Home articles ‘‘ऊँ नमः शिवाय‘‘ मंत्र का विज्ञान

‘‘ऊँ नमः शिवाय‘‘ मंत्र का विज्ञान

1844
0

‘‘ ऊँ नमः शिवाय‘‘ यह पंचाक्षर प्रणव सहित मंत्र समस्त जगत वासियों एवं शिवभक्तों के सम्पूर्ण आयामों का साधन कहा गया है।

इस मंत्र में अक्षर तो कम हैं, परंतु मंत्र महान् अर्थ से सम्पन्न है। संतों ने इसे वेद का सारतत्व, मोक्ष देने वाला, शिव की आज्ञा से सिद्ध, संदेहशून्य तथा शिवस्वरूप वाक्य माना है।

यह नाना प्रकार की सिद्धियों से युक्त, मन को प्रसन्न एवं निर्मल करने वाला, सुनिश्चित लक्ष्यपूर्ण अर्थ वाला तथा परमेश्वर का गम्भीर वचन है। यह ऐसा मंत्र है जिसका मुख से सुखपूर्वक सहज उच्चारण होता है।

कहते हैं सर्वज्ञ शिव ने सम्पूर्ण देहधारियों के सारे मनोरथों की सिद्धि के लिये इस ‘ ऊँ नमः शिवाय‘ मंत्र का प्रतिपादन किया है।

यह आदि मंत्र सम्पूर्ण विद्याओं का बीज मूल भी है। गुरूदेव कहते हैं जैसे वट के बीज में महान वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी इस मंत्र को महान अर्थ से परिपूर्ण समझना चाहिये।

मंत्र में विराजते है साक्षात् शिव ऊँ स्वयं में पूर्ण है।

इस एकाक्षर मंत्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकत्र्ता, द्युतिमान, सर्वव्यापी प्रभु स्वयं शिव प्रतिष्ठित हैं।

इसी के साथ ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्षर रूप ब्रह्य हैं, वे सब ‘नमः शिवाय‘ में क्रमशः में क्रमशः स्थित हैं। इसके सूक्ष्म षडाक्षर मंत्र में पच्चब्रह्यरूपधारी साक्षात् भगवान शिव स्वभावतः वाच्यचाचक भाव से विराजमान है।

यहां शिव वाच्च हैं और मंत्र उनका वाचक माना गया है। शिव और मंत्र का यह वाच्य-वाचक भाव अनादिकाल से समाहित है, ठीक जैसे संसार से छुड़ाने वाले भगवान शिव अनादिकाल से ही इस ब्रह्याण्ड में नित्य विराजमान हैं।

जैसे औषधि रोगों की स्वीाावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान शिव सांसारिक दोषों के स्वाभाविक शत्रु माने गये हैं।

नारायण शैव उपासक एवं वेद धारक सभी मानते हैं कि यदि भगवान विश्वनाथ न होते, तो यह जगत अंधकारमय हो जाता, क्योंकि जड़ प्रकृति एवं अज्ञानी जीवात्मा को प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं।

प्रकृति से लेकर परमाणु पर्यन्त जो कुछ भी जड़ रूप तत्व हैं, वह किसी दिव्य कारण के बिना स्वयं कर्ता नहीं है।

इसीलिए जीवों के लिए धर्म करने और अधर्म से बचने का उपदेश दिया जाता है। इससे जीव के बंधन और मोक्ष कटते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सर्वज्ञ परमात्मा शिव के बिना प्राणियों की पूर्ण सिद्धि नहीं होती।

जैसी रोगी, वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं।

अतः यह सिद्ध है कि जीवों का संसार सागर से उद्धार करने वाले अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव मंत्र में विद्यमान हैं। सदाशिव अर्थात् जो सत, चित और आनंद के रूप् में सबसके लिए कल्याणकारी हैं।

वे किसी रूप में होंगे शिव ही कहलायेंगे। वे प्रभु आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, स्वभाव से ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण है।

यह उनका स्वरूप है, इसीसे उन्हें शिव नाम से जाना जाता है। यह पच्चाक्षर मंत्र उन्हीं का अभिधान है और वे शिव अभिधेय है। अभिधान और अभिधेय रूप होने के कारण परमशिवस्वरूप यह मंत्र सिद्ध मंत्र माना गया है।

‘ऊँ नमः शिवाय‘ षडाक्षर शिववाक्य परमपद भी है। यह शिव का विधि वाक्य है। यह शिव का स्वरूप है, जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल शिव है।


