आइये जानते है कुम्भ मेला (Kumbh Mela) इतिहास महत्व और आयोजन के बारे में
सनातन धर्म में कुंभ
कुंभ (Kumbh Mela) सनातन धर्म का महत्वपूर्ण पर्व है। जिसे “धार्मिक रूप से दुनिया के तीर्थयात्रियों की सबसे बड़ी मंडली” के रूप में जाना जाता है।
कुंभ मेले (Kumbh Mela) का इतिहास काफी साल पुराना है। भारत में यह मेला बहुत अनूठा है ।जिसमें पूरी दुनिया से लोग आते हैं ।
कुंभ मेला (Kumbh Mela) आस्था का विशाल हिन्दू तीर्थ है। जिसमें हिंदू एक पवित्र नदी में स्नान करने के लिए इकट्ठा होते हैं।
केवल भारत के हिंदू ही नहीं बल्कि यहां विदेशी पर्यटक भी, इस तीर्थ स्थान के मेले में इस समय उपस्थित होते हैं । मुख्य रूप से इसमें दुनिया भर के, साधु संत जो कि भगवा वस्त्र पहनते हैं ,तपस्वी तीर्थयात्री आदि भक्तगण भाग लेते हैं।
कुंभ मेला (Kumbh Mela) दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है।इसे हिंदू धर्म संस्कृति का भी महत्वपूर्ण प्रतीक माना जाता है। इसका अपना ही धार्मिक महत्व है ।
कुम्भ मेला का अर्थ
कुंभ मेले में कुंभ का शाब्दिक अर्थ “घड़ा, सुराही, बर्तन” है। यह वैदिक ग्रंथों में पाया जाता है। इसका अर्थ, अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता के अमृत के बारे में बताया जाता है।
मेला शब्द का अर्थ है,किसी एक स्थान पर एकजुट होना, शामिल होना, मिलना, एक साथ चलना, सभा में या फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना।
यह शब्द ऋग्वेद और अन्य प्राचीन हिंदू ग्रंथों में भी पाया जाता है। इस प्रकार, कुंभ मेले का अर्थ है “एक सभा -मिलन, मिलन” जो “जल या अमरत्व का अमृत” है।
कुंभ मेले में, पहले स्नान का नेतृत्व संतों द्वारा किया जाताहै, जिसे कुंभ के शाही स्नान के रूप में जाना जाता है और यह सुबह 3 बजे शुरू होता है।
संतों के शाही स्नान के बाद आम लोगों को पवित्र नदी में स्नान करने की अनुमति मिलती है।
कुंभ मेले में शाही स्नान के साथ साथ अन्य गतिविधियां भी होती हैं, जैसे प्रवचन, कीर्तन और महा प्रसाद आदि।
हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि जो इन पवित्र नदियों के जल में डुबकी लगाते हैं, वे अनंत काल तक धन्य हो जाते हैं. और वह सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं और उन्हें मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
कुंभ मेला (Kumbh Mela) आस्था का विशाल हिन्दू तीर्थ है। कुंभ मेला हिंदू धर्म में एक प्रमुख तीर्थ और त्योहार के रूप में मनाया जाता है।
कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में किया जाता है. इनमें प्रत्येक स्थान पर हर 12 वर्ष के अंतराल पर कुंभ मेला (Kumbh Mela) लगता है।
हरिद्वार में गंगा नदी के तट पर, प्रयागराज में गंगा-यमुना और सरस्वती के सामूहिक के संगम पर, उज्जैन में शिप्रा नदी और नासिक में गोदावरी नदी के तट पर लोग कुंभ में डुबकी लगाते हैं।
कुंभ मेला (Kumbh Mela) का मुख्य अनुष्ठान शहर में पवित्र नदी के तट पर स्नान करना है। इसमें शामिल अन्य गतिविधियाँ हैं धार्मिक चर्चा, पवित्र पुरुषों और महिलाओं का सामूहिक भोजन और गरीबों, भक्ति गीतों को गाना और धार्मिक सभाओं को आयोजित करना।
लोग बड़ी संख्या में कुंभ मेले में जाते हैं ताकि इस मेगा कार्यक्रम के धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष पहलुओं का अनुभव किया जा सके।
साधु यहां इसलिए आते हैं ताकि खुद को हिंदुओं के बड़े जनसमूह के लिए उपलब्ध करा सकें, जिन्हें वे आध्यात्मिक जीवन के बारे में निर्देश और सलाह दे सकें। कुंभ मेलों में शिविर आयोजित किए जाते हैं, ताकि हिंदू श्रद्धालु इन साधुओं तक पहुंच सकें।
कुंभ में गुरु, सूर्य और चंद्रमा ग्रह का विशेष महत्व माना गया है. कुंभ के आयोजन में भी इन ग्रहों की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है।
जिन लोगों के जीवन में गुरु, सूर्य और चंद्रमा से जुड़ी कोई समस्या बनी हुई है वे यदि कुंभ में शुभ तिथियों में स्नान करते हैं तो उनकी समस्याएं दूर होती हैं.
