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गुरु मच्छीन्द्रनाथ जी (Guru Macchindranāth)

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जैसा कि श्रीमद्भागवत में बताया गया है, भगवान श्री वृषभ के नौ पुत्र, जिन्हें “नौ नारायण” के नाम से जाना जाता है, दुनिया के लाभ के लिए अवतरित हुए। श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी कवि नारायण के प्रथम अवतार हैं। कवि नारायण ने मत्स्य के रूप में अवतार लिया और “श्री मत्स्येन्द्र” नाम धारण किया, जैसा कि मालू कवि श्री नवनाथ कथासार द्वारा लिखे गए दूरस्थ स्वरूप ग्रंथ में वर्णित है। श्री मत्स्येन्द्रनाथ जी नाथ सम्प्रदाय के प्रथम नाथाचार्य थे। विद्वानों के अनुसार, संस्कृत ग्रंथ कौलज्ञाननिर्णय, जो कौल सिद्धांत और हठ योग का वर्णन करने वाले सबसे पुराने ग्रंथों में से एक है, का लेखकत्व उन्हीं को जाता है। सिद्ध परम्पराओं में मच्छिन्द्रनाथ का स्थान सम्माननीय माना जाता है। उन्हें नाथ संप्रदाय का संस्थापक माना जाता है जिसने मध्य युग के भक्ति आंदोलनों में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

स्वामी मच्छीन्द्रनाथ दुनिया के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने श्री शंकर से योग सीखा और पूरी दुनिया को सिखाया। स्वामी मच्छिन्द्रनाथ, महायोगी जिन्होंने श्री गोरक्षनाथ के रूप में संसार को वैराग्य और वैराग्य का जीवंत और जीवंत उदाहरण दिया। शबरी विद्या भानामति या बंगाली जादू-टोना नहीं है। लेकिन यह स्वामी मच्छीन्द्रनाथ ही हैं जो पूरी दुनिया के सामने इस बात पर ज़ोर देते हैं कि देवाधिदेव महादेव आदिमाया पार्वती ने जब भिलिनी के रूप में उनसे लोकभाषा में वेदों का उच्चारण किया था, तो वही स्वामी मच्छीन्द्रनाथ हैं। सबसे महान ऋषि, स्वामी मच्छीन्द्रनाथ, महादेव के पुत्र यानि वीरभद्र को अपनी शक्ति और पराक्रम के घमंड को पूरी तरह से नष्ट करने की शक्ति रखते थे।


स्वामी मच्छीन्द्रनाथ तपस्वी विभूतिमत्व थे, जिन्हें महादेव शंकर के बाद न केवल संजीवनी विद्या का ज्ञान था, बल्कि कठिन से कठिन विद्या में भी महारत हासिल थी और उन्होंने स्वयं के साथ-साथ मीननाथ पर भी संजीवनी विद्या का प्रयोग कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की थी। विश्व-प्रसिद्ध शिव शिष्य स्वामी मच्छीन्द्रनाथ ने लपांडव के अत्यंत सरल खेल को चुनौती देकर गोरक्ष जैसे अवधू पद को प्राप्त परम शिष्य के अहंकार को चुनौती दी और त्रिखंड में विचरण कर रहे गोरक्षनाथ को भी एक बार फिर समर्पण कर दिया। (मछिंद्रनाथ महाराज ने जो मुखौटा प्रस्तुत किया था, उसमें उन्होंने पृथ्वी, तेज, आप, वायु और आकाश का रूप धारण किया था और केवल उसे छोड़कर गोरक्षनाथ ने त्रिखंड को छलनी में छान लिया, लेकिन उन्हें स्वामी मछिंद्रनाथ नहीं मिले)। नवनाथों के पूर्वज मायंबा (सावरगांव) के संजीवन समाधि मंदिर में ऋषि पंचमी को नाथों की जयंती मनाई जाती है।

 

 

कौन थे मत्स्येन्द्र नाथ : मत्स्येन्द्र नाथ : नाथ संप्रदाय में आदिनाथ और दत्तात्रेय के बाद सबसे महत्वपूर्ण नाम आचार्य मत्स्येंद्र नाथ का है, जो मीननाथ और मछन्दरनाथ के नाम से लोकप्रिय हुए। कौल ज्ञान निर्णय के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ही कौलमार्ग के प्रथम प्रवर्तक थे। कुल का अर्थ है शक्ति और अकुल का अर्थ शिव। मत्स्येन्द्र के गुरु दत्तात्रेय थे। मत्स्येन्द्रनाथ हठयोग के परम गुरु माने गए हैं जिन्हें मच्छरनाथ भी कहते हैं। इनकी समाधि उज्जैन के गढ़कालिका के पास स्थित है। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि मछिंद्रनाथ की समाधि मछीन्द्रगढ़ में है, जो महाराष्ट्र के जिला सावरगाव के ग्राम मायंबा गांव के निकट है। इतिहासवेत्ता मत्स्येन्द्र का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी मानते हैं।

 

मत्स्येन्द्रनाथ का एक नाम ‘मीननाथ’ है। ब्रजयनी सिद्धों में एक मीनपा हैं, जो मत्स्येन्द्रनाथ के पिता बताए गए हैं। मीनपा राजा देवपाल के राजत्वकाल में हुए थे। देवपाल का राज्यकाल 809 से 849 ई. तक है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्र ई. सन् की नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। तिब्बती परंपरा के अनुसार कानपा राजा देवपाल के राज्यकाल में आविर्भाव हुए थे। इस प्रकार मत्स्येन्द्रनाथ आदि सिद्धों का समय ई. सन् के नौवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समझना चाहिए। शंकर दिग्विजय नामक ग्रंथ के अनुसार 200 ईसा पूर्व मत्स्येन्द्रनाथ हुए

महत्व

हठ योग प्रदीपिका इस प्रकार आरम्भ होती है: ‘योग का ज्ञान सर्वप्रथम गोरखनाथ और मत्स्येन्द्रनाथ को हुआ, और आत्माराम योगी ने इसे इन दोनों की कृपा से जाना।’

मत्स्येन्द्र नाथ को नाथ संप्रदाय और महासिद्ध परंपरा के सबसे उल्लेखनीय योगियों में से एक माना जाता है । गोरक्षनाथ के गुरु के रूप में उन्हें व्यापक मान्यता प्राप्त है और तांत्रिक कौल साधना के संस्थापकों में से एक के रूप में उन्हें कम जाना जाता है। नाथ योगियों के लिए मत्स्येन्द्र नाथ एक आवश्यक व्यक्ति हैं क्योंकि वह गुरु हैं और उनकी परंपरा के संस्थापक हैं। हालाँकि वे इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं कि गुरु गोरक्षनाथ ने नाथ आदेश की स्थापना की, मत्स्येन्द्रनाथ और जालंधरनाथ गुरु परम्परा की सूची में उनसे पहले आते हैं – परंपरा को सीधे आगे बढ़ाने की वंशावली। इस कारण से, मत्स्येन्द्रनाथ को दादा (गुरु) मत्स्येन्द्रनाथ के नाम से भी जाना जाता है, जहाँ दादा का अर्थ है ‘दादा गुरु।’ जबकि सभी नाथ योगी सर्वसम्मति से गुरु गोरक्षनाथ को अपना गुरु मानते हैं, मत्स्येन्द्रनाथ को, बदले में, अपने गुरु के उपदेशक के रूप में मान्यता प्राप्त है, और इसलिए उनके दादा गुरु के रूप में।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

शोधकर्ता मत्स्येंद्रनाथ के जीवन की सटीक तिथि के बारे में एकमत नहीं हो पाए हैं। विभिन्न मतों के अनुसार, वे सातवीं शताब्दी से पहले और बारहवीं शताब्दी के बाद नहीं रहे। सबसे पुरानी तिथि इस तथ्य पर आधारित है कि वे नेपाल के राजा नरेंद्र देव के साथ रहते थे, जो लगभग 640 ई. में सिंहासन पर बैठे और 683 ई. में अपनी मृत्यु तक शासन करते रहे। नवीनतम तिथि संत ज्ञानेश्वर की जीवनी पर आधारित है , जिसके अनुसार वे उनसे बहुत पहले नहीं रहे थे।

महान योगी

भारत और नेपाल में मत्स्येंद्रनाथ द्वारा की गई अलौकिक क्षमताओं और चमत्कारों का वर्णन करने वाली कई किंवदंतियाँ हैं। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि गुरु गोरक्षनाथ की तरह, वे भी अमरता की स्थिति तक पहुँच गए थे और असाधारण जादुई शक्तियों से संपन्न थे, जो ‘सामान्य मनुष्य’ शब्द से कहीं अधिक है। उनका उल्लेख HYP स्वात्माराम के लेखक ने महान सिद्धों में से एक के रूप में किया है, जिन्होंने हठ योग की शक्ति से समय (माया) की पकड़ को नष्ट कर दिया, और अपनी इच्छानुसार ब्रह्मांड में विचरण करने में सक्षम हो गए।

कभी-कभी भारतीय नाथ परंपरा में मत्स्येन्द्रनाथ की तुलना शिव से की जाती है, और नेपाल की बौद्ध परंपरा में उन्हें अवलोकितेश्वर के रूप में पूजा जाता है – जो बौद्ध पंथ के देवता हैं। उनके बारे में किंवदंतियों में वर्णित चमत्कारी शक्तियों में से एक सबसे उल्लेखनीय उनकी अपनी देह में रहने और स्वतंत्र इच्छा से अन्य देहों में प्रवेश करने और लंबे समय तक या स्थायी रूप से वहां रहने की क्षमता थी। अगर हम इसे सच मान लें, तो वे अमर हैं और एक देह से दूसरी देह में जाते रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि गुप्त विद्याओं और जादू के ज्ञान में वे किसी से पीछे नहीं थे, शायद उनके महान शिष्य गोरखनाथ को छोड़कर। उन्हें एक प्रसिद्ध तांत्रिक चिकित्सक के रूप में भी जाना जाता है; उदाहरण के लिए, नेपाल की एक किंवदंती में, वे एक महान जादूगर के रूप में दिखाई दिए, जिन्होंने अपने जादू की शक्ति से नेपाल के राजा की सेना को नष्ट कर दिया, जिसे बाद में गोरखनाथ ने बहाल किया। कई आधुनिक तंत्र साधक उन्हें अपने गुरु तथा आदर्श साधक के रूप में सम्मान देते हैं, विशेष रूप से वे जो कौल शक्ति मार्ग का अनुसरण करने का प्रयास करते हैं।

भारत के उत्तरी भाग में उन्हें मत्स्येन्द्रनाथ के नाम से पुकारा जाता है, जबकि दक्षिणी भाग में उन्हें मचमुनि के नाम से जाना जाता है। ‘मत्स्य’ शब्द का अर्थ मछली है, इसलिए इसका अनुवाद ‘मछलियों का भगवान’ होता है। उन्हें मीना, मच्छंदर और मच्छघ्न सहित कई अन्य मछली नामों से भी जाना जाता है। वे कौल तंत्र के पूर्वी और पश्चिमी प्रसारणों और उनके बाद के दक्षिणी संस्करण जिसे सम्भव के रूप में जाना जाता है, दोनों से जुड़े हुए हैं। इन परंपराओं से संबंधित कई तरह के ग्रंथों का श्रेय उन्हें दिया जाता है।

कश्मीर के अभिनवगुप्त (1000 ई.) ने मच्छंदा नामक एक सिद्ध का उल्लेख किया है, जिसकी पत्नी को कोंकणम्बा (कोंकण की देवी) कहा जाता है। इससे पता चलता है कि मत्स्येंद्र 9वीं से 10वीं शताब्दी में दक्षिण भारत, संभवतः दक्कन में रहते थे। उन्होंने कुल की प्रथाओं में सुधार किया, जो श्मशान भूमि पर रहने वाली योगिनियों से जुड़ी थीं। मत्स्येंद्रसंहिता और 15वीं शताब्दी के आरंभिक मैथिली गोरक्षविजय सहित कई ग्रंथों में पाई जाने वाली नाथ परंपरा और किंवदंतियाँ बताती हैं कि मत्स्येंद्र के शिष्य गोरक्षनाथ ने मत्स्येंद्र के अनैतिक तरीकों में सुधार किया, उन्हें महिलाओं की भूमि में फंसने से बचाया।

जीवन इतिहास

मत्स्येन्द्रनाथ की जन्म तिथि और जन्म स्थान के बारे में विभिन्न ग्रंथों, शोधों और इतिहासकारों द्वारा कई व्याख्याएँ की गई हैं।

श्री चैतन्य मच्छिन्द्रनाथ की जन्म कथा

एक दिन जब शिव और पार्वती कैलास पर्वत पर थे, तब पार्वती ने शंकर से कहा, ‘आप जिस मंत्र का जाप कर रहे हैं, उसकी कृपा मुझे दीजिए।’ यह सुनकर उन्होंने उससे कहा, ‘मैं तुम्हें उस मन्त्र का उपदेश दूँगा; लेकिन इसके लिए एकांत की आवश्यकता होती है. तो  इसलिए वह एकांत जगह देखने चली गई. वह घूमते-घूमते यमुना के पास आ गयी। आदमी की कोई गंध नहीं थी. इस वजह से उन्होंने वह जगह पसंद की और वहीं बैठ गये. वहां पार्वती सुन्दर मन्त्रों का जाप करने लगीं।यमुना नदी में वह मछली थी जिसने भगवान ब्रह्मा का वीर्य निगल लिया था। वह मछली इस निर्जन स्थान के पास तैर रही थी।

मछली गर्भवती थी। मछली के गर्भ में पल रहा बच्चा भगवान शिव और माता पार्वती के बीच हो रही बातचीत सुन रहा था।

दिव्य मंत्रों को सुनने के बाद, मछली के गर्भ में पल रहे बच्चे को शुद्ध और सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त हुआ और वह “ब्रह्मरूप” बन गया । उसने समझ लिया कि पूरा संसार “चेतना” से बना है जो भगवान ब्रह्मा हैं।

अपना ज्ञान देने के बाद भगवान शिव ने माता पार्वती से मंत्रों के सिद्धांत के बारे में पूछा तो मछली के गर्भ से शिशु ने कहा कि ‘सब कुछ ब्रह्म है।’

यह सुनकर भगवान शिव ने आवाज की दिशा में देखा और समझ गए कि “मछिंद्रनाथ” ने मछली के गर्भ के माध्यम से उनसे संवाद किया है।

“मछिन्द्रनाथ” को यह नाम इसलिए मिला क्योंकि उनका जन्म मछली से हुआ था। (“मछि” का अर्थ है “एक मछली”)।

भगवान शिव ने मछिंद्रनाथ से कहा कि उन्हें मंत्र सुनने से बहुत लाभ हुआ है। जन्म लेने के बाद, उन्हें बद्रीकाश्रम में अपने गुरु भगवान दत्तात्रेय से यही ज्ञान प्राप्त होगा।

यह कहकर भगवान शिव और माता पार्वती कैलाश पर्वत पर वापस चले गए।

शिशु “मछिंद्रनाथ” ने मछली के गर्भ में ही मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया था। जैसे ही दिन ढला, मछली ने यमुना नदी के किनारे अपने अंडे दिए और पवित्र जल में चली गई।

कुछ दिनों बाद, अंडे से बच्चे निकले और बच्चा “मछिंद्रनाथ” रोने लगा। इन अंडों को कामिक नाम के एक मछुआरे ने देखा।

कामिक को रोते हुए बच्चे पर दया आ गई। अचानक आकाशवाणी हुई और कामिक को रोते हुए बच्चे को घर ले जाने की सलाह दी।

मछुआरे के कोई संतान नहीं थी, इसलिए वह बच्चे “मछिंद्रनाथ” को घर ले जाने में खुश था। उसने और उसकी पत्नी ने बच्चे की अच्छी देखभाल की।

जब मछिन्द्रनाथ पाँच वर्ष के थे, तब वे तपस्या करना चाहते थे। इसलिए मछिन्द्रनाथ बद्रीकाश्रम चले गए और बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की।

इस दौरान भगवान शिव और भगवान दत्तात्रेय की मुलाकात हुई और कुछ दिनों तक बातचीत हुई। भगवान दत्तात्रेय बद्रीकाश्रम के सबसे सुंदर वन को देखना चाहते थे और उनकी इच्छा पूरी करने के लिए भगवान शिव उन्हें बद्रीकाश्रम के वन में ले गए।

भगवान दत्तात्रेय ने “मछिंद्रनाथ” को तपस्या करते देखा। भगवान आश्चर्यचकित हुए क्योंकि कलियुग में किसी ने ऐसी तपस्या नहीं की थी!!

उसकी केवल हड्डियों का कंकाल ही बचा था!

इस दौरान भगवान शिव और भगवान दत्तात्रेय की मुलाकात हुई और कुछ दिनों तक बातचीत हुई। भगवान दत्तात्रेय बद्रीकाश्रम के सबसे सुंदर वन को देखना चाहते थे और उनकी इच्छा पूरी करने के लिए भगवान शिव उन्हें बद्रीकाश्रम के वन में ले गए।

भगवान दत्तात्रेय ने “मछिंद्रनाथ” को तपस्या करते देखा। भगवान आश्चर्यचकित हुए क्योंकि कलियुग में किसी ने ऐसी तपस्या नहीं की थी!!

भगवान दत्तात्रेय ने “मछिन्द्रनाथ” से उनके ठिकाने के बारे में पूछा।

“मछिंद्रनाथ” ने उसे बताया कि वह पिछले बारह सालों से तपस्या कर रहा है और तब से उसने एक भी व्यक्ति को नहीं देखा है। इसलिए, वह नहीं जानता था कि उसके सामने खड़ा व्यक्ति कौन था, लेकिन उसे ऐसा लगा जैसे उसकी इच्छा पूरी हो गई हो।

भगवान दत्तात्रेय ने स्वयं को अनुसूया का पुत्र बताया और उनसे वरदान मांगने को कहा। यह सुनकर मच्छिंद्रनाथ प्रसन्न होकर उनके चरणों में गिर पड़े।

भगवान दत्तात्रेय ने “मच्छिंदरनाथ” के कान में एक मंत्र पढ़ा और इस इस प्रकार गुरु “मच्छिंदरनाथ” को सभी लोक दिव्य दिखाई देने लगे।

उनके ज्ञान की परीक्षा लेने के लिए भगवान दत्तात्रेय ने उनसे एक प्रश्न पूछा।

“ईश्वर कहाँ है?”

मच्छिंद्रनाथ ने उत्तर दिया कि उन्होंने भगवान के अलावा कुछ नहीं देखा क्योंकि भगवान हर जगह हैं।

भगवान दत्तात्रेय उनके उत्तर से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें भगवान शिव के पास ले गए। दोनों भगवानों के आशीर्वाद से, “मछिंद्रनाथ” ने नाथ संप्रदाय या नाथ संप्रदाय की स्थापना की।

“नाथ सम्प्रदाय” की स्थापना के बाद “मच्छिन्द्रनाथ” तीर्थयात्रा पर चले गये।

“मच्छिन्द्रनाथ” को चूँकि “नाथ सम्प्रदाय” (9 महान संत) की स्थापना करनी थी, उनके पहले शिष्य “गोरखनाथ” का जन्म हुआ।

बचपन

जब मच्छिन्द्रनाथ पाँच वर्ष के थे, तब एक दिन उनके पिता कामिका उनके साथ मछली पकड़ने के लिए यमुना में गये। वहां उसने मछली पकड़ने के लिए जाल फैलाया और जब उसमें बहुत सारी मछलियां आ गईं तो वह उन्हें निकालकर मच्छिन्द्रनाथ के पास ले आया और फिर से जाल लेकर पानी में चला गया। पिता के कार्यों को देखकर वह अपनी माँ के कुल को नष्ट करने के लिए प्रेरित होता है; मच्छिन्द्रनाथ के मन में यह बात आई। मच्छिन्द्रनाथ ने सोचा कि उनके रहते हुए पिता को यह काम करते हुए चुपचाप बैठना अच्छा नहीं है, और एक धार्मिक ऋषि के रूप में, हमें राजा जनमेजय के नाग सत्र में नागकुल की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। फिर उसने एक-एक करके मछलियाँ फेंकनी शुरू कर दीं। यह देखकर उसके पिता इतने क्रोधित हुए कि तुरंत पानी से बाहर आ गए और उसे कई तरह से डांटते हुए कहा, मैंने मछली पकड़ने के लिए कड़ी मेहनत की और उसने और तुमने उसे वापस पानी में छोड़ दिया; तो क्या खाओगे? भीख मांगने के लक्षण के साथ! यह कहकर वह पुनः उदका में प्रवेश कर गया। उस बात से मच्छिन्द्रनाथ बहुत दुःखी हुए, उन्होंने सोचा कि भिक्षा का भोजन पवित्र होता है और अब उन्हें यही खाना चाहिए और पिता को जल में उतरते देख मच्छिन्द्रनाथ उनसे नजरें चुराकर वहां से चले गये और घूमते-घूमते बद्रिकाश्रम चले गये। वहां उन्होंने बारह वर्ष तक तपस्या की। यह इतना कठोर था कि उसकी हड्डियों का ढांचा ही शेष रह गया। यहां श्रीदत्तात्रेय की सवारी मंदिर तक गई और आदिनाथन की स्तुति करने के बाद आदिनाथन ने प्रसन्न होकर उन्हें गले लगाया और अपने पास बैठा. तब दत्तात्रेय ने शंकर को बताया कि वह बद्रिकाश्रम का अत्यंत सुंदर वन देखना चाहते हैं। तब आदिनाथ उन्हें लेकर वन में चले गये। उसी समय, क्योंकि मच्छिन्द्रनाथ के उत्थान के दिन आ गए थे, उस संयोग के घटित होने के लिए ही, दत्त को जंगल देखने की इच्छा हुई और उन्हें आदिनाथ का रूप भी मिल गया। उभयता बद्रिकावन का सौन्दर्य देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए।उसके बाद मत्स्येंद्रनाथ घर से भाग गए और बद्रीनाथ चले गए और वहीं ध्यान किया, लगातार बारह वर्षों तक फल और पानी पर रहकर। उसके शरीर पर हड्डियों के ऊपर त्वचा ही शेष रह गई थी। तब । भगवान शिव ने भी उन्हें दिव्य दर्शन दिए और उन्हें याद दिलाया कि कैसे उन्होंने मछली के गर्भ में आत्म ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने भगवान दत्तात्रेय से कहा, ‘मत्स्येंद्र को सिद्धियों (आध्यात्मिक शक्तियों) की क्षमता और शक्ति प्रदान करें।’ भगवान दत्तात्रेय ने सभी देवताओं से उन्हें यह वरदान देने के लिए कहा मत्स्येन्द्र को श्रृंगी (पशु सींगों से बने आभूषण पहनना), कर्णवेध (कान छिदवाने का हिंदू संस्कार) और अन्य विशेषताओं के साथ-साथ नाथ समुदाय का नेतृत्व करने का अधिकार भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार, मत्स्येन्द्रनाथ को पूर्ण आध्यात्मिक बोध प्राप्त हुआ!

भगवान शिव (रुद्र) ने उन्हें युद्ध और चमत्कार के सभी रहस्य सिखाए, जिसका उपयोग उन्होंने मानवता के उत्थान और कलिपुरुष द्वारा फैलाई जा रही बुराई से बचाने के लिए किया। तब से, मत्स्येंद्रनाथ एक सिद्ध बन गए जो समय के आरंभ से लेकर अंत तक देख सकते थे।

तो भी कच्चा बे कच्चा नही गुरू का बच्चा Ι तो भी कच्चा बे कच्चा नही गुरू का बच्चा ΙΙ

गुप्त होकर प्रकट होवे जावे मथुरा काशी Ι ब्रम्हरंद्र से प्राण निकाले सत्य लोक का वासी Ι तो भी कच्चा बे कच्चा नही गुरू का बच्चा ΙΙ

कुंडलिनी खुब चढावे ब्रम्हरंद्र मे जावे Ι चलते है पानी के उपर बोले सो होवे Ι तो भी कच्चा बे कच्चा नही गुरू का बच्चा ΙΙ

कहे मच्छिंद्र सुन रे गोरख तिनो उपर जाना Ι कृपा जब सद्गुरुजी की होवे आप आप को चिना Ι सो ही सच्चा बे सच्चा सो ही गुरु का बच्चा

महान ग्रंथ सिद्धि प्रववाणी में नाथों का उल्लेख “मिनपा वर्जपाद” के रूप में किया गया है जबकि अभिनव गुप्त ने लोकतंत्र में नाथों का उल्लेख मछंदविभु के रूप में किया है।

आदिनाथ गुरु सकल सिद्ध। मच्छिन्द्र उनके प्रमुख शिष्य थे। 1.
मच्छिन्द्र ने बोध गोरक्षसी की शिक्षा दी। गोरक्ष वोला गहिनी ।।2।।
गहिनीप्रसादे सेवानिवृत्ति डेटर। ज्ञानदेवे सर चोजाविल्ले ।।3।।

उपरोक्त अभंग की रचना विश्ववंद्य मौली श्रीसंत ज्ञानेश्वर महाराज ने अपनी सर्वश्रेष्ठ गुरु परंपरा का वर्णन करते हुए की है। ज्ञानेश्वर महाराज नाथ संप्रदाय के थे। 

भागवत में दी गई जानकारी के अनुसार बताया गया है कि ऋषभदेव के कुल 100 पुत्र थे, जिनमें से 9 विलक्षण थे, ये नौ थे नारायण कवि, हरि, अंतरिक्ष,
प्रबुद्ध, पिप्पलायन, अविरहोत्र, द्रुमिल, चमस वक्रभाजन और यानिच। भगवान कृष्ण के आदेश पर कलियुग में नवनाथ के रूप में पृथ्वी पर पुनः अवतार लिया। उनके संबंधित नाम;

पहले पुत्र कवि का जन्म “मछेन्द्रनाथ” नाम से हुआ ।
“अंतरिक्ष” का जन्म  “जालंदर”
के रूप में हुआ। अपने शिष्य के रूप में प्रबुद्ध होकर, उन्होंने “कनिफ़ा” के रूप में अवतार लिया  ।
पिप्पलायन “चर्पटनाथ” के रूप में अवतरित हुए  ।
अविर्होत्र ने “नागेशनाथ” के रूप में अवतार लिया  ।
द्रुमिल ने “भर्तृनाथ” के रूप में अवतार लिया  ।
चमस “रेवन्नाथ” के रूप में अवतरित हुए  और
करभजन का जन्म “गहनीनाथ” के रूप में हुआ।

नाथ संप्रदाय मछिंदरनाथ को भगवान विष्णु का अवतार मानता है। हालाँकि, सांप्रदायिक नाम मच्छिन्द्र या मीन लोकप्रिय है। श्री मछिंदरनाथ की जयंती के अवसर पर श्री मछिंदरनाथ गढ़ यानी सावरगांव मायंबा में एक बड़ा उत्सव मनाया जाता है। श्री मछिंदरनाथ किले में नाथों ने संजीवन समाधि ले रखी है, इसलिए यहां के वातावरण में एक अलग ही जीवंतता का एहसास होता है, यह स्थान गर्भगिरि के शीर्ष पर होने के अलावा आसपास की प्रकृति भी नाथों के चरणों में अपनी सेवा अर्पित करती हुई प्रतीत होती है मंदिर की सुंदरता के लिए और भी अधिक. श्रद्धालुओं की भक्ति और उत्साह की खुशबू से वातावरण महक उठा है। किले पर श्री मच्छिन्द्रनाथ की चैतन्य समाधि है, जिसके पास ही धोंडाई देवी का मंदिर है। वह देवी नाथ की बहन मानी जाती है, किले पर निरंतर गीत बजता रहता है जो कभी ख़त्म नहीं होता। धोंडाई देवी की पहाड़ी के नीचे एक झील है जिसे “देव ताल” (झील) कहा जाता है। किले तक पहुंचने के लिए अलग-अलग सड़कें हैं और अब मढ़ी से मायाम्बा तक एक नई सड़क है।

बच्चे का नाम मच्छिंद्रनाथ रखा गया – मच्छ (जिसका अर्थ है मछली), इंद्र जिसका अर्थ है (देवता इंद्र), और नाथ (जिसका अर्थ है भगवान – इस प्रकार समुद्री मछलियों का भगवान)। मछुआरे समुदाय में बच्चे को बहुत प्यार किया जाता था। चार-पांच साल की उम्र से, वह अपने मछुआरे पिता के साथ मछली पकड़ने के लिए नदी तट पर जाने लगा। लेकिन शिव से प्राप्त ज्ञान के कारण, वह पकड़ी गई मछलियों की पीड़ा नहीं देख सकता था। इसलिए उसने उन्हें वापस नदी में फेंकना  शुरू कर दिया । प्रबुद्ध बालक ने यह निर्णय लिया कि हत्या करके पापपूर्ण जीवन जीने की अपेक्षा भीख मांगना और पाप रहित भोजन करना अधिक बेहतर है।

उसके बाद मत्स्येंद्रनाथ घर से भाग गए और बद्रीनाथ चले गए और वहीं ध्यान किया, लगातार बारह वर्षों तक फल और पानी पर रहकर। उसके शरीर पर हड्डियों के ऊपर त्वचा ही शेष रह गई थी। तब उन्हें भगवान दत्तात्रेय के दिव्य दर्शन हुए । भगवान दत्तात्रेय ने उन्हें मंत्र दीक्षा दी और तुरन्त मत्स्येंद्रनाथ का अज्ञान दूर हो गया। भगवान दत्तात्रेय ने उनसे यह भी पूछा, ‘ईश्वर कहाँ है?’ मत्स्येंद्रनाथ ने उत्तर दिया, ‘ईश्वर सर्वत्र है! ‘ जिस पर भगवान दत्ता ने सहमति में सिर हिला दिया। भगवान शिव ने भी उन्हें दिव्य दर्शन दिए और उन्हें याद दिलाया कि कैसे उन्होंने मछली के गर्भ में आत्म ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने भगवान दत्तात्रेय से कहा, ‘मत्स्येंद्र को सिद्धियों (आध्यात्मिक शक्तियों) की क्षमता और शक्ति प्रदान करें।’ भगवान दत्तात्रेय ने सभी देवताओं से उन्हें यह वरदान देने के लिए कहा मत्स्येन्द्र को श्रृंगी (पशु सींगों से बने आभूषण पहनना), कर्णवेध (कान छिदवाने का हिंदू संस्कार) और अन्य विशेषताओं के साथ-साथ नाथ समुदाय का नेतृत्व करने का अधिकार भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार, मत्स्येन्द्रनाथ को पूर्ण आध्यात्मिक बोध प्राप्त हुआ!

भगवान शिव (रुद्र) ने उन्हें युद्ध और चमत्कार के सभी रहस्य सिखाए, जिसका उपयोग उन्होंने मानवता के उत्थान और कलिपुरुष द्वारा फैलाई जा रही बुराई से बचाने के लिए किया। तब से, मत्स्येंद्रनाथ एक सिद्ध बन गए जो समय के आरंभ से लेकर अंत तक देख सकते थे।

परंपरा और गुरु

नाथों का मार्ग

कुछ किंवदंतियों में मत्स्येंद्रनाथ को एक ‘पतित’ योगी के रूप में दिखाया गया है, जो महिलाओं के प्रति आसक्त हो गया था और अपने योगिक अतीत को भूल गया था, और यह गोरक्ष नाथ ही थे जो उसे इस स्थिति से बचाने आए थे। कुछ अन्य स्रोतों का कहना है कि उन्होंने अपनी सभी ‘गलतियाँ’ केवल दुनिया और अपने महान शिष्य के लाभ के लिए की थीं, जो कि वे जो कुछ भी कर रहे थे उससे अप्रभावित थे (यदि हम मान लें कि उनकी आत्मा उनके शरीर से मुक्त थी, तो इसे सच माना जा सकता है)। वास्तव में, सर्वोच्च भगवान का गुरु होना उनके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था।

मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ को गुरु और शिष्य के बीच के रिश्ते का आदर्श उदाहरण माना जाता है और वे दूसरों के लिए मार्ग बनाते हैं। जिन लोगों ने अपनी परम स्वतंत्रता और अमरता प्राप्त की है, वे सभी इसी मार्ग से चले हैं। हठ योग के सबसे उत्कृष्ट विशेषज्ञों में से एक, नाथ परंपरा के महान योगी, आत्माराम ने अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय मत्स्येन्द्र की कृपा को दिया है।

नौ महान नाथों की कई अलग-अलग सूचियाँ मौजूद हैं, और मत्स्येंद्रनाथ लगभग सभी में दिखाई देते हैं। नौ महान नाथों के सदस्यों में, उन्हें माया स्वरूपी या माया पति दादा मत्स्येंद्रनाथ के नाम से जाना जाता है, जिन नामों के पीछे प्रतीकात्मक अर्थ है। माया स्वरूपी का अनुवाद ‘माया (भ्रम) का रूप होना’ के रूप में किया जा सकता है, और माया पति का अर्थ है इसका स्वामी। इस संदर्भ में, वह एक सीमित मानव व्यक्तित्व की तरह नहीं, बल्कि योगिक परिवर्तनकारी शक्ति के सार्वभौमिक सिद्धांत की तरह दिखाई देते हैं । कुंडलिनी (व्यक्तिगत दिव्य शक्ति) के जागरण के बाद, यह केवल व्यक्तिगत गुरु नहीं है जो योगी को उसके मार्ग पर मार्गदर्शन कर रहा है, बल्कि संपूर्ण अस्तित्व उसका गुरु बन जाता है। माया अपनी भूमिका को महज एक भ्रम से बदलकर योग माया कर देती है

 

शिक्षाओं

मत्स्येन्द्रनाथ या मछेन्द्रनाथ ने इस रहस्यवादी संप्रदाय से संबंधित कई पवित्र ग्रंथ छोड़े हैं। माना जाता है कि वे कौल-ज्ञान-निर्णय (‘कौलाओं का निर्णायक ज्ञान’) के लेखक हैं और माना जाता है कि उन्होंने मीनानाथ उपनाम से योगविषय (‘योग का विषय’) लिखा था।

मुक्ति के लिए , जो नाथ परंपरा में लोगों का उद्देश्य है, एक सिद्ध बनने के लिए, मत्स्येंद्रनाथ के कद के एक सच्चे गुरु की तलाश करनी चाहिए, जो अवधूत / सिद्ध वंश से संबंधित हैं और स्वयं शिव के रूप में पूजनीय हैं। ऐसा गुरु अपने शिष्य को सांस रोकने की कला और मन को अवशोषित करने की प्रक्रिया के बारे में समझा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप कुंडलिनी जागृत होती है, वह भी बिना किसी प्रत्यक्ष प्रयास के। सरल शब्दों में, आत्म-साक्षात्कार केवल व्यक्तिगत प्रयास और अनुभव के माध्यम से, सांस शोधन के व्यक्तिगत योग अभ्यास के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, जो चेतना के उच्च स्तर को विकसित करता है। धीरे-धीरे, सांस अभ्यास के शुरुआती भौतिक पहलू आध्यात्मिक तत्वों में प्रकट होते हैं और अंततः अभ्यासी को लक्ष्य तक ले जाते हैं।

गुरु और शिष्य के बीच गहन संवाद वाली पुस्तक गोरख बोध को हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो योग के मार्ग पर चलना चाहता है। एक और रचना, जो गुरु द्वारा अपने शिष्य को दिए गए प्रत्यक्ष ज्ञान के परिमाण में तुलनीय है, वह है त्रिपुरा रहस्य, जहाँ परशुराम दत्तात्रेय से बातचीत करते हैं।

गोरख बोध नाथ योगियों को समझने के लिए सबसे अच्छी किताबों में से एक है। यह किताब गुरु-शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और गोरक्षनाथ के बीच की बातचीत है। यह एक व्यावहारिक, कठोर चर्चा है, जो दार्शनिक विवाद से बहुत दूर है। यह बताता है कि क्या किया जा सकता है और क्या हासिल किया जा सकता है क्योंकि यह बातचीत करने वाले योगियों द्वारा स्वयं पूरा और हासिल किया गया था।

नीचे वार्तालाप की दूसरी पुस्तक से एक अंश दिया गया है:

गोरखनाथ पूछते हैं:

स्वामीजी! प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है?

मन कहां से उत्पन्न होता है?

वाणी कहां से आती है?

वाणी कहां लुप्त हो जाती है?

मत्सयेन्द्रनाथ कहते हैं:

‘अवधू’ प्राण आत्मा के संज्ञान (अवगती) से उत्पन्न होता है

मन प्राण से उत्पन्न होता है

वाणी मन से आती है

मन में वाणी लुप्त हो जाती है

ज्ञान से प्राण उत्पन्न होता है। यह आत्मा की पहचान से उत्पन्न होता है; यही ज्ञान की शुरुआत है।

प्राण से प्रज्वलित होकर मन एक निराकार विचार उत्पन्न करता है; वाणी की ध्वनि उसे ले जाती है, तथा पहले से निराकार विचार को शब्द का रूप देकर उसे व्यक्त करती है।

मन द्वारा समृद्ध होकर और वाणी में अभिव्यक्त होकर, विचार ‘चेतन’ (बोला गया) बन जाता है और पुनः मन में ही विलीन हो जाता है।

मन में जितने अधिक विचार जन्म लेते हैं, अवशोषित होते हैं या ग्रहण होते हैं, चेतना उतनी ही अधिक शक्तिशाली बनती है।

गोरक्षनाथ कहते हैं:

स्वामीजी! चेतना क्या है? इसका सार क्या है?

जन्म क्या है? मृत्यु क्या है?

पांच तत्व किस स्थान पर रहते हैं?