गुरू मंत्र भी है यह


जो वाक्य रग, द्वेष, असत्य, काम, कोध्र और तृष्णा का अनुसरण करने वाला हो, वह नरक का हेतु कहलाता है।

अविद्या एवं राग से युक्त वाक्य जन्म मरणरूप संसार क्लेश की प्राप्ति में कारण माना जाता है। पर यह मंत्र सुनकर कल्याण की प्राप्ति तथा राग आदि दोषों का नाश होता है।

इसीलिए इसे गुरूमंत्र की भी उपमा प्राप्त है। साधक गुरू मुख होकर भी इसे धारण करता है और गुरू द्वारा निर्देशित विधि-विधान, नियम का पालनकरते हुए इसका जप-उपासना करता है तो साधक की स्थूल, सुक्ष्म एवं कारण सम्पूर्ण चेतना के धरातल खुलने लगते हैं।

चित्त निर्मलता के साथ इसमंत्र जप की यात्रा प्रारम्भ होती है और मोक्ष तक उसे पहुंचाती है।

इसी बीच में आने वाले व्यवधानों को गुरू अपनी सुक्ष्म एवं कारण चेतना से अज्ञात भाव से दूर करता रहता है। मंत्र जप के सतत अभ्यास से साधक गुरूमय होने लगता है, वहीं गुरू की ओर से अपने तप, प्राण एवं पुण्य से शिष्य को भर देने का सहज प्रवाह फूट पड़ता है।

चूंकि इस षडाक्षर मंत्र में छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं, अतः इन अंगों का, इन सोपानों का क्रमशः जागरण प्रारम्भ हो।

साथ ही साधक अपनी स्थूल से सूक्ष्म, फिर कारण इन तीनों चेतना को भेदने में सफल हो, इसके लिए गुरू शिष्य को सेवा के नौ प्रकल्पों से जोड़कर रखने का निर्देश धर्मादा सेवा के रूप देता है।

वास्तव में नौ प्रकार की सेवाओं का धर्मादा सेवा समुच्चय शिष्य को पूर्णता से जोड़ने का माध्यम ही है। सात करोड़ महामंत्रों और अनेकोनेक उपमंत्रों से यह षडाक्षर-मंत्र उसी प्रकार भिन्न है।

इसीलिए जिसके हृदय में ‘ऊँ नमः शिवाय‘ यह षडाक्षर मंत्र प्रतिष्ठित है, उसमें दूसरे बहुसंख्यक मंत्र और अनेक शास्त्रों का प्रवाह स्वतः फूट पड़ता है।

जिसने इस मंत्र का जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिये और समस्त शुभ कृत्यों का अनुष्ठान पूरा कर लिया। ऐसे साधक का हमेशा शुभ होता है और सुख-समृद्धि के द्वार सहज खुलते हैं।

कहते हैं सर्वज्ञ शिव ने सम्पूर्ण देहधारियों के सारे मनोरथों की सिद्धि के लिये इस ‘ ऊँ नमः शिवाय‘ मंत्र का प्रतिपादन किया है।

यह आदि मंत्र सम्पूर्ण विद्याओं का बीज मूल भी है। गुरूदेव कहते हैं जैसे वट के बीज में महान वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होने पर भी इस मंत्र को महान अर्थ से परिपूर्ण समझना चाहिये।

मंत्र में विराजते है साक्षात् शिव

ऊँ स्वयं में पूर्ण है। इस एकाक्षर मंत्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकत्र्ता, द्युतिमान, सर्वव्यापी प्रभु स्वयं शिव प्रतिष्ठित हैं।

इसी के साथ ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्षर रूप ब्रह्य हैं, वे सब ‘नमः शिवाय‘ में क्रमशः में क्रमशः स्थित हैं। इसके सूक्ष्म षडाक्षर मंत्र में पच्चब्रह्यरूपधारी साक्षात् भगवान शिव स्वभावतः वाच्यचाचक भाव से विराजमान है।

यहां शिव वाच्च हैं और मंत्र उनका वाचक माना गया है। शिव और मंत्र का यह वाच्य-वाचक भाव अनादिकाल से समाहित है, ठीक जैसे संसार से छुड़ाने वाले भगवान शिव अनादिकाल से ही इस ब्रह्याण्ड में नित्य विराजमान हैं।

जैसे औषधि रोगों की स्वीाावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान शिव सांसारिक दोषों के स्वाभाविक शत्रु माने गये हैं।