कुम्भ मेला (Kumbh Mela) का इतिहास
भारतीय सनातन संस्कृति में कुंभ विश्वास, आस्था, सौहार्द और संस्कृतियों के मिलन का सबसे बड़ा पर्व है।
कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। कुंभ मेला दो शब्दों कुंभ और मेला से बना है. कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है जिसे देवता और राक्षसों ने प्राचीन वैदिक शास्त्रों में वर्णित पुराणों के रूप में वर्णित किया था। मेला, जैसा कि हम सभी परिचित हैं, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ है ‘सभा‘ या ‘मिलना‘।
इतिहास में कुंभ मेले की शुरुआत कब हुई, किसने की, इसकी किसी ग्रंथ में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं है परन्तु इसके बारे में जो प्राचीनतम वर्णन मिलता है वह सम्राट हर्षवर्धन के समय का है, जिसका चीन के प्रसिद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग द्वारा किया गया है।
पुराणों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी और कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से ही हो गई थी।
कुंभ के शुरुआत के पीछे की कहानी
कुंभ मेला की कहानी उस समय की है जब देवता पृथ्वी पर निवास करते थे. वे ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कमजोर हो गए थे और राक्षस पृथ्वी पर तबाही मचा रहे थे.
कुंभ से जुड़ी एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप के कारण स्वर्ग से सभी प्रकार का ऐश्वर्य, धन, वैभव खत्म हो गया। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए।
विष्णुजी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने की सलाह दी और कहा कि समुद्र मंथन से जो अमृत निकलेगा उसे पी कर सभी देवता अमर हो जाएंगे।
देवताओं ने असुरों के राजा बलि को समुद्र मंथन के लिए तैयार किया। इस मंथन में वासुकि नाग की नेती बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से समुद्र को मथा गया था।
समुद्र मंथन में 14 रत्न निकले थे। इन रत्नों में कालकूट विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सरा रंभा, महालक्ष्मी, वारुणी देवी, चंद्रमा, पारिजात वृक्ष, पांचजन्य शंख, भगवान धनवंतरि अपने हाथों में अमृत कलश लेकर निकले थे।
जब अमृत कलश निकला तो देवताओं के साथ असुर भी उसका पान करने को आतुर हो गए और इसक कारण देवताओं और दानवों में युद्ध होने लगा।
इस दौरान कलश से अमृत की बूंदें चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में गिरी थीं। ये युद्ध 12 वर्षों तक चला था, इसलिए इन चारों स्थानों पर हर 12-12 वर्ष में एक बार कुंभ मेला (Kumbh Mela) लगता है।
इस मेले में सभी अखाड़ों के साधु-संत आते हैं ।
कुंभ मेले (Kumbh Mela) का महत्व
कुंभ मेला पृथ्वी पर सबसे बड़े तीर्थस्थलों में से एक है। विशेष दिनों में, गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों में स्नान मुख्य अनुष्ठान है।
यह माना जाता है कि इस तरह का बपतिस्मा जन्म से विरासत में मिले पापों को धो देगा। भारत के विभिन्न हिस्सों से और जीवन के सभी क्षेत्रों से लाखों नागा संत, दिगंबरन, अखोरी, योगी के रूप में जाने जाते हैं।
वहआम लोगों की बजाय कहीं दूर से आते हैं और केवल कुंभ मेले के दौरान सभ्यता का दौरा करते हैं, पवित्र नदियों में स्नान करते हैं और कहीं छिप जाते हैं। फिर वह कभी दिखाई नहीं देते हैं।
खगोल विज्ञान, ज्योतिष, आध्यात्मिकता, पारंपरिक प्रथाओं, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रथाओं और अन्य प्रथाओं को कुंभ मेले के अनुभव बहुत समृद्ध बनाते हैं।
कुंभ मेले का आध्यात्मिक आनंद और रुक-रुक कर जप, अखाड़ों का दिल को लुभाने वाला ताल और नृत्य, हाथियों, घोड़ों और रथों पर बपतिस्मा के लिए आने वाले नागा गरीबों की शानदार तलवारें और अनुष्ठान, साथ ही साथ कई आकर्षक सांस्कृतिक कार्यक्रम, हम सभी को यादों और अनुभवों का महत्वपूर्ण अनुभव देते हैं।