आप सच्चे गुरु हैं, कृपया मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिये।

मत्स्येन्द्रनाथ कहते हैं:

अवधू! ज्योति ही चेतना है, अभय ही सार है,

जागृति जन्म है, निद्रा मृत्यु है,

पांच तत्व प्रकाश में बने रहते हैं,

यह मत मत्स्येन्द्रनाथ ने दिया था।

यहाँ जिस प्रकाश की चर्चा की गई है, वह कोई भौतिक घटना नहीं है – यह समझ का प्रकाश है, ज्ञान, जो साधक पर छा जाता है। योगिक ग्रंथों में प्रकाश का अर्थ ज्ञान का प्रकाश है।

जागने से व्यक्ति जीवन और मृत्यु के हर पहलू को समझने लगेगा और उचित समझ के साथ भय गायब हो जाएगा। एक योगी जागने में जीवन और नींद में मृत्यु को पहचान लेगा और भय उसे प्रभावित नहीं करेगा। प्राकृतिक नींद से डरना नहीं चाहिए और नींद के बाद जागना एक प्राकृतिक प्रक्रिया (मृत्यु के बाद जीवन के समान) के रूप में माना जाता है।

जब चेतन मन अवचेतना में पहुँचता है, तो वह स्वप्न जैसी अवस्था में प्रवेश करता है। फिर, जागृत होकर, मन चेतन अवस्था में लौटता है; चेतना की गतिविधियाँ ऐसी ही होती हैं। शून्य की चेतना (प्रकाश) में पाँच तत्व निवास करते हैं, और यह उन्हें विशिष्ट अनुपात में एक साथ बाँधता है। केवल ज्ञान और अपार अनुपात का सर्वोच्च प्रकाश ही ऐसी जटिलता की निर्माण सामग्री को एक साथ मिलाकर पदार्थ बना सकता है ताकि निर्माण की प्रक्रिया जारी रह सके।

नवनाथ संप्रदाय एक परंपरा है, शिक्षण और अभ्यास का एक तरीका है। यह चेतना के स्तर को नहीं दर्शाता है। यदि आप नवनाथ संप्रदाय के शिक्षक को अपना गुरु मानते हैं, तो आप उनके संप्रदाय में शामिल हो जाते हैं। आम तौर पर, आपको उनकी कृपा का एक संकेत मिलता है – एक नज़र, एक स्पर्श या एक शब्द, कभी-कभी एक ज्वलंत सपना या एक मजबूत याद। कभी-कभी कृपा का एकमात्र संकेत चरित्र और व्यवहार में एक महत्वपूर्ण और तेज़ बदलाव होता है।

कुछ किंवदंतियों के अनुसार प्रथम नाथ गुरु ऋषि दत्तात्रेय थे, जो ब्राह्मण, विष्णु और शिव के महान अवतार थे; अन्य परंपराएं शिव को प्रथम (आदि) गुरु बताती हैं। इस शिक्षण की ख़ासियत इसकी सरलता है, सिद्धांत और व्यवहार दोनों में।

‘नौ गुरुओं की परंपरा (नवनाथ परम्परा) एक नदी की तरह है – यह वास्तविकता के सागर में बहती है, और जो कोई भी इसमें प्रवेश करता है, वह साथ बह जाता है। गुरुओं और उनके शिष्यों का एक क्रम है, जो बदले में अधिक शिष्यों को प्रशिक्षित करते हैं जिससे वंश कायम रहता है। लेकिन परंपरा की निरंतरता अनौपचारिक और स्वैच्छिक है। यह एक पारिवारिक नाम की तरह है, लेकिन यहाँ परिवार आध्यात्मिक है। किसी परंपरा से संबंधित होना आपकी भावनाओं और विश्वास का विषय है। आखिरकार, यह सब मौखिक और औपचारिक है। वास्तव में, न तो गुरु है और न ही शिष्य, न सिद्धांत है और न ही व्यवहार, न अज्ञान है और न ही बोध। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि आप खुद को क्या मानते हैं। खुद को सही तरीके से जानें। आत्म-ज्ञान का कोई विकल्प नहीं है।

– नाथ गुरु निसर्गदत्तराज उनकी ‘आई एम’ पुस्तक से

नाथ संप्रदाय इसी सद्गुणी भक्ति का प्रमाण है। यह भक्ति से प्राप्त ज्ञान पर जोर देता है, जैसे ज्ञानोपरांत भक्ति। इसने भक्ति सिखाई। इस तरह, अपार गुणवान शिष्यों का निर्माण हुआ। श्री गहिनीनाथ ने श्री निवृत्तिनाथ को बनाया, और श्री निवृत्तिनाथ ने श्री ज्ञानेश्वर महाराज को आदर्श के रूप में बनाया।

नाथ साधुओं की शक्ल-सूरत और जीवनशैली अन्य उत्तर भारतीय साधुओं से बहुत मिलती-जुलती है; वे धोती पहनते हैं (कभी भी अंडरवियर या पतलून नहीं), वे अपने शरीर को राख से ढँकते हैं, और वे अक्सर अपने बालों को जटा (लंबे बाल) में रखते हैं, जो कि घुंघराले बालों में होते हैं। हालाँकि, कुछ नाथ अपने बाल छोटे रखते हैं। वे आमतौर पर धूनी या पवित्र अग्नि के पास रहते हैं, और कई भांग पीते हैं। बहुत कम महिला साधु नाथ हैं।

गृहस्थ नाथों के धार्मिक जीवन में भक्तिपूर्ण अभ्यास, विशेष रूप से सामूहिक रूप से भजन (कीर्तन) गाना और नाथ साधुओं द्वारा महान नाथ तपस्वियों, राजाओं और नायकों के बारे में महाकाव्य गाए जाने वाले सार्वजनिक प्रदर्शनों को सुनना शामिल है। कुछ क्षेत्रों में, नाथ गृहस्थ वंशानुगत मंदिर पुजारी के रूप में कार्य करते हैं। नाथ लंबे समय से विभिन्न प्रथाओं से जुड़े हुए हैं, जिनके माध्यम से उन्हें जीवित रहते हुए सिद्धियाँ या आध्यात्मिक शक्तियाँ और जीवनमुक्ति प्राप्त हुई है। अक्सर कहा जाता है कि वे योग या कीमिया के माध्यम से अमर बने शरीर में जीवनमुक्ति प्राप्त करते हैं। नाथों द्वारा हठ योग का पुनः आविष्कार मत्स्येन्द्र संहिता में शुरू की गई प्रक्रिया का ही एक विस्तार था। इसमें तांत्रिक अनुष्ठान का सुधार शामिल था, इसे व्यक्तिगत योगी के शरीर में स्थानांतरित करना और तंत्र के जटिल सामान और उल्लंघनकारी अनुष्ठानों को दूर करना। इन प्रारंभिक ग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है।

गोरक्ष शतक का अंतिम श्लोक कहता है:

हम टपकने वाले तरल पदार्थ को पीते हैं जिसे बिंदु कहते हैं, शराब नहीं।

हम पाँचों इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके मांस खाते हैं, मांस नहीं।

हम किसी प्रियतम का आलिंगन नहीं करते, बल्कि सुषुम्ना नाड़ी का आलिंगन करते हैं, जिसका शरीर कुश की तरह मुड़ा हुआ है।

यदि हमें संभोग करना ही है, तो यह योनि में नहीं, बल्कि शून्य में विलीन मन में होता है।

खेचरी मुद्रा का अभ्यास एक महत्वपूर्ण हठ योग अभ्यास है जिसमें योगी अमरता का अमृत पीने के लिए अपनी जीभ को कोमल तालु के ऊपर की गुहा में डालता है – हठ योग प्रदीपिका

पवित्र प्रथाएँ/साधना

नाथ संप्रदाय एक आरंभिक गुरु-शिष्य परंपरा है। संप्रदाय में सदस्यता हमेशा दीक्षा-गुरु द्वारा दीक्षा द्वारा प्रदान की जाती है – या तो वंश-धारक या संप्रदाय का कोई अन्य सदस्य जिसकी दीक्षा देने की क्षमता उसके दीक्षा-गुरु द्वारा मान्यता प्राप्त है। नाथ दीक्षा स्वयं एक औपचारिक समारोह के अंदर आयोजित की जाती है जिसमें गुरु की जागरूकता और आध्यात्मिक ऊर्जा (शक्ति) का कुछ हिस्सा शिष्य को प्रेषित किया जाता है। साथ ही, नए नाथ को अपनी नई पहचान का समर्थन करने के लिए एक नया नाम मिलता है। गुरु के इस संचरण या ‘स्पर्श’ को शरीर के कई हिस्सों पर राख लगाकर प्रतीकात्मक रूप से तय किया जाता है। विभिन्न योगिक और तांत्रिक अभ्यास पारंपरिक रूप से नाथ वंश से जुड़े हुए हैं, लेकिन इन सबसे ऊपर गुरु के प्रति भक्ति का मार्ग है।

जब कोई व्यक्ति ईश्वर के सीधे संपर्क में आने का प्रयास करता है, तो धोखा देने और बातचीत करने के सभी प्रयास बेकार हो जाते हैं। गुरु के प्रति स्वयं को पूर्ण रूप से समर्पित कर देना ही एकमात्र विकल्प और एकमात्र तरीका है। सब कुछ प्राप्त करने के लिए, व्यक्ति को अपना सब कुछ, व्यक्तिगत लगाव, आकांक्षाएं और महत्वाकांक्षाएं छोड़नी पड़ती हैं। ईश्वर-प्रणिधान का अनुवाद ‘ईश्वर को अपना जीवन अर्पित करना’ के रूप में किया जा सकता है। व्यवहार में, इसका अर्थ है ईश्वर की इच्छा के प्रति पूर्ण समर्पण, अपना जीवन ईश्वर को समर्पित करना। गुरु-शिष्य के रूप में मत्स्येंद्रनाथ और गोरक्षनाथ के बीच का दिव्य संबंध एक उदाहरण के रूप में कार्य करता है। यह भारत में मौजूद सभी धर्मों और आध्यात्मिक वंशों की मूलभूत अवधारणाओं में से एक है कि गुरु को ईश्वर का अवतार माना जाना चाहिए। जब ​​समर्पित आध्यात्मिक साधक अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए तैयार हो जाते हैं, तो भगवान स्वयं उनका मार्गदर्शन करने के लिए गुरु का रूप धारण करते हैं। गुरु के माध्यम से, भगवान स्वयं को एक साधक के सामने प्रकट करते हैं और उसे योग के मार्ग पर मार्गदर्शन करते हैं।

इसलिए, नाथ योगियों की साधना श्री गुरु के प्रति अटूट आस्था और भक्ति पर केंद्रित है। कुछ अभ्यास दिव्य अवस्था की झलक पाने में मदद कर सकते हैं, लेकिन उनमें से कोई भी स्थायी रूप से उसी अवस्था को प्राप्त करने में मदद नहीं कर सकता क्योंकि इसके लिए स्वयं ईश्वरीय कृपा की आवश्यकता होती है। भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं: ‘ अज्ञान (गुण) के तीन गुणों से युक्त मेरी दिव्य माया को पार करना लगभग असंभव है। केवल वे ही इसे पार कर सकते हैं जिन्होंने खुद को पूरी तरह से मेरे प्रति समर्पित कर दिया है।

गुरु की कृपा और देखरेख में शक्तिपात (व्यक्तिगत दिव्य शक्ति का जागरण) प्राप्त करके परमपद (आत्मसाक्षात्कार) प्राप्त किया जा सकता है। एक धैर्यवान और ईमानदार शिष्य गुरु की कृपा से ही उस अवस्था में स्थापित हो सकता है। आदि गुरु शिव कहते हैं: गुरु से बड़ा, गुरु से बड़ा, गुरु से ऊंचा और गुरु से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी और कोई भी नहीं है। यह शिव का आदेश है, शिव का आदेश है, शिव का आदेश है।

सिद्ध परंपरा में दीक्षा के पहले चरण में (दक्षिण भारत में, नाथ गुरुओं को सिद्ध भी कहा जाता है), गुरु मंत्र एक योगी को उसके गुरु द्वारा दिया जाता है। यह उन शिष्यों के लिए अनिवार्य है जो तपस्वी मार्ग पर चलने का फैसला करते हैं, और यह सामान्य शिष्यों को भी दिया जाता है। मंत्र शब्द का अर्थ है ‘मन को नियंत्रित करना।’ गुरु मंत्र सभी अन्य प्रकार के मंत्रों से अलग है। इसे योगी द्वारा अपनी दैनिक गतिविधियों के दौरान, विशेष रूप से अपनी साधना के प्राथमिक चरण में लगातार दोहराया जाना चाहिए। यह मन की सभी गतिविधियों को रोकने और साथ ही साधक की जागरूकता को बनाए रखने की अनुमति देता है, जो उसे एक बार में उसकी सभी सीमाओं और कठिनाइयों से परे उच्च आध्यात्मिक क्षेत्रों में ले जाता है। इस प्रकार, गुरु मंत्र दिव्य शक्ति को बढ़ाने में एक प्रमुख भूमिका निभाता है, जिसे कुंडलिनी शक्ति के रूप में भी जाना जाता है।

नाथ योगी अपने वंश के प्रामाणिक या आधिकारिक रूप से स्वीकृत धर्मग्रंथ के रूप में किसी भी लिखित कार्य को नहीं अपनाते हैं, जिसके नाम में तंत्र शब्द हो; वे किसी भी लिखित तंत्र के अनुयायी नहीं हैं। हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि वे उन प्रथाओं की अवहेलना करते हैं जिन्हें तांत्रिक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। तंत्र कुंडलिका-गणित है। मान लीजिए कि हम इस प्रकाश में तंत्र शब्द की परिभाषा को स्वीकार करते हैं, तो नाथों को तांत्रिक सिद्धों के रूप में योग्य माना जा सकता है क्योंकि बढ़ती कुंडलिनी की अवधारणा उनके शिक्षण में एक प्रमुख भूमिका निभाती है।

गोरक्षनाथ कुंडलिनी को एक दिव्य शक्ति के रूप में समझाते हैं जो दो अवस्थाओं में विद्यमान है, एक सुप्त (सोते हुए) अवस्था में, दूसरी जागृत अवस्था में। सोते समय, वह एक कुंडलित सर्प के रूप में प्रकट होती है जो रीढ़ के आधार पर स्थित मूलाधार चक्र पर सोती है। योगिक तकनीकों द्वारा जागृत होने के बाद, वह केंद्रीय चैनल सुषुम्ना से होते हुए सहस्रार चक्र तक जाती है, जो उसका अंतिम गंतव्य है। अपनी यात्रा में, वह चक्रों से गुज़रती है और अपनी यात्रा के प्रत्येक स्तर पर अपने पति शिव के साथ एक हो जाती है।

नाथों की परंपरा ने भारत और उसकी सीमाओं से परे आध्यात्मिक जीवन पर बहुत बड़ा प्रभाव डाला है। नाथ योगियों ने पूरे भारत में शैव धर्म के प्रचार में एक प्रमुख भूमिका निभाई और पूरे देश में कई बाद की शैव और शाक्त परंपराओं के विकास को प्रभावित किया। इसके अलावा, वंश के कई योगियों ने सिद्ध की स्थिति को प्राप्त किया और सनातन धर्म के प्रसार और संरक्षण में योगदान दिया। उनका अपना जीवन जीवन के आध्यात्मिक आदर्शों का उदाहरण है।

नाथ वंश के योगियों ने एक जटिल प्रणाली विकसित की जिसे बाद में हठ योग के नाम से जाना गया। मानव शरीर के रखरखाव और स्वास्थ्य के लिए प्रस्तावित हठ योग के वे अभ्यास वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में बहुत प्रभावी साबित हुए। आज की दुनिया में, लाखों लोग अपने जीवन में योग के सिद्धांतों का उपयोग कर रहे हैं, अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के तरीके के रूप में बुनियादी हठ योग अभ्यास का अभ्यास कर रहे हैं। कुछ लोग क्रिया योग परंपरा के माध्यम से प्रबुद्ध हो जाते हैं । गुरु गोरक्षनाथ द्वारा प्रस्तुत विचार और अभ्यास उनके समय से बहुत आगे थे, और उनकी शिक्षाओं ने आज तक अपनी वास्तविकता नहीं खोई है।

 

चमत्कार

अपनी यात्रा के दौरान, मत्स्येंद्रनाथ ने देवी हिंगला की पूजा करने का फैसला किया। लेकिन समस्या यह थी कि आठ भैरव (भगवान शिव के उग्र रूप) मंदिर की रखवाली कर रहे थे। उन्होंने अंदर जाने की कोशिश की, लेकिन पहरेदारों ने उन पर हमला कर दिया। इसलिए उन्होंने देवताओं से अपील की, और सभी हथियार सड़ गए और जंग खा गए। फिर, एक मंत्र से पवित्र राख डालकर, उन्होंने अपने शरीर को स्टील की तरह सख्त कर लिया। उन्होंने भैरवों को चुनौती दी, जिन्होंने उन पर खतरनाक हथियार फेंके, लेकिन वे सभी कुंद निकले। उन्होंने हर हथियार का मुकाबला किया और इस तरह उन्हें विफल साबित कर दिया।

देवी हिंगला ने जल्दी से सभी को बताया, ‘वह एक महान संत हैं। डरो मत! चलो उनके दिव्य दर्शन का आशीर्वाद लें।’ यह सुनकर सभी को खुशी हुई। जैसे ही मत्स्येन्द्रनाथ करीब आए, देवी अत्यंत प्रसन्न होकर उनके सामने प्रकट हुईं। उन्होंने उन्हें दो नए हथियार दिए; स्पर्श अस्त्र और भिन्न अस्त्र।

 

गोरक्ष के एक शिष्य, आत्माराम ने हठ योग प्रदीपिका की रचना की, जो आज भी छपी हुई है, जिसमें प्राणायाम, चक्र, आसन, कुंडलिनी, बंध, नाड़ियाँ और मुद्राओं पर शिक्षाएँ दी गई हैं। हठ योग प्रदीपिका एक शानदार ग्रंथ है, हालाँकि यह मुख्य रूप से संन्यासियों और भटकने वाले योगियों के लिए है, जिनका मार्ग इच्छाओं पर विजय प्राप्त करना है। अभ्यास के माध्यम से जागृति स्वाभाविक रूप से होती है।

पवित्र स्थल और तीर्थस्थल

भारत और नेपाल में मत्स्येन्द्रनाथ से जुड़े कुछ पवित्र तीर्थ स्थान

●      मत्स्येन्द्रनाथ गुरु पीठ भारत के दक्षिण में श्री गुरु पराशक्ति क्षेत्र: मद्य मैंगलोर में है। निकटतम हवाई अड्डा बेंगलुरु और मैंगलोर है।

●      श्रीक्षेत्र मत्स्येन्द्रनाथ समाधि मंदिर मायाम्बा सावरगांव, जिला बीड, महाराष्ट्र (गर्भगिरि पर्वत) में है।

●      किल्ले-मचींद्रगढ़ ताल में मछिंद्रनाथ मंदिर: वालवा (इस्लामपुर) जिला: सांगली, महाराष्ट्र

●      मच्छिन्द्रनाथ मंदिर, उज्जैन, मध्य प्रदेश राज्य, भारत

●      राटो (लाल रंग) मछेन्द्रनाथ मंदिर नेपाल के पाटन (ललितपुर) दरबार चौक से लगभग 400 मीटर दक्षिण में, ता बहा नामक एक बड़े प्रांगण में स्थित है। इसे 1673 में पुराने मंदिरों की नींव पर बनाया गया था। यह मंदिर मत्स्येन्द्रनाथ का सम्मान करता है, जो दसवीं शताब्दी की शुरुआत के नाथ योगी थे, जिन्हें उनके गुरु भगवान शिव का वंशज माना जाता है।

●      कादरी मंजूनाथ मंदिर, मैंगलोर, कर्नाटक

●      बंगाल में हेल्लापट्टनम

●      चित्रकूट – कर्वी, (मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा, पीयूषिनी नदी के तट के पास

●      गुंबाहट्टा – कलिम्पोंग, जिला दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल

●      थिरुपरनकुंड्रम – मदुरै, तमिलनाडु के पास

●      विश्वयोगी स्वामी मच्छीन्द्रनाथ मंदिर, मिटमिता, औरंगाबाद, महाराष्ट्र

●      मच्छिन्द्र नाथ मंदिर, अंबागेट के अंदर, अमरावती, महाराष्ट्र

मत्स्येन्द्रनाथको सम्मानित करने वाले कार्यक्रम और मंदिर

कहा जाता है कि 11वीं शताब्दी के दौरान योगी मत्स्येंद्रनाथ ने काठमांडू में बागमती नदी के किनारे एक गुफा में ध्यान करना शुरू किया था, जिसे आज गुह्येश्वरी मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर नेपाल में उनके लिए समर्पित सबसे पवित्र स्थानों में से एक है।

कहा जाता है कि योगी मत्स्येंद्रनाथ के सम्मान में मछिंद्रनाथ यात्रा कार्यक्रम की शुरुआत 12वीं शताब्दी में हुई थी, जो नेपाल के सबसे महत्वपूर्ण उत्सवों में से एक है। यह उत्सव, जो आज भी नेपाल में हर साल मनाया जाता है, में मछिंद्रनाथ की आकृति वाले विशाल लकड़ी के रथ की परेड काठमांडू की सड़कों पर कई सप्ताह तक चलती है। यह आयोजन शुद्धिकरण और कायाकल्प की अवधि के रूप में कार्य करता है, और कहा जाता है कि जो लोग इसमें भाग लेते हैं, उन्हें भाग्य और धन की प्राप्ति होती है।

योगी मत्स्येंद्रनाथ को नेपाल में बहुत से मंदिरों और तीर्थस्थलों पर पूजा जाता है, लेकिन खास तौर पर काठमांडू घाटी में। ललितपुर में मछिंद्रनाथ मंदिर घाटी के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है और उनमें से सबसे महत्वपूर्ण है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण 14वीं शताब्दी ई. में हुआ था। बहुत से लोग इन स्थानों पर आध्यात्मिकता से जुड़ने की उम्मीद में जाते हैं, जो उन्हें लगता है कि वह उनमें समाहित है और साथ ही उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन भी मांगते हैं।

बाद में, योगी मत्स्येंद्रनाथ एक नेपाली राजा के सपने में आए और उन्हें एक खास पेड़ की तलाश करने का निर्देश दिया, जिसके परिणामस्वरूप काठमांडू में प्रसिद्ध पशुपतिनाथ मंदिर की नींव रखी गई। हिंदू देवता शिव का सम्मान करने वाला यह मंदिर नेपाल के सबसे पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है।

 

 

महान गुरु गोरखनाथ (Guru Gorakhnath)

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महान चमत्कारिक और रहस्यमयी गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर और एक जाति का नाम गोरखा है। गोरखपुर में ही गुरु गोरखनाथ समाधि स्थल है। यहां दुनियाभर के नाथ संप्रदाय और गोरखनाथजी के भक्त उनकी समाधि पर माथा टेकने आते हैं।


गुरु गोरखनाथ
या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे ( प्रमाण है राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की शुरुआत प्रथम शताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भर्तृहरि एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे ) गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। उनका मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गोरखनाथ के शिष्य का नाम भैरोनाथ था जिनका उद्धार माता वैष्णोदेवी ने किया था। पुराणों के अनुसार भगवान शिव के अवतार थे।

नेपाल के गोरखा लोगों का ‘गोरखा’ नाम गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही सम्बन्ध रखता है। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे ‘रोट महोत्सव’ कहते हैं और यहाँ मेला भी लगता है। गुरू गोरक्ष नाथ जी का एक स्थान उच्चे टीले गोगा मेड़ी,राजस्थान हनुमानगढ़ जिले में भी है।इनकी मढ़ी सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के नजदीक वेरावल में है। इनके साढ़े बारह पंथ होते हैं।

गुरु गोरखनाथ का जन्म

गुरु गोरखनाथ एक योग सिद्ध योगी थे, इन्होंने हठयोग परंपरा का प्रारंभ किया। इनको भगवान शिव का अवतार माना जाता है। गोरखनाथ को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ का मानस पुत्र भी कहा जाता है। मान्यता के अनुसार एक बार गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा मांगने एक गांव गए। एक घर में भिक्षा देते हुए स्त्री बड़ी उदास दिखाई दी, तो गुरु ने पूछा क्या समस्या है?

स्त्री बोली- मेरी कोई संतान नहीं है। उस स्त्री को परेशान देख गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने उसको मंत्र पढ़कर एक चुटकी भभूत दी और पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देकर चले गए। लगभग बारह साल के बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ उसी गांव में फिर से आए और उस स्त्री के घर पहुंचे। दरवाजे के बाहर से आवाज लगाकर स्त्री को बुलाया और कहा, अब तो पुत्र बारह साल का हो गया होगा। असलियत में वह स्त्री गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की सिद्धियों से अनजान थी, इसलिए उसने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा दी भभूत को खाने की बजाय गोबर में फेंक दिया था। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की सिद्धि इतनी प्रबल थी कि भभूत बेकार नहीं जाती। स्त्री घबरा गई और सारी बात बताई कि मैंने भभूत को गोबर में फेंक दिया था।

गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने कहा वह स्थान दिखाओ, वहां जाकर देखा तो एक गाय गोबर से भरे एक गड्ढे के ऊपर खड़ी है और अपना दूध उस गड्ढे में झलका रही है, तब गुरु ने उस स्थान पर बालक को आवाज लगाई। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की आवाज से उस गोबर वाली जगह से एक बारह वर्ष सुंदर आकर्षक बालक बाहर निकला और हाथ जोड़कर गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के सामने खड़ा हो गया।

इस प्रकार बाबा गोरखनाथ का जन्म स्त्री के गर्भ से नहीं, बल्कि गोबर और गो द्वारा की जाने वाली रक्षा से हुआ था। इसलिए इनका नाम गोरक्ष पड़ा। इस बालक को गुरु मत्स्येन्द्रनाथ अपने साथ लेकर चले गए और आगे चलकर यही बालक गुरु गोरखनाथ बने। गोरक्षनाथ ने ही नाथ योग की परंपरा शुरू की और आज हम जितने भी आसन, प्राणायाम, षट्कर्म, मुद्रा, नादानुसंधान या कुण्डलिनी आदि योग साधनाओं की बात करते हैं, सब इन्हीं की देन है।

अन्य युगों में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा :-

  • त्रेता युग में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा

त्रेता युग में भी गुरु गोरखनाथ ने अवतार लिया था. ऐसा माना जाता है की जब श्री राम का राज्यभिषेक था. तब गुरु गोरखनाथ को भी आमंत्रण मिला था. और वह भगवान श्री राम के उत्सव में शामिल भी हुए थे.

  • द्रापर युग में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा

अब कई हिंदू ग्रंथो के अनुसार ऐसा भी माना जाता है. की द्रापर युग में भी गुरु गोरखनाथ ने अवतार लिया था. उस समय गुजरात में स्थित जूनागढ़(गिरनार)गोरखमढ़ी में तप किया था. इसी जगह पर श्री कृष्ण और रुक्मणि विवाह हुआ था. तब गुरु गोरखनाथ उनके विवाह में सम्मिलित हुए थे।

  • कलयुग में गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा

अगर बात की जाए कलयुग की तो ऐसा माना जाता है. की एक समय बाप्पा रावल नाम के राजकुमार घूमते-घूमते बिच जंगल में पहुंच गए. तब उन्होंने जंगल में तेजस्वी साधू को तप करते हुए देखा. वह गुरु गोरखनाथ जी थे.

बाप्पा रावल ने उनके तेज और ध्यान से प्रभावित होकर वही रहना शुरू कर दिया. और उनकी सेवा करने लगे.और उनकी गैया भी चराया करते थे. इसी लिए बप्पा रावल कालभोज ग्वाल भी कहे जाते है ।गुरु गोरखनाथ का ध्यान टुटा तो वह बाप्पा रावल की सेवा से प्रसन्न हो गए. और उन्होंने एक तलवार बाप्पा रावल को आशीर्वाद के रूप में दी. बाद में बाप्पा रावल ने इसी तलवार से मलेच्छो को हराया. और चितोड़ राज्य की स्थापन की.

गोरखनाथजी ने नेपाल और भारत की सीमा पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपातन में तपस्या की थी। उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई। भारत के गोरखपुर में गोरखनाथ का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को यवनों और मुगलों ने कई बार ध्वस्त किया लेकिन इसका हर बार पु‍नर्निर्माण कराया गया। 9वीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार किया गया था लेकिन इसे 13वीं सदी में फिर मुस्लिम आक्रांताओं ने ढहा दिया था। बाद में फिर इस मंदिर को पुन: स्थापित कर साधुओं का एक सैन्यबल बनाकर इसकी रक्षा करने का कार्य किया गया। इस मंदिर के उपपीठ बांग्लादेश और नेपाल में भी स्थित है। संपूर्ण भारतभर के नाथ संप्रदाय के साधुओं के प्रमुख महंत हैं योगी आदित्यनाथ। कोई यह अंदाजा नहीं लगा सकता है कि आदित्यनाथ के पीछे कितना भारी जन समर्थन है। सभी दसनामी और नाथ संप्रदाय के लोगों के लिए गोरखनाथ का यह मंदिर बहुत महत्व रखता है।

महायोगी गोरखनाथ : माना जाता है कि जितने भी देवी-देवताओं के साबर मंत्र है उन सभी के जन्मदाता श्री गोरखनाथ ही है। नाथ और दसनामी संप्रदाय के लोग जब आपस में मिलते हैं तो एक दूसरे से मिलते वक्त कहते हैं- आदेश और नमो नारायण।

नवनाथ की परंपरा की शुरुआत गुरु गोरखनाथ के कारण ही शुरु हुई थी। शंकराचार्य के बाद गुरु गोरखनाथ को भारत का सबसे बड़ा संत माना जाता है। गोरखनाथ की परंपरा में ही आगे चलकर कबीर, गजानन महाराज, रामदेवरा, तेजाजी महाराज, शिरडी के साई आदि संत हुए। माता ज्वालादेवी के स्थान पर तपस्या करने उन्होंने माता को प्रसंन्न कर लिया था।

गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे। उन्होंने योग के कई नए आसन विकसित किए थे। जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’

गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

नवनाथ परंपरा : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं:- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव ( जालंधर या जालिंदरनाथ) आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। कुछ लोग नौ नाथ का क्रम ये बताते हैं:- मत्स्येन्द्र, गोरखनाथ, गहिनीनाथ, जालंधर, कृष्णपाद, भर्तृहरि नाथ, रेवणनाथ, नागनाथ और चर्पट नाथ।

।।मच्छिंद्र गोरक्ष जालीन्दराच्छ।। कनीफ श्री चर्पट नागनाथ:।।
श्री भर्तरी रेवण गैनिनामान।। नमामि सर्वात नवनाथ सिद्धान।। 

गोरखनाथ की परंपरा :

नाथ शब्द का अर्थ होता है स्वामी। कुछ लोग मानते हैं कि नाग शब्द ही बिगड़कर नाथ हो गया। भारत में नाथ योगियों की परंपरा बहुत ही प्राचीन रही है। नाथ समाज हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है। इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई। आपने अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ आदि कई तीर्थस्थलों के नाम सुने होंगे। आपने भोलेनाथ, भैरवनाथ आदि नाम भी सुने ही होंगे। साईनाथ बाबा (शिरडी) भी नाथ योगियों की परंपरा से थे। गोगादेव, बाबा रामदेव आदि संत भी इसी परंपरा से थे। तिब्बत के सिद्ध भी नाथ परंपरा से ही थे।

नौ नाथों की परंपरा से 84 नाथ हुए। नौ नाथों के संबंध में विद्वानों में मतभेद हैं। सभी नाथ साधुओं का मुख्‍य स्थान हिमालय की गुफाओं में है। नागा बाबा, नाथ बाबा और सभी कमंडल, चिमटा धारण किए हुए जटाधारी बाबा शैव और शाक्त संप्रदाय के अनुयायी हैं, लेकिन गुरु दत्तात्रेय के काल में वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाओं का समन्वय किया गया था। नाथ संप्रदाय की एक शाखा जैन धर्म में है तो दूसरी शाखा बौद्ध धर्म में भी मिल जाएगी। यदि गौर से देखा जाए तो इन्हीं के कारण इस्लाम में सूफीवाद की शुरुआत हुई।

सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं। गुरु और शिष्य दोनों ही को 84 सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। दोनों गुरु और शिष्य को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है।

नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया। गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।

भारत के 84 सिद्धों की परंपरा में से एक थे गुरु गोरखनाथ जिनका नेपाल से घनिष्ठ संबंध रहा है। नेपाल नरेश महेन्द्रदेव उनके शिष्य हो गए थे। उस काल में नेपाल के एक समूचे क्षेत्र को ‘गोरखा राज्य’ इसलिए कहा जाता था कि गोरखनाथ वहां डेरा डाले हुए थे। वहीं की जनता आगे चलकर ‘गोरखा जाति’ की कहलाई। यहीं से गोरखनाथ के हजारों शिष्यों ने विश्वभर में घूम-घूमकर धूना स्थान निर्मित किए। इन्हीं शिष्यों से नाथों की अनेकानेक शाखाएं हो गईं।

नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथजी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते हैं। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएं मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत-सी पारंपरिक कथाएं और किंवदंतियां भी समाज में प्रसारित हैं। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिन्ध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएं प्रचलित हैं। काबुल, गांधार, सिन्ध, बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में यहां तक कि मक्का-मदीना तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और नाथ परंपरा को विस्तार किया था।

गोरखनाथ का साहित्य : गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया।

महायोगी गोरखनाथ के बारे में कुछ खास बातें:

गोरखनाथ को भारत के महाराष्ट्र में जाना जाता है. इन्हें मत्स्येंद्रनाथ का शिष्य माना जाता है. गोरखनाथ को भगवान शिव का अवतार माना जाता है. गोरखनाथ को भारत का सबसे बड़ा संत माना जाता है. गोरखनाथ ने योग के कई नए आसन विकसित किए थे. गोरखनाथ ने नाथ साहित्य की शुरुआत की थी. गोरखनाथ ने समाधि तक पहुँचने के लिए योग, आध्यात्मिक अनुशासन, और आत्मनिर्णय का समर्थन किया. गोरखनाथ के अनुयायियों को जोगी, गोरखनाथी, दर्शनी, या कनफटा के नाम से जाना जाता है. गोरखनाथ ने नवनाथ की परंपरा की शुरुआत की थी. गोरखनाथ के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते हैं. गोरखनाथ ने भगवती राप्ती के तट पर तपस्या की थी और उसी जगह पर अपनी समाधि ली थी. गोरखनाथ के विचार और उनके योगी ग्रामीण भारत में लोकप्रिय रहे हैं.

रचनाएँ

डॉ॰ बड़थ्वाल की खोज में निम्नलिखित ४० पुस्तकों का पता चला था, जिन्हें गोरखनाथ-रचित बताया जाता है। डॉ॰ बड़थ्वाल ने बहुत छानबीन के बाद इनमें प्रथम १४ ग्रंथों को असंदिग्ध रूप से प्राचीन माना, क्योंकि इनका उल्लेख प्रायः सभी प्रतियों में मिला। तेरहवीं पुस्तक ‘ग्यान चौंतीसा’ समय पर न मिल सकने के कारण उनके द्वारा संपादित संग्रह में नहीं आ सकी, परन्तु बाकी तेरह को गोरखनाथ की रचनाएँ समझकर उस संग्रह में उन्होंने प्रकाशित कर दिया है।पुस्तकें ये हैं-

1.सबदी

2.पद

3.शिष्यादर्शन

4.प्राण -सांकली

5.नरवै बोध

6.त्मबोध

7.अभय मात्रा जोग

8.पंद्रह तिथि

9.सप्तवार

10.मंछिद्र गोरख बोध

11.रोमावलीग्यान तिलक

13.ग्यान चौंतीसा

14.पंचमात्रा

15.गोरखगणेश गोष्ठी

16.गोरखदत्त गोष्ठी (ग्यान दीपबोध)

17.महादेव गोरखगुष्टि

18.शिष्ट पुराण

19.दया बोध

20.जाति भौंरावली (छंद गोरख)

21.नवग्रह

22.नवरात्र

23.अष्टपारछ्या

24.रह रास

25.ग्यान -माला

26.आत्मबोध

27.व्रत

28.निरंजन पुराण

29.गोरख वचन

30.इंद्री देवता

31.मूलगर्भावली

32.खाणीवाणी

33.गोरखसत

34.अष्टमुद्रा

35.चौबीस सिद्ध

36.षडक्षरी

37.पंच अग्नि

38.अष्ट चक्र

39.अवलि सिलूक

40.काफिर बोध

गुरु गोरखनाथ का समय

मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ के समय के बारे में भारत में अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार की बातें कही हैं। वस्तुतः इनके और इनके समसामयिक सिद्ध जालन्धरनाथ और कृष्णपाद के सम्बन्ध में अनेक दन्तकथाएँ प्रचलित हैं।

गोरखनाथ या गोरक्षनाथ जी महाराज प्रथम शताब्दी के पूर्व नाथ योगी के थे (प्रमाण भी हे राजा विक्रमादित्य के द्वारा बनाया गया पञ्चाङ्ग जिन्होंने विक्रम संवत की सुरुआत प्रथम सताब्दी से की थी जब कि गुरु गोरक्ष नाथ जी राजा भरथरी एवं इनके छोटे भाई राजा विक्रमादित्य के समय मे थे) गुरु गोरखनाथ जी ने पूरे भारत का भ्रमण किया और अनेकों ग्रन्थों की रचना की। गोरखनाथ जी का मन्दिर उत्तर प्रदेश के गोरखपुर नगर में स्थित है। गोरखनाथ के नाम पर इस जिले का नाम गोरखपुर पड़ा है। गुरु गोरखनाथ जी के नाम से ही नेपाल के गोरखाओं ने नाम पाया। नेपाल में एक जिला है गोरखा, उस जिले का नाम गोरखा भी इन्ही के नाम से पड़ा। माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ सबसे पहले यहीं दिखे थे। गोरखा जिला में एक गुफा है जहाँ गोरखनाथ का पग चिन्ह है और उनकी एक मूर्ति भी है। यहाँ हर साल वैशाख पूर्णिमा को एक उत्सव मनाया जाता है जिसे ‘रोट महोत्सव’ कहते हैं और यहाँ मेला भी लगता है।

गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ-विषयक समस्त कहानियों के अनुशीलन से कई बातें स्पष्ट रूप से जानी जा सकती हैं। प्रथम यह कि मत्स्येंद्रनाथ और जालंधरनाथ समसायिक थे; दूसरी यह कि मत्स्येंद्रनाथ गोरखनाथ के गुरु थे और जालांधरनाथ कानुपा या कृष्णपाद के गुरु थे; तीसरी यह की मत्स्येंद्रनाथ कभी योग-मार्ग के प्रवर्तक थे, फिर संयोगवश ऐसे एक आचार में सम्मिलित हो गए थे जिसमें स्त्रियों के साथ अबाध संसर्ग मुख्य बात थी – संभवतः यह वामाचारी साधना थी;-चौथी यह कि शुरू से ही जालांधरनाथ और कानिपा की साधना-पद्धति मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ की साधना-पद्धति से भिन्न थी। यह स्पष्ट है कि किसी एक का समय भी मालूम हो तो बाकी सिद्धों के समय का पता असानी से लग जाएगा। समय मालूम करने के लिए कई युक्तियाँ दी जा सकती हैं। एक-एक करके हम उन पर विचार करें।

(1) सबसे प्रथम तो मत्स्येंद्रनाथ द्वारा लिखित ‘कौल ज्ञान निर्णय’ ग्रंथ (कलकत्ता संस्कृत सीरीज़ में डॉ॰ प्रबोधचंद्र वागची द्वारा 1934 ई० में संपादित) का लिपिकाल निश्चित रूप से सिद्घ कर देता है कि मत्स्येंद्रनाथ ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्ववर्ती हैं।

(2) सुप्रसिद्ध कश्मीरी आचार्य अभिनवअपने तंत्रालोक में मच्छंद विभु को नमस्कार किया है। ये ‘मच्छंद विभु’ मत्स्येंद्रनाथ ही हैं, यह भी निश्चचित है। अभिनव गुप्त का समय निश्चित रूप से ज्ञात है। उन्होंने ईश्वर प्रत्याभिज्ञा की बृहती वृत्ति सन् 1015 ई० में लिखी थी और क्रम स्रोत की रचना सन् 991 ई० में की थी। इस प्रकार अभिनव गुप्त सन् ईसवी की दसवीं शताब्दी के अंत में और ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में वर्तमान थे। मत्स्येंद्रनाथ इससे पूर्व ही आविभूर्त हुए होंगे। जिस आदर और गौरव के साथ आचार्य अभिनव गुप्तपाद ने उनका स्मरण किया है उससे अनुमान किया जा सकता है कि उनके पर्याप्त पूर्ववर्ती होंगे।

(3) पंडित राहुल सांकृत्यायन ने गंगा के पुरातत्त्वांक में 84 वज्रयानी सिद्धों की सूची प्रकाशित कराई है। इसके देखने से मालूम होता है कि मीनपा नामक सिद्ध, जिन्हें तिब्बती परंपरा में मत्स्येंद्रनाथ का पिता कहा गया है पर वे वस्तुतः मत्स्येंद्रनाथ से अभिन्न हैं, राजा देवपाल के राज्यकाल में हुए थे। राजा देवपाल 809-49 ई० तक राज करते रहे (चतुराशीत सिद्ध प्रवृत्ति, तन्जूर 86। 1। कार्डियर, पृ० 247)। इससे यह सिद्ध होता है कि मत्स्येंद्रनाथ नवीं शताब्दी के मध्य के भाग में और अधिक से अधिक अंत्य भाग तक वर्तमान थे।

(4) गोविंदचंद्र या गोपीचंद्र का संबंध जालंधरपाद से बताया जाता है। वे कानिफा के शिष्य होने से जालंधरपाद की तीसरी पुश्त में पड़ते हैं। इधर तिरुमलय की शैललिपि से यह तथ्य उदधृत किया जा सका है कि दक्षिण के राजा राजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविन्द चंजेंद्र चोल ने मणिकचंद्र के पुत्रगोविंदचंद्र को पराजित किया था। बंगला में ‘गोविंद चंद्रेर गान’ नाम से जो पोथी उपलब्ध हुई है, उसके अनुसार भी गोविंदचंद्र का किसी दाक्षिणात्य राजा का युद्ध वर्णित है। राजेंद्र चोल का समय 1063 ई० -1112 ई० है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि गोविंदचंद्र ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य भाग में वर्तमान थे। यदि जालंधर उनसे सौ वर्ष पूर्ववर्ती हो तो भी उनका समय दसवीं शताब्दी के मध्य भाग में निश्चित होता है। मत्स्येंद्रनाथ का समय और भी पहले निश्चित हो चुका है। जालंधरपाद उनके समसामयिक थे। इस प्रकार अनेक कष्ट-कल्पना के बाद भी इस बात से पूर्ववर्ती प्रमाणों की अच्छी संगति नहीं बैठती है।

(5) वज्रयानी सिद्ध कण्हपा (कानिपा, कानिफा, कान्हूपा) ने स्वयं अपने गानों पर जालंधरपाद का नाम लिया है। तिब्बती परंपरा के अनुसार ये भी राजा देवपाल (809-849 ई०) के समकालीन थे। इस प्रकार जालंधरपाद का समय इनसे कुछ पूर्व ठहरता है।

6) कंथड़ी नामक एक सिद्ध के साथ गोरखनाथ का संबंध बताया जाता है। ‘प्रबंध चिंतामणि’ में एक कथा आती है कि चौलुक्य राजा मूलराज ने एक मूलेश्वर नाम का शिवमंदिर बनवाया था। सोमनाथ ने राजा के नित्य नियत वंदन-पूजन से संतुष्ट होकर अणहिल्लपुर में अवतीर्ण होने की इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप राजा ने वहाँ त्रिपुरुष-प्रासाद नामक मंदिर बनवाया। उसका प्रबंधक होने के लिए राजा ने कंथड़ी नामक शैवसिद्ध से प्रर्थना की। जिस समय राजा उस सिद्ध से मिलने गया उस समय सिद्ध को बुखार था, पर अपने बुखार को उसने कंथा में संक्रामित कर दिया। कंथा काँपने लगी। राजा ने पूछा तो उसने बताया कि उसी ने कंथा में ज्वर संक्रमित कर दिया है। बड़े छल-बल से उस निःस्पृह तपस्वी को राजा ने मंदिर का प्रबंधक बनवाया। कहानी में सिद्ध के सभी लक्षण नागपंथी योगी के हैं, इसलिए यह कंथड़ी निश्चय ही गोरखनाथ के शिष्य ही होंगे। ‘प्रबंध चिंतामणि’ की सभी प्रतियों में लिखा है कि मूलराज ने संवत् 993 की आषाढ़ी पूर्णिमा को राज्यभार ग्रहण किया था। केवल एक प्रति में 998 संवत् है। इस हिसाब से जो काल अनुमान किया जा सकता है, वह पूर्ववर्ती प्रमाणों से निर्धारित तिथि के अनुकूल ही है। ये ही गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का काल-निर्णय करने के ऐतिहासिक या अर्द्ध-ऐतिहासिक अधार हैं। परंतु प्रायः दंतकथाओं और सांप्रदायिक परंमपराओं के आधार पर भी काल-निर्णय का प्रयत्न किया जाता है।

इन दंतकथाओं से संबद्ध ऐतिहासिक व्यक्तियों का काल बहुत समय जाना हुआ रहता है। बहुत-से ऐतिहासिक व्यक्ति गोरखनाथ के साक्षात् शिष्य माने जाते हैं। उनके समय की सहायता से भी गोरखनाथउनके समय की सहायता से भी गोरखनाथ के समय का अनुमान लगाया जा सकता है। ब्रिग्स ने (‘गोरखनाथ एंड कनफटा योगीज़’ कलकत्ता, 1938) इन दंतकथाओं पर आधारित काल और चार मोटे विभागों में इस प्रकार बाँट लिया है-

(1) कबीर नानक आदि के साथ गोरखनाथ का संवाद हुआ था, इस पर दंतकथाएँ भी हैं और पुस्तकें भी लिखी गई हैं। यदि इनसे गोरखनाथ का काल-निर्णय किया जाए, जैसा कि बहुत-से पंडितों ने भी किया है, तो चौदहवीं शताब्दी के ईषत् पूर्व या मध्य में होगा।

2) गूगा की कहानी, पश्चिमी नाथों की अनुश्रुतियाँ, बँगाल की शैव-परंपरा और धर्मपूजा का संपद्राय, दक्षिण के पुरातत्त्व के प्रमाण, ज्ञानेश्वर की परंपरा आदि को प्रमाण माना जाए तो यह काल 1200 ई० के उधर ही जाता है। तेरहवीं शताब्दी में गोरखपुर का मठ ढहा दिया गया था, इसका ऐतिहासिक सबूत है, इसलिए निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि गोरखनाथ 1200 ई० के पहले हुए थे। इस काल के कम से कम सौ वर्ष पहले तो यह काल होना ही चाहिए।

(3) नेपाल के शैव-बौद्ध परंपरा के नरेंद्रदेव, के बाप्पाराव, उत्तर-पश्चिम के रसालू और होदो, नेपाल के पूर्व में शंकराचार्य से भेंट आदि आधारित काल 8वीं शताब्दी से लेकर नवीं शताब्दी तक के काल का निर्देश करते

4) कुछ परंपराएँ इससे भी पूर्ववर्ती तिथि की ओर संकेत करती हैं। ब्रिग्स दूसरी श्रेणी के प्रमाणों पर आधारित काल को उचित काल समझते हैं, पर साथ ही यह स्वीकार करते हैं कि यह अंतिम निर्णय नहीं है। जब तक और कोई प्रमाण नहीं मिल जाता तब तक वे गोरखनाथ के विषय में इतना ही कह सकते हैं कि गोरखनाथ 1100 ई० से पूर्व, संभवतः ग्यारहवीं शाताब्दी के आरंभ में, पूर्वी, बंगाल में प्रादुर्भुत हुए थे। परंतु सब मिलकर वे निश्चित रूप से जोर देकर कुछ नहीं कहते और जो काल बताते हैं, उसे अन्य प्रमाणों से अधिक युक्तिसंगत माना जाए, यह भी नहीं बताते। मैंने नाथ संप्रदाय में दिखाया है कि किस प्रकार गोरखनाथ के अनेक पूर्ववर्ती मत उनके द्वारा प्रवर्तित बारहपंथी संप्रदाय में अंतर्भुक्त हो गए थे। इन संप्रदायों के साथ उनकी अनेक अनुश्रुतियाँ और दंतकथाएँ भी संप्रदाय में प्रविष्ट हुईं। इसलिए अनुश्रुतियों के आधार पर ही विचार करने वाले विद्वानों को कई प्रकार की परम्परा-विरोधी परंपराओं से टकराना पड़ता है।

परंतु ऊपर के प्रमाणों के आधार पर नाथमार्ग के आदि प्रवर्तकों का समय नवीं शताब्दी का मध्य भाग ही उचित जान पड़ता है। इस मार्ग में पूर्ववर्ती सिद्ध भी बाद में चलकर अंतर्भुक्त हुए हैं और इसलिए गोरखनाथ के संबंध में ऐसी दर्जनों दंतकाथाएँ चल पड़ी हैं, जिनको ऐतिहासिक तथ्य मान लेने पर तिथि-संबंधी झमेला खड़ा हो जाता है।

वर्षा के देवता

एक अन्य कथा में कहा गया है कि जब गोरक्षनाथ नेपाल के पाटन में भ्रमण कर रहे थे, तो उन्होंने पाटन के सभी वर्षा करने वाले नागों को फँसा लिया और ग्रामीणों द्वारा उनकी माँग पर उन्हें कोई भी भिक्षा देने से मना करने पर निराश होकर ध्यान करना शुरू कर दिया। परिणामस्वरूप, पाटन में लंबे समय तक सूखा पड़ा। अपने सलाहकारों की सिफारिश पर, पाटन के राजा ने गोरक्षनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को पाटन आमंत्रित किया। एक बार जब गोरक्षनाथ को पता चला कि उनके गुरु पाटन में हैं, तो उन्होंने सभी वर्षा करने वाले नागों को बुलाया और उनसे मिलने के लिए निकल पड़े। वर्षा करने वाले नागों को मुक्त करने के बाद पाटन में हर साल भरपूर बारिश होती थी। उसके बाद, पाटन के लोगों ने मत्स्येन्द्रनाथ को वर्षा देवता के रूप में पूजा।

मछिंद्रनाथ यात्रा कार्यक्रम ने 1900 के दशक की शुरुआत में नेपाली राजपरिवार की भागीदारी के कारण प्रमुखता और सांस्कृतिक महत्व प्राप्त किया। अब यह उत्सव हर साल हज़ारों भक्तों और आगंतुकों को आकर्षित करता है, जिससे यह नेपाल में सबसे बड़ा औरबसे महत्वपूर्ण उत्सव बन गया है।

मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ गुरु शिष्य संबंध का एक उदाहरण:

लेकिन दृढ़ निश्चयी गार्गी के मन में बौद्धिक और आध्यात्मिक लक्ष्य अधिक थे। उसे वेद और पुराण सीखने में बहुत रुचि थी। वह महान बुद्धि से संपन्न थी और चारों वेदों के जटिल दर्शन में पारंगत थी।

यहां तक ​​कि जो पुरुष बुद्धि में उनके बराबर होने का प्रयास करते थे, वे भी इस क्षेत्र में उनके ज्ञान को पार नहीं कर सके। उन्हें ऋषि गार्गी के नाम से भी जाना जाता है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में भी किया गया है; इसके गृह सूत्र में। अपने गहन ध्यान के माध्यम से, उन्होंने ऋग्वेद के कुछ मंत्रों को प्रकट किया। दर्शन पर उनके विचार इतने उत्कृष्ट माने जाते हैं कि उनका उल्लेख छांदयोग उपनिषदों में मिलता है।

गोरखनाथ बाद में भारत के सबसे प्रसिद्ध योगियों में से एक बन गए। उन्हें योगियों में रत्न माना जाता है। उनके गुरु योगी मत्स्येंद्रनाथ थे जिन्हें स्वयं भगवान शिव माना जाता है। गोरखनाथ अपने गुरु के प्रति बहुत समर्पित थे। गुरु ने देखा कि उनका शिष्य अपनी भावनाओं और गुरु के प्रति प्रेम में बहुत उग्र हो रहा है; लगभग एक सैनिक की तरह और एक योगी की तरह नहीं। इसलिए गुरु ने गोरखनाथ को हिमालय जाकर अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने के लिए 14 साल तक साधना करने का आदेश दिया। लेकिन गोरखनाथ केवल अपने गुरु के प्रति प्रेम के कारण सहमत हुए, और कुछ नहीं।

अपनी साधना के 14 वर्षों के दौरान गोरखनाथ ने हर दिन के हर पल की गिनती की जब वह अपने गुरु के साथ एकाकार हो गए। इस लंबी साधना के कारण उन्हें कई शक्तियां प्राप्त हुईं, लेकिन उन्होंने उनका उपयोग नहीं किया, जबकि उन्हें उनके बारे में पता था।

निर्धारित 14 वर्ष पूरे होने के बाद गोरखनाथ हिमालय से नीचे उतरे और भूमि पार करके दक्कन के पठार में सह्याद्रि पर्वत की तलहटी में पहुंचे। उनके मन में केवल एक ही विचार था; अपने गुरु से मिलना।

जब वे उस गुफा के पास पहुंचे जहां मत्स्येंद्रनाथ ध्यान कर रहे थे, तो उन्हें गुफा के प्रवेश द्वार पर पहरा दे रहे एक अन्य योगी ने रोक दिया। गोरखनाथ क्रोधित हो गए और उन्होंने पहरेदार को धक्का देकर अंदर घुस गए। लेकिन जब वे अंदर गए, तो मत्स्येंद्रनाथ कहीं नहीं मिले। उनके गुरु कहां चले गए थे?

