विश्वकर्मा एक कारीगर के रूप में प्रकट हुए और पेड़ से जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के चित्र तैयार किए।

जब प्रकाश से दीप्तिमान यह लट्ठा समुद्र में तैरता हुआ देखा गया, तो नारद ने राजा से कहा कि इससे तीन मूर्तियाँ बनाओ और उन्हें एक मंडप में रख दो।

इंद्रद्युम्न ने देवताओं के वास्तुकार विश्वकर्मा को मूर्तियों को रखने के लिए एक शानदार मंदिर बनाने के लिए कहा, और विष्णु स्वयं एक बढ़ई की आड़ में मूर्तियों को बनाने के लिए इस शर्त पर प्रकट हुए कि जब तक वह काम पूरा नहीं कर लेते, तब तक उन्हें बिना रुके छोड़ दिया जाएगा।

न दो हफ्ते बाद ही रानी बहुत चिंतित हो गई। उसने बढ़ई को मृत समझ लिया क्योंकि मंदिर से कोई आवाज नहीं आई।

इसलिए, उसने राजा से दरवाजा खोलने का अनुरोध किया। इस प्रकार, वे विष्णु को काम पर देखने गए, जिस पर बाद में मूर्तियों को अधूरा छोड़कर अपना काम छोड़ दिया। मूर्ति किसी भी हाथ से रहित थी। लेकिन एक दिव्य आवाज ने इंद्रद्युम्न को उन्हें मंदिर में स्थापित करने के लिए कहा। यह भी व्यापक रूप से माना जाता है कि मूर्ति बिना हाथों के थी।

पुरी जगन्नाथ मन्दिर दैनिक भोजन प्रसाद

महाप्रसाद (जगन्नाथ मंदिर)

प्रतिदिन छह बार भगवान को प्रसाद चढ़ाया जाता है। 

.सुबह भगवान को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद से उनका नाश्ता बनता है और इसे गोपाल वल्लभ भोग कहा जाता है। नाश्ते में सात चीजें होती हैं जैसे खुआ, लहुनी, नारियल मीठा कसा हुआ, नारियल पानी, और चीनी के साथ मीठा पॉपकॉर्न, जिसे खई, दही और पके केले के रूप में जाना जाता है।

२.सकल धूप अपनी अगली भेंट लगभग 10 बजे बनाती है। इसमें आम तौर पर एंडुरी केक और मंथा पुली सहित 13 आइटम होते हैं।

Jagganath Prasad
Jagganath Prasad

३.बड़ा संखुड़ी भोग अगला रेपास्ट बनाता है और प्रसाद में दही और कांजी पायस के साथ पखला होता है। रत्नाबेदी से लगभग 200 फीट की दूरी पर भोग मंडप में प्रसाद बनाया जाता है। इसे छात्र भोग कहा जाता है और 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा तीर्थयात्रियों को मंदिर के भोजन को साझा करने में मदद करने के लिए पेश किया गया था।

४.मध्याह्न धूप दोपहर में अगला प्रसाद बनाती है।

५.शाम को लगभग 8 बजे भगवान को अगली भेंट दी जाती है, यह संध्या धूप है।

६.भगवान को अंतिम भेंट को बड़ा सिम्हारा भोग कहा जाता है।

भगवान जगन्नाथ के महाप्रसाद को फोकारिया के फ्रेम के अंदर रत्नावेदी के पास भक्तों के बीच वितरित किया जाता है, जिसे पूजा पंडों द्वारा मुरुज का उपयोग करके खींचा जा रहा है, सिवाय गोपाल बल्लव भोग और भोग मंडप भोग को छोड़कर जो अनाबसर पिंडी और भोग मंडप में वितरित किए जाते हैं।

 जगन्नाथपुरी मंदिर के वह रहस्य  जिसमें हनुमान जी को सागर तट पर बांध दिया गया

जगन्नाथपुरी मंदिर में कई ऐसे रहस्य हैं जिन्हें सुनकर बड़ी हैरत होती है. पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्री जगन्नाथ ने सागर तट पर हनुमान जी को बांध दिया था।

देश में जगन्नाथपुरी का एक ऐसा मंदिर है जहां अनेक रहस्य मौजूद है, जो विज्ञान को भी मात देता है. इसी मंदिर से जुड़ी एक पौराणिक कथा यह भी है कि भगवान जगन्नाथ ने अपने परम भक्त हनुमान जी को सागर तट पर बांध दिया था।

जगन्नाथपुरी मंदिर में भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र और देवी सुभद्रा की मूर्तियां स्थापित की गई हैं. ये मूर्तियां मिट्टी या पत्थर की नहीं हैं बल्कि यह चन्दन की लकड़ी से बनी हुई हैं। हर 12 साल बाद इन मूर्तियों को बदल दिया जाता है।