नारायण शैव उपासक एवं वेद धारक सभी मानते हैं कि यदि भगवान विश्वनाथ न होते, तो यह जगत अंधकारमय हो जाता, क्योंकि जड़ प्रकृति एवं अज्ञानी जीवात्मा को प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं।

प्रकृति से लेकर परमाणु पर्यन्त जो कुछ भी जड़ रूप तत्व हैं, वह किसी दिव्य कारण के बिना स्वयं कर्ता नहीं है।

इसीलिए जीवों के लिए धर्म करने और अधर्म से बचने का उपदेश दिया जाता है। इससे जीव के बंधन और मोक्ष कटते हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सर्वज्ञ परमात्मा शिव के बिना प्राणियों की पूर्ण सिद्धि नहीं होती।

जैसी रोगी, वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं।

अतः यह सिद्ध है कि जीवों का संसार सागर से उद्धार करने वाले अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव मंत्र में विद्यमान हैं।

सदाशिव अर्थात् जो सत, चित और आनंद के रूप् में सबसके लिए कल्याणकारी हैं। वे किसी रूप में होंगे शिव ही कहलायेंगे।

वे प्रभु आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं, स्वभाव से ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण है। यह उनका स्वरूप है, इसीसे उन्हें शिव नाम से जाना जाता है।

यह पच्चाक्षर मंत्र उन्हीं का अभिधान है और वे शिव अभिधेय है। अभिधान और अभिधेय रूप होने के कारण परमशिवस्वरूप यह मंत्र सिद्ध मंत्र माना गया है।

‘ऊँ नमः शिवाय‘ षडाक्षर शिववाक्य परमपद भी है। यह शिव का विधि वाक्य है। यह शिव का स्वरूप है, जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल शिव है।

गुरू मंत्र भी है यह


जो वाक्य रग, द्वेष, असत्य, काम, कोध्र और तृष्णा का अनुसरण करने वाला हो, वह नरक का हेतु कहलाता है।

अविद्या एवं राग से युक्त वाक्य जन्म मरणरूप संसार क्लेश की प्राप्ति में कारण माना जाता है। पर यह मंत्र सुनकर कल्याण की प्राप्ति तथा राग आदि दोषों का नाश होता है।

इसीलिए इसे गुरूमंत्र की भी उपमा प्राप्त है। साधक गुरू मुख होकर भी इसे धारण करता है और गुरू द्वारा निर्देशित विधि-विधान, नियम का पालनकरते हुए इसका जप-उपासना करता है तो साधक की स्थूल, सुक्ष्म एवं कारण सम्पूर्ण चेतना के धरातल खुलने लगते हैं।

चित्त निर्मलता के साथ इसमंत्र जप की यात्रा प्रारम्भ होती है और मोक्ष तक उसे पहुंचाती है।


इसी बीच में आने वाले व्यवधानों को गुरू अपनी सुक्ष्म एवं कारण चेतना से अज्ञात भाव से दूर करता रहता है।

मंत्र जप के सतत अभ्यास से साधक गुरूमय होने लगता है, वहीं गुरू की ओर से अपने तप, प्राण एवं पुण्य से शिष्य को भर देने का सहज प्रवाह फूट पड़ता है।


चूंकि इस षडाक्षर मंत्र में छहों अंगों सहित सम्पूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं, अतः इन अंगों का, इन सोपानों का क्रमशः जागरण प्रारम्भ हो।

साथ ही साधक अपनी स्थूल से सूक्ष्म, फिर कारण इन तीनों चेतना को भेदने में सफल हो, इसके लिए गुरू शिष्य को सेवा के नौ प्रकल्पों से जोड़कर रखने का निर्देश धर्मादा सेवा के रूप देता है।

वास्तव में नौ प्रकार की सेवाओं का धर्मादा सेवा समुच्चय शिष्य को पूर्णता से जोड़ने का माध्यम ही है। सात करोड़ महामंत्रों और अनेकोनेक उपमंत्रों से यह षडाक्षर-मंत्र उसी प्रकार भिन्न है।

इसीलिए जिसके हृदय में ‘ऊँ नमः शिवाय‘ यह षडाक्षर मंत्र प्रतिष्ठित है, उसमें दूसरे बहुसंख्यक मंत्र और अनेक शास्त्रों का प्रवाह स्वतः फूट पड़ता है।

जिसने इस मंत्र का जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने सम्पूर्ण शास्त्र पढ़ लिये और समस्त शुभ कृत्यों का अनुष्ठान पूरा कर लिया। ऐसे साधक का हमेशा शुभ होता है और सुख-समृद्धि के द्वार सहज खुलते हैं।