वह बाहर आया और योगी से अपने गुरु का पता पूछा। योगी ने उसे बताने से मना कर दिया, “जब मैंने तुम्हें अंदर जाने से रोका तो तुम मुझे धक्का देकर अंदर घुस गए। मैं तुम्हें वह जानकारी नहीं दूंगा जो तुम मांग रहे हो”। योगी ने कहा।

गोरखनाथ ने तब अपनी 14 साल की कठोर साधना के दौरान अर्जित गुप्त शक्तियों का इस्तेमाल किया और योगी के मन में जो कुछ भी चल रहा था, उसे जान लिया। इस ज्ञान के साथ, वे मत्स्येंद्रनाथ के छिपे हुए स्थान पर पहुँचे। लेकिन जब वे वहाँ पहुँचे तो उन्होंने पाया कि उनके गुरु पहले ही एक सहयोगी को निर्देश देकर जा चुके थे कि गोरखनाथ को 14 साल और साधना करनी है। ऐसा इसलिए था क्योंकि उन्होंने पिछली साधना की शक्तियों का दुरुपयोग किया था जो उन्हें उनके गुरु द्वारा दी गई थीं। एक योगी को कभी भी किसी दूसरे व्यक्ति के मन में जबरन प्रवेश नहीं करना चाहिए।

यह सुनकर गोरखनाथ ने अपने गुरु से प्रार्थना की कि वे उनकी सज़ा की अवधि कम कर दें और कुछ नरमी बरतें। मत्स्येंद्रनाथ ने शर्त रखी कि अगर वे असंभव रूप से कठिन आसन पर बैठेंगे, तो उनकी तपस्या की अवधि आधी हो जाएगी। गोरखनाथ सहमत हो गए और अपने गुरु के साथ फिर से मिलने के लिए इतने उत्सुक थे कि वे अपने बाएं पैर के अंगूठे पर संतुलन बनाकर बैठे रहे और अपने शरीर को अपनी दाहिनी एड़ी से मलाशय में टिकाए रखा और 1 साल तक बैठे रहे!!

आज यह कठिन आसन गोरखनाथ आसन के नाम से जाना जाता है। जरा सोचिए, उन्होंने यह सब अपने गुरु के प्रेम के लिए किया था!!

मत्स्येन्द्रनाथ अपने शिष्य की क्षमताओं को जानते थे और उसकी भावनाओं को नियंत्रित करने का प्रयास करते थे। गुरु जानते थे कि गोरखनाथ में बहुत क्षमता है और उन्होंने उसे अपने मन को नियंत्रित करने और स्थिरता की शिक्षा दी।

नाथ सम्प्रदाय:

अपने गुरु के निधन के बाद, गोरखनाथ ने अपने मिशन को फैलाने के लिए पूरे भारत में यात्रा की। गोरखनाथ ने नाथ पारंपरिक आंदोलन के सबसे बड़े विस्तार का मार्गदर्शन और प्रेरणा दी। उनके द्वारा लिखी गई कई रचनाएँ हैं। पूरे भारत में, कई गुफाएँ हैं जिन पर मंदिर बनाए गए हैं और कहा जाता है कि मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ ने यहीं ध्यान लगाया था। उनके नाम पर गोरखपुर शहर में गोरख मठ है, जो नाथ परंपराओं के मठवासी पंथ के लिए एक मठ है।

गोरखनाथी जो गोरखनाथ के भक्त हैं, उनकी पहचान एक बड़ी हड्डी या धातु की अंगूठी से होती है, जिसे वे अपने कान में पहनते हैं और इसलिए उन्हें कनफड़ी के नाम से जाना जाता है। वे अपने कंधों पर एक स्वस्थ, काले रंग का कुत्ता और एक छड़ी भी रखते हैं। वे कुत्तों से बहुत प्यार करते हैं और उन्हें सैकड़ों मील तक पैदल चलने और उन्हें ढोने की अनुमति नहीं देते हैं।

गोरखनाथ साधकों का एक दीर्घकालिक संप्रदाय है जो आज भी प्राचीन परंपराओं का पालन करता है।

हठ योग:

गोरखनाथ जी हठ योग के संस्थापक भी थे, जो भारतीय दर्शन का एक स्कूल है जो आध्यात्मिकता प्राप्त करने के लिए शारीरिक क्रियाओं पर महारत हासिल करने का प्रतिपादन करता है। उन्होंने योग को पूरे भारत में लोकप्रिय बनाया। उन्होंने उस समय हठ योग में प्रचलित कामुक और रहस्यमय प्रथाओं को भी बदल दिया और इसे आज के कठोर अभ्यास में बदल दिया।

गोरखनाथ बाबा का प्रभाव:

भले ही गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे, लेकिन नाथ योगियों द्वारा उन्हें अपने शिक्षण उत्तराधिकार में पहला आध्यात्मिक गुरु माना जाता है, जिन्होंने मानव रूप धारण किया था। गोरखनाथ ने तांत्रिक प्रथाओं और अनुष्ठानों की गूढ़ प्रथाओं में महत्वपूर्ण बदलाव लाए। उन्होंने संस्कृत में गोरख संहिता लिखी, जिसमें कीमिया और हठ योग पर विस्तार से चर्चा की गई है।

गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने अपने इस प्रबल शिष्य की असीम शक्तियों को निखारने और विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस कारण गोरखनाथ बाबा प्राचीन भारत के सबसे महान और सबसे प्रभावशाली योगियों में से एक बन गए।

वृत्रासुर दानव

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वैदिक साहित्य में कई कहानियाँ हैं जो हमें पारलौकिक ज्ञान से अवगत कराती हैं और हमें मूल्यवान सबक सिखाती हैं ताकि हम आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ सकें। श्रीमद्भागवतम् विशेष  रूप से ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है।

इनमें से एक वृत्रासुर नामक राक्षस से संबंधित है। राक्षस की भूमिका निभाने के बावजूद, वृत्रासुर वास्तव में एक बहुत ही उच्च कोटि का  भक्ति-योगी था। उसे स्वर्ग के राजा इंद्र से लड़ने के लिए एक यज्ञ अग्नि में बनाया गया था।

वृत्रासुर इतना शक्तिशाली था कि उसने हर जगह भय पैदा कर दिया था और वह अकेले ही देवताओं की सेना से लड़ने में सक्षम था। हालाँकि, वृत्रासुर को इतना गौरवशाली बनाने वाली बात एक योद्धा के रूप में उसकी अपार शक्ति नहीं है, बल्कि उसका आध्यात्मिक उत्थान है।

जिस प्रकार मरने की इच्छा न रखने वाले व्यक्ति को मृत्यु के समय अपनी आयु, ऐश्वर्य, यश और अन्य सब कुछ त्याग देना चाहिए, उसी प्रकार विजय के नियत समय पर जब परम भगवान अपनी कृपा से उन्हें प्रदान करते हैं, तब व्यक्ति को ये सब प्राप्त हो सकते हैं।

चूँकि सब कुछ भगवान की परम इच्छा पर निर्भर है, इसलिए व्यक्ति को यश और अपयश, जय और पराजय, जीवन और मृत्यु में समभाव रखना चाहिए। सुख और दुःख के रूप में प्रदर्शित इनके प्रभावों में व्यक्ति को बिना किसी चिंता के अपने आपको संतुलन में रखना चाहिए।

जो व्यक्ति यह जानता है कि सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ये तीनों गुण आत्मा के गुण नहीं, बल्कि प्रकृति के गुण हैं और जो यह जानता है कि शुद्ध आत्मा इन गुणों की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का केवल एक द्रष्टा है, उसे मुक्त व्यक्ति समझना चाहिए। वह इन गुणों से बंधा हुआ नहीं है।

पिछली कहानी

कोई यह प्रश्न कर सकता है कि वृत्रासुर, एक राक्षस होते हुए भी, एक उच्च भक्तियोगी का दर्जा कैसे प्राप्त करने में सक्षम था।  श्रीमद्भागवतम्   समझाता है कि वृत्रासुर अपने पिछले जन्म में चित्रकेतु नाम का राजा था।

अपने शिशु पुत्र की मृत्यु के बाद, अत्यधिक निराशा में राजा चित्रकेतु को दो ऋषियों नारद और अंगिरा ने आध्यात्मिक ज्ञान से प्रबुद्ध किया। तब चित्रकेतु ने  भक्ति-योग की प्रक्रिया को अपनाया ।

कुछ ही समय बाद, वह आध्यात्मिक परमानंद से अभिभूत हो गया और भगवान को आमने-सामने देखा। पूरे ब्रह्मांड में यात्रा करने की शक्ति से सम्मानित, उन्होंने एक बार भगवान शिव के बारे में इस तरह से बात की, जिसे शिव की पत्नी पार्वती ने अपमानजनक माना।

उन्होंने चित्रकेतु को अपने अगले जन्म में राक्षस बनने का श्राप दिया। लेकिन एक राक्षस के रूप में पैदा होने के बावजूद, उन्होंने अपने आध्यात्मिक ज्ञान या प्रगति को नहीं खोया।

सतह के नीचे देखने की आवश्यकता

वृत्रासुर की कहानी से हम कई सबक सीख सकते हैं। एक पुरानी कहावत है “किताब को उसके कवर से मत आंको।” वृत्रासुर की कहानी से हम सीख सकते हैं कि किसी व्यक्ति को उसके बाहरी गुणों से नहीं आंकना चाहिए।

भले ही वृत्रासुर एक राक्षस था, फिर भी वह एक महान  भक्ति-योगी था  जो अपने जीवन के लिए संघर्ष करते हुए भी गहन पारलौकिक ज्ञान का प्रचार करने में सक्षम था।

निम्न परिवार में जन्मा व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो सकता है, और सम्मानित परिवार में जन्मा व्यक्ति आध्यात्मिक रूप से अंधा हो सकता है।

एक और सबक यह है कि आध्यात्मिक प्रगति जीवन दर जीवन चलती रहती है। हालाँकि राजा चित्रकेतु अपने अगले जन्म में राक्षस वृत्रासुर बन गए, लेकिन वे अपनी आध्यात्मिक उन्नति को अपने साथ ले गए। 

गीता (2.40) में कृष्ण कहते हैं कि भक्ति-योग  के मार्ग पर हमारी प्रगति   कभी नष्ट या कम नहीं होती है और थोड़ी सी प्रगति भी हमें सबसे बड़े खतरे से बचा सकती है, जिससे हमें अपने अगले जन्म में आध्यात्मिक उन्नति का एक बड़ा अवसर मिल सकता है।

अंततः, वृत्रासुर की कथा दर्शाती है कि कैसे कोई भी व्यक्ति भक्ति योग करने के योग्य है।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि व्यक्ति राक्षस परिवार में पैदा हुआ है या संत परिवार में; कोई भी व्यक्ति  भक्ति योग का अभ्यास कर सकता है ।

श्री चैतन्य महाप्रभु के निकट सहयोगी हरिदास ठाकुर नामक एक प्रसिद्ध  भक्ति योगी थे। यद्यपि उनका जन्म एक गैर-हिंदू परिवार में हुआ था, फिर भी उन्हें नामाचार्य , यानी “पवित्र नाम के आध्यात्मिक शिक्षक”   का दर्जा दिया गया था। 

भक्ति योग  के अभ्यासी सामान्यतः महामंत्र में भगवान के पवित्र नामों का जाप करते हैं  , या मुक्ति के लिए महान मंत्र: हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे।

यह मंत्र हृदय को शुद्ध करता है और जाप करने वाले के जीवन से संकट को दूर करता है। वास्तव में, इस मंत्र का जाप करने मात्र से ही ईश्वर प्राप्ति में पूर्णता प्राप्त हो  सकती है इसके अतिरिक्त, पूर्णतः ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त करके, व्यक्ति आध्यात्मिक संसार में प्रवेश करने के योग्य हो जाता है और इस प्रकार सभी भौतिक दुखों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

वृत्रासुर वध की कथा और इसके पीछे छुपा रहस्‍य, कि महर्षि दधिचि ने क्‍यों त्यागे प्राण

रामायण में वृत्‍तासुर
एक दिन श्रीरामचन्द्रजी ने भरत और लक्ष्मण को अपने पास बुलाकर कहा, “हे भाइयों! मेरी इच्छा राजसूय यज्ञ करने की है क्योंकि वह राजधर्म की चरमसीमा है।

इस यज्ञ से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं तथा अक्षय और अविनाशी फल की प्राप्ति होती है। अतः तुम दोनों विचारकर कहो कि इस लोक और परलोक के कल्याण के लिये क्या यह यज्ञ उत्तम रहेगा?”

बड़े भाई के ये वचन सुनकर धर्मात्मा भरत बोले, “महाराज! इस पृथ्वी पर सर्वोत्तम धर्म, यश और स्वयं यह पृथ्वी आप ही में प्रतिष्ठित है।

आप ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी और इस पर रहने वाले समस्त राजा भी आपको पितृतुल्य मानते हैं। अतः आप ऐसा यज्ञ किस प्रकार कर सकते हैं जिससे इस पृथ्वी के सब राजवंशों और वीरों का हमारे द्वारा संहार होने की आशंका हो?”

भरत के युक्‍तियुक्‍त वचन सुनकर श्रीराम बहुत प्रसन्न हुये और बोले, “भरत! तुम्हारा सत्यपरामर्श धर्मसंगत और पृथ्वी की रक्षा करने वाला है। तुम्हारा यह उत्तम कथन स्वीकार कर मैं राजसूय यज्ञ करने की इच्छा त्याग देता हूँ।”

तत्पश्‍चात लक्ष्मण बोले, “हे रघुनन्दन! सब पापों को नष्ट करने वाला तो अश्‍वमेघ यज्ञ भी है। यदि आप यज्ञ करना ही चाहते हैं तो इस यज्ञ को कीजिये।

महात्मा इन्द्र के विषय में यह प्राचीन वृतान्त सुनने में आता है कि जब इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी थी, तब वे अश्‍वमेघ यज्ञ करके ही पवित्र हुये थे।”

श्री राम द्वारा पूरी कथा पूछने पर लक्ष्मण बोले, “प्राचीनकाल में वृत्रासुर नामक असुर पृथ्वी पर पूर्ण धार्मिक निष्ठा से राज्य करता था। एक बार वह अपने ज्येष्ठ पुत्र मधुरेश्‍वर को राज्य भार सौंपकर कठोर तपस्या करने वन में चला गया। उसकी तपस्या से इन्द्र का भी आसन हिल गया।

वह भगवान विष्णु के पास जाकर बोले कि प्रभो! तपस्या के बल से वृत्रासुर ने इतनी अधिक शक्‍ति संचित कर ली है कि मैं अब उस पर शासन नहीं कर सकता।

यदि उसने तपस्या के फलस्वरूप कुछ शक्ति और बढ़ा ली तो हम सब देवताओं को सदा उसके आधीन रहना पड़ेगा। इसलिये प्रभो! आप कृपा करके सम्पूर्ण लोकों को उसके आधिपत्य से बचाइये। किसी भी प्रकार उसका वध कीजिये।

“देवराज इन्द्र की यह प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु बोले कि यह तो तुम जानते हो देवराज! मझे वृत्रासुर से स्नेह है। इसलिये मैं उसका वध नहीं कर सकता परन्तु तुम्हारी प्रार्थना भी मैं अस्वीकार नहीं कर सकता।

इसलिये मैं अपने तेज को तीन भागों में इस प्रकार विभाजित कर दूँगा जिससे तुम स्वयं वृत्रासुर का वध कर सको। मेरे तेज का एक भाग तुम्हारे अन्दर प्रवेश करेगा, दूसरा तुम्हारे वज्र में और तीसरा पृथ्वी में ताकि वह वृत्रासुर के धराशायी होने पर उसका भार सहन कर सके।

भगवान से यह वरदान पाकर इन्द्र देवताओं सहित उस वन में गये जहाँ वृत्र तपस्या कर रहा था। अवसर पाकर इन्द्र ने अपने शक्‍तिशाली वज्र वृत्रासुर के मस्तक पर दे मारा। इससे वृत्र का सिर कटकर अलग जा पड़ा। सिर कटते ही इन्द्र सोचने लगे, मैंने एक निरपराध व्यक्‍ति की हत्या करके भारी पाप किया है।

यह सोचकर वे किसी अन्धकारमय स्थान में जाकर प्रायश्‍चित करने लगे। इन्द्र के लोप हो जाने पर देवताओं ने विष्णु भगवान से प्रार्थना की कि हे दीनबन्धु!

वृत्रासुर मारा तो आपके तेज से गया है, परन्तु ब्रह्महत्या का पाप इन्द्र को भुगतना पड़ रहा है। इसलिये आप उनके उद्धार का कोई उपाय बताइये।

यह सुनकर विषणु बोले कि यदि इन्द्र अश्‍वमेघ यज्ञ करके मुझ यज्ञपुरुष की आराधना करेंगे तो वे निष्पाप होकर देवेन्द्र पद को प्राप्त कर लेंगे। इन्द्र ने ऐसा ही किया और अश्‍वमेघ यज्ञ के प्रताप से उन्होंने ब्रह्महत्या से मुक्‍ति प्राप्त की।”

कथाओं के अतिरिक्‍त वृत्‍तासुर कौन है 
आधत्‍मिक दृष्‍टि से देखें तो  ‘निघण्टु’ में मेघ का नाम वृत्र है(इन्द्रशत्रु)–वृत्र का शत्रु अर्थात निवारक सूर्य है,सूर्य का नाम त्वष्टा है, उसका संतान मेघ है, क्योंकि सूर्य की किरणों के द्वारा जल कण होकर ऊपर को जाकर वाहन मिलके मेघ रूप हो जाता है।

तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रोवृणोतेः० वह स्वीकार करने योग्य और प्रकाश का आवरण करने वाला है।

वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी-बड़ी नदियाँ उत्पन्न होके अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तालाब व कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथ्वी में शयन कर रहा है

वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी जीत नहीं सकता। इस प्रकार अलंकाररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर युद्ध के सामान करते हैं, अर्थात जब मेघ बढ़ता है, तब तो वह सूर्य के प्रकाश को हटाता है, और जब सूर्य का ताप अर्थात तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु इस युद्ध के अंत में इन्द्र नाम सूर्य ही की विजय होती है।

महर्षि दधीचि की हड्डियों में ऐसी क्या विशेषता थी कि उसके बने हुए अस्त्र से वृतासुर दैत्य मारा गया?

महर्षि दधीचि मुनि की कथा ब्रह्म पुराण में कुछ इस तरह आई है कि एक बार देवताओं ने बहुत से राक्षसों को जीत कर महर्षि दधीचि मुनि के आश्रम पर आए और कहा कि हम बड़े-बड़े राक्षस और दैत्य को जीतकर यहां आए हैं इससे हम बहुत सुखी हैं विशेषता आपका दर्शन करके हमें बड़ी प्रसन्नता हुई अब हमें अस्त्र-शस्त्र रखने से कोई लाभ नहीं दिखाई देता हम उन अस्त्रों का बोझ ढो नहीं सकते हम स्वर्ग में जब इन अस्त्रों को रखते हैं तब हमारे शत्रु इनका पता लगाकर वहां से हड़प ले जाते हैं।

इसलिए हम आपके पवित्र आश्रम पर इन सब अस्त्रों को रख देते हैं ब्राह्मण यहां दानवों और राक्षसों से तनिक भी भय नहीं है आपकी आज्ञा से यह सारा प्रदेश पवित्र और सुरक्षित हो गया है इस प्रकार कहकर देवता अस्त्र शास्त्र रख अपने अपने स्थान को चले गए तब दधीचि मुनि की पत्नी ने उन्हें उन अस्त्रों को आश्रम में रखने के लिए मुनि को मना किया था पर वह नहीं माने।

इस प्रकार 1000 वर्ष बीत गया तब दधीचि मुनि ने अपनी पत्नी से कहा की देवी देवता यहां से अपने अस्त्र ले जाना नहीं चाहते और देखते राक्षस दैत्य मुझसे द्वेष करते हैं अब तुम ही बताओ क्या करना चाहिए पत्नी ने विनय पूर्वक कहा नाथ मैंने तो पहले ही निवेदन किया था ।

अब आप ही जाने जो उचित हो शो करें तब दधीचि मुनि ने मन में विचार किया की दैत्यों में जो बड़े-बड़े वीर तपस्वी और बलवान है बे इन अस्त्रों को निश्चय ही हड़प लेंगे तब दधीचि मुनि ने उन अस्त्रों की रक्षा के लिए एक काम किया उन्होंने पवित्र जल से मंत्र पढ़ते हुए अस्त्रों को नहलाया फिर वहां सर वस्त्रमय परम पवित्र और तेज युक्त जल स्वयं पी लिया तेज निकल जाने से वे सभी अस्त्र शक्तिहीन हो गए।

अतः क्रमशः समय अनुसार नष्ट हो गए कुछ समय बाद देवताओं ने आकर दधीचि से कहा कि हे मुनिवर हमारे ऊपर शत्रुओं का महान भय आ पहुंचा हमने जो अस्त्र आपके यहां रख दिए थे उन्हें इस समय दे दीजिए दधीचि मुनि ने कहा आप लोग बहुत दिनों तक इन्हें लेने नहीं आए अतः देत्यो के भय से हमने उन अस्त्रों को पी लिया है।

अतः वह हमारे शरीर में स्थित है इसलिए जो उचित हो वाह कहे यह सुनकर देवताओं ने विनीत भाव से कहा हे मुनीश्वर इस समय तो हम इतना ही कह सकते हैं कि अस्त्र दे दीजिए दधीचि मुनि बोले सब अस्त्र मेरी हड्डियों में मिल गए हैं अतः उन हड्डियों को ही ले जाओ यो कहकर दधीचि पादासन बांधकर बैठ गए उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थिर हो गई

और योग साधना द्वारा शरीर निस प्राण हो गये उन्हीं हड्डियों से देवताओं के अस्त्र शस्त्र बनाए गए थे इंद्र का ब्रज ,गांडीव धनुष, पिनाक धनुष इत्यादि इंद्र ने दधीचि मुनि की हड्डियों से जो उनका ब्रज बना था उसी बज्र से वृत्रासुर का वध किया था।

वृत्रासुर की कथा

एक बार की बात है- देवराज इंद्र की सभा में संगीत का बड़ा सुन्दर कार्यक्रम चल रहा था। कार्यक्रम के बीच में देवगुरु बृहस्पति पँहुचे गये। इंद्र ने सोचा- इतना अच्छा संगीत चल रहा है, बीच में उठूँगा तो संगीत में बाधा पहुंचेगी, नहीं उठूँगा तो गुरूजी नाराज हो जायेंगे क्या करूँ?

ऐसा सोचकर इंद्र ने देखकर भी अनदेखा कर दिया, दूसरी तरफ देखने लग गया। ऐसा नाटक किया जैसे गुरुजी को देखा ही ना हो।

इंद्र के ऐसे व्यवहार के कारण गुरुजी नाराज होकर देवताओं को छोड़कर चले गये। इधर दैत्यों को जब पता लगा कि देवताओं के गुरु उनसे नाराज हो गये हैं, तब दैत्यों ने आक्रमण कर दिया और देवताओं को पराजित कर उनसे स्वर्ग छीन लिया।

देवताओं द्वारा ब्रह्मा जी से प्रार्थना

गुरु के बिना देवता अनाथ से हो गये। उन्हें कोई सहारा नजर नहीं आ रहा था। तब वे ब्रह्मा जी के पास गये। ब्रह्मा जी ने उन्हें डांटा और बोले- तुमने ये बहुत गलत काम किया है। गुरु को नाराज करना सबसे बड़ा अपराध है।

अब जब तक गुरु नहीं मिलते तुम “विश्वरूप” जो विद्या में देवगुरु बृहस्पति के समान ही हैं, उनको गुरु बना लो। लेकिन उसकी माता असुर वंश की है इसलिए कभी-कभी वह असुरों का पक्षपात कर सकता है- इस चीज को अनदेखा करके चलोगे तो तुम्हारा काम बन जाएगा।

ये सूत्र हमारे जीवन के लिए भी है- जिसमें बहुत सारे गुण हों और एक- दो दोष हों तो उसको अनदेखा करना सीखना चाहिये, तभी आप जीवन में सफल होगें।

देवताओं को स्वर्ग की पुनः प्राप्ति

देवताओं ने “विश्वरूप” को गुरु बना लिया। विश्वरूप ने इंद्र से “नारायण कवच” का अनुष्ठान कराया। अब देव-असुर संग्राम हुआ।

“नारायण कवच” के कारण देवता विजयी हुए। स्वर्ग का राज्य फिर से इंद्र को मिल गया। अब इंद्र राज्य की सुरक्षा के लिए यज्ञ करने लगा। यज्ञ के समय इंद्र ने देखा कि गुरु विश्वरूप प्रकट रूप में तो देवताओं के पक्ष में आहुति दे रहे हैं और अप्रकट रूप में असुरों के पक्ष में भी दे रहे है। इंद्र को क्रोध आ गया।

उसने वज्र उठाया और विश्वरूप का गला काट दिया।

विश्वरूप के पिता द्वारा इंद्र को मारने की इच्छा से अनुष्ठान

विश्वरूप के मरने पर विश्वरूप के पिता “त्वष्टा” क्रोधित हो गये। वो इंद्र को मारने के लिये अनुष्ठान करने लगे। उनका संकल्प था कि हवन से ऐसा पुत्र हो जो इंद्र को मार डाले पर उच्चारण अशुद्धि के कारण यज्ञ से बेटा तो हुआ, लेकिन इंद्र को मारने वाला नहीं, इंद्र से मरने वाला हुआ।

यहाँ यही बात समझ आती है- कर्मकांड का विषय कठिन है पर भक्ति सरल है। भक्ति में कुछ भी गड़बड़ हो जाये तो भगवान संभाल लेते हैं पर यदि कर्मकांड में कुछ गड़बड़ हो जाये तो जिम्मेदारी हमारी ही होती है।

यज्ञ से उत्पन्न हुए त्वष्टा के इस पुत्र ने सारे लोकों को अपने विशाल शरीर से घेर लिया था, इसलिये उसका नाम पड़ा “वृत्रासुर” जब वृत्रासुर ने हुंकार भरी तो सारे देवता उस पर टूट पड़े। देवताओं ने जितने हथियारों का प्रयोग किया, वृत्रासुर उन हथियारों को पकड़कर तोड़ कर खा गया।

अब देवता घबराये- ये तो हथियार ही तोड़ कर खा गया इसको मारेगा कौन? देवता वहाँ से भागे और भगवान की स्तुति करने लगे।

भगवान द्वारा वृत्रासुर को मारने का उपाय बताना

श्री भगवान प्रकट हो गये और बोले- देखो इंद्र! उपाय तो है पर करना कठिन है।

इंद्र बोले- आप सिर्फ उपाय बताइये, उसको करना मेरा काम है।

भगवान बोले- दधीचि ऋषि की हड्डी से अगर वज्र बने तो उसी से वृत्रासुर का संहार होगा। लेकिन दधीचि ऋषि जीवित हैं, हड्डी तब मिलेगी जब वे शरीर-त्याग करें।

इंद्र ने कहा- भगवन! आपने उपाय बता दिया अब दधीचि ऋषि से हड्डी माँगने का काम मेरा है।

अब इंद्र पहुँच गया दधीचि ऋषि के पास, प्रणाम किया और बोला- महाराज ! मुझे आपकी हड्डी चाहियें।

दधीचि बोले- इंद्र, क्या तूने विचार नहीं किया। जो व्यक्ति जीवित रहना चाहता है उसकी हड्डी भगवान भी माँगे तो देने से इन्कार करना पड़ेगा।

इंद्र ने कहा- मैं समझता हूँ कि मेरा आपसे हड्डी माँगना अनुचित है पर समस्या इतनी विकट है कि मैं माँगने को विवश हूँ। यदि आप अपनी हड्डी दे देंगे तो समस्त देवताओं की जान बच जायेगी।

दधीचि ऋषि ने भगवान का ध्यान किया और योग के द्वारा अपने शरीर का त्याग कर दिया। उसके बाद इंद्र ने दधीचि ऋषि की हड्डी से वज्र बनाया।

इंद्र और वृत्रासुर युद्ध

वज्र प्राप्त करने के बाद देवता उत्साह से भर गये। वृत्रासुर के साथ जितने असुर थे डर के मारे भागने लगे। इधर वृत्रासुर ने जोर से हुंकार भरी और इंद्र की तरफ बढ़ा। इंद्र ने अपनी गदा का प्रयोग किया। वृत्रासुर ने बाएँ हाथ से इंद्र के हाथी ऐरावत के मस्तक पर प्रहार किया। जिससे ऐरावत का मस्तक फूट गया।

इंद्र सहम गया। उसके हाथ में वज्र है जो दधीचि ऋषि की हड्डी से बना है, फिर भी उसे डर लग रहा है कि ये भी गदा की तरह व्यर्थ न हो जाये।

वृत्रासुर कहता है- इंद्र! तू वज्र का प्रयोग क्यों नहीं कर रहा है? तू ये मत सोच कि गदा के जैसे वज्र भी व्यर्थ हो जायेगा। वज्र में तीन-तीन शक्तियाँ हैं- 1.भगवान नारायण  2.दधीचि ऋषि की तपस्या  3.इंद्र का प्रारब्ध। तू प्रहार कर! तेरे को सफलता अवश्य मिलेगी।

इंद्र मैं तो दोनों स्थिति में प्रसन्न हूँ- अगर विजयी हुआ तो भी खुश, मैं अपने भाई का बदला ले लूँगा। अगर पराजित हुआ तो भी खुश क्योंकि मरने के बाद इस पंचभौतिक शरीर से पशु-पक्षियों का भण्डारा हो जाएगा और मैं इस शरीर को छोड़कर ठाकुर जी के धाम चला जाऊँगा।

इंद्र ये सुनकर घबरा गया। वज्र का प्रहार नहीं कर पा रहा है।

वृत्रासुर कहता है- जब तक तू वज्र का प्रहार नहीं कर रहा है, तब तक मैं अपने ठाकुर का ध्यान कर लेता हूँ। वृत्रासुर आँख बंद करके भाव-समाधि में पहुँच जाता है। भगवान से वार्तालाप करता है- प्रभु! कुछ ही समय बाद इस शरीर को छोड़ कर मैं आपके चरणों में आने वाला हूँ, आपके धाम में आने वाला हूँ। इस युद्ध का परिणाम मैं जानता हूँ, क्या होगा? इस युद्ध में इंद्र की विजय होगी, मेरी पराजय होगी।

भगवान ने कहा- पर मैं तो अपने भक्त को कभी पराजित नहीं होने देता। तूने कैसे सोच लिया कि तू पराजित होगा?

वृत्रासुर मुस्कुराता है- प्रभु! मैं जानता हूँ, जिसकी विजय होगी, उसको स्वर्ग मिलेगा और जिसकी पराजय होगी, उसको बैकुंठ मिलेगा। आप अपने भक्त को छोटी वस्तु नहीं देंगे! इसलिए मुझे मालूम है इस युद्ध में मेरी पराजय होगी।

वृत्रासुर की मृत्यु

वृत्रासुर भाव समाधि से बाहर आया तो देखता है कि इंद्र हाथ में वज्र लिए खड़ा है। वृत्रासुर ने कहा- “इंद्र ! तू युद्ध करने आया है, या मेरा दर्शन करने आया है? वज्र का प्रहार कर!”

इंद्र कहता है- हे दानवराज वृत्रासुर! हम तुम्हें असुर कहते हैं पर तुम कोई सिद्ध महात्मा लगते हो। इस विपरीत परिस्थिति में भी इतनी निष्ठा, इतना प्रेम भगवान के लिए, इतना प्रेम तो बड़े- बड़े सिद्ध- महात्माओं में देखने को नहीं मिलता। तू तो कोई सिद्ध महापुरुष है।

इसके बाद इंद्र ने वृत्रासुर पर वज्र का प्रहार किया। वृत्रासुर का सर धड़ से अलग हो गया। एक दिव्य ज्योति निकली और भगवान के धाम को चली गयी।

शिक्षा

हमेशा गुरुजनों का और आदरणीय लोगों का सम्मान करना चाहिए वरना हमारी आयु, बल, बुद्धि, तेज क्षीण हो जाते हैं।

सकाम भाव से कुछ पूजा, यज्ञ करते हैं और उच्चारण में कुछ गलती हो जाये तो उसका उल्टा फल निकलता है, परन्तु निष्काम भाव से भक्ति करते हैं तो भगवान सब गलती माफ़ कर देते हैं।

भक्त को भगवान पर इतना विश्वास होता है कि विपरीत परिस्थिति में भी उसे डर नहीं लगता। वृत्रासुर का भगवान के लिए इतना प्रेम है कि वो जरा भी नहीं डर रहा था।

मित्र प्रशंसा करे उसका ज्यादा महत्व नहीं। पर यदि शत्रु प्रशंसा करने लग जाए, उसका बहुत महत्त्व है। इंद्र ने खुद अपने शत्रु वृत्रासुर की प्रशंसा की।

पुराणों में वरतासूर का वर्णन

जैसा कि महाभारत में राजा युधिष्ठिर को दिए गए वर्णन में बताया गया है , वृत्र एक असुर था जिसे शिल्प देवता त्वष्ट्री ने अपने पुत्र इंद्र द्वारा मारे जाने का बदला लेने के लिए बनाया था, जिसे त्रिशिरा या विश्वरूप के रूप में जाना जाता है ।

वृत्र ने युद्ध जीत लिया और इंद्र को निगल लिया, लेकिन अन्य देवताओं ने उसे इंद्र को उगलने के लिए मजबूर किया। युद्ध जारी रहा और इंद्र को अंततः भागने के लिए मजबूर होना पड़ा।

विष्णु और ऋषियों ने एक युद्धविराम समझौता कराया, जिसमें इंद्र ने शपथ ली कि वह वृत्र पर धातु, लकड़ी या पत्थर से बनी किसी भी चीज से, न ही सूखी या गीली, या दिन या रात के दौरान हमला नहीं करेगा।

इंद्र ने उसे मारने के लिए समुद्र की लहरों से झाग (जिसमें विष्णु ने जीत सुनिश्चित करने के लिए प्रवेश किया था) का इस्तेमाल किया।

श्रीमद्भागवतम् वृत्रा को विष्णु का भक्त मानता है  जिसकी हत्या केवल इसलिए हुई क्योंकि वह पवित्रता से और आक्रामकता के बिना जीवन जीने में विफल रहा।  यह कहानी इस प्रकार है:

विश्वरूप के मारे जाने के बाद उसके पिता त्वष्टा ने इन्द्र को मारने के लिए अनुष्ठान किया। उन्होंने यज्ञ की अग्नि में आहुति देते हुए कहा, “हे इन्द्र के शत्रु! अपने शत्रु को मारने के लिए शीघ्रता से प्रयत्न करो।”

 तत्पश्चात, अन्वाहार्य नामक यज्ञ की दक्षिणी ओर से एक भयंकर पुरुष प्रकट हुआ, जो कल्प के अंत में सम्पूर्ण सृष्टि का संहार करने वाला प्रतीत हो रहा था।

 चारों दिशाओं में छोड़े गए बाणों के समान उस राक्षस का शरीर दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया। वह लम्बा तथा काला था, जले हुए पर्वत के समान प्रतीत होता था तथा संध्या के समय बादलों की चमक के समान चमकीला था।

राक्षस के शरीर के बाल, दाढ़ी तथा मूँछ पिघले हुए ताँबे के रंग की थीं तथा उसकी आँखें दोपहर के सूर्य के समान चुभ रही थीं। वह अजेय प्रतीत हो रहा था, मानो उसने अपने प्रज्वलित त्रिशूल की नोंक पर तीनों लोकों को थाम रखा हो। वह ऊँची आवाज में नाचता तथा चिल्लाता हुआ सम्पूर्ण पृथ्वी को इस प्रकार काँपने लगा, मानो भूकम्प से कंपन हो रहा हो।

जब वह बार-बार जम्हाई लेता, तो ऐसा प्रतीत होता कि वह अपने मुँह से सम्पूर्ण आकाश को निगलने का प्रयत्न कर रहा है, जो गुफा के समान गहरा था। ऐसा प्रतीत होता था कि वह अपनी जीभ से आकाश के समस्त तारों को चाट रहा है तथा अपने लम्बे, तीखे दाँतों से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को खा रहा है।

इस विशालकाय राक्षस को देखकर सभी लोग अत्यन्त भयभीत होकर चारों दिशाओं में भागने लगे।

 वह अत्यंत भयंकर असुर, जो वास्तव में त्वष्टा का पुत्र था, ने अपनी तपस्या के प्रभाव से समस्त लोकों को ढक लिया था। इसलिए उसका नाम वृत्र पड़ा, अर्थात् वह जो सब कुछ ढक लेता है।

वृत्र असुरों का मुखिया बन गया (यहां उसे स्वाभाविक रूप से दुर्भावनापूर्ण के रूप में चित्रित किया गया है, वैदिक संस्करण के विपरीत, जिसमें वे परोपकारी या दुष्ट हो सकते हैं)।

उसने दूसरों के प्रति अच्छा करने के अपने धर्म – कर्तव्य – को त्याग दिया और देवताओं के साथ युद्ध करते हुए हिंसा की ओर मुड़ गया। अंततः उसने ऊपरी हाथ हासिल कर लिया, और देवता उसकी बुरी शक्ति से भयभीत हो गए। इंद्र के नेतृत्व में, वे मदद के लिए विष्णु के पास गए ।

उन्होंने उन्हें बताया कि वृत्र को सामान्य तरीकों से नष्ट नहीं किया जा सकता है, यह बताते हुए कि केवल एक ऋषि की हड्डियों से बने हथियार से ही उसका वध किया जा सकता है।

जब देवताओं ने किसी तपस्वी द्वारा अपना शरीर दान करने की संभावना के बारे में अपनी शंका प्रकट की, तो विष्णु ने उन्हें ऋषि दधीचि के पास जाने का निर्देश दिया ।

देवताओं के पास जाने पर, दधीचि ने खुशी-खुशी अपनी हड्डियों को अच्छे कार्य के लिए दे दिया, जब उन्होंने पुनः वृत्र से युद्ध किया तो युद्ध 360 दिनों तक चला, उसके बाद वृत्र ने अपनी अंतिम सांस ली।

वैष्णव धर्म में , वृत्र को विष्णु का भक्त बताया गया है। श्रीमद्भागवतम् में, जब वज्र-सशस्त्र इंद्र और देवता वृत्र और उसके असुरों के खिलाफ युद्ध करते हैं,