एक पौराणिक कथा के मुताबिक़, जगन्नाथपुरी मंदिर में जब भगवान जगन्नाथ की मूर्ति स्थापित  हुई तो उनके दर्शन की अभिलाषा समुद्र को भी हुई।

प्रभु दर्शन के लिए समुद्र ने कई बार मंदिर में प्रवेश किया। जब समुद्र मंदिर में प्रवेश करते तो मंदिर को बहुत क्षति होती। समुद्र ने यह धृष्टता तीन बार की। मंदिर की क्षति को देखते हुए भक्तों ने भगवान से मदद के लिए गुहार लगाईं. तब भगवान जगन्नाथ जी ने समुद्र को नियंत्रित करने के लिए हनुमान जी को भेजा।

पवनसुत हनुमान जी ने समुद्र को बांध दिया। यही कारण है कि पुरी का समुद्र हमेशा शांत रहता है। लेकिन समुद्र ने एक चतुराई लगाईं।

उन्होंने हनुमान जी से कहा कि तुम कैसे प्रभु भक्त हो कि जो कभी दर्शन के लिए ही नहीं जाते।

तब हनुमान जी ने सोचा कि बहुत दिन हो गए चलो भगवान के दर्शन कर आयें। जब हनुमान जी ने भगवान के दर्शन के लिए चले तो उन्हीं के पीछे-पीछे समुद्र भी चल पड़े। इस तरह जब भी पवनसुत मंदिर जाते तो सागर भी उनके पीछे चल पड़ता।

इस तरह मंदिर में फिर से क्षति होनी शुरू हो गई। तब भगवान ने हनुमान जी के इस आदत से परेशान होकर उन्हें स्वर्ण बेड़ी से बांध दिया।

इसलिए वहां का समुद्र शांत रहता है। यहां जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। भक्त लोग बेड़ी में जगड़े हनुमानजी के दर्शन करने के लिए आते हैं

वैज्ञानिक तर्क को धता बताने वाले जगन्नाथ मंदिर के रहस्य

सुदर्शन चक्र

चक्र वास्तव में 20 फीट ऊंचा है और इसका वजन एक टन है। इसे मंदिर के शीर्ष पर लगाया गया है। लेकिन इस चक्र की सबसे दिलचस्प बात यह है कि आप इस चक्र को पुरी शहर के किसी भी कोने से देख सकते हैं। चक्र की स्थापना और स्थिति के पीछे का इंजीनियरिंग रहस्य अभी भी एक रहस्य है क्योंकि आपकी स्थिति चाहे जो भी हो, आप हमेशा महसूस कर सकते हैं कि चक्र आपकी ओर है।

हवा से विपरित लहराता है झंडा

आमतौर पर दिन के समय हवा समुद्र से धरती की तरफ चलती है और शाम को धरती से समुद्र की तरफ, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि यहां यह प्रक्रिया उल्टी है. मंदिर का झंडा हमेशा हवा की दिशा के विपरीत लहराता है. हवा का रुख जिस दिशा में होता है झंडा उसकी विपरीत दिशा में लहराता है.

सिंहद्वारम का रहस्य

जगन्नाथ मंदिर में चार दरवाजे हैं, और सिंहद्वारम मंदिर के प्रवेश द्वार का मुख्य द्वार है। जब आप सिंधद्वारम से प्रवेश करते हैं, तो आप लहरों की आवाज़ स्पष्ट रूप से सुन सकते हैं, लेकिन एक बार जब आप सिंहद्वारम से गुजरे, तो बस एक मोड़ लें और उसी दिशा में वापस चलें, आपको लहरों की आवाज़ नहीं सुनाई देगी। दरअसल, जब तक आप मंदिर के अंदर होंगे तब तक आपको लहरों की आवाज नहीं सुनाई देगी।

समुद्र रहस्य

दुनिया के किसी भी हिस्से में आपने देखा होगा कि दिन के समय समुद्र से हवा जमीन पर आती है, जबकि जमीन से हवा शाम को समुद्र की ओर चलती है। हालांकि, पुरी में, भौगोलिक कानून भी उलट हैं। यहां ठीक इसके विपरीत होता है

1800 साल पुराना एक अनुष्ठान

हर दिन एक पुजारी मंदिर के ऊपर चढ़ता है, जो 45 मंजिला इमारत जितना ऊंचा है, झंडा बदलने के लिए। यह प्रथा 1800 वर्षों से चली आ रही है। ऐसा माना जाता है कि अगर इस अनुष्ठान को कभी नहीं किया जाता है, तो मंदिर अगले 18 वर्षों तक बंद रहेगा।