कुंभ स्नान करते समय विशेषतौर पर ध्यान रखना चाहिए कि नदी में पांव रखने से पहले नदी को प्रणाम करें, उसमें पुष्प और अपनी इच्छा शक्ति मुद्रा डालें।
इसके बाद नदी में स्नान करें। स्नान करने के पश्चात किसी साधु को वस्त्र आदि का दान जरूर करें।
सनातन संस्कृति में दान का बहुत महत्व माना गया है, इसके अनुसार यदि किसी को भी कुंभ स्नान करना हो तो उसके बाद कुछ न कुछ दान करके ही जाएं।
कुंभ स्नान से शनि की अशुभता और राहु केतु से बनने वाले दोषों से भी निजात मिलती है। कुंभ में स्नान, दान और पूजा से जीवन में सुख शांति और समृद्धि आती है।
मान्यताओं के अनुसार कुंभ में स्नान करने से कई प्रकार की बाधाओं से छुटकारा मिलता है।
खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रांति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं।
मकर संक्रांति के होने वाले इस योग को “कुम्भ स्नान-योग” कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है।
ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार
खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है।
इसका हिन्दू धर्म मे बहुत ज्यादा महत्व है। जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुंभ पर्व स्थल प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं।
कुंभ नाम अमृत के अमर पात्र या कलश से लिया गया है ।कुंभ स्नान का हिंदू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है कुंभ स्नान से सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिलती है तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है
हिंदू धर्म में कुंभ को तीर्थ के समान दर्जा दिया गया है कुंभ स्नान से पितृपक्ष भी शांत होते हैं और अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं यह मान्यता है कि मनुष्य को अपने जीवन में कुंभ स्नान जरूर करना चाहिए क्योंकि हिंदू धर्म में कुंभ स्नान के समान किसी भी स्नान को नहीं माना जाता है।
कुंभ मेले को रोजगार का भी प्रमुख स्रोत माना गया है।कुंभ मेले से रोजगार के अवसर भी प्रदान होते है।
कुंभ में सभी देवी-देवता प्रवासी के रूप में निवास करते हैं. कुंभ में सबसे श्रेष्ट प्रयाग के कुंभ को माना गया है. तीर्थराज कहा गया है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार कुंभ में स्नान करने से सभी प्रकार के पापों से मुक्ति मिल जाती हैं।
कुम्भ मेला हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं।
इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष में इस पर्व का आयोजन होता है। मेला प्रत्येक तीन वर्षो के बाद नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है।
इलाहाबाद में संगम के तट पर होने वाला आयोजन सबसे भव्य और पवित्र माना जाता है। इस मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है। ऐसी मान्यता है कि संगम के पवित्र जल में स्नान करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है।
हिंदू धर्म मे जिस तरह से चारधाम यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है, उसी तरह कुंभ स्नान का भी महत्व है। हर चार वर्ष में अर्धकुंभ लगता है और 12 वर्ष में महाककुंभ लगता है।
कुंभ मेले (Kumbh Mela) के बारे में कुछ रोचक तथ्य
चार शहरों में से प्रयागराज, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन, प्रयागराज में आयोजित कुंभ मेला सबसे पुराना है।
.कुंभ मेले को यूनेस्को की प्रतिनिधि सूची ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत‘ में शामिल किया गया है.।
कुंभ मेला उन तिथियों पर लगता है जब अमृत पवित्र कलश से इन नदीयों में गिरा था. हर साल, तिथियों की गणना बृहस्पति, सूर्य और चंद्रमा की राशि के पदों के संयोजन के अनुसार की जाती है।
कुंभ का अर्थ है ‘अमृत’ कलश से. कुंभ मेला की कहानी उस समय की है जब देवता पृथ्वी पर निवास करते थे. वे ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण कमजोर हो गए थे और राक्षस पृथ्वी पर तबाही मचा रहे थे|