तो वृत्र घोषणा करता है कि यदि वह युद्ध में मारा जाता है, तो उसे आशीर्वाद मिलेगा, क्योंकि वज्र में विष्णु और दधीचि की शक्ति समाहित थी।

इंद्र और वृत्र के बीच एकल युद्ध के दौरान, गाल पर प्रहार होने पर इंद्र अपना वज्र गिरा देता है। जब देवता हांफने लगते हैं, तब वृत्र उसे केवल अपना हथियार उठाने की सलाह देता है, क्योंकि उसके लिए जीवन और मृत्यु एक समान हैं, क्योंकि उसका मानना ​​है कि वे सभी विष्णु के उपकरण हैं।

इंद्र असुर की संरक्षक देवता के प्रति भक्ति पर आश्चर्यचकित होता है। जब देवों का राजा अपने प्रतिद्वंद्वी की दोनों भुजाएँ काटने में सफल हो जाता है, तो बाद वाला उसे ऐरावत के साथ पूरा निगल जाता है वृत्र अपनी मृत्यु के बाद वैकुण्ठ चला गया ।

पुराणों के अनुसार, ब्राह्मणहत्या के भयानक मानवरूपी अवतार ने इंद्र का पीछा किया और उन्हें उनके पाप के लिए छिपने पर मजबूर कर दिया,और नहुष को उनकी जगह लेने के लिए आमंत्रित किया गया।

इस प्रकरण से हमें बहुत सी बातें सीखने को मिलती हैं l प्रथम, कोई कितना ही बड़ा ज्ञानी हो, कितना ही सक्षम हो, कैसा ही विद्वान हो, अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता यदि भगवत इच्छा नहीं हो l

जहां भगवान होते है वहां विजय होती है ,गीता त्वष्टा उच्च कोटि के यज्ञ करने वाले थे l वह यज्ञ से एक ऐसा पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे जो इंद्र का वध कर दे l पूर्णतः सक्षम होते हुए भी वह ऐसा नहीं कर पाए l उच्चारण में त्रुटि रहने के कारण मन वांछित पुत्र प्राप्त नहीं कर सके,क्योंकि इंद्र मरे यह भगवान की इच्छा नहीं थी l

इसी प्रकार दुर्वासा ने कृत्या को तो उत्पन्न कर दिया परंतु वह अमरीश का बाल बांका भी नहीं कर सकी, उल्टा सुदर्शन चक्र ही दुर्वासा के पीछे पड़ गया l द्वितीय, भक्ति का अधिकार सभी को है मनुष्य, देवता, असुर l ऐसे तो मनुष्य योनि ही पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्म करने के लिए है और इसी में भगवत प्राप्ति होती है l

परंतु विशेष परिस्थितियों में देव, दानव,पक्षी ,पशु ,नाग ,वृक्ष और असुर आदि भी भगवान को प्राप्त कर सकते हैं–गीता ,भागवत तृतीय, यदि कोई भक्ति की चरम सीमा प्राप्त करने से पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो जाता है तो उसे अगले जन्म में फिर से भक्ति करने का अवसर प्राप्त होता है।

चतुर्थ, अंत समय में यदि मन भगवान में स्थित हो, भगवान को याद करते हुए शरीर त्यागा जाए तो भगवत- प्राप्ति हो जाती है l भगवान को स्मरण करते हुए वृत्रासुर ने शरीर को त्यागा इसलिए भगवत धाम गया l यही गीता का ज्ञान है। पंचम, गुरु महत्व असीम है l नारद जी द्वारा ज्ञान देने पर ही चित्रकेतु को विद्याधरों का अधिपत्य प्राप्त हुआ था l षष्ट्म , जो कि सबसे महत्वपूर्ण है, भगवान के भक्त को कोई भी भय नहीं होता। इस प्रकरण में यह तथ्य शंकर भगवान ने पार्वती जी को व सभा में अन्य उपस्थित जन को समझाइए है l

यह है चित्रकेतु/वृतासुर का पावन इतिहास। परमहंस शुकदेवजी के विचार से इस इतिहास के पाठ से परम गति प्राप्त होती है,बंधनों से मुक्ति होती है।इसे ऐसा ज्ञान था, जो भगवान स्वयं ने शिव-संकट मोचन के समय बताया कि भगवान जिसपर कृपा करते हैं उसका अर्थ,धर्म काम संबंधी प्रयास विफल कर देते हैं

तिरूपति बालाजी मंदिर

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भारत को मंदिरों का देश कहा जाता है यहां के मंदिर लोगों की श्रद्धा और भक्ति का केंद्र होते हैं जो हजारों किमी दूर से लोगों को खींचते हैं। यहां हजारों मंदिर हैं जिनका अपना इतिहास और रहस्य है जिनसे आज तक कोई पर्दा नहीं उठा सका। इनमें से एक है तिरुपति बालाजी मंदिरआंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित भारत के प्रमुख और पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है और यह भारत का एक अमीर मंदिर भी है। चमत्कारों और रहस्यों से भरपूर यह मंदिर न केवल भारत में प्रसिद्ध है बल्कि पूरे विश्व में भी मशहूर है। इस मंदिर के मुख्य देवता श्री वेंकटेश्वर स्वामी है जिन्हें भगवान विष्णु के अवतार माना जाता है और वे तिरुमाला पर्वत पर अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास करते हैं।

तिरूपति बालाजी मंदिर एक बहुत प्रसिद्ध हिंदू वैष्णव मंदिर है जो भगवान विष्णु के अवतार भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित है, जो आंध्र प्रदेश के तिरूपति के पहाड़ी शहर तिरुमल में स्थित है। ऐसा माना जाता है कि कष्टकारी कलियुग में मानव जाति को बचाने के लिए भगवान विष्णु स्वयं यहां प्रकट हुए थे। इस मान्यता के अनुरूप, इस स्थान को कलियुग वैकुंठम के नाम से भी जाना जाता है और भगवान को कलियुग प्रत्यक्ष दैवम भी कहा जाता है।

तिरुमाला पहाड़ियाँ समुद्र तल से 853 मीटर ऊपर स्थित हैं और इसमें सात चोटियाँ शामिल हैं, जो आदिशेष (पवित्र साँप और भगवान विष्णु के रक्षक) के सात सिरों का प्रतिनिधित्व करती हैं। सात चोटियों के नाम शेषाद्रि, नीलाद्रि, गरुड़ाद्रि, अंजनाद्रि, वृषभाद्रि, नारायणाद्रि और वेंकटाद्रि हैं। यह मंदिर सातवीं चोटी – वेंकटाद्रि, श्री स्वामी पुष्करिणी, एक पवित्र जल कुंड के दक्षिणी तट पर स्थित है। इसलिए मंदिर को “सात पहाड़ियों का मंदिर” भी कहा जाता है।

 इस मंदिर से आस्था, प्रेम और रहस्य जुड़ा हुआ है, जिसकी वजह से यहां भक्तों की भारी भीड़ देखने को मिलती है. ऐसा कहा जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर नेअपने भक्तों को तमाम तरह की परेशानियों से बचाने के लिए कलयुग में जन्म लिया था. मान्यता है कि तिरुपति बालाजी भगवान विष्णु के अवतार हैं. ऐसा भी कहा जाता है कि कलयुग में जब तक भगवान वेंकटेश्वर रहेंगे, तब तक कलयुग का अंत नहीं हो सकता है

Tirupati Balaji
Tirupati Balaji


श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कल‍ियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।

धन और प्राप्त दान के मामले में तिरुमाला तिरुपति दुनिया का सबसे अमीर मंदिर है। मंदिर में प्रतिदिन लगभग 50,000 से 100,000 तीर्थयात्री आते हैं (औसतन 30 से 40 मिलियन लोग सालाना), जबकि वार्षिक ब्रह्मोत्सवम जैसे विशेष अवसरों और त्योहारों पर, तीर्थयात्रियों की संख्या 500,000 तक बढ़ जाती है, जिससे यह सबसे अधिक देखा जाने वाला पवित्र स्थान बन जाता है।

श्री वैंकटेश्वर का यह प्राचीन मंदिर तिरुपति पहाड़ की सातवीं चोटी (वैंकटचला) पर स्थित है। यह श्री स्वामी पुष्करिणी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। माना जाता है कि वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने के कारण ही इन्‍हें वैंकटेश्‍वर कहा जाने लगा। इन्‍हें सात पहाड़ों का भगवान भी कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान वैंकटेश्चर साक्षत विराजमान है। यह मुख्य मंदिर के प्रांगण में है। मंदिर परिसर में अति सुंदरता से बनाए गए अनेक द्वार, मंडपम और छोटे मंदिर हैं। मंदिर परिसर में मुख्श् दर्शनीय स्थल हैं:पडी कवली महाद्वार संपंग प्रदक्षिणम, कृष्ण देवर्या मंडपम, रंग मंडपम तिरुमला राय मंडपम, आईना महल, ध्वजस्तंभ मंडपम, नदिमी पडी कविली, विमान प्रदक्षिणम, श्री वरदराजस्वामी श्राइन पोटु आदि।

कहा जाता है कि इस मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय से हुई है। यह संप्रदाय समानता और प्रेम के सिद्धांत को मानता है। इस मंदिर की महिमा का वर्णन विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। माना जाता है कि भगवान वैंकटेश्‍वर का दर्शन करने वाले हरेक व्यक्ति को उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। हालांकि दर्शन करने वाले भक्‍तों के लिए यहां विभिन्‍न जगहों तथा बैंकों से एक विशेष्‍ा पर्ची कटती है। इसी पर्ची के माध्‍यम से आप यहां भगवान वैंकटेश्‍वर के दर्शन कर सकते है।

देश के प्रमुख धार्मिक स्थलों में तिरुपति बालाजी मंदिर अत्यंत प्रसिद्ध है। देश-विदेश के कई बड़े उद्योगपति, फिल्म सितारे और राजनेता यहां अपनी उपस्थिति देते हैं.

धार्मिक मान्यता के अनुसार तिरुपति बालाजी मंदिर को कलयुग का वैकुंठ भी कहा जाता है. भगवान वेंकटेश्वर को श्रीनिवासा, बालाजी और गोविंदा के नाम से भी जानते हैं. आपने देखा या सुना होगा कि भगवान वेंकटेश्वर की आंखें हमेशा बंद रहती है जबकि अन्य मंदिरों में देवी-देवताओं की आंखें बंद नही रहती हैं


तिरुपति बालाजी की आंखें बंद रखते है

धार्मिक मान्यता के मुताबिक भगवान वेंकटेश्वर का कलयुग में निवास तिरुपति मंदिर माना जाता है. यह मंदिर आंध्र प्रदेश के तिरुपति जिले के पहाड़ी शहर तिरुमला में स्थित है. भगवान श्रीहरि के अवतार वेंकटेश्वर को उनकी शक्तिशाली और चमकीली आंखों के लिए जाना जाता है. कहा जाता है कि उनके भक्त भगवान वेंकटेश्वर की आंखों में सीधा नहीं देख सकते हैं, क्योंकि उनकी आंखें ब्रह्मांडीय ऊर्जा से परे हैं. इसी वजह से उनकी आंखों को मुखौटे से ढक दिया जाता है. वहीं, सिर्फ गुरुवार के दिन भगवान वेंकटेश्वर की आंखों से सफेद मुखौटा बदला जाता है. ऐसे में भक्त सिर्फ उसी दौरान पलभर के लिए भगवान वेंकटेश्वर की आंखों का दर्शन कर सकते हैं.

कैसे ढकी जाती हैं बालाजी की आंखें?

मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर की आंखें पंच कपूर से ढकी जाती हैं. धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, तिरुपति बालाजी की आंखें हमेशा खुली रहती हैं और इनकी आंखों में काफी तेज है, जिसे सीधी नहीं देखा जा सकता है. इसलिए भगवान की आंखें हमेशा कपूर से ढकी जाती हैं. ऐसे में भक्त सिर्फ गुरुवार के दिन ही भगवान वेंकटेश्वर की आंखों का दर्शन कर सकते हैं.

गुरुवार को होता है बालाजी का श्रृंगार

सप्ताह के हर गुरुवार पर भगवान वेंकटेश्वर को चंदन से स्नान कराया जाता है और फिर उनकी मूर्ति पर चंदन का लेप लगाया जाता है. ऐसा कहा जाता है कि उनके हृदय पर चंदन का लेप लगाने से मां लक्ष्मी की छवि दिखने लग जाती है

बालाजी की माला में होते हैं 27 तरह के फूल

तिरुपति बालाजी के लिए रोजाना 100 फीट लंबी माला बनाई जाती है. उनको 27 तरह के फूल की मालाएं पहनाई जाती हैं. बताया जाता है कि सभी मालाओं में लगे फूल अलग-अलग वाटिकाओं से मंगाए जाते हैं. तो वहीं, वैकुंठोत्सव और ब्रह्मोत्सव के मौके पर विदेशों से भी फूल मगंवाए जाते हैं

तिरुपति बालाजी मंदिर का इतिहास-

इस मंदिर का निर्माण करीब तीसरी शाताब्दी के आसपास में हुआ है और इसका निर्माण समय-समय पर विभिन्न वंशों के शासकों द्वारा जीर्णोद्धार किया गया है। 5वीं शताब्दी तक इस मंदिर ने सनातन धर्म के प्रमुख केंद्र के रूप में बढ़त चढ़त किया। इस मंदिर की उत्पत्ति का श्रेय वैष्णव संप्रदाय को जाता है। 9वीं शताब्दी में कांचीपुरम के पल्लव शासकों ने इसे अपने अधीन किया था। 15वीं शताब्दी के बाद इस मंदिर को प्रसिद्धि मिली और यह प्रसिद्धि आज भी बरकरार है।

तिरुपति बालाजी मंदिर की पौराणिक मान्यता

भगवान विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक सरोवर के किनारे निवास किया था। जो तिरुमाला के पहाड़ी पर स्थित है। इसके कारण तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियां शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनी ‘सप्तगिरि’ कहलाती हैं। इस मंदिर का स्थान सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर है। जिसे वेंकटाद्री भी कहा जाता है। मंदिर में स्थित प्रभु की प्रतिमा किसी द्वारा बनाई नहीं गई है बल्कि यह स्वयं ही उत्पन्न हुई है।

तिरुपति बालाजी मंदिर में मनाए जाने वाले त्योहार

 तिरुपति बालाजी के मंदिर में कौन – कौन से त्यौहार मनाये जाते है|

मान्यताओं के अनुसार भगवान तिरुपति बालाजी का मंदिर सर्वाधिक लोकप्रिय माना जाता है| इस तिरुपति बालाजी मंदिर में प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग तिरुपति बालाजी के दर्शन करने के लिए आते है तथा बालाजी से अपनी सभी समस्याओं को हल करने के लिए प्रार्थना करते है| हिन्दू धर्म की पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है| भगवान विष्णु ने इस मानवता को कलयुग की परेशानियों व कठिनाइयों से बचाने के लिए भगवान वेंकटेश्वर के रूप में इस धरती पर अवतरित हुए थे|

 

ब्रह्मोत्सवम:

यह तिरुपति बालाजी मंदिर में मनाया जाने वालासबसे महत्वपूर्ण त्यौहार है| यह त्यौहार कुल नौ दिनों तक मनाया जाता है| जिसकी शुरुआत सितम्बर या फिर अक्टूबर के महीने में आ जाती है| इस त्यौहार की शुरुआत “ध्वज स्तंभम”  नामक एक खम्भे पर झंडे को फहराने से की जाती है| इस त्यौहार सभी भक्तों के द्वारा बहुत ही खुशहाली और भक्ति के भाव 

रथसप्तमी: –

यह त्यौहार फरवरी के महीने में मनाया जाता है| रथसप्तमी का त्यौहार चंद्रमा के बढ़ते हुए चरण को दर्शाता है तथा यह सूर्य देव को समर्पित किया गया है| माना जाता है कि इस दिन सूर्य भगवान अपनी दिशा दक्षिण पूर्व से उत्तर पूर्व की और बदल जाता है| इसी कारण इस दिन से वसंत ऋतू का आरम्भ हो जाता है|

उगादि: –

तेलगु नव वर्ष को ही उगादि के नाम से भी जाना जाता है जो कि मार्च या अप्रैल के महीने में मनाया जाता है| तेलगु लोग इस त्यौहार को बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाते है| इस शुभ अवसर पर भगवान तिरुपति के मंदिर को आम का पत्तों की सहायता से सजाया जाता है| इस त्यौहार की मुख्य प्रथा “पंचांग श्रवणं” है जिसमे पुजारी ज्योतिष विद्या की सहायता से आगे के समय में होने वाली घटनाओं की भविष्यवाक

तिरुपति बालाजी की कहानी

तिरुपति बाला मंदिर में भगवान वेंकटेश्वर की प्रतिमा अलौकिक है। यह विशेष पत्थर से बनी है। यह प्रतिमा इतनी जीवंत है कि ऐसा प्रतीत होता है जैसे भगवान विष्णु स्वयं यहां विराजमान हैं। भगवान की प्रतिमा को पसीना आता है, पसीने की बूंदें देखी जा सकती हैं। इसलिए मंदिर में तापमान कम रखा जाता है। तिरुपति बालाजी मंदिर से जुड़ी  दो कथाएं  है। पहली कथा उनके वराह अवतार से जुड़ी है और दूसरी कथा माता लक्ष्मी और उनके वेंकटेश्‍वर रूप से जुड़ी हुई है।

पहली कथा :आदि काल में धरती पर जल ही जल हो गया था। यानी पैर रखने के लिए कोई जमीन नहीं बची थी। कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पवन देव ने भारी अग्नि को रोकने के लिए उग्र रूप से उड़ान भरी जिससे बादल फट गए और बहुत बारिश हुई और धरती जलमग्न हो गई। धरती पर पुन: जीवन का संचार करने के लिए श्रीहरि विष्णु ने तब आदि वराह अवतार लिया।उन्होंने अपने इस अवतार में जल के भीतर की धरती को ऊपर तक अपने तुस्क का उपयोग करके खींच लिया। इसके बाद पुन: ब्रह्मा के योगबल से लोग रहने लगे और आदि वराह ने तब बाद में ब्रह्मा के अनुरोध पर एक रचना का रूप धारण किया और अपने बेहतर आधे (4 हाथों वाले भूदेवी) के साथ कृदचला विमना पर निवास किया और लोगों को ध्यान योग और कर्म योग जैसे ज्ञान और वरदान देने का फैसला किया।

दूसरी कथा: पौराणिक सागर-मंथन की गाथा के अनुसार जब सागर मंथन किया गया था तब कालकूट विष के अलावा चौदह रत्‍‌न निकले थे। इन रत्‍‌नों में से एक देवी लक्ष्मी भी थीं। लक्ष्मी के भव्य रूप और आकर्षण के फलस्वरूप सारे देवता, दैत्य और मनुष्य उनसे विवाह करने हेतु लालायित थे, किन्तु देवी लक्ष्मी को उन सबमें कोई न कोई कमी लगी। अत: उन्होंने समीप निरपेक्ष भाव से खड़े हुए विष्णुजी के गले में वरमाला पहना दी। विष्णु जी ने लक्ष्मी जी को अपने वक्ष पर स्थान दिया।

यह रहस्यपूर्ण है कि विष्णुजी ने लक्ष्मीजी को अपने ह्वदय में स्थान क्यों नहीं दिया? महादेव शिवजी की जिस प्रकार पत्‍‌नी अथवा अर्धाग्नि पार्वती हैं, किन्तु उन्होंने अपने ह्वदयरूपी मानसरोवर में राजहंस राम को बसा रखा था उसी समानांतर आधार पर विष्णु के ह्वदय में संसार के पालन हेतु उत्तरदायित्व छिपा था। उस उत्तरदायित्व में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं हो इसलिए संभवतया लक्ष्मीजी का निवास वक्षस्थल बना।

एक बार धरती पर विश्व कल्याण हेतु यज्ञ का आयोजन किया गया। तब समस्या उठी कि यज्ञ का फल ब्रम्हा, विष्णु, महेश में से किसे अर्पित किया जाए। इनमें से सर्वाधिक उपयुक्त का चयन करने हेतु ऋषि भृगु को नियुक्त किया गया। भृगु ऋषि पहले ब्रम्हाजी और तत्पश्चात महेश के पास पहुंचे किन्तु उन्हें यज्ञ फल हेतु अनुपयुक्त पाया। अंत में वे विष्णुलोक पहुंचे। विष्णुजी शेष शय्या पर लेटे हुए थे और उनकी दृष्टि भृगु पर नहीं जा पाई। भृगु ऋषि ने आवेश में आकर विष्णु जी के वक्ष पर ठोकर मार दी। अपेक्षा के विपरीत विष्णु जी ने अत्यंत विनम्र होकर उनका पांव पक़ड लिया और नम्र वचन बोले- हे ऋषिवर! आपके कोमल पांव में चोट तो नहीं आई? विष्णुजी के व्यवहार से प्रसन्न भृगु ऋषि ने यज्ञफल का सर्वाधिक उपयुक्त पात्र विष्णुजी को घोषित किया। उस घटना की साक्षी विष्णुजी की पत्‍‌नी लक्ष्मीजी अत्यंत क्रुद्व हो गई कि विष्णुजी का वक्ष स्थान तो उनका निवास स्थान है और वहां धरतीवासी भृगु को ठोकर लगाने का किसने अधिकार दिया? उन्हें विष्णुजी पर भी क्रोध आया कि उन्होंने भृगु को दंडित करने की अपेक्षा उनसे उल्टी क्षमा क्यों मांगी? परिणामस्वरूप लक्ष्मीजी विष्णुजी को त्याग कर चली गई। विष्णुजी ने उन्हें बहुत ढूंढा किन्तु वे नहीं मिलीं।

अंतत: विष्णुजी ने लक्ष्मी को ढूंढते हुए धरती पर श्रीनिवास के नाम से जन्म लिया और संयोग से लक्ष्मी ने भी पद्मावती के रूप में जन्म लिया। घटनाचक्र ने उन दोनों का अंतत: परस्पर विवाह करवा दिया। सब देवताओं ने इस विवाह में भाग लिया और भृगु ऋषि ने आकर एक ओर लक्ष्मीजी से क्षमा मांगी तो साथ ही उन दोनों को आशीर्वाद प्रदान किया।

लक्ष्मीजी ने भृगु ऋषि को क्षमा कर दिया किन्तु इस विवाह के अवसर पर एक अनहोनी घटना हुई। विवाह के उपलक्ष्य में लक्ष्मीजी को भेंट करने हेतु विष्णुजी ने कुबेर से धन उधार लिया जिसे वे कलियुग के समापन तक पूरा कर्ज ब्याज सहित चुका देंगे। ऐसी मानता है कि जब भी कोई भक्त तिरूपति बालाजी के दर्शनार्थ जाकर कुछ चढ़ाता है तो वह न केवल अपनी श्रद्धा भक्ति अथवा आर्त प्रार्थना प्रस्तुत करता है अपितु भगवान विष्णु के ऊपर कुबेर के ऋण को चुकाने में सहायता भी करता है। अत: विष्णुजी अपने ऐसे भक्त को खाली हाथ वापस नहीं जाने देते हैं।

इसीलिए भगवान के इस रूप में मां लक्ष्मी भी समाहित हैं इसीलिए यहां बालाजी को स्त्री और पुरुष दोनों के वस्त्र पहनाने की यहां परम्परा है। बालाजी को प्रतिदिन नीचे धोती और उपर साड़ी से सजाया जाता है।

वास्तुकला

तिरूपति मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का अनुसरण करता है। गर्भगृह या गर्भगृह को आनंद निलयम कहा जाता है, जिसके प्रमुख देवता भगवान वेंकटेश्वर हैं, जिनका मुख पूर्व दिशा की ओर है। गर्भगृह तक जाने वाले तीन द्वारम (प्रवेश द्वार) हैं। बाहरी परिसर की दीवार से महाद्वारम, वेंडीवाकिली, आंतरिक परिसर की दीवार के माध्यम से चांदी का प्रवेश द्वार और बंगारुवाकिली, स्वर्ण प्रवेश द्वार जो गर्भगृह में जाता है।

मंदिर के चारों ओर दो परिक्रमा पथ हैं – संपांगीप्रदक्षिणम् और विमानप्रदक्षिणम्। इष्टदेव खड़ी मुद्रा में हैं और उनके चार हाथ हैं, एक हाथ आशीर्वाद मुद्रा में है, एक जांघ पर है और अन्य दो हाथ शंख और चक्र पकड़े हुए हैं।

तिरूपति मंदिर न केवल अपने धार्मिक महत्व के लिए बल्कि अपनी स्थापत्य प्रतिभा के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर परिसर द्रविड़ वास्तुकला का एक शानदार उदाहरण है, जो इसके विशाल गोपुरम (प्रवेश द्वार), जटिल नक्काशीदार स्तंभों और उत्कृष्ट मूर्तियों द्वारा पहचाना जाता है।

भगवान वेंकटेश्वर का निवास मुख्य मंदिर, मंदिर परिसर के केंद्र में स्थित है। गर्भगृह, जिसे गर्भगृह के नाम से जाना जाता है, सोने से ढके विमान (मीनार) से सुशोभित है। भगवान वेंकटेश्वर की मूर्ति काले पत्थर से बनी है और लगभग 8 फीट ऊंची है। यह सोने और कीमती रत्नों से सुसज्जित है, जो मंदिर के भक्तों की समृद्धि और भक्ति का प्रतीक है।

मंदिर की सबसे प्रतिष्ठित विशेषताओं में से एक विशाल राजगोपुरम, मुख्य प्रवेश द्वार टॉवर है। लगभग 140 फीट ऊंची, यह एक भव्य संरचना है जो हिंदू पौराणिक कथाओं के विभिन्न प्रसंगों को दर्शाती जटिल मूर्तियों और नक्काशी से सुसज्जित है।

मंदिर में भगवान राम, भगवान कृष्ण और देवी लक्ष्मी सहित विभिन्न देवताओं को समर्पित कई अन्य छोटे मंदिर भी हैं। इनमें से प्रत्येक मंदिर उन कारीगरों की कलात्मक और स्थापत्य उत्कृष्टता का प्रमाण है जिन्होंने मंदिर के निर्माण में योगदान दिया था।

आध्यात्मिक महत्व

तिरूपति मंदिर हिंदुओं के लिए अत्यधिक आध्यात्मिक महत्व रखता है, और इसे अक्सर “आंध्र प्रदेश की आध्यात्मिक राजधानी” के रूप में जाना जाता है। भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद लेने के लिए हर साल दुनिया भर से लाखों भक्त मंदिर में आते हैं। मंदिर की तीर्थयात्रा कई हिंदुओं के लिए आध्यात्मिक यात्रा का एक अनिवार्य हिस्सा मानी जाती है।


भक्तों का मानना ​​है कि तिरूपति मंदिर की यात्रा और भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन से आशीर्वाद मिलेगा, पाप दूर होंगे और उनकी इच्छाएं पूरी होंगी। देवता को प्रसाद के रूप में अपने बाल मुंडवाने की प्रथा भक्तों के बीच एक सामान्य अनुष्ठान है। मंदिर प्रसिद्ध सुप्रभातम, थोमाला, अर्चना और अभिषेकम सहित विभिन्न सेवा (धार्मिक सेवाएं) और अनुष्ठान भी आयोजित करता है, जिसमें भक्त भाग ले सकते हैं।

यह मंदिर अपने धार्मिक महत्व के अलावा दान और सेवा का भी प्रतीक है। निःशुल्क भोजन वितरण की परंपरा, जिसे “धन अन्नप्रसादम” के नाम से जाना जाता है, यह सुनिश्चित करती है कि मंदिर में दर्शन के दौरान कोई भी भक्त भूखा न रहे।

तिरुपति बालाजी में बाल कटवाने का कारण

बाल दान दने के पीछे का कारण यह माना जाता है कि भगवान वेंकटेश्वर कुबेर से लिए गए ऋण को चुकाते हैं। कथा अनुसार जब भगवान वेंकटेश्वर का पद्मावती से विवाह हुआ था। तब एक परंपरा के अनुसार वर को शादी से पहले कन्या के परिवार को एक तरह का शुल्क देना होता था, लेकिन भगवान वेंकटेश्वर ये शुल्क देने में असमर्थ थे, इसलिए उन्होंने कुबेर देवता से ऋण लेकर पद्मावती से विवाह किया और वचन दिया कि कलयुग के अंत तक वे कुबेर का सारा ऋण चुका देंगे।

उन्होंने देवी लक्ष्मी की ओर से भी वचन देते हुए कहा कि जो भी भक्त उनका ऋण लौटाने में उनकी मदद करेंगे देवी लक्ष्मी उन्हें उसका दस गुना ज्यादा धन देंगी। इस कारण तिरुपति जाने वाले विष्णु भगवान पर आस्था रखने वाले भक्त बालों का दान कर भगवान विष्णु का ऋण चुकाने में उनकी मदद करते हैं।

तिरूपति मंदिर के बारे में 10 रोचक तथ्य

बालाजी के वक्षस्थल पर लक्ष्मीजी निवास करती हैं। हर गुरूवार को निजरूप दर्शन के समय भगवान बालाजी की चंदन से सजावट की जाती है उस चंदन को निकालने पर लक्ष्मीजी की छवी उस पर उतर आती है। बाद में उसे बेचा जाता है।

भगवान वेंकेटेश्वर की प्रतिमा पर पचाई कपूर लगाया जाता है। कहा जाता है कि यह कपूर किसी भी पत्थर पर लगाया जाता है तो पत्थर में कुछ समय में दरारें पड़ जाती हैं। लेकिन भगवान बालाजी की प्रतिमा पर पचाई कपूर का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

एक अनजान गांव का रहस्य

मंदिर से 23 किलोमीटर दूर एक गाँव है, उस गाँव में बाहरी व्यक्ति का प्रवेश निषेध है। वहाँ पर लोग नियम से रहते हैं। वहां की महिलाएँ ब्लाउज नहीं पहनती। वहीँ से लाए गये फूल भगवान को चढाए जाते है और वहीँ की ही वस्तुओं को चढाया जाता है जैसे- दूध,घी, माखन आदि।इस छोटे से गाँव को अपने लोगों के अलावा किसी बाहरी व्यक्ति ने कभी देखा या दौरा नहीं किया है।

देवता की मूर्ति मध्य में नहीं है

भगवान तिरूपति बालाजी की जो मूर्ति रखी गई है वह गर्भगृह के मध्य में खड़ी हुई प्रतीत हो सकती है, लेकिन तकनीकी रूप से ऐसा नहीं है। मूर्ति वास्तव में मंदिर के दाहिने कोने में स्थित है।

बालाजी के असली बाल

भगवान बालाजी द्वारा पहने गए बाल रेशमी, चिकने, उलझन रहित और बिल्कुल असली हैं। उन दोषरहित बालों के पीछे की कहानी इस प्रकार है – भगवान बालाजी ने, पृथ्वी पर अपने शासनकाल के दौरान, एक अप्रत्याशित दुर्घटना में अपने कुछ बाल खो दिए थे। नीला देवी नाम की एक गंधर्व राजकुमारी ने तुरंत इस घटना पर ध्यान दिया और अपने शानदार बाल का एक हिस्सा काट दिया। उसने विनम्रतापूर्वक अपनी कटी हुई जटाएँ देवता को अर्पित कीं और उनसे उन्हें अपने सिर पर लगाने का अनुरोध किया। उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान ने इस तरह की भेंट स्वीकार कर ली और वादा किया कि जो कोई भी उनके मंदिर में आएगा और उनके चरणों में अपने बाल चढ़ाएगा, उसे आशीर्वाद मिलेगा। तब से, भक्तों के बीच अपनी इच्छा पूरी होने से पहले या बाद में मंदिर में अपना सिर मुंडवाने की प्रथा रही है।

आप विश्वास करने के लिए सुनना चाह सकते हैं, लेकिन अपरिवर्तनीय सत्य यह है कि यदि कोई मंदिर में स्थित देवता की छवि के पीछे अपना कान रखता है तो विशाल समुद्री लहरों की आवाज़ सुनी जा सकती है।

निरंतर जलते दीपक,

ईश्वर के प्रति एक उत्साही भक्त के हृदय की रोशनी कभी नहीं बुझती, उसी प्रकार तिरूपति बालाजी मंदिर के गर्भगृह में देवता की मूर्ति के सामने रखे गए मिट्टी के दीपक भी बुझते नहीं हैं। ये दीपक कब जलाए गए और किसने जलाए, इसके बारे में कोई विश्वसनीय रिकॉर्ड नहीं है। बस इतना पता है कि ये बहुत पहले से जल रहे हैं और जलते रहेंगे.

वेंकटेश्वर स्वामी एक बार साक्षात् प्रकट हुए थे

बहुत पहले, 19वीं सदी के भारत में, क्षेत्र के राजा ने एक जघन्य अपराध करने के लिए बारह लोगों को मौत की सजा दी थी। उनमें से बारह को मृत्यु तक उनकी गर्दनों से फाँसी पर लटका दिया गया। मृत्यु के बाद, मृत अपराधियों के शरीर को बालाजी के मंदिर की दीवारों पर लटका दिया गया था। उसी समय देवता स्वयं प्रकट हुए।

धुंधली मूर्ति

एक अज्ञात कारण से, पुजारियों द्वारा इसे सूखा रखने के लिए कड़ी मेहनत करने के बावजूद, मूर्ति की पीठ हमेशा नम रहती है।

भगवान को चढ़ाए गए फूल वेरपेडु में निकलते हैं

नियम पुस्तिका के अनुसार, मंदिर के पुजारी सुबह की पूजा के दौरान भगवान बालाजी को चढ़ाए गए फूलों को गर्भगुड़ी या गर्भगृह से बाहर नहीं फेंकते हैं। इसलिए, उन्हें मूर्ति के पिछले हिस्से के पीछे बहने वाले झरनों में फेंक दिया जाता है। हालाँकि, पुजारी बाकी दिन पवित्र देवता के पिछले हिस्से को देखने से बचते हैं। हैरानी की बात यह है कि फेंके गए फूलों को येरपेडु नाम की जगह पर देखा जा सकता है जो कि तिरूपति से 20 किलोमीटर दूर है।

मूर्ति मजबूत रासायनिक प्रतिक्रिया से बच जाती है

यह वैज्ञानिक रूप से ज्ञात तथ्य है कि जब कच्चे कपूर या हरे कपूर (पचाई कर्पूरम), सिनामोमम कैम्फोरा पेड़ का व्युत्पन्न, किसी भी पत्थर पर लगाया जाता है, तो इससे वस्तु पर  दरारें पड़ जाती हैं। हालाँकि, श्री तिरूपति बालाजी की मूर्ति कपूर की अस्थिर रासायनिक प्रतिक्रियाओं के प्रति प्रतिरोधी है और इस पर कोई निशान नहीं पड़ता है, भले ही यह अधिकांश समय इस पदार्थ से सनी रहती है।

पसीने से तर देवता

भगवान बालाजी की छवि भले ही पत्थर से बनाई गई हो, लेकिन अगर रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए तो यह पूरी तरह से जीवन से भरपूर और बहुत जीवंत है। पवित्र देवता की मूर्ति 110 डिग्री फ़ारेनहाइट का तापमान बनाए रखती है, भले ही मंदिर की खड़ी स्थिति (3000 फीट) के कारण आसपास का वातावरण ठंडा हो। हर सुबह, अभिषेकम के नाम से जाने जाने वाले पवित्र स्नान के बाद, बालाजी की छवि पर पसीने की बूंदें दिखाई देती हैं जिन्हें पुजारियों द्वारा रेशमी कपड़े से पोंछना पड़ता है। गुरुवार को, जब पुजारी पवित्र स्नान के लिए मूर्ति के आभूषण उतारते हैं, तो वे गर्मी की अनुभूति के साथ निकलते हैं।

अन्य मंदिर

श्री पद्मावती समोवर मंदिर
तिरुचनूर (इसे अलमेलुमंगपुरम भी कहते हैं) तिरुपति से पांच किमी. दूर है।यह मंदिर भगवान श्री वेंकटेश्वर विष्णु की पत्नी श्री पद्मावती लक्ष्मी जी को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमला की यात्रा तब तक पूरी नहीं हो सकती जब तक इस मंदिर के दर्शन नहीं किए जाते।

तिरुमला में सुबह 10.30 बजे से दोपहर 12 बजे तक कल्याणोत्सव मनाया जाता है। यहां दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाता हैं। शुक्रवार को दर्शन सुबह 8बजे के बाद शुरु होता हैं। तिरुपति से तिरुचनूर के बीच दिनभर बसें चलती हैं।


श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर

श्री गोविंदराजस्वामी भगवान बालाजी के बड़े भाई हैं। यह मंदिर तिरुपति का मुख्‍य आकर्षण है। इसका गोपुरम बहुत ही भव्य है जो दूर से ही दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण संत रामानुजाचार्य ने 1130 ईसवी में की थी। गोविंदराजस्वामी मंदिर में होने वाले उत्सव और कार्यक्रम वैंकटेश्वर मंदिर के समान ही होते हैं। वार्षिक बह्मोत्‍सव वैसाख मास में मनाया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में संग्रहालय और छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें भी पार्थसारथी, गोड़ादेवी आंदल और पुंडरिकावल्ली का मंदिर शामिल है। मंदिर की मुख्य प्रतिमा शयनमूर्ति (भगवान की निंद्रालीन अवस्था) है। दर्शन का समय है- प्रात: 9.30 से दोपहर 12.30, दोपहर 1.00 बजे से शाम 6 बजे तक और शाम 7.00 से रात 8.45 बजे तक

श्री कोदंडरामस्वमी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति के मध्य में   स्थित है। यहां सीता, राम और लक्ष्मण की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण चोल राजा ने दसवीं शताब्दी में कराया था। इस मंदिर के ठीक सामने अंजनेयस्वामी का मंदिर है जो श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर का ही उपमंदिर है। उगडी और श्री रामनवमी का पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर

कपिला थीर्थम भारत के आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुपति में स्थित एक प्रसिद्ध शिव मंदिर और थीर्थम है। यह मूर्ति कपिला मुनि द्वारा स्थापित की गई था और इसलिए यहां भगवान शिव को कपिलेश्वर के रूप में जाना जाता है। यह तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है। यह तिरुपति शहर से तीन किमी.दूर उत्तर में, तिरुमला की पहाड़ियों के नीचे ओर तिरुमाला जाने के मार्ग के बीच में स्थित है कपिल तीर्थम जाने के लिए बस, ऑटो रिक्शा यातायात का मुख्य साधन हैं ओर सरलता से उपलब्ध भी है।

यहां पर कपिला तीर्थम नामक पवित्र नदी भी है। जो सप्तगिरी पहाड़ियों में से बहती पहाड़ियों से नीचे कपिल तिर्थम मे आती हैं जो अति मनोरम्य लगता हैं। इसे अलिपिरि तीर्थम के नाम से भी जाना जाता है। यहां पर श्री वेनुगोपाल ओर लक्ष्मी नारायण के साथ गौ माता कामधेनु कपिला गाय व हनुमानजी का अनुपम मंदिर भी स्थित हैं।


यहां महाबह्मोत्‍सव, महा शिवरात्रि, स्खंड षष्टी और अन्नभिषेकम बड़े धूमधाम से मनाया जाता हैं। वर्षा ऋतु में झरने के आसपास का वातावरण बहुत ही मनोरम होता है।

श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति से 12 किमी.पश्चिम में श्रीनिवास मंगापुरम में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने से पहले भगवान वेंकटेश्वर यहां ठहरे थे। यहां स्थापित भगवान वेंकटेश्वर की पत्थर की विशाल प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों, आभूषणों और फूलों से सजाया गया है। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव और साक्षात्कार वैभवम यहां धूमधाम से मनाया जाता है।

श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति से 40 किमी दूर, नारायणवनम में स्थित है। भगवान श्री वेंकटेश्वर और राजा आकाश की पुत्री देवी पद्मावती यही परिणय सूत्र में बंधे थे। यहां मुख्य रूप से श्री कल्याण वेंकटेश्वरस्वामी की पूजा होती है। यहां पांच उपमंदिर भी हैं। श्री देवी पद्मावती मंदिर, श्री आण्डाल मंदिर, भगवान रामचंद्र जी का मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर। इसके अलवा मुख्य मंदिर से जुड़े पांच अन्य मंदिर भी हैं। श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर। वार्षिक ब्रह्मोत्‍सव मुख्य मंदिर श्री वीरभद्रस्वामी मंदिर और अवनक्शम्मा मंदिर में मनाया जाता है।

श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर

नगलपुरम का यह मंदिर तिरुपति से 70 किमी दूर है। माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मत्‍स्‍य अवतार लेकर सोमकुडु नामक राक्षस का यहीं पर संहार किया था। मुख्य गर्भगृह में विष्णु की मत्स्य रूप में प्रतिमा स्‍थापित है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। भगवान द्वारा धारण किया हुआ सुदर्शन चक्र सबसे अधिक आकर्षक लगता है। इस मंदिर का निर्माण विजयनगर के राजा श्री कृष्णदेव राय ने करवाया था। यह मंदिर विजयनगर की वास्तुकला के दर्शन कराता है। मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य उत्सव ब्रह्मोत्सव और सूर्य पूजा है। यह पूजा फाल्‍गुन मास की 12वीं, 13वीं और 14वीं तिथि को होती है। इस दौरान सूर्य की किरण प्रात: 6बजे से 6.15 मिनट तक मुख्य प्रतिमा पर पड़ती हैं। ऐसा लगता है मानो सूर्य देव स्वयं भगवान की पूजा कर रहे हों।

श्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर

यह मंदिर तिरुपति से 58 किमी. दूर, कारवेतीनगरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा स्थापित है। उनके साथ उनकी पत्नियां श्री रुक्मणी अम्मवरु और श्री सत्सभामा अम्मवरु की भी प्रतिमा स्‍थापित हैं। यहां एक उपमंदिर भी है।

श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर

माना जाता है कि श्री पद्मावती अम्मवरु से विवाह के पश्चात् श्री वैंक्टेश्वरस्वामी अम्मवरु ने यहीं, अप्पलायगुंटा पर श्री सिद्धेश्वर और अन्य शिष्‍यों को आशीर्वाद दिया था। अंजनेयस्वामी को समर्पित इस मंदिर का निर्माण करवेतीनगर के राजाओं ने करवाया था। कहा जाता है कि आनुवांशिक रोगों से ग्रस्त रोगी अगर यहां आकर वायुदेव की प्रतिमा के आगे प्रार्थना करें तो भगवान जरुर सुनते हैं। यहां देवी पद्मावती और श्री अंदल की मूर्तियां भी हैं। साल में एक बार ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है।

श्री चेन्नाकेशवस्वामी मंदिर

तल्लपका तिरुपति से 100 किमी. दूर है। यह श्री अन्नामचार्य (संकीर्तन आचार्य) का जन्मस्थान है। अन्नामचार्य श्री नारायणसूरी और लक्कामअंबा के पुत्र थे। अनूश्रुति के अनुसार करीब 1000 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण और प्रबंधन मत्ती राजाओं द्वारा किया गया था।