प्रसादम रहस्य

जगन्नाथ मंदिर में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता है। दिन के आधार पर, रिकॉर्ड बताते हैं कि 2,000 से 20,000 भक्त मंदिर में आते हैं। लेकिन, मंदिर में बनने वाले प्रसाद की मात्रा पूरे साल एक समान रहती है। फिर भी, प्रसादम कभी भी व्यर्थ नहीं जाता या किसी भी दिन अपर्याप्त होता है।

दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर

500 रसोइए 300 सहयोगियों के साथ बनाते हैं भगवान जगन्नाथजी का प्रसाद। लगभग 20 लाख भक्त कर सकते हैं यहां भोजन। कहा जाता है कि मंदिर में प्रसाद कुछ हजार लोगों के लिए ही क्यों न बनाया गया हो लेकिन इससे लाखों लोगों का पेट भर सकता है। मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती।

कहा जाता है कि जगन्नाथ मंदिर में दुनिया की सबसे बड़ी रसोई है. रसोई का रहस्य ये है कि यहां भगवान का प्रसाद पकाने के लिए सात बर्तन एक के ऊपर एक रखे जाते हैं. ये बर्तन मिट्‌टी के होते हैं जिसमें प्रसाद चूल्हे पर ही पकाया जाता है. आश्चर्य की बात ये है कि इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान सबसे पहले पकता है फिर नीचे की तरफ से एक के बाद एक प्रसाद पकता जाता है. चाहे लाखों भक्त आ जाएं लेकिन प्रसाद कभी कम नहीं पड़ता और न व्यर्थ जाता है. मंदिर के बंद होते ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है.

नहीं दिखती मंदिर की परछाई

जगन्नाथ मंदिर करीब चार लाख वर्ग फीट एरिया में है. इसकी ऊंचाई 214 फीट है. किसी भी वस्तु या इंसान, पशु पक्षियों की परछाई बनना तो विज्ञान का नियम है. लेकिन जगत के पालनहार भगवान जगन्नाथ के मंदिर का ऊपरी हिस्सा विज्ञान के इस नियम को चुनौती देता है. यहां मंदिर के शिखर की छाया हमेशा अदृश्य ही रहती है.

12 साल में बदली जाती है मूर्तियां

यहां हर 12 साल में जगन्नाथजी, बलदेव और देवी सुभद्रा तीनों की मूर्तिया को बदल दिया जाता है. नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं. मूर्ति बदलने की इस प्रक्रिया से जुड़ा भी एक रोचक किस्सा है. मंदिर के आसपास पूरी तरह अंधेरा कर दिया जाता है. शहर की बिजली काट दी जाती है. मंदिर के बाहर CRPF की सुरक्षा तैनात कर दी जाती है. सिर्फ मूर्ती बदलने वाले पुजारी को मंदिर के अंदर जाने की इजाजत होती है.

नहीं नजर आते पक्षी

आमतौर पर मंदिर या बड़ी इमारतों पर पक्षियों को बैठे देखा होगा. लेकिन पुरी के मंदिर के ऊपर से न ही कभी कोई प्लेन उड़ता है और न ही कोई पक्षी मंदिर के शिखर पर बैठता है. भारत के किसी दूसरे मंदिर में भी ऐसा नहीं देखा गया है.

विश् की सबसे बड़ी रथयात्रा

आषाढ़ माह में भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं। यह रथयात्रा 5 किलो‍मीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही होती है। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है।

अपनी मौसी के घर भगवान 8 दिन रहते हैं। आषाढ़ शुक्ल दशमी को वापसी की यात्रा होती है। भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है। पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं जिसे छेरा पैररन कहते हैं।

अंत में जानिए मंदिर के बारे में कुछ अज्ञात बातें

* महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिए गए स्वर्ण से कहीं अधिक था।

* पांच पांडव भी अज्ञातवास के दौरान भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने आए थे। श्री मंदिर के अंदर पांडवों का स्थान अब भी मौजूद है। भगवान जगन्नाथ जब चंदन यात्रा करते हैं तो पांच पांडव उनके साथ नरेन्द्र सरोवर जाते हैं।

* 9वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने यहां की यात्रा की थी और यहां पर उन्होंने चार मठों में से एक गोवर्धन मठ की स्थापना की थी।

* इस मंदिर में गैर-भारतीय धर्म के लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित है। माना जाता है कि ये प्रतिबंध कई विदेशियों द्वारा मंदिर और निकटवर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ और हमलों के कारण लगाए गए हैं। पूर्व में मंदिर को क्षति पहुंचाने के प्रयास किए जाते रहे हैं।

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