कुंभ मेला उन तिथियों पर लगता है जब अमृत पवित्र कलश से इन नदीयों में गिरा था. इस अवसर पर नदियों के किनारे भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री आते हैं।
अतीत के कुंभ मेले, विभिन्न क्षेत्रीय नामों के साथ, बड़ी उपस्थिति को आकर्षित करते हैं और सदियों से हिंदुओं के लिए धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि, वे हिंदू समुदाय के लिए एक धार्मिक आयोजन से अधिक रहे हैं।
आमतौर पर यह माना जाता है कि जो लोग प्रयागराज में गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के पवित्र जल में डुबकी लगाते हैं, वे सभी पापों से छुटकारा पा लेते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं |
यह त्योहार दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक समारोहों में से एक है क्योंकि यह नदियों के पवित्र संगम – गंगा, यमुना और सरस्वती में स्नान करने के लिए 48 दिनों के दौरान करोड़ों तीर्थयात्रियों को आकर्षित करता है।
पौराणिक विश्वास जो कुछ भी हो, ज्योतिषियों के अनुसार कुंभ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुंभ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है।
ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है।
यही कारण है कि अपनी अंतरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।
जिस कुंभ राशि में कुंभ पर्व मुख्य रूप से जुड़ा है, उस राशि में बृहस्पति केवल हरिद्वार कुंभ मेले के दौरान ही प्रवेश करते हैं। वहीं प्रयागराज, उज्जैन और नासिक में आयोजित होने वाले कुंभ मेले के दौरान बृहस्पति कुंभस्थ नहीं होते हैं।
ऐसी धार्मिक व पौराणिक मान्यता है कि हरिद्वार में बृहस्पति के कुंभस्थ होने के कारण ही ऐसा माना जाता है कि चारों कुंभ नगरों में पहला कुंभ महापर्व हरिद्वार में आयोजित हुआ था।
हरिद्वार में महाकुंभ आयोजित होने के बाद शेष तीन धार्मिक नगरों में कुंभ मेले का आयोजन शुरू हुआ।
पौराणिक धर्मशास्त्रों में एक घटना का भी जिक्र मिलता है। धर्मशास्त्रों के मुताबिक जिस समय चार नगरों में कुंभ कलश छलके, उस समय कलश की सुरक्षा की जिम्मेदारी बृहस्पति और सूर्य पर थी।
ये दोनों ग्रह राशियों के लिहाज से चारों कुंभ नगरों में कुंभ के आजोजन होने का कारण बने। बृहस्पति को कुंभ राशि में आने का परम मुहूर्त सौभाग्य केवल हरिद्वार में प्राप्त हुआ।
ऐसे में हरिद्वार ही एकमात्र ऐसी कुंभ नगरी है, जहां बृहस्पति के कुंभ और सूर्य के मेष राशि में आने पर कुंभ महापर्व लगता है।
वहीं प्रयाग में बृहस्पति के वृष और सूर्य के मकर राशि में आ जाने पर कुंभ पर्व का महायोग आता है।
ठीक इसी प्रकार उज्जैन कुंभ मेला तब संपन्न होता है, जब बृहस्पति का सिंह राशि में और सूर्य का मेष राशि में प्रवेश हो जाता है।
इसी प्रकार नासिक में भी बृहस्पति के सिंह और सूर्य के भी सिंह राशि में पर कुंभ का मेला आयोजित होता है।
सूर्य जहां 12 महीनों में सभी 12 राशियों की यात्रा पूरी कर लेते हैं, वहीं बृहस्पति को एक राशि से दूसरी में जाने में 12 वर्ष लगते हैं।
यही कारण है कि कुंभ मेला एक स्थान पर 12 वर्ष बाद आता है।
खगोलीय गणित और राशि प्रवेश पर निर्भर कुंभ मेला केवल हरिद्वार में ही कुम्भस्थ होता है। प्रयाग कुंभ को वृषस्थ, उज्जैन और नासिक कुंभ मेलों को सिंहस्थ कहते हैं।
जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होअर्धकुंभता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थीवहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है।
कुंभ में माने गए महत्वपूर्ण ग्रह
सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है।
जब अमृत कलश को लेकर देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध चल रहा था तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, गुरु ने कलश को छुपाया था, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की।
इसीलिए ही तो जब इन ज्र्हों का योग संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ मेले का आयोजन होता है.