श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर

श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर (इसे श्री पेरुमला स्वामी मंदिर भी कहते हैं) तिरुपति से 51 किमी. दूर नीलगिरी में स्थित है। माना जाता है कि यहीं पर प्रभु महाविष्णु ने मकर को मार कर गजेंद्र नामक हाथी को बचाया था। इस घटना को महाभगवतम में गजेंद्रमोक्षम के नाम से पुकारा गया है।

श्री अन्नपूर्णा-काशी विश्वेश्वरस्वामी

कुशस्थली नदी के किनारे बना यह मंदिर तिरुपति से 56 किमी. की दूरी पर,बग्गा अग्रहरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से श्री काशी विश्वेश्वर, श्री अन्नपूर्णा अम्मवरु, श्री कामाक्षी अम्मवरु और श्री देवी भूदेवी समेत श्री प्रयाग माधव स्वामी की पूजा होती है। महाशिवरात्रि और कार्तिक सोमवार को यहां विशेष्‍ा आयोजन किया जाता है।

स्वामी पुष्करिणी

इस पवित्र जलकुंड के पानी का प्रयोग केवल मंदिर के कामों के लिए ही किया जा सकता है। जैसे भगवान के स्नान के लिए, मंदिर को साफ करने के लिए, मंदिर में रहने वाले परिवारों (पंडित, कर्मचारी) द्वारा आदि। कुंड का जल पूरी तरह स्वच्छ और कीटाणुरहित है। यहां इसे पुन:चक्रित किए जाने व्यवस्था की भी व्‍यवस्‍था की गई है।

माना जाता है कि वैकुंठ में विष्णु पुष्‍करिणी कुंड में ही स्‍नान करते है, इसलिए श्री गरुड़जी ने श्री वैंकटेश्वर के लिए इसे धरती पर लेकर आए थे। यह जलकुंड मंदिर से सटा हुआ है। यह भी कहा जाता है कि पुष्करिणी के दर्शन करने से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं और भक्त को सभी सुख प्राप्त होते हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व भक्त यहां दर्शन करते हैं। ऐसा करने से शरीर व आत्मा दोनों पवित्र हो जाते हैं।

आकाशगंगा जलप्रपात

आकाशगंगा जलप्रपात तिरुमला मंदिर से तीन किमी. उत्तर में स्थित है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि इसी जल से भगवान को स्‍नान कराया जाता है। पहाड़ी से निकलता पानी तेजी से नीचे धाटी में गिरता है। बारिश के दिनों में यहां का दृश्‍य बहुत की मनमोहक लगता है।

श्री वराहस्वामी मंदिर

तिरुमला के उत्तर में स्थित श्री वराहस्वामी का प्रसिद्ध मंदिर पुष्किरिणी के किनारे स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वराह स्वामी को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि तिरुमला मूल रूप से आदि वराह क्षेत्र था और वराह स्वामी की अनुमति के बाद ही भगवान वैंकटेश्वर ने यहां अपना निवास स्थान बनाया। ब्रह्म पुराण के अनुसार नैवेद्यम सबसे पहले श्री वराहस्वामी को चढ़ाना चाहिए और श्री वैंकटेश्वर मंदिर जाने से पहले यहां दर्शन करने चाहिए। अत्री समहित के अनुसार वराह अवतार की तीन रूपों में पूजा की जाती है: आदि वराह, प्रलय वराह और यजना वराह। तिरुमला के श्री वराहस्वामी मंदिर में इनके आदि वराह रूप में दर्शन होते हैं।

श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर

स्वामी पुष्किरिणी के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर श्री वराहस्वामी मंदिर के ठीक सामने है। यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। यहां स्थापित भगवान की प्रतिमा के हाथ प्रार्थना की अवस्था मे हैं।  भगवान का अभिषेक रविवार के दिन होता है और यहां हनुमान जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।

टीटीडी गार्डन

इस गार्डन का कुल क्षेत्रफल 460 एकड़ है। तिरुमला और तिरुपति के आस-पास बने इन खूबसूरत बगीचों से तिरुमला के मंदिरों के सभी जरुरतों को पुरा किया जाता है। इन फूलों का प्रयोग भगवान और मंडप को सजाने, पंडाल निर्माण में किया जाता है।

ध्यान मंदिरम

मूल रूप से यह श्री वैंकटेश्वर संग्रहालय था। जिसकी स्थापना 1980 में की गई थी। पत्थर और लकड़ी की बनी वस्तुएं, पूजा सामग्री, पारंपरिक कला और वास्तुशिल्प से संबंधित वस्‍तुओं का इसमे  प्रदर्शन किया गया है।

तिरुमाला तिरूपति के दर्शन के लाभ

कई पुराणों (धार्मिक ग्रंथों) का दावा है कि तिरूपति बालाजी मंदिर में भगवान वेनटेश्वर की पूजा करना और उनका दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करना मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करने और जन्म और मृत्यु के चक्र से स्वयं को मुक्त करने का एक निश्चित तरीका है। मंदिर की पवित्रता का उल्लेख कई पुराणों जैसे गरुड़ पुराण, वराह पुराण, मार्कंडेय पुराण, ब्रह्म पुराण आदि में किया गया है।

सात पहाड़ियों के भगवान अपने भक्तों की इच्छाओं को पूरा करते हैं और उन्हें शांतिपूर्ण और समृद्ध जीवन का आशीर्वाद देते हैं। जो लोग भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन के लिए आते हैं, उन्हें तीर्थ स्थलों के दर्शन, ऋषियों से मिलने और पूर्वजों को जानने का पूरा लाभ मिलता है।

भक्त योगदान

तिरूपति मंदिर की समृद्धि का श्रेय काफी हद तक इसके भक्तों की अटूट भक्ति को जाता है। जीवन के सभी क्षेत्रों से तीर्थयात्री और भक्त देवता को नकदी, सोना, आभूषण और भूमि सहित उदारतापूर्वक चढ़ावा देते हैं। इन प्रसादों को कृतज्ञता व्यक्त करने और भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने का एक तरीका माना जाता है।

मंदिर की हुंडी (दान पेटी) में प्रतिदिन लाखों रुपये का चढ़ावा आता है, जो इसे दुनिया के सबसे धनी धार्मिक संस्थानों में से एक बनाता है। एकत्रित धन का उपयोग मंदिर परिसर के रखरखाव और विकास के साथ-साथ टीटीडी द्वारा की जाने वाली विभिन्न धर्मार्थ गतिविधियों के लिए किया जाता है।

तिरुमाला के लिए एक प्राचीन पैदल मार्ग है, जो अलीपिरी से शुरू होता है जिसे अलीपिरी मेटलू के नाम से जाना जाता है। भगवान वेंकटेश्वर के प्रति अपनी मन्नत पूरी करने के लिए भक्त तिरुमाला से पैदल चलकर तिरुमाला पहुंचने के लिए इस मार्ग का सहारा लेंगे। इसमें कुल 3550 सीढ़ियाँ हैं जिससे 12 किमी की दूरी बनती है।

मंदिर में मुख्य द्वार के दरवाजे पर दाईं तरफ एक छड़ी है। इस छड़ी के बारे में मान्यता है कि बाल्यावस्था में इस छड़ी से ही भगवान वेंकेटेश्वर की पिटाई की गई थी जिसकी वजह से उनकी ठुड्डी पर चोट लग गई थी। तब से आज तक उनकी ठुड्डी पर शुक्रवार को चंदन का लेप लगाया जाता है। ताकि उनका घाव भर जाए।

देवताओं

मंदिर की संरचना में कई अलग-अलग देवताओं के मंदिर हैं। भगवान राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान का मंदिर उनमें से एक है। रुक्मिणी, उनकी पत्नी, विश्वक्सेन, सुग्रीव और अंगद सभी मंदिर के मंदिरों में प्रतिष्ठित हैं। भगवान विष्णु के निजी सेवक विश्वक्सेन हिंदू महाकाव्य रामायणम के एक प्रसिद्ध पात्र हैं। इन देवताओं के अलावा, पाँच अन्य प्रमुख देवता हैं:

  • तिरुमाला ध्रुव बेरा – ऐसी मान्यता है कि ध्रुव बेरा, प्रमुख देवता, ऊर्जा का स्रोत है। भगवान वेंकटेश्वर की स्वयंभू मूर्ति स्थापित की गई है। श्रीनिवास को पृथ्वी पर भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। 
  • भोग श्रीनिवास – मुख्य देवता के चरणों में स्थित, यह भगवान की चांदी की मूर्ति है। पल्लव वंश की रानी सामवई ने 614 ई. में इस मूर्ति को मंदिर को दान कर दिया था। मूर्ति को झुलाने के लिए चांदी के पालने का उपयोग किया जाता है, और उसे सुलाने के लिए सोने की खाट का उपयोग किया जाता है। 
  • उग्र श्रीनिवास – गर्भगृह के अंदर, उग्र श्रीनिवास की मूर्ति को हर दिन पवित्र जल, दूध और घी, दही आदि से साफ किया जाता है।

भगवान को चढ़ाई गई तुलसी को फेंका जाता है कुएं में

भगवान विष्णु को तुलसी के पत्ते विशेष प्रिय हैं, इसलिए इनकी पूजा में तुलसी के पत्ते का बहुत महत्व है।

इतना ही नहीं, सभी मंदिरों में भी भगवान को चढ़ाई गयीं तुलसी की पत्तियां बाद में प्रसाद के रूप में भक्तों को दी जाती हैं।

तिरूपति बालाजी में भी भगवान को रोज तुलसी की पत्तियां चढ़ाई जाती हैं, लेकिन उसे भक्तों को प्रसाद के रूप में नहीं दी जाती बल्कि मंदिर परिसर के कुंए में डाल दी जाती है।

प्रसाद

मंदिर में रोजाना बनाए जाते हैं तीन लाख लड्डू

स्थानीय लोगों द्वारा मिली जानकारी के मुताबिक, तिरुपति बालाजी मंदिर में रोजाना देसी घी के तीन लाख लड्डू बनाए जाते हैं।

हैरानी की बात तो यह है कि इन लड्डूओं के बनाने के लिए यहां के कारीगर 300 साल पुरानी पारंपरिक विधि का प्रयोग करते हैं।

बता दें कि इन लड्डूओं को तिरूपति बालाजी मंदिर की गुप्त रसोई में बनाया जाता है। इस गुप्त रसोईघर को लोग पोटू के नाम से जानते हैं।

तिरुपति बालाजी- दर्शन नियम
तिरूपति बालाजी मंदिर के सामान्य तौर पर दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाते हैं। लेकिन ध्यान रहे कि जब आप तिरुपति दर्शन करने जाते हैं तो, यहां दर्शन करने के भी कुछ नियम भी हैं।

नियम के अनुसार दर्शन करने से पहले आपको कपिल तीर्थ पर स्नान करके , कपिलेश्वर के दर्शन करने होते हैं। इसके बाद ही वेंकटाचल पर्वत पर जाकर बालाजी के दर्शन करने चाहिए।
वहीं इसके पश्चात देवी पद्मावती के दर्शन करें। यहां ये भी जान लें कि पद्मावती देवी का मंदिर भगवान वेंकटेश्वर स्वामी की पत्नी पद्मावती लक्ष्मी जी को समर्पित है। माना जाता है कि जब तक भक्त इस मंदिर के दर्शन नहीं करते, तब तक आपकी तिरुमला की यात्रा पूरी नहीं होती।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है, जो भारत के मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी में मांधाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है।

मंदिर को भगवान शिव के भक्तों द्वारा अत्यंत पवित्र माना जाता है, और इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करना बहुत शुभ माना जाता है।

मध्य प्रदेश को धर्म नगरी भी कहा जाता है। इस प्रदेश में एक से अधिक विश्व प्रसिद्ध शिव मंदिर हैं।

इनमें महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर, ममलेश्वर, पशुपतिनाथ, भोजेश्वर महादेव, चौरागढ़ महादेव, बटेश्वर के शिव मंदिर, ककनमठ मंदिर, ईश्वरा महादेव मंदिर प्रमुख हैं।

ओंकारेश्वर मंदिर मध्य प्रदेश के खंडवा में है। यह शहर नर्मदा नदी के किनारे बसा है। वर्तमान समय में ओंकारेश्वर मंदिर विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है।

बड़ी संख्या में श्रद्धालु भगवान शिव के दर्शन हेतु ओंकारेश्वर मंदिर आते हैं। इस मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ओंकारेश्वर मंदिर में देवों के देव महादेव और माता पार्वती चौपड़ खलेने आते हैं। वहीं, चौपड़ खलेने के बाद रात्रि विश्राम भी करते हैं।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग को भगवान शिव के सबसे पवित्र और शक्तिशाली ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। ‘ज्योतिर्लिंग’ शब्द दो शब्दों से बना है – ‘ज्योति’ जिसका अर्थ है प्रकाश और ‘लिंग’ जिसका अर्थ है भगवान शिव का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व।

12 ज्योतिर्लिंगों को स्वयंभू माना जाता है और इन्हें बहुत ही शुभ और शक्तिशाली माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इन ज्योतिर्लिंगों की पूजा करने से व्यक्ति के पाप धुल जाते हैं और भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त होता है

ओंकारेश्वर की महिमा का उल्लेख पुराणों में शंकद पुराण, शिव पुराण व वायु पुराण में किया जाता है।ओंकारेश्वर धाम किसी मोक्ष धाम से कम नहीं है ओम के आकार में बने धाम की परिक्रमा कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग विभाजित प्रकृति का है। ज्योतिर्लिंग का आधा हिस्सा ओंकारेश्वर मंदिर में और आधा हिस्सा मम्मलेश्वर मंदिर में है।

तीर्थयात्रियों को पूर्ण ज्योतिर्लिंग के दर्शन के लिए इन दोनों मंदिरों में जाना चाहिएबताया जाता है कि हिंदू धर्म के सभी तीर्थ स्थलों का दर्शन करने के बाद ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करते हैं।

यहां सभी तीर्थ स्थल से लाए गए जल को चढ़ाने से विशेष पुण्य मिलता है। ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने के बाद भक्त ओंकारेश्वर की परिक्रमा करते हैं।

ओंकारेश्वर में उत्तर से दक्षिण तक कई मंदिर हैं और पूरा परिक्रमा मार्ग मंदिरों से भरा हुआ है। परिक्रमा का समापन नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर विराजमान अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से करते हैं।

ओंकारेश्वर और अमलेश्वर या ममलेश्वर दोनों शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंग माना जाता है। चूंकि ओंकारेश्वर मंदिर चारों ओर से नर्मदा नदी से घिरा द्वीप है।

इसलिए आप अगर पैदल चलने में समर्थ ना हो तो नौका परिक्रमा भी कर सकते हैं। नर्मदा नदी के मध्य ओमकार पर्वत पर स्थित ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर हिंदुओं की चरम आस्था का केंद्र है ।

यहां ऊं शब्द की अत्पत्ति श्री ब्रह्मा जी के मुख से हुई है। इसलिए हर धार्मिक शास्त्र या वेदों का पाठ ऊं शब्द के साथ ही किया जाता है। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग ॐकार अर्थात ऊं का आकार लिए हुए है, इसलिए इसे ओंकारेश्वर नाम से पुकारा जाता है।

ओंकारेश्वर की महीमा का उल्लेख पुराणों में संकद पुराण, शिवपुराण व वायुपुराण में किया जाता है। हिंदुओं में सभी तीर्थों के दर्शन पश्चात ओंकारेश्वर के दर्शन व पूजन का विशेष महत्व है ।

तीर्थ यात्री सभी तीर्थों का जल लाकर ओमकारेश्वर में अर्पित करते हैं, तभी सारे तीर्थ पूर्ण माने जाते हैं। अन्यथा वे अधूरे ही माने जाते हैं

हिंदू धर्म में ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिग को लेकर कई मान्यताएं हैं. जिसमें सबसे बड़ी मान्यता ये है कि भगवान भोलेनाथ तीनों लोक का भ्रमण करके प्रतिदिन इसी मंदिर में रात को सोने के लिए आते हैं।

महादेव के इस चमत्कारी और रहस्यमयी ज्योतिर्लिंग को लेकर यह भी मानना है कि इस पावन तीर्थ पर जल चढ़ाए बगैर व्यक्ति की सारी तीर्थ यात्राएं अधूरी मानी जाती है.

हिंदू धर्म में ज्योतिर्लिंग का विशेष महत्व है और ओंकारेश्वर भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में चौथा है। मध्यप्रदेश में 12 ज्योतिर्लिंगों में से 2 ज्योतिर्लिंग हैं।

एक उज्जैन में महाकाल के रूप में और दूसरा ओंकारेश्वर में ओंकारेश्वर- ममलेश्वर महादेव के रूप में। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग इंदौर से 77 किलोमीटर पर है।

मान्यता है कि सूर्योदय से पहले नर्मदा नदी में स्नान कर ऊं के आकार में बने इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन और परिक्रमा करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

यहां भगवान शिव के दर्शन से सभी पाप और कष्ट दूर हो जाते हैं और सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है।चूंकि द्वीप का आकार ॐ प्रतीक जैसा बताया जाता है।

इसी कारण इसे ओंकारेश्वर कहा जाता है। ओंकारेश्वर का अर्थ है ओंकार का भगवान या ओम ध्वनि का भगवान। जबकि अमलेश्वर का अर्थ अमर भगवान है अथवा अमर अर्थात देवों के स्वामी।

ओंकार दो शब्दों से बना है, ओम (ध्वनि) और अकार (सृष्टि)। अद्वैत मत का कहना है कि मूल मंत्र ॐ ही सृष्टि का रचयिता है।

ओंकारेश्वर में प्रतिदिन विश्राम करते हैं महादेव

ओंकारेश्वर मंदिर के पुजारी के अनुसार माना जाता है की 12 ज्योतिर्लिंगों में यह एकमात्र ज्योतिरलिंग है जहां महादेव शयन करने आते हैं।

भगवान शिव प्रतिदिन तीनों लोकों में भ्रमण के पश्चात यहां आकर विश्राम करते हैं। भक्तगण एवं तीर्थयात्री विशेष रूप से शयन दर्शन के लिए यहां आते हैं।

भोलेनाथ के साथ यहां माता पार्वती भी रहती हैं और रोज रात में यहां चौसर-पांसे खेलते हैं। यहां शयन आरती भी की जाती है, शयन आरती के बाद ज्योतिर्लिंग के सामने रोज चौसर-पांसे की बिसात सजाई जाती है।

सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि रात में गर्भगृह में कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता, लेकिन जब सुबह देखते हैं तो वहां पांसे उल्टे मिलते हैं, यह अपने आप में एक बहुत बड़ा रहस्य है जिसके बारे में कोई नहीं जानता।

ओंकारेश्वर मंदिर में भगवान शिव की गुप्त आरती की जाती है जहां पुजारियों के अलावा कोई भी गर्भगृह में नहीं जा सकता। पुजारी भगवान शिव का विशेष पूजन एवं अभिषेक करते हैं।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग परिसर

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग परिसर एक पांच मंजिला इमारत है। जिसकी प्रथम मंजिल पर भगवान महाकालेश्वर का मंदिर है तीसरी मंजिल पर सिद्धनाथ महादेव चौथी मंजिल पर गुप्तेश्वर महादेव और पांचवी मंजिल पर राजेश्वर महादेव का मंदिर है।

ओंकारेश्वर में अनेक मंदिर हैं नर्मदा के दोनों दक्षिणी व उत्तरी तटों पर मंदिर हैं। पूरा परिक्रमा मार्ग मंदिरों और आश्रमों से भरा हुआ है।

कई मंदिरों के साथ यहां अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा जी के दक्षिणी तट पर विराजमान हैं।

ओंकारेश्वर और अमलेश्वर दोनों शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंग माना जाता है। यहां पर्वतराज विंध्य ने घोर तपस्या की थी और उनकी तपस्या के बाद उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना कर कहा के वे विंध्य क्षेत्र में स्थिर निवास करें उसके बाद भगवान शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली।

वहां एक ही ओंकारलिंग दो स्वरूपों में बंटी है। इसी प्रकार से पार्थिवमूर्ति में जो ज्योति प्रतिष्ठित हुई थी, उसे ही परमेश्वर अथवा अमलेश्वर ज्योतिर्लिंग कहते हैं।

ओंकारेश्वर मंदिर में पूजा और नियम

मंदिर में नियमित रूप से प्रतिदिन 3 पूजा की जाती हैं। तीनों पूजा अलग-अलग पूजारियों द्वारा की जाती है।

प्रातःकालीन पूजा ट्रस्ट द्वारा की जाती है, दोपहर की पूजा सिंधिया घराने के पुजारी करते हैं और सायंकालीन पूजा होलकर स्टेट के पुजारी द्वारा की जाती है।

मंदिर में साल भर ही भक्तों की भीड़ लगी रहती है। लेकिन सावन माह में मंदिर का महत्व और भी बढ़ जाता है। कहा जाता है की जो भक्त नर्मदा में स्नान कर नर्मदा जल से भरे पात्र, पुष्प, नारियल एवं अन्य सामग्री लेकर भगवान का पूजन करते हैं वे भगवान की असीम कृपा को प्राप्त करते हैं।कई भक्त पुरोहित के साथ भगवान का विशेष पूजन एवं अभिषेक भी करते हैं।

प्रत्येक सोमवार को भगवान ओंकारेश्वर की तीन मुखों वाली स्वर्णखचित मूर्ति एक सुन्दर पालकी में विराजित कर ढोल नगाडों के साथ पुजारियों एवं भक्तों द्वारा जुलुस निकाला जाता है जिसे डोला या पालकी कहते हैं इस दौरान सर्वप्रथम नदी तट पर जाते हैं एवं पूजन अर्चन किया जाता है तत्पश्चात नगर के विभिन्न भागों में भ्रमण किया जाता है।

यह जुलुस सोमवार सवारी के नाम से जाना जाता है। पवित्र श्रावण मास में में यह बड़े पैमाने पर मनाया जाता है एवं भारी मात्रा में भक्त नृत्य करते हुए एवं गुलाल उड़ाते हुए ओम् शम्भू भोले नाथ का उद्घोष करते हैं यह बड़ा ही सुन्दर द्रश्य होता है।

ओंकारेश्वर मंदिर का समय

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर 365 दिन खुला रहता है। ओंकारेश्वर दर्शन सुबह 5:00 बजे शुरू होता है और दोपहर 12 बजे तक चलता है। दोपहर 12 बजे मंदिर बंद हो जाता है।

फिर शाम 5 बजे खुलता है और रात 8 बजे बंद हो जाता है। कोई प्रवेश शुल्क नहीं लिया जाता है। तीन आरती होती हैं, और समय इस प्रकार हैं:

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग पूजा

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में महा रुद्राभिहेक, लघु रुद्राभिषेकम्, नर्मदा आरती, भगवान भोग और मुंडन। नर्मदा आरती आमतौर पर शाम को नर्मदा नदी के तट पर की जाती है।

महारुद्राभिषेक के दौरान पंडित ओंकारेश्वर महादेव का वेद मंत्रोच्चार करते हैं।

रुद्राभिषेक भगवान शिव को प्रसन्न करने का सबसे अच्छा तरीका है। मंदिर में आने वाले तीर्थयात्रियों का मानना है कि यदि वे रुद्र अभिषेक करते हैं तो भगवान तुरंत उनकी शुद्ध इच्छाएं सुनते हैं।

इसके अलावा लघु रुद्राभिषेक करने से व्यक्ति को अच्छा स्वास्थ्य और समृद्धि मिलती है।

ओंकारेश्वर मंदिर की कुछ सेवाएँ और पूजाएँ हैं:

महारुद्राभिषेक : यह अभिषेक लिंग के सामनेऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद का पाठ करके होता है ।

लघु रुद्राभिषेकम् : भक्तों का मानना ​​है कि इस पूजा को करने से व्यक्ति स्वास्थ्य के साथ-साथ धन संबंधी समस्याओं को भी दूर कर सकता है ।

नर्मदा आरती: हर शाम नर्मदा नदी के तट पर महाआरती होती है जो देखने में अद्भुत होती है।

भगवान भोग: इस दौरान भक्त प्रतिदिन शाम को भगवान शिव को नैवेद्यम भोग चढ़ाते हैं। भोग (भोजन) में शुद्ध घी, चीनी और चावल होते हैं।

मुंडन भक्त मामूली कीमत पर भी मुंडन करा सकते हैं।

ज्योतिर्लिंग का महत्व

एक बार ब्रह्मा (सृष्टि निर्माता) और विष्णु (संरक्षण और देखभाल के देवता) के बीच सृष्टि की सर्वोच्चता को लेकर विवाद हो गया था।

उनका परीक्षण करने के लिए, शिव (संहारक) ने तीनों लोकों को प्रकाश के एक विशाल अंतहीन स्तंभ अर्थात ज्योतिर्लिंग के रूप में भेद दिया।

विष्णु और ब्रह्मा दोनों दिशाओं में प्रकाश के अंत का पता लगाने के लिए क्रमशः नीचे और ऊपर की ओर चले जाते हैं। ब्रह्मा ने झूठ बोला कि उन्हें अंत का पता चल गया, जबकि विष्णु ने अपनी हार मान ली।शिव प्रकाश के दूसरे स्तंभ के रूप में प्रकट हुए और ब्रह्मा को श्राप दिया कि उन्हें समारोहों में कोई स्थान नहीं मिलेगा जबकि विष्णु की अनंत काल तक पूजा की जाएगी।

ज्योतिर्लिंग में से शिव आंशिक रूप से प्रकट होते हैं। इस प्रकार ज्योतिर्लिंग तीर्थ वे स्थान हैं जहाँ शिव प्रकाश के एक उग्र स्तंभ अर्थात ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए थे।ज्योतिर्लिंग स्वयंभू हैं अर्थात वे स्वयंभू हैं।

ओंकारेश्वर मंदिर की कहानी

 ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग से जुड़ी तीन कहानियां प्रचलित हैं जिसमें से एक कहानी के अनुसार एक बार नारद जी विंध्यांचल पर्वत पहुंचे। वहां पहुँचते ही पर्वतराज कहे जाने वाले विंध्यांचल ने नारद जी का आदर-सत्कार किया।

इसके बाद विंध्यांचल पर्वतराज ने कहा कि मैं सर्वगुण संपन्न हूँ, मेरे पर सब कुछ है। नारद जी पर्वतराज की बातों को सुनते रहे और चुप खड़े रहे। जब पर्वतराज की बात समाप्त हुई तो नारद जी उनसे बोले कि मुझे ज्ञात है कि तुम सर्वगुण सम्पन्न हो परन्तु फिर भी तुम समेरु पर्वत की भांति ऊँचे नहीं हो।

सुमेरु पर्वत को देखो जिसका भाग देवलोकों तक पहुंचा हुआ है परन्तु तुम वहां तक कभी नहीं पहुँच सकते हो।   नारद जी इन बातों को सुन विंध्यांचल पर्वतराज खुद को ऊँचा साबित करने के लिए सोच-विचार करने लगे। नारद जी की बातें उन्हें बहुत चुभ रही थी और वे बहुत परेशान हो गए क्योंकि यहाँ पर उनके अहंकार की हार हुई।

अपने आप को सबसे ऊँचा बनाने की कामना के चलते उन्होंने भगवान शिव की पूजा करने का मन बनाया। उन्होंने लगभग 6 महीने तक भगवान शिव की कठोर तपस्या कर प्रसन्न किया।

अंततः भगवान शिव विंध्यांचल से अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्होंने प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा। है

इसपर विंध्यांचल पर्वत ने कहा कि हे! प्रभु मुझे बुद्धि प्रदान करें और मैं जिस भी कार्य को आरंभ करू वह सिद्ध हो। इस प्रकार विंध्यांचल पर्वत ने वरदान प्राप्त किया। 

भगवान शिव को देख आस-पास के ऋषि मुनि वहां पर आगये और उन्होंने भगवान शिव से यहाँ वास करने की प्रार्थना की। इस प्रकार भगवान शिव ने सभी की बात मानी, वहां पर स्थापित लिंग दो लिंगम में विभाजित हो गया। 

इसमें से विंध्यांचल द्वारा स्थापित पार्थिव लिंग का नाम ममलेश्वर लिंग पड़ा जबकि जहाँ भगवान शिव का वास माना जाता है उसे ओंकारेश्वर शिवलिंग के नाम से जाना जाने लगा।

ओंकारेश्वर लिंग से जुड़ी दूसरी कहानी कहती है कि  राजा मान्धाता ने यहाँ पर्वत भगवान शिव का ध्यान करते हुए घोर तपस्या की थी। 

उनकी तपस्या से भगवान शिव अत्यधिक प्रसन्न हुए थे और राजा ने उन्हें यहाँ सदैव के लिए निवास करने के लिए कहा था। तभी से यहाँ पर ओंकारेश्वर नामक शिवलिंग स्थापित है जिसकी आज तक अत्यधिक मान्यता है। 

तीसरी कहानी के संबंध में कहा जाता है कि जब देवताओं और दैत्यों के बीच भीषण युद्ध हुआ और सभी देवता दैत्यों से पराजित हो गए तब उन्होंने अपनी हताशा में भगवान शिव की पूजा-अर्चना की थी।

देवताओं की सच्ची श्रद्धा भक्ति देख भगवान शिव ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप  हुए और उन्होंने सभी दैत्यों को पराजित किया

ओंकारेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग में करने योग्य बातें

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग आगंतुकों को एक अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करता है, और ऐसी कई गतिविधियाँ हैं जिनमें कोई भी अपनी तीर्थ यात्रा का अधिकतम लाभ उठा सकता है। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग में करने के लिए कुछ चीजें यहां दी गई हैं:

नर्मदा नदी में पवित्र स्नान करें: नर्मदा नदी को हिंदू पौराणिक कथाओं में सबसे पवित्र नदियों में से एक माना जाता है, और यह ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर परिसर के आसपास बहती है।

ऐसा माना जाता है कि पवित्र नदी में अनुष्ठानिक स्नान करने से आत्मा शुद्ध होती है और पाप धुल जाते हैं, जिससे यह भक्तों के लिए एक जरूरी गतिविधि बन जाती है।

शाम की आरती में शामिल हों: ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग में शाम की आरती (प्रार्थना समारोह) एक मंत्रमुग्ध कर देने वाला अनुभव है।

दीपक, धूप और पवित्र मंत्रों के साथ की जाने वाली भव्य आरती को देखने के लिए भक्त मंदिर परिसर में इकट्ठा होते हैं, जिससे एक दिव्य माहौल बनता है। यह आध्यात्मिक रूप से उत्थानकारी अनुभव है जो हृदय को भक्ति और श्रद्धा से भर देता है।

मंदिर परिसर का अन्वेषण करें: ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर परिसर वास्तुशिल्प चमत्कारों और पवित्र मंदिरों का खजाना है। परिसर को सुशोभित करने वाले जटिल नक्काशीदार मंदिरों, तीर्थस्थलों और मूर्तियों को देखने के लिए अपना समय लें।

वास्तुकला की नागर और द्रविड़ शैलियों की प्रशंसा करें, और प्रत्येक मंदिर से जुड़े समृद्ध इतिहास और पौराणिक कथाओं के बारे में जानें।

नर्मदा नदी में नाव की सवारी करें: ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग नर्मदा नदी में एक द्वीप पर स्थित है, और शांत नदी में नाव की सवारी करना एक जरूरी गतिविधि है।

मंदिर परिसर, आसपास की पहाड़ियों और नर्मदा नदी के चमकदार पानी के मनोरम दृश्यों का आनंद लें। यह एक शांत अनुभव है जो आपको प्रकृति से जुड़ने और उस स्थान के आध्यात्मिक वातावरण में डूबने की अनुमति देता है।

महाशिवरात्री उत्सव में भाग लें: यदि आप महाशिवरात्री के उत्सव के दौरान ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने जाते हैं, तो उत्सव में भाग लेने का अवसर न चूकें।

महाशिवरात्रि के दौरान भव्य उत्सव, सांस्कृतिक कार्यक्रम और भक्ति उत्साह इसे एक अनोखा और यादगार अनुभव बनाते हैं।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग तक कैसे पहुंचे?

हवाई मार्ग  – ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग का निकटतम हवाई अड्डा इंदौर में देवी अहिल्या बाई होलकर हवाई अड्डा है, जो लगभग 77 किलोमीटर दूर है। हवाई अड्डे से, ओंकारेश्वर महादेव ज्योतिर्लिंग तक पहुंचने के लिए टैक्सी किराए पर ली जा सकती है या बस ली जा सकती है।

ट्रेन द्वारा  – मंदिर का निकटतम रेलवे स्टेशन ओंकारेश्वर रोड रेलवे स्टेशन है, जो मध्य प्रदेश और पड़ोसी राज्यों के प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। रेलवे स्टेशन से, ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग तक पहुंचने के लिए टैक्सी किराए पर ली जा सकती है या बस ली जा सकती है।

सड़क मार्ग- अगर आप सड़क मार्ग से खंडवा के ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग  जा रहे हैं तो आपको खंडवा आना होगा। मंदिर सड़क नेटवर्क से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है, और मध्य प्रदेश के नजदीकी कस्बों और शहरों से नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। ओंकारेश्वर बाबा ज्योतिर्लिंग तक पहुंचने के लिए कोई टैक्सी किराए पर ले सकता है या अपना वाहन चला सकता है। 

ओंकारेश्वर मंदिर का इतिहास

मध्यकाल में ओंकारेश्वर मंदिर की देख भाल आदिवासी भीलों के सरदार परमारों द्वारा की जाती थी। जब ओरंगजेब ने भारत में आक्रमण किया तो उसने भारतीय मंदिरों और हिन्दू देवी देवताओं को तहस-नहस करना शुरू कर दिया।

ओरंगजेब ने अपने सैनिकों के साथ मिलकर ओंकारेश्वर मंदिर को बहुत नुकसान पहुंचाया था। बाद में ग्वालियर के महाराज सिंधिया ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया। जब अंग्रेजों के आने के बाद उन्होने इस मंदिर को अपने अधीन कर लिया था।

लेकिन आजादी के बाद यह मंदिर पुनः अपनी मुख्य धारा में लौट आया।ओंकारेश्वर मंदिर का निर्माण प्राचीन नागर शैली में किया गया है। यह सफ़ेद मुलायम पत्थर से बना एक शानदार मंदिर है। इस मंदिर की बनावट ही इसका सबसे बड़ा आकर्षण है। इस मंदिर की सुंदरता इसके ऊपर बनी मीनार है।

इस मीनार के निर्माण में 5 अलग-अलग प्रकार की परतें बनाई गई हैं, जो विभिन्न हिंदू देवताओं की छवि पेश करती हैं। मंदिर के दोनों तटों पर नर्मदा और कावेरी नदी बहती है।

प्राचीन काल में लोग मंदिर में पहुँचने के लिए नावों और बोटों का इस्तेमाल करते थे।इस मंदिर में 68 तीर्थ है जिसमें 33 करोड़ देवी देवता परिवार सहित रहते हैं 2 ज्योतिर्लिंग सहित 108 शिवलिंग भी हैं।

यहां भगवान शिव साक्षात प्रकट हुए हैं इसलिए इन्हें ज्योतिर्लिंग कहा जाता है।।ओम्कारेश्वर मंदिर के भीतर अनेक मंदिर हैं। नर्मदा के दोनों दक्षिण और उत्तरी तट पर मंदिर है अगर कोई भक्त ओंकारेश्वर क्षेत्र की तीर्थ यात्रा करता है तो उसे केवल ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन ही नहीं बल्कि वहां बसे अन्य 24 अवतारों के भी दर्शन करना चाहिए।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर भारत के मध्य प्रदेश के मध्य में स्थित एक प्रतिष्ठित मंदिर है। यह देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है , और यह हिंदू इतिहास और आध्यात्मिकता में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर मांधाता नामक द्वीप पर स्थित है, जो नर्मदा नदी से घिरा हुआ है, जिससे इसका दृश्य मनमोहक हो जाता हैओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर न केवल तीर्थयात्रियों के लिए एक आध्यात्मिक गंतव्य है, बल्कि एक सांस्कृतिक केंद्र भी है जो दुनिया भर के पर्यटकों को आकर्षित करता है।

मंदिरकी वास्तुकला, जटिल नक्काशी और शानदार आभा इसे प्राचीन भारतीय कला और शिल्प कौशल का एक उत्कृष्ट उदाहरण बनाती है।

शिव पुराण के अनुसार ज्योतिर्लिंगों की एक अलग कहानी है । एक बार, भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु में सर्वोच्चता को लेकर बहस हो गई।

वे भगवान शिव के पास गये। शिव ने कहा कि जो अपने शरीर के छोर को खोज लेता है वह सर्वोच्च है।इतना कहकर उन्होंने अनन्त ज्योति का रूप धारण कर लिया।

भगवान विष्णु ने अपनी हार स्वीकार कर ली। भगवान ब्रह्मा ने अपना अंत ढूंढ़ने के लिए झूठ बोला। अत: शिव ने ब्रह्मा को श्राप दिया।

इसी कारण से पृथ्वी पर भगवान ब्रह्मा का कोई मंदिर नहीं है। ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के अनंत स्वरूप को जोड़ने वाले स्थान हैं। 64 ज्योतिर्लिंग थे। आज की दुनिया में केवल 12 ही मनुष्य को ज्ञात हैं

भगवान ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंत्र

कावेरिका नर्मदयोः पवित्रे समागमे सज्जन तारणया |
सदायव मांधात्रिपुरे वसंतमोन्करमिशं शिवमेकामिदे ||

वह भगवान हैं, जो अच्छे लोगों के रक्षक हैं और महान भगवान हैं, जो हमेशा कावेरी और नर्मदा नदी के पवित्र संगम पर रहते हैं, कोई और नहीं भगवान ओंकारेश्वर हैं, एक ज्योतिर्लिंग हैं।

 

ओंकारेश्वर मंदिर का महत्व

सभी ज्योतिर्लिंग मंदिरों में से, ओंकारेश्वर का नर्मदा नदी के कारण अधिक महत्व है। अगर आप गौर करें तो यहां ओंकारेश्वर को छोड़कर कहीं भी नदी टूटकर तुरंत नहीं मिलती है।

नदियों में शुद्ध करने की शक्ति होती है।भगवान को प्रणाम करने के लिए माँ नर्मदा फूट पड़ीं। इस प्रकार, ओंकारेश्वर की पूजा करने से हमारा मन और आत्मा शुद्ध हो जाती है।

नदी द्वीपों पर स्थित मंदिर इसी कारण अत्यंत शक्तिशाली होते हैं। वे हमारी आत्मा को कुछ ही क्षणों में शुद्ध कर देते हैं।

ओम द्वीप

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर शिवपुरी द्वीप पर है। यह द्वीप “ओम” के आकार का है। प्रतीक ओम सर्वोच्च चेतना का सार है और परमात्मा का ध्वनि प्रतिनिधित्व है।

ओम का जाप करके आप आसानी से सर्वोच्च परमात्मा, ब्रह्म से जुड़ सकते हैं। ओंकारेश्वर मंदिर के दर्शन के समय नर्मदा नदी के किनारे बैठकर कुछ देर ”ओम” का जाप करें। आप निश्चित रूप से ऊर्जावान महसूस करेंगे।

नर्मदाजी का महत्त्व

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के साथ नर्मदाजी का भी विशेष महत्व है। यहाँ घाट के पास नर्मदाजी को कोटितीर्थ या चक्रतीर्थ माना जाता है।

यहीं नर्मदा नदी में स्नान करके सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर ऑकारेश्वर के मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। शास्त्र मान्यता के अनुसार जमुनाजी में पंद्रह दिन स्नान और गंगाजी में सात दिन का स्नान करने से जो पुण्यफल प्राप्त होता है उतना ही पुण्यफल नर्मदाजी में एक बार स्नान करने से प्राप्त हो जाता है

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन से लाभ

लिंग स्वयंभू है, जिसका अर्थ है स्वयंभू। मानुषी लिंग मानव निर्मित हैं। भगवान स्वयंभू रूप में प्रकट होते हैं। स्वयंभू शिव लिंग अत्यंत शक्तिशाली होते हैं।

प्रत्येक ज्योतिर्लिंग का एक विशिष्ट लाभ होता है। ओंकारेश्वर महादेव शांति, आराम और समृद्धि प्रदान करते हैं

आदि गुरु शंकराचार्य की अपने गुरु से भेंट

आदि शंकराचार्य अपने गुरु गोविंदा भगवत्पाद से ओंकारेश्वर मंदिर में मिले थे। आप शिव मंदिर के ठीक नीचे श्री आदि शंकराचार्य की एक छवि पा सकते हैं।

ओंकारेश्वर मंदिर में मनाए जाने वाले त्यौहार

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के मंदिर में साल भर अनेक त्योहार मनाए जाते हैं, जिनमें महाशिवरात्रि, कार्तिक पूर्णिमा, नवरात्रि और मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी समेत कई धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन शामिल होते हैं।इसके अलावा, महार संक्रांति, कार्तिक पूर्णिमा और नर्मदा जयंती भी बहुत भव्यता के साथ मनाई जाती है।

कार्तिक पूर्णिमा दस दिनों तक मनाई जाती है। मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने ज्योति स्वरूप धारण किया था।

और इस दिन भगवान की पूजा करने वाले व्यक्तियों को मोक्ष की प्राप्ति होगी।माघ माह में नर्मदा उत्सव मनाया जाता है। त्योहार के दौरान, पूरे द्वीप को दीयों से रोशन किया जाता है।

आतिशबाजी का प्रदर्शन भी होता है। यह त्यौहार नर्मदा जयंती पर मनाया जाता है, जो शुक्ल पक्ष सप्तमी को आता है।ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग भारतीय धार्मिक ऐतिहासिकता और धार्मिक संस्कृति का महत्वपूर्ण संकेत है।

इसे यहां के स्थानीय लोगों के द्वारा श्रद्धा से पूजा जाता है और यह एक सच्चे और अनुभवी धार्मिक स्थल के रूप में यात्रियों को आकर्षित करता है।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्रति लोगों की विशेष भक्ति है। इसे भक्तियोग का एक महत्वपूर्ण केंद्र माना जाता है और यहां पर आने वाले भक्त शिव की आराधना के लिए दिल से प्रयास करते हैं। यहां पर साधारणतया भक्तों को शांति और मनोवृत्ति मिलती है।

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर की मान्यता

ओंकारेश्वर तीर्थ नर्मदा क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ माना गया है शास्त्रें की मान्यता है कि कोई भी तीर्थयात्री चाहे कितने ही तीर्थ भ्रमण कर ले किंतु जब तक वह ओंकारेश्वर में सभी तीर्थों का जल लाकर यहां नहीं चढ़ाता उसके सारे तीर्थ अधूरे ही होते है ओंकारेश्वर तीर्थ के साथ नर्मदा जी का भी विशेष महत्व है।

शास्त्रें की मान्यता है कि जमुना जी में 15 दिन स्नान तथा 7 दिन स्नान करके जो फल प्रदान करता है इतना पुण्य फल सिर्फ नर्मदा जी के दर्शन मात्र से प्राप्त होता है।

 

ओंकारेश्वर के पास स्थित रेलवे स्टेशन

ओंकारेश्वर मंदिर के निकटतम रेलवे स्टेशन का नाम ओंकारेश्वर रेलवे स्टेशन है जो मंदिर से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

यह प्रमुख रतलाम-खंडवा रेलवे लाइन पर स्थित है और नई दिल्ली, बैंगलोर, मैसूर, लखनऊ, चेन्नई, कन्याकुमारी, पुरी, अहमदाबाद, जयपुर को रतलाम जैसे शहरों से जोड़ता है।

ओंकारेश्वर मंदिर सड़क मार्ग में खंडवा से 73 किलोमीटर, इंदौर से 86 किलोमीटर, उज्जैन से 133 किलोमीटर दूर है। यहाँ पर मध्य प्रदेश परिवहन निगम बसों, निजी बसों और टैक्सी के माध्यम से पहुंचा जा सकता है।

ओंकारेश्वर में घूमने की जगह

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग में 24 अवतार, सीता वाटिका, माता घाट, मार्कंडेय शीला, मार्कंडेय संयास आश्रम, ओंकार मठ, माता वैष्णो देवी मंदिर, अन्नपूर्णा आश्रम, बड़े हनुमान, सिद्धनाथ गौरी सोमनाथ, धावड़ी कुंड, विज्ञान साला, ब्रह्मेश्वर मंदिर, विष्णु मंदिर, वीरखला, चांद-सूरज दरवाजे, गायत्री माता मंदिर, ऋण मुक्तेश्वर महादेव, आड़े हनुमान, से गांव के गजानन महाराज का मंदिर, काशी विश्वनाथ, कुबेरेश्वर महादेव, के मंदिर भी दर्शनीय है।

केदारेश्वर मंदिर

केदारेश्वर मंदिर मध्य प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का धार्मिक महत्व दुनिया भर से भक्तों और पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था।

सिद्धनाथ मंदिर

इस मंदिर का निर्माण ओंकारेश्वर मंदिर के पास ही किया गया है। इस मंदिर का निर्माण 13 वीं शताब्दी में किया गया था। यह मंदिर अपनी प्राचीन वास्तुकला के कारण बहुत प्रसिद्ध है।

ओंकारेश्वर मंदिर के दर्शन करने बाद भक्तगण इस मंदिर में भी दर्शन के लिए जाते है।

श्री गोविंद भागवतपाड़ा गुफा

यह गुफा हमारे हिन्दू धर्म में बहुत अधिक पवित्र मानी जाती है। इस गुफा में एक मुख्य हॉल और एक शिवलिंग के साथ एक छोटा गर्भगृह है।

ऐसा माना जाता है कि यहीं पर शंकराचार्य महान संत गोविंदा भागवतपाद से मिले थे और उन्होंने उनके अधीनआध्यात्मिक शिक्षा और दीक्षा ग्रहण की थी

ममलेश्वर मंदिर

ममलेश्वर मंदिर नर्मदा के दक्षिण तट पर स्थित है। इसका सही नाम अमरेश्वर है। भक्तगण ओंकारेश्वर एवं ममलेश्वर दोनों जगह दर्शन पूजन करते हैं।

यह मंदिर प्राचीन वास्तु कला एवं शिल्पकला का अद्वितीय नमूना है। मंदिर की दीवारों पर विभिन्न महिन स्त्रोत उकेरे गए हैं जो की 1063 इस्वी के बताये जाते हैं।

महारानी अहिल्या बाई होलकर इस मंदिर में पूजन अर्चन किया करती थीं एवं तभी से आज तक होलकर स्टेट के पुजारी यहाँ पूजन करते हैं।

मंदिर का प्रबंधन ‘अहिल्याबाई खासगी ट्रस्ट’ द्वारा किया जाता है। यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा घोषित संरक्षित स्मारक है।

पंचमुखी गणेश मंदिर

सभी देवों में भगवान गणेश प्रथम पूज्य माने जाते हैं। ओंकारेश्वर में मुख्य मंदिर के पहले पंचमुखी गणेश मंदिर स्थित है। यहाँ गणेश जी की प्रतिमा स्वयंभू मानी जाती है।

यह उसी पाषाण में उत्पन्न हुई है जिसमे श्री ओंकारेश्वर प्रकट हुए है। मूर्ति में 2 मुख दायें 2 मुख बाएं एवं 1 सामने की ओर है। भक्त श्री ओंकारेश्वर से पहले यहाँ दर्शन करते हैं। भादों मास की चतुर्थी को यहाँ यज्ञ का आयोजन किया जाता है।

वृहदेश्वर मंदिर

यह मंदिर ममलेश्वर मंदिर के समीप स्थित है। मंदिर में अत्यंत ही सुन्दर शिल्पकारी एवं नक्काशी की गयी है एवं यह मंदिर अत्यंत ही दर्शनीय है। वर्तमान में यहाँ 24 अवतारों की मूर्तियां स्थापित है।

गोविंदेश्वर मंदिर एवं गुफा

यह मंदिर ओंकारेश्वर मंदिर के प्रवेशद्वार के पास ही स्थित है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है की जगद्गुरु शंकराचार्य ने दीक्षा एवं योग लेख शिक्षा अपने गुरु गोविन्द भाग्वदपाद द्वारा ओंकारेश्वर में ही ग्रहण की थी।

वह स्थान जहाँ जगद्गुरु शंकराचार्य ने दीक्षा ग्रहण की थी श्री गोविन्देश्वर मंदिर कहलाता है। एवं जहाँ गुरु गोविन्द भाग्वदपाद निवास करते थे तथा तप किया करते थे वह स्थान गोविन्देश्वर गुफा कहलाता है।

इस मंदिर का जीर्णोद्धार सन 1989 ई. में जगद्गुरु जयेन्द्र सरस्वती द्वारा करवाया गया था एवं निर्माण कार्य का शिलान्यास तत्कालीन राष्ट्रपति श्री आर वेंकटरमण ने किया था।

अन्नपूर्णा मंदिर

यह एक प्राचीन मंदिर है जिसमे एक विशाल परिसर निर्मित किया गया है। इस परिसर में सर्वमंगला मंदिर भी स्थित है जिसमे देवी लक्ष्मी, सरस्वती एवं पार्वती की मूर्ति स्थापित है।

यहाँ एक 35 फुट ऊँची भगवान कृष्ण की विराट स्वरूप मूर्ति स्थापित है। भगवान कृष्ण के विराट स्वरुप का वर्णन श्रीमद भगवतगीता में किया गया है।

महाकालेश्वर मंदिर

ओंकारेश्वर में मंदिर के नीचे से दूसरे तल पर श्री महाकालेश्वर मंदिर भी स्थित है जैसा की उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर ज्योतिर्लिंग में श्री ओंकारेश्वर मंदिर भी स्थित है।

यहाँ श्री महाकाल ऊपर एवं श्री ओमकार नीचे हैं एवं इसके उलट उज्जैन में श्री ओमकार ऊपर एवं महाकाल नीचे हैं। यहाँ श्री महाकालेश्वर मंदिर में भक्तगण श्रद्धाभाव से पूजन अर्चन करते हैं एवं इनका दर्शन भी सम्पूर्ण ओंकारेश्वर दर्शन में आवश्यक माना जाता है।

गुरुद्वारा ओंकारेश्वर साहिब

श्री गुरुनानक देव जी महाराज अपनी देशव्यापी धार्मिक यात्रा के दौरान ओंकारेश्वर आये थे। इसी घटना की स्मृति में सिक्ख समाज द्वारा यहाँ पर एक गुरुद्वारा निर्मित किया गया है।

हिंदू एवं सिक्ख समाज के धर्मावलंबी यहाँ श्रद्धाभाव से दर्शन करते हैं।

सैलानी आईलैंड

ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग के पास ओंकारेश्वर बांध के बैकवाटर में सैलानी आयलैंड विकसित किया गया है। तीन एकड़ क्षेत्र में 15 करोड़ रुपए खर्च कर यह पयर्टन केंद्र विकसित किया गया है।

ओंकारेश्वर बांध परियोजना में वर्ष भर 198 मीटर बैकवाटर रहता है। यहाँ सागौन की लकड़ी से 22 कॉटेज एवं एक सर्व-सुविधायुक्त सुइट उपलब्ध है।

हर कॉटेज के पास मिनी गार्डन भी बना है। सैलानियों के लिए रेस्टोरेंट में लजीज पकवान 24 घंटे उपलब्ध रहते हैं।यह टापू जंगल के बीचोंबीच स्थित है इसलिए यहां की प्राकृतिक लोकेशन बहुत अच्छी है।

आसपास वन होने से मौसम में ठंडक है तो वहीं बैकवाटर में वाटर स्पोट्र्स का आनंद भी लिया जा सकता है। यहां वाटर स्पोट्र्स के लिए बोट क्लब है।

सैलानी टापू इंदौर से करीब 80 किमी की दूरी पर है। बड़वाह से 17 किमी दूर जैन तीर्थस्थली सिद्धवरकूट से 3 किमी एवं ओंकारेश्वर से 7 किमी दूर है।

ओंकारेश्वर के पास पर्यटन स्थल

 हनुवंतिया रिसॉर्ट

हनुवंतिया टापू मध्यप्रदेश सरकार द्वारा बनाया गया जल पर्यटन स्थल हैं। यह इन्दिरा सागर बांध के निर्माण के बाद उत्पन्न हुई विशाल झील पर बनाया गया हैं।

बैक वाटर में बना यह टापू देश में अंतरराष्ट्रीय स्तर का पहला टापू है जहाँ आवास, भोजन, नौका विहार, क्रूज़ राइड की सुविधा है। यहाँ ठहरने के लिए 10 कॉटेज बनाए गए हैं। इसके अलावा एक क्रूज और दो मोटर-बोट हैं। टापू पर बोट-क्लब और रेस्टोरेंट भी बनाया गया है।

टापू को हरा-भरा बनाने के लिए बगीचा भी लगाया गया है। हनुवंतिया टापू 60 हजार वर्ग फीट में से ज्यादा में फैला हुआ हैं। यहाँ प्रतिवर्ष भव्य जल महोत्सव का आयोजन किया जाता है जिसमे आपको साइकिलिंग, पतंगबाजी, विंड सफरिंग, जेटस्की, बनाना राइड, नाईटकैम्पिंग, बर्ड वाचिंग, ट्रेकिंग जैसी गतिविधियाँ करने का मौका मिल जायेगा।

हनुवंतिया के सबसे निकट खंडवा रेलवे स्टेशन हैं जिससे इसकी दूरी 50 किलोमीटर हैं। सबसे निकटतम एअरपोर्ट देवी अहिल्याबाई होलकर एअरपोर्ट इंदौर हैं जिससे इसकी दूरी 150 किलोमीटर हैं। हनुवंतिया का मौसम सैलानियों के दृष्टी से वर्ष भर अनुकूल रहता हैं।

सिद्धवर कूट जैन तीर्थ

नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर प्रसिद्ध जैन तीर्थ सिद्धवर कूट स्थित है। यह नर्मदा एवं कावेरी के संगम पर स्थित है। यह जैन धर्मं के महत्व पूर्ण स्थलों में से एक है एवं विभिन्न पौराणिक पात्रों की मोक्ष्स्थली माना जाता है।

यहाँ 10 जिनालय स्थित हैं जिनमे से कुछ 1488 ई. के बने हुए हैं। फाल्गुन मास की 13 वी से 15 वी तिथि तक यहाँ वार्षिक समारोह होता है। ओंकारेश्वर से बस मार्ग से अथवा नाव द्वारा जाया जा सकता है एवं ठहरने के लिये धर्मशालाएं उपलब्ध हैं।

महेश्वर

महेश्वर शहर मध्य प्रदेश के खरगोन में स्थित है। नर्मदा नदी के किनारे बसा यह शहर अपने बहुत ही सुंदर व भव्य घाट तथा माहेश्वरी साड़ियों के लिये प्रसिद्ध है।

घाट पर अत्यंत कलात्मक मंदिर हैं जैसे की कालेश्वर, राजराजेश्वर, विठ्ठलेश्वर और अहिलेश्वर जिनमे से राजराजेश्वर मंदिर प्रमुख है। आदिगुरु शंकराचार्य तथा पंडित मण्डन मिश्र का प्रसिद्ध शास्त्रार्थ यहीं हुआ था।इस शहर को महिष्मती नाम से भी जाना जाता था।

महेश्वर का रामायण और महाभारत में भी उल्लेख है। देवी अहिल्याबाई होलकर के कालखंड में बनाए गए यहाँ के घाट सुंदर हैं और इनका प्रतिबिंब नदी में और खूबसूरत दिखाई देता है।यहाँ राजगद्दी और रजवाड़ा भी स्थित है महेश्वर ओंकारेश्वर से 70 किलोमीटर की दूरी पर है यहाँ सड़क मार्ग से जाया जाता है।

बुरहानपुर

यह नगर मध्‍यप्रदेश में ताप्‍ती नदी के कि‍नारे स्थित है। यह ओंकारेश्वर से लगभग 120 किमी की दुरी पर स्थित है। कई विशाल द्वारों से सुसज्जित परकोटों से यह नगर घिरा हुआ है। बुरहानपुर मुगलों के काल में कुछ समय तक राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित था।

ओंकारेश्वर झूला पुल

ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। भक्तों कि बढती हुई संख्या को देखते हुए नर्मदा हाइड्रो इलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कार्पोरेशन द्वारा वर्ष 2004 में ममलेश्वर सेतु नामक एक नए पुल का निर्माण किया गया|

यह पुल है 235 मीटर लंबा एवं 4 मीटर चौड़ा है। यह पुल सीधे मुख्य मंदिर के द्वार तक पहुँचता है एवं पूरे वर्ष उपयोग में लाया जाता है।

ओंकारेश्वर आने वाले सैलानियों के लिए यह भी एक विशिष्ठ सुविधा है कि यहाँ से नर्मदा नदी ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम द्रश्य दिखलाई पड़ता है।

पुल के ओंकार पर्वत वाले सिरे से मंदिर तक पहुँचने के लिए स्काई वाक बनाया गया है एवं परिक्रमा पथ पर जाने का मार्ग भी यहीं स्थित है। पुल पर धूप बारिश से बचाव के लिए शेड  का निर्माण किया गया है

ओंकारेश्वर बांध परियोजना

ओंकारेश्वर बांध परियोजना का विचार सर्वप्रथम 1965 ई. में आया था। इसका उद्देश्य मध्य भारत में बिजली एवं सिंचाई की व्यवस्था करना है।

ये नर्मदा घटी में बनाये गए 30 बांधों में से एक है। इस बांध का क्षेत्र नर्मदा एवं कावेरी (नर्मदा की उपनदी) के तटीय इलाके में है।

यह एक 949 मीटर लंबा तथा 33 मीटर ऊँचा कॉन्क्रीट का बना बांध है जिसकी 520 मेगावाट की विद्युत उत्पादन क्षमता है।यह देश में 2004 ई. से 2006ई. में सबसे तेजी से पूरी की जाने वाली जल विद्युत परियोजना है|

बांध ने २००७ से कार्य करना शुरू किया. इस बांध के द्वारा कई वर्ग किलोमीटर का एक जलाशय निर्मित हुआ है जिसमे सुन्दर टापू बन गए हैं. जिन पर विभिन्न पर्यटन परियोजनाएं विकसित की जा रही हैं।

ओंकारेश्वर मंदिर के बारे में पूछे जाने वाले प्रश्न

1.क्या ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग पूरे वर्ष खुला रहता है?

जी हां, ओंकारेश्वर मंदिर साल के सभी 365 दिन खुला रहता है।

2.ओंकारेश्वर मंदिर का प्रवेश शुल्क क्या है?

ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग में प्रवेश निःशुल्क है

3.ऑनलाइन दर्शन सुविधा उपलब्ध है?

नहीं । ऑनलाइन दर्शन की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है.

4.क्या ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग में दिव्यांगों और वरिष्ठ नागरिकों के लिए कोई सुविधा है?

नहीं । विशेष रूप से विकलांग और वरिष्ठ नागरिकों के लिए कोई सुविधा नहीं है।

5.ओंकारेश्वर मंदिर कहाँ है?

भगवान शिव को समर्पित ओंकारेश्वर मंदिर मध्य प्रदेश राज्य के खंडवा नामक जिले में नर्मदा नदी के निकट शिवपुरी और मान्धाता द्वीप पर अवस्थित है।

यह मंदिर इसलिए भी अधिक ख़ास हैहै क्योंकि यहाँ भगवान शिव 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर स्थापित है। कहा जाता है कि इस स्थान पर नर्मदा नदी स्वयं ‘ॐ’ के आकार में बहती हैं।

साथ ही बताते चलें कि जब तक सभी तीर्थों का जल तीर्थ यात्री ओंकारेश्वर मंदिर में अर्पित नहीं करते हैं तब तक तीर्थ यात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती है। 

6.ओंकारेश्वर मंदिर  में कौन कौन सी नदी का संगम है।

प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों में से एक ओंकारेश्वर मंदिर मध्य प्रदेश में नर्मदा और कावेरी नदी के संगम पर स्थित है। बता दें कि ओंकारेश्वर में दो ज्योतिर्लिंग स्थापित है एक तो ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग और एक ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग

ओंकारेश्वर मान्धाता पर्वत और शिवपुरी के मध्य में स्थित है जबकि दक्षिणी तट पर ममलेश्वर ज्योतिर्लिंग अवस्थित है। 

 निष्कर्ष

ओंकारेश्वर मंदिर भारत की समृद्ध आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत का जीवंत प्रमाण है। इसका इतिहास, किंवदंतियां, स्थापत्य सौंदर्य और धार्मिक महत्व इसे लाखों लोगों के लिए गहरी भक्ति और श्रद्धा का स्थान माना जाता है।

यह मंदिर भगवान शिव के दिव्य स्वरूप के प्रतीक के रूप में कार्य करता है और आध्यात्मिक साधकों और भक्तों के लिए एक शांत और पवित्र स्थान प्रदान करता है।

ओंकारेश्वर मंदिर के दर्शन न केवल एक धार्मिक यात्रा है बल्कि एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अनुभव भी है। यह लोगों को अपने आध्यात्मिक पूर्वजों से जुड़ने और हिंदू धर्म के प्राचीन सिद्धांतों और ज्ञान में डूबने की जानकारी देता है।

भक्ति, ज्ञान और सांस्कृतिक सहभागिता-प्रस्ताव के केंद्र के रूप में, ओंकारेश्वर मंदिर भारत में एक कलातीत और प्रतिष्ठित संस्थान बना है।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग (Mallikarjuna Temple, Srisailam)

भ्रामराम्बा मल्लिकार्जुन मंदिर या श्रीशैलम मंदिर एक हिंदू मंदिर है जो देवताओं शिव और पार्वती को समर्पित है मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग 12 पवित्र ज्योतिर्लिंगों में द्वतीय स्थान पर है। यह आन्ध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल नाम के पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर को दक्षिण का कैलाश पर्वत कहा गया है। महाभारत में दिए वर्णन के अनुसार श्रीशैलम पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने के सामान फल प्राप्त होता है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर में माता पार्वती का नाम ‘मल्लिका’ है और भगवान शिव को ‘अर्जुन’ कहा जाता है। इस प्रकार सम्मिलित रूप से वे श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से यहाँ निवास करते है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग देवी का महाशक्तिपीठ भी है। यहाँ माता सती की ग्रीवा (गरदन या गला) गिरी थी।

महादेव की महीमा निराली है. 12 ज्योतिर्लिंग के रूप में भोलेनाथ भारत की चारों दिशाओं में विराजमान हैं.

जब देवी पार्वती ने भगवान शिव से उनके द्वारा निर्मित ब्रह्मांड में कैलास के अलावा उनके सबसे वांछित स्थान के बारे में पूछा, तो उन्होंने सुरम्य प्रकृति के बीच बसे शाश्वत सुंदर स्थान, श्री चक्र के अवतार, पवित्र श्रीशैलम को चुना। ऐसे महत्वपूर्ण स्थान पर, शिव-शक्ति अपने सभी भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए श्री मल्लिकार्जुन भ्रामराम्बा का रूप धारण करते हैं।

जैसा कि पुराणों में प्रमाणित है, श्रीशैलम का बहुत प्राचीन महत्व है। 12 ज्योतिर्लिंगों में से दूसरा है मल्लिकार्जुन स्वामी लिंगम; 18 महा शक्ति पीठों में से छठा श्री भ्रमराम्बा देवी मंदिर है। श्रीशैलम एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां एक ही मंदिर परिसर के नीचे दो ऐसे प्रतीक मौजूद हैं, यही इसका महत्व है। श्रीशैलम के कई अन्य नाम हैं जैसे श्रीगिरि, सिरिगिरि, श्रीपर्वतम और श्रीनागम। सत्ययुग में नरसिम्हास्वामी, त्रेतायुग में सीता देवी के साथ श्री राम, द्वापरयुग में सभी पांच पांडव, कलयुग में कई योगियों, ऋषियों, मुनियों, उपदेशकों, आध्यात्मिक शिक्षकों, राजाओं, कवियों और भक्तों ने श्रीशैलम का दौरा किया और श्री भ्रामराम्बिका देवी और मल्लिकार्जुन का आशीर्वाद प्राप्त किया।

 

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में समाई शिव-पार्वती की ज्योतियां

धर्म ग्रंथों में मल्लिकाजुर्न के अर्थ का वर्णन किया गया है. मल्लिका यानी की पार्वती और अर्जुन का अर्थ भगवान शंकर है पुराणों के अनुसार मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में महादेव और मां पार्वती की संयुक्त रूप से दिव्य ज्योतियां हैविद्यमान हैं.

मंदिर का महत्व

यह मंदिर हिंदुओं के लिए बहुत उच्च धार्मिक और पुरातात्विक महत्व रखता है। यह एक ज्योतिर्लिंग और शक्ति पीठ, और एक पाडल पेट्रो स्थलम भी है। स्टालम 275 मंदिर हैं जो 6ठी-9वीं शताब्दी ईस्वी में शैव नयनारों के छंदों में मनाए गए थे। नयनार तमिलनाडु में रहने वाले 63 संतों का एक समूह था जिन्होंने भगवान शिव के सम्मान में भजनों की रचना की। हिंदू पैडल पेट्रा स्थलम को महाद्वीप के सबसे महत्वपूर्ण शिव मंदिरों में से एक मानते हैं।

मंदिर में देवी शक्ति को ब्रमरंभ के रूप में पूजा जाता है और उनके लिए एक मंदिर भी समर्पित है। यह मंदिर पवित्र कृष्णा नदी के तट पर स्थित है जिसे मंदिर के आसपास पाताल गंगा का नाम दिया गया है। कृष्णा नदी भारत की सात सबसे पवित्र नदियों में से एक है और इसका नाम सर्वोच्च देवता भगवान विष्णु के अवतार भगवान कृष्ण से लिया गया है।

यहां तक ​​कि मंदिर की ओर जाने वाला रास्ता भी प्रसिद्ध शिखरेश्वर मंदिर की ओर जाता है। स्थानीय मान्यता के अनुसार, शिखरेश्वर मंदिर के दर्शन करने से आपके पापों से मुक्ति मिल जाती है और आप पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाते हैं।

मल्लिकारुज्न मंदिर, अपनी जीवंत वास्तुकला और कई मंदिरों के साथ, पुरातत्वविदों के लिए बहुत महत्व रखता है। यह एक प्राचीन स्मारक है जो देव-राजाओं के युग के बारे में संस्कृति और इतिहास के विशाल घटनाक्रम को उजागर करता है। मंदिर परिसर धार्मिक हॉल, मंडप और जटिल नक्काशीदार स्तंभों से समृद्ध है।

मल्लिकार्जुन को समर्पित मंदिर इस मंदिर में सबसे पुराना है। पुरातत्वविदों का मानना ​​है कि यह 7वीं शताब्दी का है। यह मंदिर हिंदू साहित्य से निकले दो अद्भुत महाकाव्यों, रामायण और महाभारत से भी जुड़ता है। किंवदंती है कि भगवान राम ने मंदिर में सहस्र लिंग की स्थापना की थी, जबकि पांच पांडव भाइयों ने पांच अन्य स्तंभों की स्थापना की थी।

हिंदू संत आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा  रचित शिवनंद लहरी

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर महान हिंदू संत आदि शंकराचार्य के जीवन से भी जुड़ा हुआ है आदि शंकराचार्य आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध दार्शनिक और धर्मशास्त्री थे उन्हें हिंदू धर्म के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण शख्सियतों में से एक माना जाता है और उन्हें हिंदू धर्म के पुनरुत्थान का श्रेय दिया जाता हैं जब जगतगुरु आदि शंकर शंकराचार्य जी ने पहली बार इस मंदिर की यात्रा की तब तब उन्होंने यहां शिवनंद लहरी की रचना की थी। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर के पास में ही  एक जगदंबा माता का मंदिर भी है ऐसा कहा जाता है कि है मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक माना गया है माता का यह मंदिर सती का स्वरूप के रूप में विख्यात है पुराण के अनुसार ऐसा कहा गया है कि जब माता सती ने यज्ञ में कूद कर अपने प्राणों की आहुति दी थी तब भगवान शिव क्रोधित होकर प्रचंड रूप में माता सती के मध्य शरीर को उठाकर पूरे ब्रह्मांड का चक्कर लगाने लगे उसे समय जहां-जहां माता के अंग गिरे वह स्थान शक्तिपीठ कहलाया जिस स्थान पर माता सती की गर्दन गिरी वही स्थान पवित्र और पावन शक्ति पीठ ब्रह्मरांबिका माना जात|

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग भारत के आंध्र प्रदेश में शैल पर्वत पर स्थापित है। इस विशाल पर्वत को दक्षिण का कैलाश भी कहा जाता है। शैल पर्वत से निकलने वाली कृष्णा नदी के तट पर मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का वर्णन महाभारत, शिव पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों में किया गया है। जिसके अनुसार यहां दर्शन करने मात्र से अभीष्ट फल मिलता है।पुराणों के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि शैल पर्वत पर सच्ची श्रद्धा से पूजा अर्चना करने से अश्वमेघ के बराबर फल की प्राप्ति होती है और यहां आने मात्र से सभी भक्तों के कष्ट दूर होते हैं  और यहां सावन के महीने में भक्तों की अधिक भीड़ लगती है दर्शन के लिए यहां भक्तों की लंबी कतार में लाइन लगती है।भगवान शिव के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है और इसका जिक्र हिन्दू पौराणिक कथाओ में भी मिलता है। ऐसा माना जाता है कि मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर में भगवान शिव की पूजा करने से समृद्धि, अच्छा स्वास्थ्य और जीवन में खुशी मिलती है। यह भी माना जाता है कि मंदिर में जाने से मोक्ष (जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति) प्राप्त होता है। मंदिर को लेकर कई कहावतें भी हैं, जिनमें से एक में राक्षस राजा हिरण्यकशिपु शामिल है। ऐसा माना जाता है कि हिरण्यकशिपु ने एक बार भगवान शिव को प्रसन्न करने और अमरता प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। भगवान शिव उसके सामने प्रकट हुए और उसे एक वरदान मांगने ले लिए कहा तो हिरण्यकशिपु ने अमर होने का वरदान माना लेकिन भगवान शिव ने उसे अमरता का वरदान नहीं दिया।

भगवान शिव ने तब हिरण्यकशिपु को  मंदिर जाने और वहां तपस्या करने का निर्देश दिया। हिरण्यकशिपु ने भगवान शिव के निर्देशों का पालन किया और उसकी तपस्या इतनी कठिन थी कि उसने पूरे ब्रह्मांड को हिला दिया। भगवान शिव उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए और उसे एक वरदान दिया, जिससे वह अजेय हो गया। हालाँकि, हिरण्यकशिपु के अहंकार के कारण उसका पतन हुआ और अंत में उसे भगवान विष्णु ने मार डाला।मंदिर हिंदू धर्म के शैव संप्रदाय से भी जुड़ा हुआ है। शैववाद हिंदू धर्म की प्रमुख शाखाओं में से एक है और भगवान शिव की पूजा के लिए समर्पित है। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर को भारत के सबसे महत्वपूर्ण शिव मंदिरों में से एक माना जाता है और दुनिया भर के शिव भक्त इसकी पूजा करते हैं।

घने जंगलों से होकर पहुंचना पड़ता है मंदिर

ज्योतिर्लिंग तक पहुंचने के लिए घने जंगलों के बीच होकर सड़क मार्ग द्वारा जाया जाता है। यह रास्ता करीब 40 किलोमीटर अंदर से होकर जाता है। घने जंगलों के बीच से रास्ता होने के वजह से शाम 6 बजे के बाद वन क्षेत्र में प्रवेश वर्जित होता है और सुबह 6 बजे के बाद ही इसके गेट दोबारा खोले जाते हैं। इस जंगली रास्ते को पार करके कुछ ही किलोमीटर के बाद शैल बांध से 290 मीटर की ऊंचाई से गिरते प्रबल जलावेग नज़र आता है। इस जलावेग को देखने के लिए पर्यटकों व दर्शनार्थियों का तांता लगा रहता हैं।

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर की संरचना

मल्लिकार्जुन मंदिर परिसर 2 हेक्टेयर की जगह में एक विशाल परिसर के रूप में स्थित है। यह 28 फीट लम्बी और 600 फीट ऊँची दीवारों से घिरा हुआ है। जिसमे मुख्य मंदिर श्री मल्लिकार्जुन और माता भ्रामराम्बा के है। मंदिर के गर्भगृह में लगभग आठ उंगल ऊंचा शिवलिंग स्थापित है। इन मंदिरों के साथ कई अन्य मंदिर जैसे वृद्ध मल्लिकार्जुन, सहस्त्र लिंगेस्वर, अर्ध नारीश्वर, वीरमद, उमा महेश्वर और  ब्रह्मा मंदिर आदि बने हुए हैं। इस मंदिरों में खम्भे, मंडप और झरने बनाएं गए है। मंदिरों की दीवारों पर कई अद्भुत मुर्तियां बनी हुई है, जो लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करती है|

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर का इतिहास

यह मंदिर कई शासकों और राजवंशों के शासनकाल के दौरान खड़ा रहा है। कई राजाओं ने इसकी वास्तुकला में कुछ बदलाव किए, जिससे यह आज की वास्तुकला का चमत्कार बन गया है। मंदिर को सातवाहन, इक्ष्वाकु, पल्लव, विष्णुकुंडी, चालुक्य और काकतीय सहित कई शासक राजवंशों द्वारा संरक्षित और पूजा किया गया है।

प्रागैतिहासिक अध्ययनों से पता चलता है कि सातवाहन मल्लिकार्जुन मंदिर का निर्माण करने वाले पहले व्यक्ति थे। यह पहला साम्राज्य था जिसने दक्षिण भारत को समेकित किया और हिंदू देवताओं को समर्पित कई मंदिरों का निर्माण किया।

पुरातत्व विभाग के अनुसार इसका निर्माण कार्य लगभग दो हज़ार वर्ष पुराना है। इस ऐतिहासिक मंदिर के निर्माण में कई बड़े-बड़े राजा-महाराजा का योगदान रहा है। इस मंदिर का इतिहास दूसरी शताब्दी से मिलता है। इस मंदिर में पल्लव, चालुक्य, काकतीय, रेड्डी आदि राजाओं ने विकास कार्य करवाए थे। 14वीं सदी में प्रलयवम रेड्डी ने पातालगंगा से मंदिर तक सीढ़ीदार मार्ग का निर्माण करवाया था। विजयनगर साम्राज्य के राजा हरिहर ने मंदिर के मुख्यमंडपम और दक्षिण गोपुरम का निर्माण करवाया था। 15वीं शताब्दी में कृष्णदेव राय ने राजगोपुरम का निर्माण करवाया था। इसके साथ ही उन्होंने यहाँ एक सुन्दर मण्डप का भी निर्माण कराया था, जिसका शिखर सोने का बना हुआ था। सन 1667 में छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस मंदिर के उत्तरी गोपुरम का निर्माण करवाया और उन्होंने मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर यात्रियों के लिए एक उत्तम धर्मशाला भी बनवायी थी।

मल्लिका अर्जुन स्वामी मंदिर की वास्तुकला

श्री मल्लिकार्जुन स्वामी का मुख्य मंदिर  विशाल परिसर से बना है। मंदिर परिसर में भगवान मल्लिकार्जुन और भ्रामराम्बा देवी के लिए दो अलग-अलग मंदिर हैं, साथ ही मंडप, राजसी स्तंभों वाले हॉल, वृद्ध मल्लिकार्जुन, सहस्र लिंगेश्वर, अर्थनारीश्वर, वीरभद्र, उमा महेश्वर जैसे कई अन्य छोटे मंदिर हैं।

आंतरिक प्रांगण में नौ मंदिर भी हैं जिन्हें नव ब्रह्मा मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर परिसर के चारों ओर एक भव्य दीवार है जो पत्थरों से बनी है। इन दीवारों में चार मुख्य द्वार हैं, जिन्हें द्वार कहा जाता है।

पूर्वी तरफ के प्रवेश बिंदु को महा द्वारम कहा जाता है। महाद्वारम के बाद, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी किनारों की ओर उभरे हुए लगभग 42 स्तंभों और बरामदों वाला विशाल मंडप है। इस मंडप के केंद्र में नंदी की एक विशाल मूर्ति स्थापित है; यह भगवान मल्लिकार्जुन के सम्मुख है। वहाँ एक और मंडपम है जिसका नाम नंदी मंडप है। इसके पश्चिम में वीरैया मंडपम है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण 1378 ई. में हुआ था।

 

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की कहानी

पौराणिक कथानक के अनुसार शिव पार्वती के पुत्र कार्तिकेय और गणेश भगवान दोनों में विवाह करने हेतु इस बात पर विवाद हुआ कि पहले किसका विवाह होना चाहिए। इस विवाद को समाप्त करने के लिए दोनों अपने माता-पिता के पास पहुँचे। उनके विवाद का समाधान करने के लिए माता पार्वती और भगवान शिव ने कहा कि तुम दोनों में जो भी इस पृथ्वी की परिक्रमा करके पहले यहाँ आ जाएगा, उसी का विवाह पहले होगा। माता पिता की शर्त को पूरा करने के लिए स्वामी कार्तिकेय जी अपने वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए चल दिए। श्रीगणेश जी स्थूल शरीर के है, पर महा बुद्धिमान है। उन्होंने अपनी माता पार्वती तथा देवाधिदेव महादेव को एक आसन विराजमान होने को कहा और उनकी सात परिक्रमा कर ली।

शिव और पार्वती उनकी चतुर बुद्धि को देख कर अति प्रसन्न हुए और उन्होंने श्रीगणेश का विवाह करा दिया। इस बात से दुखी होकर भगवान कार्तिकेय कैलाश छोड़कर क्रौंच पर्वत पर आकर निवास करने लगे। इधर कैलाश पर माता पार्वती का मन पुत्र स्नेह में व्याकुल होने लगा। वे भगवान शिव जी के साथ क्रौंच पर्वत पर पहुँच गईं। क्योकि स्वामी कार्तिकेय जी को पहले ही अपने माता-पिता के आगमन की सूचना मिल गई थी, इसलिए वे वहाँ से तीन योजन अर्थात् छत्तीस किलोमीटर दूर चले गये। कार्तिकेय भगवान के चले जाने पर भगवान शिव उस क्रौंच पर्वत पर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो कर स्थापित हो गए। “मल्लिका” अर्थात माता पार्वती और “अर्जुन” अर्थात भगवान शिव, इस प्रकार शिव और शक्ति दोनों की दिव्य ज्योति के सम्मिलित रूप में वे श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार पुत्र स्नेह के कारण भगवान शिव और माता पार्वती प्रत्येक पूर्णिमा और अमावस्या के पर्व पर पुत्र से मिलने यहाँ आते हैं।

ज्योतिर्लिंग के प्राकट्य की एक अन्य कथा

एक अन्य कथा के अनुसार, इसी पर्वत के पास चन्द्रगुप्त नामक एक राजा की राजधानी थी. एक बार उसकी कन्या किसी विशेष विपत्ति से बचने के लिए अपने माता-पिता के महल से भागकर इस पर्वत पर चली गई. वहां जाकर वो वहीं के ग्वालों के साथ कंद-मूल और दूध आदि से अपना जीवन निर्वाह करने लगी. उस राजकुमारी के पास एक श्यामा गाय थी, जिसका दूध प्रतिदिन कोई दुह लेता था.

एक दिन उसने चोर को दूध दुहते हुए देख लिया. जब वो क्रोध में उसे मारने दौड़ी तो गौ के निकट पहुंचने पर शिवलिंग के अतिरिक्त उसे कुछ न मिला. बाद में शिव भक्त राजकुमारी ने उस स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया और तब से भगवान मल्लिकार्जुन वहीं प्रतिष्ठित हो गए|

अनेक धर्म ग्रंथों में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का बखान किया गया है. महाभारत के अनुसार, श्री शैल पर्वत पर भगवान शिव-पार्वती का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने जितना फल प्राप्त होता है. श्री शैल पर्वत शिखर के दर्शन मात्र से भक्तों के सभी प्रकार के कष्ट दूर भाग जाते हैं. उसे अनंत सुखों की प्राप्ति होती है और वो आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है|

जो मनुष्य इस लिंग का दर्शन करता है, वो समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और अपने परम अभीष्ट को सदा-सर्वदा के लिए प्राप्त कर लेता है. भगवान शंकर का ये लिंगस्वरूप भक्तों के लिए परम कल्याणप्रद है।

श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग दर्शन

मंदिर के पास पहुचने पर आपको अलग अलग दर्शन लाइन दिखती है। आपको टिकट काउंटर से फ्री दर्शन का टिकट लेना होगा। यदि आप जल्दी दर्शन करना चाहते है, तो शीघ्र दर्शन का 150 रूपये का टिकट ले सकते है। मंदिर के पास ही क्लॉक रूम बने है, जहाँ आप मोबाइल, कैमरा व अन्य सामान जमा कर सकते है। इन सब कार्यों से फ्री होकर आप लाइन में लग जाइये। लाइन में लगने के बाद इधर उधर  की बातें ना करें। मन में माता पार्वती और भोलेनाथ का ध्यान करें। मन ही मन ॐ नम: शिवाय का जाप करते रहें।

मंदिर के अंदर प्रवेश करने पर पहले आप नंदी मंडप में पहुचेंगे। वहाँ विशाल नंदीजी के दर्शन करके, आप मंदिर में गर्भगृह के पास पहुचेंगे। इस गर्भगृह का शिखर सोने से बना है। गर्भगृह में अब आपको भगवान शिव के मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्वरुप में दर्शन होंगे। भगवान के इस रूप के देखकर आपका ह्रदय आनंद से परिपूर्ण हो जायेगा। भोलेनाथ के ज्योतिर्लिंग रूप को अपने ह्रदय में विराजमान करके मंदिर के बाहर आजाइए|

माता भ्रमराम्बा देवी शक्ति पीठ मंदिर

मल्लिकार्जुन मंदिर के पीछे कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर आदिशक्ति देवी भ्रमरम्बा का मंदिर है। बावन शक्तिपीठों में से एक इस पवित्र धाम में सती माता की ग्रीवा (गला या गरदन) गिरी थी। यहाँ इस मंदिर में शक्ति को देवी महालक्ष्मी के रूप पूजा जाता है। माता के दर्शन के साथ साथ गर्भगृह में स्थापित श्रीयंत्र के दर्शन और सिन्दूर से उसका पूजन अवश्य करें।

प्राचीन काल में ‘अरुणासुर’ नाम के राक्षस ने संपूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर ली थी। उसे ब्रम्हा जी से यह वरदान प्राप्त था कि कोई भी दो पैरों या चार पैरों वाला जीव उसका वध न कर सके। उस अत्याचारी राक्षस का अंत करने के लिए माँ आदि शक्ति ने भ्रामरी (भ्रमराम्बिका) का रूप धारण कर लिया। भ्रमराम्बा का अर्थ है, ‘मधुमक्खियों की माता’। उन्होंने असंख्य छह पैरों वाली मधुमक्खियों को उत्पन्न किया और उन सारी मधुमक्खियों ने कुछ ही क्षणों में अरुणासुर का वध करके उसकी पूरी सेना का भी विध्वंस कर दिया।

ब्रमराम्भा मल्लिकार्जुना मंदिर भगवान शिव-पार्वती को समर्पित हिन्दू मंदिर है। यहाँ भगवान शिव की पूजा मल्लिकार्जुन के रूप में की जाती है और लिंग उनका प्रतिनिधित्व करता है। देवी पार्वती को भ्रमराम्बा की उपाधि दी गयी है। भारत का यह एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसे ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ दोनों की उपमा दी गयी है। अगस्त्य झील के उत्तर पूर्व में स्थित इस मंदिर की संरचना सीढीनुमा है जो कल्याणी चालुक्यों की वास्तुकला की विशेषता है। इस मंदिर की कई विशेषताएं हैं जैसे क्षैतिज परत, पिरामिड संरचना, खुले मंडप जिन्हें कोणीय छतों द्वारा ढंका गया है तथा सपाट दीवारें। अनेक धर्मग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गई है। आवागमन के चक्कर से मुक्त हो जाता है।स्कंद पुराण में श्री शैल काण्ड नाम का अध्याय है। इसमें उपरोक्त मंदिर का वर्णन है। इससे इस मंदिर की प्राचीनता का पता चलता है।

 मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर में आरती और दर्शन का समय

मल्लिकार्जुन मंदिर सुबह 5:30 से दोपहर 01:00 बजे तक दर्शन के लिए खुला रहता है। इसके बाद शाम को 06:00 से 10:00 बजे तक खुला रहता है। इस मंदिर में आरती प्रात: 05:15 से 06:30 तक होती है। संध्या आरती शाम को 05:20 से 06:00 तक होती है। यहाँ पर प्रसाद के रूप में लड्डू का प्रसाद अर्पित किया जाता है।

मल्लिकार्जुन श्रीशैलम स्वामी मंदिर में त्यौहार

हालाँकि मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन पूरे वर्ष भर किए जा सकते हैं, लेकिन त्योहारों के दौरान दर्शन करने से दर्शन का आकर्षण और बढ़ जाता है। सात दिवसीय त्योहार, महा शिवरात्रि ब्रह्मोत्सवम मंदिर के सबसे लोकप्रिय त्योहारों में से एक है। यह त्यौहार फरवरी या मार्च महीने में मनाया जाता है। उगादि उत्सव, जो 5 दिनों तक मनाया जाता है, भी एक अन्य लोकप्रिय मंदिर उत्सव है।

दशहरा उत्सव, देवी सरन्नवरत्रुलु, जो नौ दिनों तक मनाया जाता है, मंदिर में भाग लेने के लिए एक और त्योहार है। कुंभोत्सवम, संक्रांति उत्सवम, अरुद्रोथसवम, कार्तिका महोथसवम, श्रवणमोसोथस्वम मंदिर के कुछ महत्वपूर्ण त्योहार है|

महाशिवरात्रि ब्रह्मोत्सवम:

महाशिवरात्रि उत्सव को मगम(भारतीय चंद्र कैलेंडर का 11 वां महीना) के महीने में ब्रह्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है, जो आमतौर पर फरवरी/मार्च के महीने में आता है। यह नवाह्निका दीक्षा सहित ग्यारह दिनों का पर्व है। महाशिवरात्रि का दिन (मगम का 29 वां दिन) त्योहार का सबसे महत्वपूर्ण दिन है। ब्रह्मोत्सव की शुरुआत अंकुरार्पण से होती है, जो त्योहार के अवसर पर एक धार्मिक अनुष्ठान है, जिसके बाद ध्वजारोहण होता है जिसमें नंदी प्रतीक के साथ चिह्नित ध्वजा पट्टम (एक सफेद झंडा) को मंदिर के ध्वजस्तंभ पर फहराया जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि ध्वजारोहण सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित करने के लिए ब्रह्मोत्सव की शुरुआत का महत्वपूर्ण आयोजन है। वाहन सेवा उत्सव का एक और महत्वपूर्ण कार्यक्रम है जिसमें भगवान और देवी का जुलूस शेषवाहनम, मयूरवाहनम, नंदीवाहनम और अश्ववाहनम जैसे विभिन्न वाहनों पर निकलेगा। महाशिवरात्रि के दिन आधी रात को लिंगोद्भवकाल (वह भयावह समय जिसमें भगवान शिव विशाल ज्वलंत लिंग के रूप में प्रकट होते हैं) के दौरान भगवान मल्लिकार्जुन स्वामी का धार्मिक तरीके से अभिषेक किया जाएगा। पगलंकरण केवल श्रीशैलम मंदिर में पाया जाने वाला एक अनूठा रिवाज है और यह त्योहार का सबसे महत्वपूर्ण आयोजन है।

इसमें बुनकर समुदाय (देवंगा) का एक व्यक्ति एक लंबा नया सफेद कपड़ा बांधता है, जिसे पागा (पगड़ी) कहा जाता है, जो स्वयंवरी विमान गोपुरम के शिखर से शुरू होकर मंदिर के मुखमंडपम पर रखी नंदी की मूर्तियों के चारों ओर से गुजरता है।

इस आयोजन की दिलचस्प विशेषता यह है कि देवांगा पूर्ण अंधेरे में नग्न शरीर के साथ पागा को सजाएंगे और उस समय मंदिर में सभी रोशनी बंद कर दी जाएगी। पगलंकरण में उपयोग किया जाने वाला कपड़ा पूरे वर्ष बुनकरों द्वारा हाथ से बुना जाता है। विभिन्न बुनकरों द्वारा मन्नत के रूप में लगभग 30 पाग व्यक्तिगत रूप से चढ़ाए जाते हैं और सभी पागों को एक ही बुनकर द्वारा एक साथ सजाया जाएगा। पगलंकरण के बाद भगवान मल्लिकार्जुन स्वामी और देवी भ्रामराम्बा देवी का कल्याणोत्सवम आयोजित किया जाएगा।

राधोत्सवम (कार उत्सव) की शुरुआत महाशिवरात्रि के अगले दिन शाम के समय प्रभावी तरीके से की जाएगी। कार उत्सव में एक लाख से अधिक तीर्थयात्री भाग लेंगे। उत्सव का समापन ध्वजारोहण के साथ होता है जिसमें ध्वज पताकम (ध्वज) को ध्वजस्तंभ से हटा दिया जाता है। ब्रह्मोत्सव के दौरान लगभग 8 लाख तीर्थयात्री मंदिर का दौरा करेंगे। उपरोक्त उत्सव के दिनों में कोई स्पर्श (स्पर्श) धरिसनम और अरगीथा सेवा नहीं है।

उगादि उत्सव:

उगादी उत्सव पांच दिनों की अवधि तक मनाया जाता है। यह त्यौहार उगादि दिवस से तीन दिन पहले यानी तेलुगु नव वर्ष दिवस (चैत्र सुधा पद्यमी) से शुरू होता है जो आम तौर पर मार्च/अप्रैल में पड़ता है। इन उत्सवों के दौरान विशेष रूप से कर्नाटक और महाराष्ट्र राज्यों से लगभग पांच लाख तीर्थयात्री मंदिर का दौरा करेंगे।

उत्सव की महत्वपूर्ण घटनाएँ भगवान और देवी के लिए वाहन सेवा, देवी के लिए अलंकार, वीराचार विन्यासलु और कार उत्सव।

उत्सव कई अनुष्ठानों जैसे कि पुण्याहवाचनम, अखंड स्थापना, मंतपाराधना और अंकुरार्पण आदि के साथ शुरू होता है, उत्सव के हर दिन विभिन्न विशेष पूजाएं की जाती हैं जैसे कि भगवान को प्रतिका अभिषेकम, देवी को नवावरणार्चन, रुद्रहोमम और चंडीहोमम।

एक दिलचस्प विशेषता यह है कि कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों के अधिकांश लोग इन उत्सवों के अवसर पर पूरी दूरी पैदल यात्रा करके मंदिर में आते हैं और अपना वार्षिक प्रसाद यानी इमली, कुमकुम, साड़ी, मंगलसूत्र, फूल चढ़ाते हैं। आदि, देवी भ्रामराम्बा देवी को। वे अपने कंधों पर नंदिकावल्लू (कन्नड़ में कांबी कहा जाता है) भी ले जाते हैं, जिसमें नंदी की छवियां होती हैं और श्रीशैलम की यात्रा के दौरान हर दिन इसकी पूजा करते हैं।

उगादि दिवस से पहले की रात को कन्नड़ भक्तों का एक विशेष समूह, जिन्हें गणचारी कहा जाता है, अग्निगुंडा प्रवेशम यानी उड़ते हुए अंगारों पर चलकर अपनी भक्ति व्यक्त करते हैं। वे अपने माथे, जीभ, गाल, ठुड्डी, हाथ आदि पर भी तेज नुकीले हथियारों से वार कर रहे हैं। इस प्रथा को वीराचार विन्यासालु नाम दिया गया है। देवी को अर्पित किए जाने वाले अलंकार हैं महालक्ष्मी, महादुर्गा, महासरस्वती, राजराजेश्वरी और भ्रामराम्बा का निजलांकरण।

भगवान और देवी को की जाने वाली वाहन सेवाएँ हैं भृंगिवाहनम, नंदीवाहनम, कैलास वाहनम और रावण वाहनम। प्रत्येक दिन शाम के समय वाहन सेवा और अलंकारों का जुलूस निकलेगा। कार उत्सव उगादि दिवस की शाम को भव्य तरीके से आयोजित किया गया। उपरोक्त अवधि के दौरान लगभग 3 लाख तीर्थयात्री मंदिर के दर्शन करेंगे।

दशहरा उत्सव:

देवी शरणनवरात्रुलु नौ दिनों का त्योहार है जो अश्विजम महीने (भारतीय चंद्र कैलेंडर का 7 वां महीना) के पहले दिन से शुरू होता है जो आम तौर पर सितंबर या अक्टूबर में आता है। इस उत्सव के महत्वपूर्ण आयोजनों में देवी के लिए चंदियागम, रुद्रयागम, नवदुर्गा अलंकार और भगवान और देवी के लिए वाहन सेवा के अलावा कई विशेष पूजाएं शामिल हैं। इन उत्सवों में मुख्य रूप से देवी भ्रामराम्बा देवी की पूजा की जाती है। उत्सव की शुरुआत गणपति पूजा के साथ होती है और उसके बाद कलश स्थापना होती है और पूर्णाहुति के साथ समाप्त होती है। उत्सव के प्रत्येक दिन यागम के अलावा विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान जैसे श्रीचक्रार्चन, नववरण पूजा, अनुष्ठानम, देवी सप्तशती पारायण आदि किए जाते हैं।

इनके अलावा कुमारी पूजा, सुहासिनी पूजा भी शाम के समय आयोजित की जाती है। कुमारी पूजा में 2 से 8 वर्ष की आयु की लड़कियों और सुहासिनी पूजा में सौभाग्यवती (वह महिला जिसका पति जीवित हो) को देवी के रूप में पूजा जाता है। महानवमी के दिन यानी 9वें दिन धंबथी (युगल) पूजा भी की जाती है, जिसमें पांच जोड़ों को पूजा की पेशकश की जाती है। यह दिन सात्विकबली के रूप में देवी को बलि चावल चढ़ाने, कद्दू, नारियल आदि तोड़ने के साथ समाप्त होता है। नौ दिन पूरे होने के बाद, दशहरा उत्सव के दिन दिन के समय चंदियागम और रुद्रयागम की पूर्णाहुति की जाती है। उस शाम सामी पूजा (प्रोसोपिया पेड़ की पूजा) की जाती है। ऐसा कहा जाता है कि सामी पूजा के दर्शन से व्यक्ति को अपने कार्यों में विजय प्राप्त होती है।

इन उत्सवों में देवी भ्रामराम्बा के उत्सव विग्रह को अर्पित नवदुर्गा अलंकार शैल पुत्री (पार्वती), ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडादुर्गा, स्कंदमाथा, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदायिनी हैं। प्रत्येक दिन शाम के समय इन अलंकारमूर्तियों की विशेष पूजा की जाती है। उपरोक्त विभिन्न वाहन सेवाओं के अलावा, भृंगिवाहनम, मयूरवाहनम, रावण वाहनम, कैलास वाहनम, हंस वाहनम, शेषवाहनम, नंदीवाहनम, गज वाहनम और अश्ववाहनम भगवान और देवी को अर्पित किए जाते हैं। अलंकारम और वाहनम दोनों के जुलूस हर दिन भव्य तरीके से आयोजित किए जाते हैं।

कुंभोथ्सवम्स:

कुंभोत्सवम श्रीशैलम मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है जिसमें देवी भ्रामराम्बा देवी को विभिन्न प्रसाद चढ़ाए जाते हैं। यह त्यौहार भारतीय कैलेंडर के शुरुआती महीने चैत्रम की पूर्णिमा के बाद पहले मंगलवार या शुक्रवार (जो भी पहले आए) को मनाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन देवी उग्र होती हैं और इसलिए एकांतम में नववरण, त्रिसाथी, खड्गमाला आदि जैसी विभिन्न पूजाएं की जाती हैं, यानी भ्रमराम्बा मंदिर के दरवाजे बंद रहते हैं और अर्चकों ने स्वयं पूजा की और सामान्य दर्शन नहीं होंगे। उस समय।

शाम को एक पुरुष जो महिलाओं की तरह साड़ी पहनता है, कुंभहारथी नामक देवी को मंगला हरथी चढ़ाने के लिए मंदिर में आता है और समय पर मंदिरों के दरवाजे खुल जाते हैं। कुंभ हरथी का प्रदर्शन करने के बाद देवी को बड़ी मात्रा में हल्दी और कुमकुमा से ढक दिया जाता है और फिर सात्विकबली यानी, कुंभम (बड़ी मात्रा में पके हुए चावल), कद्दू तोड़ना, बड़ी संख्या में नारियल और 50 हजार से अधिक नींबू आदि का भोग लगाया जाता है। देवी को अर्पित किया गया. इस दिन स्थानीय आदिवासी लोग, जिन्हें चेंचू कहा जाता है, स्वयं देवी के समक्ष जनजाति नृत्य में शामिल होते हैं और समारोहों में उनकी प्रमुखता कहीं अधिक होती है।

परंपरा के अनुसार यह ज्ञात है कि प्राचीन काल में वामाचार संप्रदाय था जिसमें मंदिर में मानव और पशु बलि की प्रथा थी। बाद में अद्वैत दार्शनिक आदि शंकराचार्य, जिनके बारे में माना जाता है कि वे 5 वीं और 6 वीं शताब्दी ईस्वी में रहे थे , ने वामाचार पंथ को समाप्त कर दिया और दक्षिणाचार पंथ की शुरुआत की जिसमें सात्विकबली (कद्दू, नारियल आदि की पेशकश) होती थी। कुंभोत्सवम के दिन दोपहर में भगवान मल्लिकार्जुन स्वामी को अन्नाभिषेक किया जाता है और इसके बाद भगवान को दही चावल से ढक दिया जाता है और मंदिर के दरवाजे अगले दिन की सुबह तक बंद रहते हैं।

संक्रांति उत्सव:

ये उत्सव मकर संक्रांति के अवसर पर किए जाते हैं और पुष्य महीने (भारतीय कैलेंडर का 10 वां महीना) में पंचाह्निका दीक्षा के साथ सात दिनों की अवधि के लिए मनाए जाते हैं, जो जनवरी के महीने में आता है। ये उत्सव ध्वजारोहण से शुरू होते हैं और ध्वजारोहण के साथ समाप्त होते हैं। इस उत्सव में विभिन्न वाहन सेवा के अलावा रूद्रहोमम, चंडीहोमम, पुष्पोत्सवम, ब्रह्मोत्सव कल्याणम, सायनोत्सवम आदि जैसे विभिन्न विशेष अनुष्ठान रीति और उपयोग के अनुसार किए जाते हैं।

अरुद्रोथ्सवम्:

अरुद्र भगवान शिव का जन्म नक्षत्र है। धनुर्मासम में अरुद्र नक्षत्रम के दिन भगवान मल्लिकार्जुन स्वामी को लिंगोद्भवकाल रुद्राभिषेकम, अन्नभिषेकम और वाहन सेवा जैसी विशेष पूजाएं की जाती हैं।

कार्तिकाई मासोथसावम्स:

भारतीय कैलेंडर के 8 वें महीने कार्तिक को सबसे शुभ महीना कहा जाता है। इस महीने के महत्वपूर्ण दिनों जैसे सोमवार, पूर्णिमा आदि पर दीपोत्सव मनाया जाता है जिसमें मंदिर परिसर में बड़ी संख्या में दीपक जलाए जाते हैं। महीने की पूर्णिमा के दिन मंदिर में ज्वालाथोरनम (अलाव दहन) किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि उक्त ज्वालाथोरनम के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है। कार्तिक मास के दौरान बड़ी संख्या में तीर्थयात्री मंदिर आएंगे, विशेष रूप से रविवार और सोमवार के दौरान 30 से 40 हजार तीर्थयात्री मंदिर आएंगे।

श्रवणमोसोथस्वम्:

ये उत्सव भारतीय कैलेंडर के 5 वें महीने श्रवणम (अगस्त और सितंबर) में किए जाते हैं। इस महीने में देवी-देवताओं की कई विशेष पूजाएं की जाती हैं। इस उत्सव की विशेष विशेषता यह है कि पूरे महीने लगातार चौबीसों घंटे अखंड शिवनाम संकीर्तन (भजन) किया जाता हैं।

श्रीशैलम के दर्शनीय स्थल

श्रीशैलम के कुछ दर्शनीय स्थल आप स्वयं घूमने जा सकते है। शिखरेश्वर महादेव को छोड़कर बाकि सभी श्रीसैलम के पर्यटक स्थल मुख्य सड़क के आस पास ही स्थित हैं। इन सभी स्थलों को घूमने के लिए यहाँ ऑटो का किराया 500-600 रूपये है।

श्रीशैलम पातालगंगा

 श्रीशैलम का प्रमुख पर्यटन स्थल कृष्णा नदी को पाताल गंगा कहा जाता है। पाताल गंगा जाने के दो रास्ते है। एक जिसमे नदी तक पहुंचने के लिए लगभग 500 सीढिया उतरकर नीचे जाना पड़ता है। दूसरा रास्ता रोप से जाता है। रोपवे से जाना बहुत रोमांचकारी अनुभव होता है। बहुत ऊंचाई से कृष्णा नदी, हरे-भरे घने जंगल और श्री शैलम डेम का अद्भुद प्राक्रतिक नजारा दिखाई देता है। पाताल गंगा में डुबकी लगाने पर पुण्य की प्राप्ति होती है।

श्रीशैलम डैम

श्रीशैलम में घूमने के लिए श्रीशैलम डैम बहुत एक खूबसूरत स्थान है। पाताल गंगा पहुचने के बाद आप बोट से नदी और डैम की सैर कर सकते है। बोट से श्रीशैलम डैम धूमते समय नल्लमाला पहाड़ियों की खूबसूरत हरियालियों के बीच कृष्णा नदी का विहंगम द्रश्य बहुत खूबसूरत लगता है। कृष्णा नदी पर स्थित श्रीशैलम बांध देश में दूसरी सबसे बड़ी जलविद्युत परियोजना है। दिन के उजाले में डैम की 290 मीटर की ऊंचाई से गिरते पानी के द्रश्य आपको रोमांचित कर देता है।

 

साक्षी गणपति मंदिर

साक्षी गणपति मंदिर श्रीशैलम से 3 किमी की दूरी पर स्थित है। श्रीशैलम के धार्मिक स्थलों में से एक साक्षी गणपति मंदिर का दर्शन करना हर भक्त के किये अनिवार्य है। यदि आप साक्षी गणपति मंदिर नहीं जाते है, तो आपकी यात्रा पूरी नहीं होती है। भगवान गणेश आपकी यात्रा के साक्षी होते है। वे मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की यात्रा करने करने वाले सभी लोगों का रिकॉर्ड रखते है। यह रिकॉर्ड भगवान शिव के पास पहुचता है।

 

चेंचू लक्ष्मी जनजातीय संग्रहालय

श्रीशैलम के पर्यटन स्थलों में एक चेंचु लक्ष्मी जनजातीय संग्रहालय, श्रीशैलम के प्रवेश द्वार के निकट स्थित है। इस संग्रहालय में श्रीसैलम के जंगलों में निवास करने वाले लोगों के जीवन की एक झलक दिखाई देती है। इस संग्रहालय में माता चेंचु लक्ष्मी की मूर्ति भी दर्शनीय है। इस जनजातीय संग्रहालय में विभिन्न जनजातियों से संबंधित कलाकृतियाँ, उनके हथियार, दैनिक उपयोग की वस्तुओं, संगीत वाद्ययंत्र और कई अन्य बस्तुएं शामिल हैं। इस संग्रहालय में जनजातियों के सदस्यों द्वारा जंगलों में उत्पन्न प्राक्रतिक शहद को एकत्रित करके शहद बेचा जाता है।

 पालधारा पंचधारा

श्रीशैलम से 4 किमी दूर पालधारा पंचधारा श्रीशैलम का आकर्षक पर्यटन स्थल  है। यह स्थान एक संकीर्ण घाटी में स्थित है। जहाँ 160 सीढिया चढ़कर जाना पड़ता है। इस जगह पर भगवान आदि शंकराचार्य ने तपस्या और प्रसिद्ध ‘शिवानंदलाहारी’ की रचना की थी। यहाँ पर साल भर पहाड़ियों से जल की धारा निरंतर गिरती रहती है। आगे जाकर यह धारा कृष्णा नदी में सम्मलित हो जाती है। इस धारा के जल में कई प्रकार के औषधीय गुण है, इसलिए कई लोग इसका जल अपनी बीमारियों को ठीक करने के लिए ले जाते|

 

हटकेश्वर मंदिर

श्रीशैलम से 5 किमी की दूरी पर स्थित हाटकेश्वर मंदिर श्रीशैलम के प्रसिद्ध मंदिरों में एक हैं। ‘हटका’ का अर्थ सोना (गोल्ड) होता है। इस मंदिर में स्वर्ण का शिवलिंग स्थापित है। इस मंदिर के सामने एक तालाब स्थित है। जिसे हाथकेस्वर तीर्थ कहा जाता है।

 

 अक्क महादेवी गुफाएं

श्रीशैलम से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अक्क महादेवी गुफ़ाएँ श्रीशैलम में देखने लायक स्थल हैं। ये प्राचीन गुफाएं कृष्णा नदी के पास स्थित हैं। अक्कमाहदेवी भगवान मल्लिकार्जुनस्वामी की भक्त थी। उन्होंने इस गुफाओं में तपस्या की थी इसलिए इन्हें अक्कमाहदेवी गुफा कहा जाता है। ये गुफाएं बहुत ही आकर्षक और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर हैं।

मल्लेला तीर्थम जल प्रपात

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग से लगभग 58 किमी की दूरी स्थित मल्लेला तीर्थम जल प्रपात श्रीशैलम का एक खूबसूरत स्थान है। यह अद्भुत झरना नल्लामाला के शांत घने जंगल के बीच स्थित है। घने जंगलों  के बीच में स्थित इस झरने तक पहुंचने के लिए 350 कदम नीचे उतरना पड़ता है। यह स्थान प्रकृति प्रेमियों के लिए एक रोमांच से भरा अनुभव है।

शिखरेश्वर मंदिर

श्रीशैलम की सर्वोच्च चोटी पर स्थित शिखरेश्वर मंदिर श्रीशैलम का लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह मंदिर सिखाराम के नाम से भी प्रसिद्ध है। सन 1398 में बना यह प्राचीन मंदिर भगवान शंकर को समर्पित है। इस मंदिर से खड़े होकर श्रीशैलम मंदिर और कृष्णा नदी का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। यहाँ की मान्यता के अनुसार इस मंदिर में स्थापित नंदी जी के सींगों के मध्य से श्रीशैलम मंदिर के दर्शन करने से जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है।

श्रीशैलम अभयारण्य

श्रीशैलम से 30 km दूर स्थित श्रीशैलम टाइगर रिजर्व भारत में सबसे बड़ा टाइगर रिजर्व है। यह श्रीशैलम के प्रसिद्ध स्थानों में से एक है। यह 3568 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्रफल में तेलंगाना के पांच जिलों तक फैला हुआ है। इस खूबसूरत अभयारण्य के अंदर आप बाघ के साथ साथ कई अन्य जानवर जैसे लकड़बग्घा, तेंदुआ, चीतल, चिंकारा, चौसिंघा, पाम सिवेट, जंगली बिल्ली, भालू, हिरण आदि देख सकते है। इन वन्य जीवों के अलावा मगरमच्छ, भारतीय अजगर, किंग कोबरा और भारतीय मोर भी यहाँ पाए जाते हैं। श्रीशैलम बाघ अभयारण्य आपकी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग यात्रा को यादगार बना देता है।

जीप सफारी का समय :- सुबह 7 बजे से शाम 4 बजे तक

श्रीशैलम के प्रसिद्ध भोजन

पवित्र धार्मिक स्थल होने से यहां शाकाहारी भोजन ही उपलब्ध है। यहाँ के स्थानीय भोजन में चावल – सांभर और अन्य दक्षिण भारतीय व्यंजन शामिल है। ये दक्षिण-भारतीय स्वादिष्ट व्यंजनों एक अलग स्वाद  का अनुभव कराते है।

 

 श्रीशैलम में शॉपिंग

श्रीशैलम में खरीदारी करने ले लिए कोई मॉल या बड़ा बाजार नहीं है। यहां की जनजातियों के सदस्यों द्वारा, जंगलों में उत्पन्न प्राक्रतिक शहद को एकत्रित करके शहद बेचा जाता है। यह शुद्ध शहद आपको बहुत पसंद आएगा।

 

 श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में दर्शन के लिए ड्रेस कोड

मंदिर समान्य दर्शन के लिए पुरुषों व महिलाओं के लिए कोई ड्रेस कोड नहीं है। अभिषेक व अन्य पूजा करने के लिए पुरुषों को केवल धोती या लुंगी पहन कर और ऊपर के शरीर में बिना वस्त्र पहने प्रवेश करना आवश्यक है और महिलाओं को साड़ी पहनना अनिवार्य है।

 

श्रीशैलम मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग कब जाएँ?

भगवान शिव के मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के लिए आप साल में कभी भी जा सकते हैं। मौसम के अनुसार श्रीशैलम मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से फरवरी के बीच का हैं। मार्च, अप्रेल से वहाँ गर्मी बढ़ने लगती है।

 

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के बारे में रोचक तथ्

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग इस मायने में विशेष है कि यह एक ज्योतिर्लिंग और शक्ति पीठ (शक्ति देवी के लिए विशेष मंदिर – उनमें से 18 हैं) दोनों हैं –

 भारत में ऐसे केवल तीन मंदिर हैं।ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव अमावस्या (अमावस्या का दिन) पर अर्जुन के रूप में और पूर्णिमा (पूर्णिमा के दिन) पर देवी पार्वती मल्लिका के रूप में प्रकट हुए थे, और इसलिए उनका नाम मल्लिकार्जुन पड़ा।

यह मंदिर अपने ऊंचे टावरों और सुंदर नक्काशी के साथ वास्तुकला का एक नमूना है। यह ऊंची दीवारों से भी घिरा हुआ है जो इसे मजबूत बनाती है।

भक्तों का मानना ​​है कि इस मंदिर के दर्शन करने से उन्हें धन और प्रसिद्धि मिलती है।

ऐसा माना जाता है कि देवी पार्वती ने खुद को मधुमक्खी में बदलकर राक्षस महिषासुर से युद्ध किया था। भक्तों का मानना ​​है कि वे अभी भी भ्रामराम्बा मंदिर के एक छेद से मधुमक्खी की भिनभिनाहट सुन सकते हैं!

हालाँकि यह मंदिर साल भर आगंतुकों का स्वागत करता है, लेकिन सर्दियों के महीनों यानी अक्टूबर से फरवरी के दौरान यहां जाना सबसे अच्छा रहेगा। महाशिवरात्रि (इस वर्ष 21 फरवरी) के दौरान इसके दर्शन करना किसी भी भक्त के लिए सर्वोत्तम उपहार होगा!

अन्य ज्योतिर्लिंग मंदिर

निष्कर्ष –

भगवान शिव का एक पवित्र मंदिर है और भारत की समृद्ध आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत का एक प्रमाण है। मंदिर परिसर न केवल पूजा का स्थान है बल्कि कला, वास्तुकला और दर्शन का केंद्र भी है। जटिल नक्काशी, आश्चर्यजनक वास्तुकला, और सुंदर परिवेश मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर को भारतीय संस्कृति और इतिहास में रुचि रखने वाले हर व्यक्ति को यहाँ जरूर आना चाहिए।

आदि शंकराचार्य और हिंदू धर्म के शैव संप्रदाय के साथ मंदिर का जुड़ाव इसके आध्यात्मिक महत्व को बढ़ाता है। आंध्र प्रदेश की हरी भरी पहाड़ियों में बसा यह मंदिर इसकी सुंदरता और आकर्षण को और बढ़ा देता है।मंदिर के दर्शन करना एक पूर्ण अनुभव है। यह परमात्मा से जुड़ने और भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अनुभव करने का अवसर प्रदान करता है।चाहे आप भगवान शिव के भक्त हों या केवल भारतीय आध्यात्मिकता और संस्कृति की खोज में रुचि रखते हों, मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग मंदिर की यात्रा एक ऐसा अनुभव है जिसे आप जीवन भर याद रखेंगे।

श्री बद्रीनाथ मंदिर (Badrinath Temple)

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बद्रीनाथ मंदिर, जिसे बद्रीनारायण मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, उत्तराखंड के बद्रीनाथ शहर में स्थित है, जो राज्य के  चार धामों (चार महत्वपूर्ण तीर्थ) में से एक है। यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ नामक चार तीर्थ-स्थल हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से चार धाम के नाम से जाना जाता है। ये तीर्थ केंद्र हर साल बड़ी संख्या में तीर्थयात्रियों को आकर्षित करते हैं, इस प्रकार यह पूरे उत्तरी भारत में धार्मिक यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण केंद्र बन जाता है।

बद्रीनाथ के बारे में कहा जाता है कि यहां पहले भगवान भोलेनाथ का निवास हुआ करता था लेकिन बाद में भगवान विष्णु ने इस स्थान को भगवान शिव से मांग लिया था. -बद्रीनाथ धाम दो पर्वतों के बीच बसा है. इन्हें नर नारायण पर्वत कहा जाता है. कहा जाता है कि यहां भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी.

बद्रीनाथ लगभग 3,100 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। गढ़वाल हिमालय में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित यह पवित्र शहर नर और नारायण पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित है। माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना 8 वीं शताब्दी में ऋषि आदि शंकराचार्य ने की थी। भगवान विष्णु के पीठासीन देवता के साथ, मंदिर साल में छह महीने खुला रहता है। सर्दियों में भारी हिमपात के कारण यह दुर्गम हो जाता है।

अलकनंदा

ब्रदीनाथ के चरण पखारती है अलकनंदा। सतयुग तक यहां पर हर व्यक्ति को भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन हुआ करते थे। त्रेता में यहां देवताओं और साधुओं को भगवान के साक्षात् दर्शन मिलते थे। द्वापर में जब भगवान श्री कृष्ण रूप में अवतार लेने वाले थे उस समय भगवान ने यह नियम बनाया कि अब से यहां मनुष्यों को उनके विग्रह के दर्शन होंगे।

बद्रीनाथ को शास्त्रों और पुराणों में दूसरा बैकुण्ठ कहा जाता है। एक बैकुण्ठ क्षीर सागर है जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं और विष्णु का दूसरा निवास बद्रीनाथ है जो धरती पर मौजूद है। बद्रीनाथ के बारे में यह भी माना जाता है कि यह कभी भगवान शिव का निवास स्थान था। लेकिन विष्णु भगवान ने इस स्थान को शिव से मांग लिया था।

गोमुख

चार धाम यात्रा में सबसे पहले गंगोत्री के दर्शन होते हैं यह है गोमुख जहां से मां गंगा की धारा निकलती है। इस यात्रा में सबसे अंत में बद्रीनाथ के दर्शन होते हैं। बद्रीनाथ धाम दो पर्वतों के बीच बसा है। इसे नर नारायण पर्वत कहा जाता है। कहते हैं यहां पर भगवान विष्णु के अंश नर और नारायण ने तपस्या की थी। नर अगले जन्म में अर्जुन और नारायण श्री कृष्ण हुए थे।

यमुनोत्री मंदिर

बद्रीनाथ की यात्रा में दूसरा पड़ाव यमुनोत्री है। यह है देवी यमुना का मंदिर। यहां के बाद केदारनाथ के दर्शन होते हैं। मान्यता है कि जब केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं उस समय मंदिर में एक दीपक जलता रहता है। इस दीपक के दर्शन का बड़ा महत्व है। मान्यता है कि 6 महीने तक बंद दरवाजे के अंदर इस दीप को देवता जलाए रखते हैं।

जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर

का संबंध बद्रीनाथ से माना जाता है। ऐसी मान्यता है इस मंदिर में भगवान नृसिंह की एक बाजू काफी पतली है जिस दिन यह टूट कर गिर जाएगी उस दिन नर नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे और बद्रीनाथ के दर्शन वर्तमान स्थान पर नहीं हो पाएंगे।

बद्रीनाथ तीर्थ का नाम बद्रीनाथ कैसे पड़ा यह अपने आप में एक रोचक कथा है। कहते हैं एक बार देवी लक्ष्मी जब भगवान विष्णु से रूठ कर मायके चली गई तब भगवान विष्णु यहां आकर तपस्या करने लगे। जब देवी लक्ष्मी की नाराजगी दूर हुई तो वह भगवान विष्णु को ढूंढते हुए यहां आई। उस समय यहां बदरी का वन यानी बेड़ फल का जंगल था। बदरी के वन में बैठकर भगवान ने तपस्या की थी इसलिए देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को बद्रीनाथ नाम दिया।

सरस्वती मंदिर

यह है सरस्वती नदी के उद्गम पर स्थित सरस्वती मंदिर जो बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर की दूरी पर माणा गांव में स्थित है। सरस्वती नदी अपने उद्गम से महज कुछ किलोमीटर बाद ही अलकनंदा में विलीन हो जाती है। कहते हैं कि बद्रीनाथ भी कलियुग के अंत में वर्तमान स्थान से विलीन हो जाएगी और इनके दर्शन नए स्थान पर होंगे जिसे भविष्य में बद्री के नाम से जाना जाता है।

बद्रीनाथ

यह है बद्रीनाथ का भव्य नजारा। मान्यता है कि बद्रीनाथ में भगवान शिव को ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी। इस घटना की याद दिलाता है वह स्थान जिसे आज ब्रह्म कपाल के नाम से जाना जाता है। ब्रह्मकपाल एक ऊंची शिला है जहां पितरों का तर्पण श्राद्घ किया जाता है। माना जाता है कि यहां श्राद्घ करने से पितरों को मुक्ति मिलती है।

बद्रीनाथ के पुजारी शंकराचार्य के वंशज होते हैं, जो रावल कहलाते हैं। यह जब तक रावल के पद पर रहते हैं इन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। रावल के लिए स्त्रियों का स्पर्श भी पाप माना जाता है।

 बद्रीनाथ मंदिर का विवरण

मंदिर लगभग 50 फीट (15 मीटर) लंबा है, जिसके शीर्ष पर एक छोटा गुंबद है, जो सोने की गिल्ट की छत से ढका हुआ है। पत्थर से बने अग्रभाग में धनुषाकार खिड़कियाँ हैं। एक चौड़ी सीढ़ी एक ऊंचे धनुषाकार प्रवेश द्वार तक जाती है, जो मुख्य प्रवेश द्वार के रूप में कार्य करता है। वास्तुकला एक बौद्ध विहार (मंदिर) जैसा दिखता है, जिसमें चमकीले रंग का मुखौटा भी बौद्ध मंदिरों के अधिक विशिष्ट है। मंडप के ठीक अंदर खड़ा है, एक बड़ा खंभों वाला हॉल जो गर्भ गृह, या मुख्य तीर्थ क्षेत्र की ओर जाता है। मंडप की दीवारों और स्तंभों पर जटिल नक्काशी की गई है।

मुख्य मंदिर क्षेत्र में बद्री के पेड़ के नीचे, सोने की छतरी के नीचे बैठे भगवान बद्रीनारायण की काले पत्थर की छवि है। पूजा के लिए मंदिर के चारों ओर पंद्रह अतिरिक्त मूर्तियाँ रखी गई हैं, जिनमें नर और नारायण, नरसिंह (विष्णु का चौथा अवतार), लक्ष्मी , नारद, गणेश , उद्धव, कुबेर, गरुड़ (भगवान नारायण का वाहन) और नवदुर्गा की मूर्तियाँ शामिल हैं।  बद्रीनाथ मंदिर में चढ़ाए जाने वाले विशिष्ट प्रसाद में हार्ड मिश्री, पोंगल, तुलसी और सूखे मेवे शामिल हैं। तप्त कुंड गर्म गंधक के झरने मंदिर के ठीक नीचे स्थित हैं। औषधीय के रूप में प्रतिष्ठित, कई तीर्थयात्री मंदिर जाने से पहले झरनों में स्नान करने को एक आवश्यकता मानते हैं। स्प्रिंग्स में साल भर का तापमान 45 डिग्री सेल्सियस होता है।

बदरीनाथ मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार रंगीन और भव्य है जिसे सिंहद्वार के नाम से जाना जाता है। मंदिर लगभग 50 फीट लंबा है, जिसके ऊपर एक छोटा गुंबद है, जो सोने की गिल्ट की छत से ढका है। बदरीनाथ मंदिर को तीन भागों में विभाजित किया गया है (ए) गर्भ गृह या गर्भगृह (बी) दर्शन मंडप जहां अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं और (सी) सभा मंडप जहां तीर्थयात्री इकट्ठा होते हैं।

बदरीनाथ मंदिर गेट पर, स्वयं भगवान की मुख्य मूर्ति के ठीक सामने, भगवान बदरीनारायण के वाहन / वाहक पक्षी गरुड़ की मूर्ति विराजमान है। गरुड़ ओस बैठे हैं और हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे हैं। मंडप की दीवारें और स्तंभ जटिल नक्काशी से ढके हुए हैं।

गर्भ गृह भाग

गर्भ ग्रह भाग में इसकी छतरी सोने की चादर से ढकी हुई है और इसमें भगवान बदरी नारायण, कुबेर (धन के देवता), नारद ऋषि, उद्धव, नर और नारायण हैं। परिसर में 15 मूर्तियां हैं। विशेष रूप से आकर्षक भगवान बदरीनाथ की एक मीटर ऊंची छवि है, जिसे काले पत्थर में बारीक तराशा गया है। पौराणिक कथा के अनुसार शंकर ने अलकनंदा नदी में सालिग्राम पत्थर से बनी भगवान बदरीनारायण की एक काले पत्थर की मूर्ति की खोज की थी। उन्होंने मूल रूप से इसे तप्त कुंड गर्म झरनों के पास एक गुफा में स्थापित किया था। सोलहवीं शताब्दी में, गढ़वाल के राजा ने मूर्ति को मंदिर के वर्तमान स्थान पर स्थानांतरित कर दिया। यह पद्मासन नामक ध्यान मुद्रा में बैठे भगवान विष्णु का प्रतिनिधित्व करता है।

दर्शन मंडप:

भगवान बदरी नारायण दो भुजाओं में उठी हुई मुद्रा में शंख और चक्र से लैस हैं और दो भुजाएँ योग मुद्रा में हैं। बदरीनारायण कुबेर और गरुड़, नारद, नारायण और नर से घिरे बदरी वृक्ष के नीचे देखा जाता है। जैसा कि आप देख रहे हैं, बदरीनारायण के दाहिनी ओर खड़े हैं उद्धव। सबसे दाहिनी ओर नर और नारायण हैं। नारद मुनि दाहिनी ओर सामने घुटने टेक रहे हैं और देखना मुश्किल है। बाईं ओर धन के देवता कुबेर और एक चांदी के गणेश हैं। गरुड़ सामने घुटने टेक रहे हैं, बदरीनारायण के बाईं ओर।

सभा मंडप:

यह मंदिर परिसर में एक जगह है जहाँ तीर्थयात्री और तीर्थयात्री इकट्ठा होते हैं।

इतिहास

बदरीनाथ तीर्थ का नाम स्थानीय शब्द बदरी से निकला है जो एक प्रकार का जंगली बेर है। ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान विष्णु इन पहाड़ों में तपस्या में बैठे थे, तो उनकी पत्नी देवी लक्ष्मी ने एक बेर के पेड़ का रूप धारण किया और उन्हें कठोर सूर्य से छायांकित किया। यह न केवल स्वयं भगवान विष्णु का निवास स्थान है, बल्कि अनगिनत तीर्थयात्रियों, संतों और संतों का भी घर है, जो ज्ञान की तलाश में यहां ध्यान करते हैं।

“स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान बदरीनाथ की मूर्ति को आदिगुरु शंकराचार्य ने नारद कुंड से बरामद किया था और इस मंदिर में 8 वीं शताब्दी ईस्वी में फिर से स्थापित किया गया था।”

हिंदू परंपरा के अनुसार, बदरीनाथ को अक्सर बदरी विशाल कहा जाता है, जिसे आदि श्री शंकराचार्य ने हिंदू धर्म की खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने और राष्ट्र को एक बंधन में जोड़ने के लिए फिर से स्थापित किया था। यह उन युगों में बनाया गया था जब बौद्ध धर्म हिमालय की सीमा में फैल रहा था और इस बात की चिंता थी कि हिंदू धर्म अपना महत्व और गौरव खो रहा है। इसलिए आदि शंकराचार्य ने हिंदू धर्म की महिमा को वापस लाने के लिए इसे अपने ऊपर ले लिया और शिव और विष्णु के हिंदू देवताओं के लिए हिमालय में मंदिरों का निर्माण किया। बदरीनाथ मंदिर एक ऐसा मंदिर है और कई प्राचीन हिंदू शास्त्रों के पवित्र खातों से समृद्ध है। यह पांडव भाइयों की पौराणिक कहानी हो, द्रौपदी के साथ, बदरीनाथ के पास एक शिखर की ढलान पर चढ़कर, जिसे स्वर्गारोहिणी या ‘स्वर्ग की चढ़ाई’ कहा जाता है, अपने अंतिम तीर्थ पर जा रहे हैं।

प्रसिद्ध स्कंद पुराण में इस स्थान के बारे में और अधिक वर्णन किया गया है, “स्वर्ग में, पृथ्वी पर और नरक में कई पवित्र मंदिर हैं, लेकिन बदरीनाथ जैसा कोई मंदिर नहीं है।”

वामन पुराण के अनुसार, ऋषि नर और नारायण ‘भगवान विष्णु के पांचवें अवतार’ ने यहां तपस्या की थी।

कपिल मुनि, गौतम, कश्यप जैसे महान ऋषियों ने यहां तपस्या की है, भक्त नारद ने मोक्ष प्राप्त किया और भगवान कृष्ण को इस क्षेत्र से प्यार था, आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, श्री माधवाचार्य, श्री नित्यानंद जैसे मध्ययुगीन धार्मिक विद्वान यहां सीखने और शांत चिंतन के लिए आए हैं और बहुत से आज भी करते हैं।

बद्रीनाथ को एक तपोभूमि माना जाता है जहां एक साल की तपस्या हजार साल के ध्यान के बराबर होती है। इसलिए, भगवान शिव और माता पार्वती के आशीर्वाद से नारायण ने इस पहाड़ी मंदिर के पवित्र परिसर में अवतार लिया। जब नर ने ध्यान किया, नारायण ने असुर से लड़ाई की और जब नर ने युद्ध किया, तो नारायण ने तपस्या की। इस प्रकार नौ सौ निन्यानवे शस्त्र नष्ट हो गए। राक्षस ने खुद को सूर्य के चरणों में और विनाश से बचाया, जिसने उसकी रक्षा की। लेकिन, महाभारत युद्ध के दौरान, असुर, कर्ण के रूप में पुनर्जन्म, शेष एकल कवच के साथ, अर्जुन और कृष्ण, नर और नारायण के अवतार के हाथों अपने भाग्य से मिला।

आकर्षण

पंच शिला नारद शिला

नारद जी ने एक पैर पर खड़े होकर साठ हजार वर्षों तक बिना भोजन किए इस चट्टान पर घोर तपस्या की, उन्होंने केवल भोजन के रूप में हवा का सेवन किया इसलिए उन्हें बदरीकाश्रम में भगवान की पूजा करने का वरदान मिला। श्री नारद जी ने भगवान से उनके चरणों में अटूट भक्ति रखने और हमेशा इस नारदशिला के पास रहने के लिए कहा। नारदजी ने भी नारदशिला के नीचे स्थित नारदकुंड में स्नान, मार्जन और दर्शन करके जीवन-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मांगी। भगवान नारदजी से प्रसन्न हुए और नारद को अवेमस्तु का वरदान दिया।

मार्कंडेय शिला

नारदजी से बदरिकाश्रम में तपस्या का फल सुनने के बाद, ऋषि मार्कंडेय बदरिकाश्रम गए और नारद शिला के पास एक शिला (शिला) पर घोर तपस्या की। तीन रातों के बाद ही भगवान ने मार्कंडेय जी को चतुर्भुज रूप में दर्शन दिए। इस चट्टान को मार्कंडेय शिला कहा जाता है, जिस पर तप्तकुंड की गर्म धारा गिरती रहती है। स्कंद पुराण के अनुसार एक बार भगवान बदरीनारायण जी की शालिगाराम शिला भी इसी मार्कंडेय शिला में प्रतिष्ठित थी।

बरही शिला

हिरण्याक्ष, जो एक बार पृथ्वी (पृथ्वी) को रसातल (रसतल) में ले गया था। हिरण्याक्ष के वध के बाद, भगवान बराह बदरिकाश्रम में अलकनंदा में शिला के रूप में निवास करते थे। यह चट्टान बरही शिला के नाम से जानी जाती है और नारद शिला के पास स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इस शिला के पास जप, ध्यान, स्नान, मार्जन, दान आदि करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

गरुड़ शिला

इस चट्टान पर गरुड़ जी ने तीस हजार वर्षों तक तपस्या की और भगवान के वाहन (वाहन) बनने की कामना की, गरुड़ की तपस्या से भगवान ने उन्हें दर्शन दिए। आदि केदारेश्वर मंदिर के पास गरुड़ चट्टान है। इस चट्टान के नीचे तप्तकुंड का गर्म पानी बहता है। इस शिला को स्मृति चिन्ह लगाने मात्र से ही व्यक्ति विष के प्रभाव से मुक्त हो जाता है।