हर तीसरे वर्ष कुंभ का आयोजन होता है. गुरु ग्रह एक राशि में एक साल तक रहता है और हर राशि में जाने में लगभग 12 वर्षों का समय लग जाता है।
इसीलिए हर 12 साल बाद उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन किया जाता है. निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीन साल में कुंभ लगता है. प्रयाग का कुंभ के लिए आशिक महत्व है।
144 वर्ष बाद यहां पर महाकुंभ का आयोजन होता है.
कुंभ मेलों के प्रकार (Types of Kumbh Mela)
ज्योतिषि शास्त्रों के अनुसार, देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के बराबर होते है।
इस तरह कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं। शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं। देवलोक में होने वाले कुंभ देवताओं के लिए होते है।
कुंभ मेला: चार अलग-अलग स्थानों पर राज्य सरकारों द्वारा हर तीन साल में आयोजित किया जाता है।
लाखों लोग आध्यात्मिक उत्साह के साथ भाग लेते हैं.।
महाकुंभ मेला: यह केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुंभ मेले के बाद आता है.
पूर्ण कुंभ मेला: यह हर 12 साल में आता है। मुख्य रूप से भारत में 4 कुंभ मेला स्थान यानि प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में आयोजित किए जाते हैं. यह हर 12 साल में इन 4 स्थानों पर बारी-बारी आता है.
अर्ध कुंभ मेला: इसका अर्थ है आधा कुंभ मेला जो भारत में हर 6 साल में केवल दो स्थानों पर होता है यानी हरिद्वार और प्रयागराज.
माघ कुंभ मेला: इसे मिनी कुंभ मेले के रूप में भी जाना जाता है जो प्रतिवर्ष और केवल प्रयागराज में आयोजित किया जाता है. यह हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ के महीने में आयोजित किया जाता है।
कुंभ मेले के आयोजन के स्थान का चुनाव
कुंभ मेले का आयोजन चार नगरों में होता है:- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन। चारों नगरों के आने वाले कुंभ की स्थिति विशेष होती है।
एक ओर जहां नासिक और उज्जैन के कुंभ को आमतौर पर सिंहस्थ कहा जाता है तो अन्य नगरों में कुंभ, अर्धकुंभ और महाकुंभ का आयोजन होता है।
अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है।
कुम्भ राशि में बृहस्पति का प्रवेश होने पर एवं मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होने पर कुम्भ का पर्व हरिद्वार में आयोजित किया जाता है।
प्रत्येक 12 वर्ष में पूर्णकुंभ का आयोजन होता है। जैसे मान लो कि उज्जैन में कुंभ का अयोजन हो रहा है, तो उसके बाद अब तीन वर्ष बाद हरिद्वार, फिर अगले तीन वर्ष बाद प्रयाग और फिर अगले तीन वर्ष बाद नासिक में कुंभ का आयोजन होगा।
उसके तीन वर्ष बाद फिर से उज्जैन में कुंभ का आयोजन होगा। इसी तरह जब हरिद्वार, नासिक या प्रयागराज में 12 वर्ष बाद कुंभ का आयोजन होगा तो उसे पूर्णकुंभ कहेंगे।
हिंदू पंचांग के अनुसार देवताओं के बारह दिन अर्थात मनुष्यों के बारह वर्ष माने गए हैं इसीलिए पूर्णकुंभ का आयोजन भी प्रत्येक बारह वर्ष में ही होता है।
जब ब्रहस्पति वर्षभ राशि में प्रवेश करते हैं और सूर्य मकर राशि में तब कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज में किया जाता है।
जब सूर्य मेष राशि और ब्रहस्पति कुंभ राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन हरिद्वार में किया जाता है।
जब सूर्य और ब्रहस्पति का सिंह राशि में प्रवेश होता है तब यह महाकुंभ मेला नासिक में मनाया जाता है।
जब ब्रहस्पति सिंह राशि में और सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन उज्जैन में किया जाता है।
यहीं आपको बता दें कि जब सूर्य देव सिंह राशि में प्रवेश करते हैं, इसी कारण उजैन, मध्यप्रदेश में जो कुंभ मनाया जाता है उसे सिंहस्थ कुंभ कहते हैं।