नरसिंह शिला

जब नरसिंह जी ने राक्षस राजा हिरण्यकश्यप का वध किया था। उसके बाद नरसिंह जी के उग्र रूप को देखकर अन्य देवताओं ने शांत होने के लिए उनकी स्तुति की। भगवान नरसिंह अपने क्रोध को शांत करने के लिए बदरीकाश्रम गए जहां उन्होंने अलकनंदा में स्नान किया और फिर उनका क्रोध शांत हो गया। तब बदरीकाश्रम में तपस्वी मुनियों की प्रार्थना पर भगवान नरसिंह ने अलकनंदा में ही शिला रूप में रहना स्वीकार कर लिया। यह चट्टान आज भी अलकनंदा नदी के बीच में सिन्हा आकार के रूप में स्थित है। इस शिला (चट्टान) के दर्शन मात्र से प्राणी (मनुष्य) सभी पापों से मुक्त हो जाता है और वैकुंठ धाम में निवास करता है।

कुंड

तप्तकुंड

तप्तकुंड, जैसा कि नाम से पता चलता है, एक गर्म पानी का झरना है, जो बदरीनाथ मंदिर और अलकनंदा नदी के बीच स्थित है। यह थर्मल स्प्रिंग उत्तराखंड के चमोली जिले के बद्रीनाथ मंदिर में स्थित है। तप्तकुंड एक प्राकृतिक गर्म पानी का झरना है, जिसका तापमान 45 डिग्री है।

नारद कुंडी

नारद कुंड पवित्र शहर बदरीनाथ में सुशोभित है और बद्रीनाथ का दूसरा प्रमुख आकर्षण है। यह एक पवित्र स्थान है जहाँ से आदि शंकराचार्य ने भगवान विष्णु की मूर्ति की खोज की थी। नारद कुंड अलकनंदा नदी में एक खाड़ी है और प्राकृतिक रूप से एक चट्टान से घिरा हुआ है।

अन्य

ब्रह्मा कपाली

अलकनंदा नदी के तट पर स्थित, ब्रह्म कपाल बदरीनाथ में एक ऐसा स्थान है जो हिंदुओं के लिए बहुत महत्व रखता है। यहीं पर वे अपने पूर्वजों की मृत आत्माओं को श्रद्धांजलि देते हैं। यह स्थान बद्रीनाथ की पहाड़ियों से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

शेषनेत्र

बदरीनाथ से कुछ किलोमीटर की दूरी पर शेषनेत्र एक पवित्र स्थान है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु ने अनंत शेष नाम के एक सांप पर शरण ली थी। इस प्रकार शेषनेत्र की यात्रा तीर्थयात्रियों के मन को इस पौराणिक मान्यता की याद दिलाती है।

पंच धारा

पंच धारा पांच जल धाराओं का एक समूह है जो बदरीनाथ से निकलती है। वे हैं: प्रह्लाद धारा, कूर्म धारा, भृगु धारा, उर्वशी धारा और इंदिरा धारा, जिन्हें सामूहिक रूप से बद्रीनाथ में ‘पंच धरा’ के रूप में जाना जाता है।

इन्दिरा धारा इन पाँचों में से सबसे प्रभावशाली धारा है; यह बद्रीनाथ शहर से लगभग 1.5 किमी उत्तर में स्थित है। उर्वशी धारा ऋषि गंगा नदी के दाहिनी ओर है; भृगु धारा कई गुफाओं से होकर गुजरती है। कूर्म धारा का पानी बेहद ठंडा होता है जबकि प्रह्लाद धारा में गुनगुना पानी होता है।

बद्रीनाथ मंदिर में पूजा

भक्तों के कहने पर कई विशेष पूजा (प्रार्थनाएं) की जाती हैं। किसी भी पूजा से पहले तप्त कुंड में डुबकी लगाना अनिवार्य है। सुबह की पूजा के अनुष्ठानों में अभिषेक, गीतापथ, महा अभिषेक और भागवत पथ शामिल हैं, जबकि शाम की पूजा की रस्में आरती और गीत गोविंद हैं। भक्त बद्रीनाथ मंदिर समिति के साथ बद्रीनाथ पूजा के लिए बुकिंग कर सकते हैं। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि आदि शंकराचार्य द्वारा दैनिक अनुष्ठानों और प्रार्थनाओं की प्रक्रिया निर्धारित की गई है।

कुलीनता

उत्तराखंड राज्य के चमोली जिले का श्री बद्रीनाथ धाम, बर्फ से ढकी पर्वत श्रृंखलाओं के बीच उत्तरी भाग में स्थित है। इस धाम का वर्णन स्कंद पुराण, केदारखंड, श्रीमद्भागवत आदि कई धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ऋषि-मुनियों की प्रार्थना सुनकर जब महाबली दानव सहस्रवच के अत्याचार बढ़े तो धर्मपुत्र के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार लिया। नर-नारायण ने माता मूर्ति (दक्ष प्रजापति की पुत्री) के गर्भ से जगत कल्याण के लिए इस स्थान पर तपस्या की थी। भगवान बद्रीनाथ का मंदिर अलकनंदा नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है जहां भगवान बद्रीनाथ जी की शालिग्राम पत्थर की स्वयंभू मूर्ति की पूजा की जाती है। नारायण की यह प्रतिमा चतुर्भुज अर्धपद्मासन ध्यानमग्ना मुद्रा में उकेरी गई है। कहा जाता है कि सतयुग के समय भगवान विष्णु ने नारायण के रूप में यहां तपस्या की थी। यह मूर्ति अनादि काल से है और अत्यंत भव्य और आकर्षक है। इस मूर्ति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जिसने भी इसे देखा, उसमें पीठासीन देवता के अनेक दर्शन हुए। आज भी हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख आदि सभी वर्गों के अनुयायी यहां आते हैं और श्रद्धा के साथ पूजा-अर्चना करते हैं।

इस धाम का नाम बद्रीनाथ क्यों पड़ा इसकी एक पौराणिक कहानी भी है। जब भगवान विष्णु नर-नारायण के बचपन में थे, तो उन्होंने सहस्राकवच राक्षस के विनाश के लिए प्रतिबद्ध किया था। तो देवी लक्ष्मी भी अपने पति की रक्षा में एक बेर के पेड़ के रूप में प्रकट हुईं और भगवान को ठंड, बारिश, तूफान, बर्फ से बचाने के लिए, बेर के पेड़ ने नारायण को चारों ओर से ढक दिया। बेर के पेड़ को बद्री भी कहा जाता है। इसलिए इस स्थान को बद्रीनाथ कहा जाता है। सतयुग में यह क्षेत्र मुक्तिप्रदा, त्रेतायुग योग सिद्धिदा, द्वापरयुग विशाल और कलियुग बद्रीकाश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पुराणों में एक कथा है कि जब भगवान विष्णु ने द्वापरयुग में इस क्षेत्र को छोड़ना शुरू किया था,

उसके बाद अन्य देवताओं ने विधिवत इस दिव्य मूर्ति को नारदकुंड से हटाकर भैरवी चक्र के केंद्र में स्थापित कर दिया। देवताओं ने भी भगवान की नियमित पूजा की व्यवस्था की और नारदजी को उपासक के रूप में नियुक्त किया गया। आज भी ग्रीष्मकाल में मनुष्य द्वारा छह माह तक भगवान विष्णु की पूजा की जाती है और जाड़ों में छह माह के दौरान जब इस क्षेत्र में भारी हिमपात होता है तो भगवान विष्णु की पूजा स्वयं भगवान नारदजी करते हैं। ऐसा माना जाता है कि सर्दियों में मंदिर के कपाट बंद होने पर भी अखंड ज्योति जलती रहती है और नारदजी पूजा और भोग की व्यवस्था करते हैं। इसलिए आज भी इस क्षेत्र को नारद क्षेत्र कहा जाता है। छह महीने बाद जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो मंदिर के अंदर अखंड ज्योति जलती है,

श्री बद्रीनाथ में पवित्र स्थान धर्मशिला, मातामूर्ति मंदिर, नारनारायण पर्वत और शेषनेत्र नामक दो तालाब आज भी मौजूद हैं जो दानव सहस्रकवच के विनाश की कहानी से जुड़े हैं। भैरवी चक्र की रचना भी इसी कहानी से जुड़ी है। इस पवित्र क्षेत्र को गंधमदान, नारनारायण आश्रम के नाम से जाना जाता था। मणिभद्रपुर (वर्तमान माणा गांव), नरनारायण और कुबेर पर्वतों को दैनिक दिनचर्या के नियमों और अनुष्ठानों के रूप में पूजा जाता है। श्री बद्रीनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी दक्षिण भारत के मलावर क्षेत्र के आदिशंकराचार्य के वंशजों में सर्वोच्च क्रम के शुद्ध नंबूदरी ब्राह्मण हैं। इस प्रमुख पुजारी को रावल जी के नाम से जाना जाता है।

बद्रीनाथ घूमने का सबसे अच्छा समय

अपनी ऊंचाई और स्थान के कारण, बद्रीनाथ मंदिर छह महीने की संक्षिप्त अवधि के लिए भक्तों के लिए खुला रहता है। उत्तराखंड में इस पवित्र हिंदू मंदिर के कपाट खोलने के लिए अप्रैल के अंत या मई के महीने की शुरुआत को चुना जाता है। मंदिर दीवाली के ठीक बाद बंद हो जाता है और इसके देवता को अगले छह महीनों के लिए जोशीमठ में आराम करने के लिए लाया जाता है। इसलिए बद्रीनाथ धाम की यात्रा करने का सबसे अच्छा समय अप्रैल से नवंबर के बीच है जिसमें अप्रैल से मध्य जून और अक्टूबर से मध्य नवंबर सबसे आदर्श समय है।

बद्रीनाथ मंदिर के कपाट  खुलने और बंद होने का समय

बदरीनाथ धाम के कपाट खुलने की तिथि बसंत पंचमी को पंचाग गणना के बाद विधि-विधान से तय होता है और आमतौर पर, सर्दियों के आगमन पर मंदिर के दरवाजे अक्टूबर-नवंबर (विजयदशमी पर तारीखें तय की जाती हैं) के आसपास बंद कर दिए जाते हैं।

बद्रीनाथ मंदिर में दर्शन का समय

बद्रीनाथ मंदिर पुजारियों के लिए महा अभिषेक और अभिषेक पूजा करने के लिए सुबह 4.30 बजे खुलता है। शायन (शाम) आरती के बाद मंदिर का कपाट रात 8.30 बजे से रात 9 बजे के बीच बंद होता है। मंदिर भक्तों के दर्शन के लिए सुबह 7.00 बजे से 8.00 बजे के बीच खुलता है मंदिर दोपहर में 1.00 बजे से शाम 4.00 बजे तक बंद रहता है

हिन्दुओं के चार धाम तीर्थ स्थल के नाम हैं- बद्रीनाथ, द्वारिका, जगन्नाथ और रामेश्‍वरम। ये चार धाम प्रमुख है, लेकिन जब व्यक्ति बद्रीनाथ दर्शन करने जाता है तो उसे गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ के दर्शन भी करना चाहिए। इन चारों को मिलाकर छोटा चार धाम कहा गया है।

 बद्रीनाथ मंदिर के रोचक तथ्य

1.केदारनाथ को जहां भगवान शंकर का आराम करने का स्थान माना गया है वहीं बद्रीनाथ को सृष्टि का आठवां वैकुंठ कहा गया है, जहां भगवान विष्णु 6 माह निद्रा में रहते हैं और 6 माह जागते हैं। यहां बदरीनाथ की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। यहां नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है।

2.बद्रीनाथ का नाम इसलिए बद्रीनाथ है क्योंकि यहां प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली जंगली बेरी को बद्री कहते हैं। इसी कारण इस धाम का नाम बद्री पड़ा। यहां भगवान विष्णु का विशाल मंदिर है और यह संपूर्ण क्षेत्र प्राकृति की गोद में स्थित है।

3.केदार घाटी में दो पहाड़ हैं- नर और नारायण पर्वत। विष्णु के 24 अवतारों में से एक नर और नारायण ऋषि की यह तपोभूमि है। उनके तप से प्रसन्न होकर केदारनाथ में शिव प्रकट हुए थे। दूसरी ओर बद्रीनाथ धाम है जहां भगवान विष्णु विश्राम करते हैं। कहते हैं कि सतयुग में बद्रीनाथ धाम की स्थापना नारायण ने की थी। भगवान केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन के बाद बद्री क्षेत्र में भगवान नर-नारायण का दर्शन करने से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे जीवन-मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है। इसी आशय को शिवपुराण के कोटि रुद्र संहिता में भी व्यक्त किया गया है।

4.पुराणों अनुसार भूकंप, जलप्रलय और सूखे के बाद गंगा लुप्त हो जाएगी और इसी गंगा की कथा के साथ जुड़ी है बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थस्थल की रोचक कहानी। भविष्य में नहीं होंगे बद्रीनाथ के दर्शन, क्योंकि माना जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, बद्रीनाथ का मार्ग पूरी तरह बंद हो जाएगा। भक्त बद्रीनाथ के दर्शन नहीं कर पाएंगे। पुराणों अनुसार आने वाले कुछ वर्षों में वर्तमान बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे और वर्षों बाद भविष्य में भविष्यबद्री नामक नए तीर्थ का उद्गम होगा। यह भी मान्यता है कि जोशीमठ में स्थित नृसिंह भगवान की मूर्ति का एक हाथ साल-दर-साल पतला होता जा रहा है। जिस दिन यह हाथ लुप्त हो जाएगा उस दिन ब्रद्री और केदारनाथ तीर्थ स्थल भी लुप्त होना प्रारंभ हो जाएंगे।

5.मंदिर में बदरीनाथ की दाहिनी ओर कुबेर की मूर्ति भी है। उनके सामने उद्धवजी हैं तथा उत्सवमूर्ति है। उत्सवमूर्ति शीतकाल में बरफ जमने पर जोशीमठ में ले जाई जाती है। उद्धवजी के पास ही चरणपादुका है। बायीं ओर नर-नारायण की मूर्ति है। इनके समीप ही श्रीदेवी और भूदेवी है।

6.भगवान विष्णु की प्रतिमा वाला वर्तमान मंदिर 3,133 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और माना जाता है कि आदि शंकराचार्य, आठवीं शताब्दी के दार्शनिक संत ने इसका निर्माण कराया था। इसके पश्चिम में 27 किमी की दूरी पर स्थित बद्रीनाथ शिखर कि ऊंचाई 7,138 मीटर है। बद्रीनाथ में एक मंदिर है, जिसमें बद्रीनाथ या विष्णु की वेदी है। यह 2,000 वर्ष से भी अधिक समय से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान रहा है।

7. बद्रीनाथ में अन्य कई प्राचीन स्थल हैं। जैसे अलकनंदा के तट पर स्थित अद्भुत गर्म झरना जिसे ‘तप्त कुंड’ कहा जाता है। एक समतल चबूतरा जिसे ‘ब्रह्म कपाल’ कहा जाता है। पौराणिक कथाओं में उल्लेखित एक ‘सांप’ शिल्ला है। शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड ‘शेषनेत्र’ है। भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं- ‘चरणपादुका’। बद्रीनाथ से नजर आने वाला बर्फ से ढंका ऊंचा शिखर नीलकंठ, जो ‘गढ़वाल क्वीन’ के नाम से जाना जाता है।

8.पौराणिक कथाओं और यहां की लोक कथाओं के अनुसार यहां नीलकंठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतरण किया था। कहते हैं कि भगवान विष्णुजी अपने ध्यानयोग और विश्राम हेतु एक उपयुक्त स्थान खोज रहे थे और उन्हें अलकनंदा नदी के समीप यह स्थान बहुत भा गया। उस वक्त यह स्थान भगवान शंकर और पार्वती का निवास स्थान था। ऐसे में विष्णु के एक युक्ति सोची।

एक दिन शिव और पार्वती भ्रमण के लिए बाहर निकले और जब वे वापस लौटे तो उन्होंने द्वार पर एक नन्हे शिशु को रोते हुए देखा। माता पार्वती की ममता जाग उठी। वह उस शिशु को उठाने लगी तभी शिव ने रोका और कहा कि उस शिशु को मत छुओ। पार्वती ने पूछा क्यों? शिव बोले यह कोई अच्छा शिशु नहीं है। सोचो यह यहां अचानक कैसे और कहां से आ गया? दूर तक कोई इसके माता पिता नजर नहीं आते। यह कोई बच्चा नहीं बल्की मायावी लगता है।

लेकिन माता पार्वती नहीं मानी और वह बच्चे को उठाकर घर के अंदर ले गई। पार्वती ने बच्चे को चुप कराया और उसे दूध पिलाया। फिर वह बच्चे को वहीं सुलाकर शिव के साथ नजदीक के एक गर्म झरने में स्नान करने के लिए चली गई। जब वे दोनों वापस लौटे तो उन्होंने देखा की घर का दरवाजा अंदर से बंद था।

पार्वती ने शिव से कहा कि अब हम क्या करें? शिव ने कहा कि यह तुम्हारा बालक है। मैं कुछ नहीं कर सकता। अच्छा होगा कि हम कोई नया ठिकाना ढूंढ लें, क्योंकि अब दरवाज नहीं खुलने वाला है और मैं बलपूर्वक इस दरवाजे को नहीं खोलूंगा। कहते हैं कि शिव और पार्वती वह स्थान छोड़कर केदारनाथ चले गए और वह बालक जो भगवान विष्णु थे वहीं जमे रहे। इस तरह भगवान विष्णु ने जबरन बद्रीनाथ को अपना विश्राम स्थान बना लिया।

9.जब भगवान विष्णु ध्यानयोग में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु और उनका घर हिम में पूरी तरह डूबने लगा। यह देखकर माता लक्ष्मी का व्याकुल हो उठी। तब उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर (बदरी) के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जाएगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बदरी के नाथ (बदरीनाथ) के नाम से जाना जाएगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा।

10.चार धाम में से एक बद्रीनाथ के बारे में एक कहावत प्रचलित है कि ‘जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी’। अर्थात जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है, उसे पुन: उदर यानी गर्भ में नहीं आना पड़ता है। मतलब दूसरी बार जन्म नहीं लेना पड़ता है। शास्त्रों के अनुसार मनुष्‍य को जीवन में कम से कम दो बार बद्रीनाथ की यात्रा जरूर करना चाहिए।

पंच बद्री का विस्तृत परिचय

बद्रीनाथ मंदिर पांच संबंधित मंदिरों में से एक है जिसे पंच बद्री कहा जाता है , जो विष्णु की पूजा के लिए समर्पित हैं। पांच मंदिर विशाल बद्री हैं – बद्रीनाथ में बद्रीनाथ मंदिर, पांडुकेश्वर में स्थित योगध्यान बद्री , सुबैन में ज्योतिर्मठ से 17 किमी (10.6 मील) की दूरी पर स्थित भविष्य बद्री, एनिमठ में ज्योतिर्मठ से 7 किमी (4.3 मील) की दूरी पर स्थित वृद्ध बद्री और आदि। बद्री कर्णप्रयाग से 17 किमी (10.6 मील) दूर स्थित है । मंदिर को सबसे पवित्र हिंदू चार धाम (चार दिव्य) स्थलों में से एक माना जाता है, जिसमें रामेश्वरम, बद्रीनाथ, पुरी और द्वारका शामिल हैं । हालांकि मंदिर की उत्पत्ति स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है, अद्वैतआदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित हिंदू धर्म के स्कूल ने द्रष्टा को चार धाम की उत्पत्ति का श्रेय दिया है। चार मठ भारत के चारों कोनों में स्थित हैं और उनके परिचर मंदिर उत्तर में बद्रीनाथ में बद्रीनाथ मंदिर, पूर्व में पुरी में जगन्नाथ मंदिर , पश्चिम में द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर और रामेश्वरम , तमिलनाडु में रामेश्वरम हैं। दक्षिण। हैं

यद्यपि वैचारिक रूप से मंदिरों को हिंदू धर्म के संप्रदायों के बीच विभाजित किया गया है, अर्थात् शैववाद और वैष्णववाद , चार धाम तीर्थयात्रा एक अखिल हिंदू मामला है। हिमालय में चार धाम हैं जिन्हें छोटा चार धाम ( छोटा अर्थ छोटा) कहा जाता है: बद्रीनाथ, केदारनाथ , गंगोत्री और यमुनोत्री- ये सभी हिमालय की तलहटी में स्थित हैं। छोटा नाम 20वीं शताब्दी के मध्य में मूल चार धामों में अंतर करने के लिए जोड़ा गया था। आधुनिक समय में इन स्थानों पर तीर्थयात्रियों की संख्या बढ़ने के कारण इसे हिमालय चार धाम कहा जाता है।

भारत में चार प्रमुख बिंदुओं की यात्रा को हिंदुओं द्वारा पवित्र माना जाता है, जो अपने जीवन में एक बार इन मंदिरों में जाने की इच्छा रखते हैं। परंपरागत रूप से, तीर्थयात्रा पूर्वी छोर पर पुरी से शुरू होती है, जो आमतौर पर हिंदू मंदिरों में परिक्रमा के लिए दक्षिणावर्त चलती है।

पंच बद्री भगवान विष्णु को समर्पित हिंदू मंदिर हैं। इन मंदिरों, अर्थात् विशाल बद्री (बद्रीनाथ), वृद्ध बद्री, आदि बद्री, योगधन बद्री और भविष्य बद्री को विष्णु का निवास माना जाता है। इन पांच मंदिरों में पांच अलग-अलग नामों से भगवान बद्रीनाथ की पूजा की जाती है। हिंदुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल, सतोपंथ से नंदप्रयाग तक शुरू होने वाले क्षेत्र को बद्री-क्षेत्र के रूप में भी जाना जाता है।

विशाल बद्री

 यह मुख्य श्री बद्री नारायण मंदिर को संदर्भित करता है जिसे हिंदुओं द्वारा बहुत पवित्र माना जाता है। चमोली जिले में स्थित, यह 108 दिव्य देशम, या विष्णु के मंदिरों में गिना जाता है।

योगथ्यन बद्री

बद्री नाथ से 24 किलोमीटर और जोशीमठ से 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित, योगथ्यन बद्री को वह स्थान माना जाता है जहां महाराज पांडु (पांडवों के पिता) ने पांडुकेश्वर से प्रार्थना की थी। इसका नाम भगवान विष्णु की एक मूर्ति के नाम पर पड़ा है, जिसे यहां ध्यान मुद्रा में प्रदर्शित किया गया है।

भविष्य बद्री

यह जोशीमठ से लगभग 17 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव है। जैसा कि नाम से पता चलता है, इसे भविष्य का बद्रीनाथ (प्रमुख विष्णु तीर्थ) माना जाता है। जब दुनिया पूरी तरह से बुराई से घिर जाएगी, बद्रीनाथ हर किसी के लिए दुर्गम हो जाएगा।

प्रीता बद्री

यह अनिमठ नामक स्थान पर स्थित है, जो जोशीमठ से 17 किमी दूर है। माना जाता है कि आदि शंकर ने यहां कुछ समय के लिए भगवान बद्रीनाथ की पूजा की थी। ऐसा माना जाता है कि यह वह स्थान है जहां भगवान विष्णु एक बूढ़े व्यक्ति के रूप में ऋषि नारद के सामने प्रकट हुए थे, जब वे एक गंभीर तपस्या कर रहे थे। इसलिए, यह उनके नाम पर रखा गया था।

आदि बद्री

यह कर्णप्रयाग से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां गुप्त राजवंश के कई मंदिर मिल सकते हैं; इन मंदिरों में से मन नारायणन मंदिर सबसे लोकप्रिय है। मंदिर के पीठासीन देवता भगवान विष्णु हैं, और मंदिर के अंदर काले पत्थर में उकेरी गई उनकी एक मूर्ति है। उन्हें एक गदा, कमल चक्र लेकर दिखाया गया है।

बद्रीनाथ में और उसके आसपास घूमने के लिए सबसे अच्छी जगह

वसुधारा जलप्रपात

 वसुधारा जलप्रपात बद्रीनाथ से 9 किमी दूर स्थित है। भीषण जलप्रपात में लगभग 400 फीट की एक बूंद है और अलकनंदा नदी में मिलती है। वसुंधरा अपनी शांत सुंदरता के कारण लंबी पैदल यात्रा के शौकीनों के बीच लोकप्रिय है। दूरदराज के स्थान तक पहुंचने के लिए पर्यटक माणा गांव से 6 किमी की दूरी तय कर सकते हैं। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि केवल वे लोग जो किसी भी अपराध या बीमार इच्छा से रहित हैं, वे ही झरने की सुंदरता का आनंद ले सकते हैं।

पंच धारा

 पंच धारा पांच धाराओं के समूह को संदर्भित करती है जो बद्रीनाथ से निकलती हैं। प्रह्लाद धारा, उर्वशी धारा, कूर्म धारा और इंदिरा धारा में पंच धाराएं शामिल हैं। भृगु धारा कई गुफाओं से होकर गुजरती है, जबकि प्रह्लाद धारा में गर्म पानी है। वे जिस स्थान पर मिलते हैं, उसे हिंदुओं द्वारा शुभ माना जाता है।

व्यास गुफा

बद्रीनाथ से कुछ किलोमीटर की दूरी पर चमोली में स्थित व्यास गुफा एक प्राचीन गुफा है। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि हिंदू महाकाव्य महाभारत की रचना ऋषि व्यास ने भगवान गणेश की सहायता से इसी गुफा में की थी।

नीलकंठ चोटी

पर्वतारोहियों के बीच लोकप्रिय, नीलकंठ गढ़वाल डिवीजन की एक प्रमुख चोटी है, जो हिमालय का एक हिस्सा है। गढ़वाल रानी के रूप में जानी जाने वाली, बर्फ से ढकी पहाड़ बद्रीनाथ से 11398 फीट ऊपर है।

पांडुकेश्वर

जोशीमठ से 18 किमी दूर स्थित पांडुकेश्वर को महाभारत काल का पवित्र स्थल माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि राजा पांडु (पांडवों के पिता) ने यहां भगवान शिव की पूजा की थी। आज, दो प्रसिद्ध मंदिर हैं, अर्थात्, योग ध्यान बद्री मंदिर (जो उत्सव-मूर्ति को समर्पित है) और भगवान वासुदेव मंदिर, जिसे आमतौर पर पांडवों द्वारा बनाया गया माना जाता है।

माना गांव

भारत और तिब्बत/चीन के बीच सीमा के पास अंतिम भारतीय गांव के रूप में जाना जाता है, माना चमोली जिले में बद्रीनाथ से 3 किमी दूर स्थित है। उत्तराखंड सरकार ने माना को ‘पर्यटन गांव’ के रूप में मान्यता दी है। हिमालय में बसा यह सुंदर गांव समुद्र तल से 3219 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और सरस्वती नदी के तट पर स्थित है।

बद्रीनाथ मंदिर में त्योंहार और धार्मिक प्रथाएं

बद्रीनाथ मंदिर में आयोजित सबसे प्रमुख त्योहार माता मूर्ति का मेला है, जो गंगा नदी के धरती पर अवतरण की याद दिलाता है। बद्रीनाथ की मां, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने सांसारिक प्राणियों के कल्याण के लिए नदी को बारह चैनलों में विभाजित किया था, त्योहार के दौरान उनकी पूजा की जाती है। जिस स्थान पर नदी बहती थी ,वह बद्रीनाथ की पवित्र भूमि बन गई।

बद्रीनाथ केदारनाथ त्योहार जून के महीने में मंदिर और केदारनाथ मंदिर दोनों में मनाया जाता है । त्योहार आठ दिनों तक चलता है; समारोह के दौरान देश भर के कलाकार प्रस्तुति देते हैं।

हर सुबह की जाने वाली प्रमुख धार्मिक गतिविधियों (या पूजा ) में महाभिषेक (स्नान), अभिषेक , गीतापथ और भगवत पूजा होती है , जबकि शाम को पूजा में गीत गोविंदा और आरती शामिल हैं । सभी अनुष्ठानों के दौरान अष्टोत्रम और सहस्रनाम जैसी वैदिक लिपियों में पाठ का अभ्यास किया जाता है। आरती के बाद बद्रीनाथ की छवि से सजावट हटा दी जाती है और उस पर चंदन का लेप लगाया जाता है। छवि से पेस्ट अगले दिन भक्तों को निर्मलया दर्शन के दौरान प्रसाद के रूप में दिया जाता है. सभी अनुष्ठान भक्तों के सामने किए जाते हैं, कुछ हिंदू मंदिरों के विपरीत, जहां कुछ प्रथाएं उनसे छिपी होती हैं। चीनी के गोले और सूखे पत्ते भक्तों को दिया जाने वाला आम प्रसाद है। मई 2006 से, स्थानीय रूप से तैयार और स्थानीय बांस की टोकरियों में पैक पंचामृत प्रसाद चढ़ाने की प्रथा शुरू की गई थी।

मंदिर भत्रिद्वितिया के शुभ दिन या बाद में अक्टूबर-नवंबर के दौरान सर्दियों के लिए बंद रहता है। अखंड ज्योति के समापन के दिन, घी से भरा एक दीपक छह महीने तक चलने के लिए जलाया जाता है। उस दिन मुख्य पुजारी द्वारा तीर्थयात्रियों और मंदिर के अधिकारियों की उपस्थिति में विशेष पूजा की जाती है। बद्रीनाथ की छवि को इस अवधि के दौरान मंदिर से 40 मील (64 किमी) दूर ज्योतिर्मठ में नरसिंह मंदिर में स्थानांतरित कर दिया गया है। मंदिर अप्रैल-मई के आसपास अक्षय तृतीया पर फिर से खोला जाता है , एक और शुभ दिन हिंदू कैलेंडर तीर्थयात्री सर्दियों के बाद मंदिर के खुलने के पहले दिन अखंड ज्योति को देखने के लिए इकट्ठा होते हैं ।

मंदिर उन पवित्र स्थानों में से एक है जहां हिंदू पुजारियों की मदद से पूर्वजों को आहुति देते हैं।  गर्भगृह में बद्रीनाथ की छवि के सामने पूजा करने के लिए भक्त मंदिर जाते हैं और अलकनंदा नदी में पवित्र डुबकी लगाते हैं। आम धारणा यह है कि तालाब में डुबकी लगाने से आत्मा शुद्ध होती है।

आवागमन

बद्रीनाथ जाने के लिए तीन ओर से रास्ता है। रानीखेत से, कोटद्वार होकर पौड़ी (गढ़वाल) से ओर हरिद्वार होकर देवप्रयाग से। ये तीनों रास्ते कर्णप्रयाग में मिल जाते है। राष्ट्रीय राजमार्ग ७ बद्रीनाथ से होकर गुजरता है। यह राजमार्ग पंजाब के फाजिल्का नगर से शुरू होकर भटिण्डा और पटियाला से होता हुआ हरियाणा के पंचकुला, हिमाचल प्रदेश के पाओंटा साहिब और उत्तराखण्ड के देहरादून, ऋषिकेश, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, चमोली तथा जोशीमठ इत्यादि नगरों से होते हुए बद्रीनाथ पहुँचता है, और यहां से आगे बढ़ते हुए भारत-चीन सीमा पर स्थित ग्राम माणा में पहुंचकर समाप्त हो जाता है।केदारनाथ की ओर से भी गौरीकुंड से गुप्तकाशी, चोक्ता (चोटवा), गोपेश्वर और जोशीमठ होते हुए सड़क मार्ग को लगभग २२१ किमी की दूरी तय कर बद्रीनाथ मन्दिर तक पहुंचा जा सकता है।

कभी हरिद्वार से इस यात्रा में महीनों लग जाते थे, परन्तु अब बेहतर सड़क मार्ग बन जाने के कारण हफ्ते-भर से भी कम समय में ही यह यात्रा हो जाती है। जोशीमठ से बद्रीनाथ की दूरी लगभग ५० किलोमीटर है। यहाँ से १२ किलोमीटर की दूरी पर विष्णुप्रयाग है, जहाँ अलकनंदा और धौलीगंगा नदियों का संगम होता है। विष्णुप्रयाग से लगभग १० किमी दूर गोविन्दघाट है, जहाँ से एक रास्ता सीधा बद्रीनाथ को जाता है, और दूसरा घांघरिया होते हुए फूलों की घाटी एवं हेमकुंट साहिब को जाता है। गोविन्दघाट से मात्र ३ किमी की दूरी पर पांडुकेश्वर है। पांडुकेश्वर से १० किमी आगे हनुमानचट्टी, और वहां से ११ किमी की दूरी पर स्थित है बद्रीनाथ।

बद्रीनाथ जाने के लिये परमिट की जरुरत पडती है, जो कि जोशीमठ के एसडीएम द्वारा बनाया जाता है। इसे जोशीमठ से बद्रीनाथ के बीच में ट्रैफिक कंट्रोल के लिए लागू किया जाता है। रास्ते में ट्रैफिक बहुत होने के कारण से बेरियर लगाए जाते है और इस परमिट के माध्यम से ही पुलिस ट्रैफिक कंट्रोल करती है। २०१२ में, मन्दिर प्रशासन ने मन्दिर के आगंतुकों के लिए एक टोकन प्रणाली की शुरुआत की। टोकन स्टैंड में लगे तीन स्टालों से यात्रा के समय को इंगित करने वाले टोकन प्रदान किए जाते हैं। प्रत्येक भक्त को गर्भगृह का दौरा करने के लिए १०-२० सेकंड आवंटित किया जाता है। मन्दिर में प्रवेश करने के लिए पहचान का प्रमाण साथ होना अनिवार्य है।

Reference

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संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे | kabir ke dohe in hindi

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संत कबीर दास  जी ने समाज को एक नई दिशा प्रदान की उनके दोहे आज भी पथप्रदर्शक के रूप में प्रासंगिक है

उनके द्वारा बताये रास्ते पर चलकर ब्रह्म तक पहुँचा जा सकता है ।वे निर्गुन ब्रह्म के उपासक थे हिंदूमुस्लिम एकता के समर्थक थे

लेकिन उन्होंने दोनों ही धर्मो के रूढ़िवाद और अंधविश्वास का जमकर विरोध किया

एक तरफ तो उन्होंनेढाई आखर प्रेम का  पढै सो पंडित होय ‘ 

आपसी भाई चारे और प्रेम का सन्देश दिया तो दूसरी ओर एक क्रांतिकारी  विचारक के रूप दृष्टिगत होते है :

कबिरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठा हाथ, जो घर फूंके आपना ,चले हमारे साथ

अर्थात स्वयं के स्वार्थ  को त्याग कर ही व्यक्ति अपना और समाज का उत्थान कर सकता है

कबीर जी ने अपने जीवन काल में बहुत सारी चीजे अनुभव किये और उन्हें दोहे के माध्यम से कहा है।

कबीरदास का जीवन परिचय (Kabir das jivan parichay)

संत कबीर दास जी के प्रसिद्ध दोहे :

कस्तूरी कुंडल बसे,मृग ढूँढत बन माही।
ज्योज्यो घटघट राम है,दुनिया देखें नाही ।।

अर्थ : कबीर दास जी ईश्वर की महत्ता बताते हुये कहते है कि कस्तूरी हिरण की नाभि में होता है ,लेकिन इससे वो अनजान हिरन उसके सुगन्ध के कारण पूरे जगत में  ढूँढता फिरता है ।ठीक इसी प्रकार से ईश्वर भी प्रत्येक मनुष्य  के ह्रदय में निवास करते है ,परन्तु मनुष्य इसें नही देख पाता वह ईश्वर को मंदिर ,मस्जिद, और तीर्थस्थानों में ढूँढता रहता है

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यह शरीर विष से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान है। यदि आपको अपना सर अर्पण करके भी सच्चा गुरु मिलता है, तो भी यह सौदा बहुत सस्ता है।

जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि।
सब अँधियारा मिटि गया, दीपक देख्या माहि।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मेरे अंदरमैंअर्थात अहंकार का भाव था तब तक परमात्मा मुझसे दूर थे, अब जब मेरे अंदर सेमैंअर्थात अहंकार हो गया है तो परमात्मा मुझे मिल गए हैं। जब मैंने ज्ञान रूपी दीपक के उजाले में अपने अंदर देखा तो मेरे अंदर व्याप्त अहंकार रूपी अँधेरे का नाश हो गया। कहने का तात्पर्य यह है कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए अहंकार का त्याग आवश्यक है।

मेरा मुझमे कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मोर।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मुझमे मेरा कुछ भी नहीं है, जो कुछ है वो सब तेरा (परमात्मा का) है। यदि परमात्मा का परमात्मा को सौंप दिया जाये तो मेरा क्या है। भाव यह है कि मनुष्य अपने अहंकार में हमेशा मेरामेरा करता रहता है जबकि उसका कुछ भी नहीं हैं सब परमात्मा का है।

कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं।
गले राम की जेवड़ी, जित कैंचे तित जाउं।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो राम का कुत्ता हूँ और मोती मेरा नाम है। मेरे गले में राम नाम की जंजीर है, जिधर वह ले जाता है मैं उधर ही चला जाता हूँ।

कबीरा आप ठगाइये, और ठगिये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय।।

अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि आप यदि ठगे जाते हैं तो कोई बात नहीं। लेकिन आप किसी को ठगने का प्रयास मत कीजिये। यदि आप ठगे जाते हैं तो आपको सुख का अनुभव होता है क्योंकि आपने कोई अपराध नहीं किया है। लेकिन यदि आप किसी और को ठगते हैं तो आप अपराध करते हैं जिससे आपको दुःख ही होता

माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया
जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया ।।

अर्थ: – लोग पूजा पाठ में आडंबर और दिखावा करते है, मसलन साप की पूजा करने के लिए वे माटी का साप बनाते है। लेकिन वास्तव में जब वही साप उसके घर चला आता है तो उसे लाठी से पिट पिट कर मार दिया जाता है। अथार्थ कबीर जी पूजा की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए संदेश देते है कि दिखावे के पूजे से कोई लाभ नहीं। दिखावे के पूजे से मन को झूठी तसल्ली दी जा सकती है, ईश्वर की प्राप्ति नहीं की जा सकती।

मल मल धोए शरीर को, धोए मन का मैल
नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल ।।

अर्थ: – कबीर जी कहते है कि लोग शरीर का मैल अच्छे से मल मल कर साफ़ करते है किन्तु मन का मैल कभी साफ़ नहीं करते। वे गंगा और गोमती जैसे नदी में नाहा कर खुद को पवित्र मानते है परन्तु वे मुर्ख के मुर्ख ही रहते है।

अथार्थ जब तक कोई व्यक्ति अपने मन का मेल साफ़ नहीं करता तब तक वो कभी एक सज्जन नहीं बन सकता फिर चाहे वो कितना ही गंगा और गोमती जैसे पवित्र नदी में नाहा ले वो मुर्ख का मुर्ख ही रहेगा।

जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप
जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप

 अर्थ  जहाँ दया है वहीं धर्म है और जहाँ लोभ है वहाँ पाप है, और जहाँ क्रोध है वहाँ काल (नाशहै और जहाँ क्षमा है वहाँ स्वयं भगवान होते हैं

संत ना छोड़े संतई ,कोटिक मिले असंत
चन्दन विष व्यापत नही, लिपटे रहत भुजंग ।।

अर्थ : सज्जन व्यक्ति को चाहे करोड़ो दुष्ट पुरुष मिल जाये फिर भी वह अपने सभ्य विचार ,सद्गुण नहीं छोड़ता जिस प्रकार चंदन के पेड़ से साँप लिपटें रहते है फिर भी वह अपनी शीतलता नही छोड़ता

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ ख़जूर
पंछी को छाया नही फल लागे अति दूर ।।

अर्थ : ख़जूर के पेड़ के समान बड़े होने से क्या लाभ , जो ठीक से किसी को छांव दे पाता है और ही उसके फल आसानी से उपलब्ध हो पाते है उनके अनुसार ऐसे बड़े होने का क्या फ़ायदा जब वो किसी की सहायता करता हो या  फिर उसके अंदर इंसानियत   हो

दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे कोय
जो सुख में सुमिरन करे, दुख कहे को होय ।।

अर्थ कबीर दास जी कहते हैं की दु : में तो परमात्मा को सभी याद करते हैं लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। जो इसे सुख में याद करे तो फिर दुख हीं क्यों हो

तिनका कबहूँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय
कबहूँ उड़ आँखों मे पड़े, पीर घनेरी होय ।।

अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि हमें कभी भी किसी मनुष्य का छोटा या बड़ा नहीं समझना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार एक तिनका छोटा होकर भी यदि वह उड़कर आपकी आँखों में चला जाए तो बहुत तकलीफ देता है

माला फेरत जुग भया, फिरा मन का फेर
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ।।

अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि माला फेरतेफेरते युग बीत गया तब भी मन का कपट दूर नहीं हुआ है हे मनुष्य ! हाथ का मनका छोड़ दे और अपने मन रूपी मनके को फेर, अर्थात मन का सुधार कर लें।

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताय ।।

अर्थ:हमारे सामने गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ खड़े है तो आप किसके चरणस्पर्श करेगे ।गुरु ने अपने ज्ञान के द्वारा हमे ईश्वर से मिलने का रास्ता बताया है ।इसलिए गुरु की महिमा ईश्वर से भी ऊपर है ।अतः हमे गुरु का चरणस्पर्श करना चाहिए

पानी कर बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिन छिप जायेगा, ज्यो तारा प्रभात ।।

अर्थ :जैसे पानी का बुलबुला कुछ ही पलो में नष्ट हो जाता है ,उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी क्षणभंगुर है जैसे सुबह होते ही तारे छिप जाते है वैसे ही शरीर भी एक दिन नष्ट हो जायेगा

करता रहा सो क्यों रहा,अब करी क्यों पछताय
बोया पेड़ बबुल का, अमुआ कहा से पाये ।।

अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि जब  तू बुरे कार्यो को करता था ,संतो के समझाने से भी नही समझ पाया तो अब क्यों पछता रहा है ।जब तूने काँटों वाले बबुल का पेड़ बोया है तो बबूल ही उत्पन्न होंगे ।आम कहाँ से मिलेगा अर्थात जो मनुष्य जैसा कर्म करता है बदले में उसको वैसा ही परिणाम मिलता है

कबीर माला मनहि कि, और संसारी भीख
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख

अर्थ कबीरदास ने कहा है कि माला तो मन कि होती है बाकी तो सब लोक दिखावा है अगर माला फेरने से ईश्वर मिलता हो तो रहट के गले को देख, कितनी बार माला फिरती है मन की माला फेरने से हीं परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है

सुख में सुमिरन किया, दु: में किया याद
कह कबीरा ता दास की, कौन सुने फ़रियाद

अर्थ सुख में तो कभी याद किया नहीं और जब दुख आया तब याद करने लगे, कबीर दास जी कहते हैं की उस दास की प्रार्थना कौन सुनेगा

साई इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय
मै भी भूखा रहूँ, साधू भूखा जाय

अर्थ कबीर दास जी ने ईश्वर से यह प्रार्थना करते हैं की हे परमेश्वर तुम मुझे इतना दो की जिसमे परिवार का गुजारा हो जाय मुझे भी भूखा रहना पड़े और कोई अतिथि अथवा साधू भी मेरे द्वार से भूखा लौटे

लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट

अर्थ कबीरदास जी ने कहा है की हे प्राणी, चारो तरफ ईश्वर के नाम की लूट मची है, अगर लेना चाहते हो तो ले लो, जब समय निकल जाएगा तब तू पछताएगा अर्थात जब तेरे प्राण निकल जाएंगे तो भगवान का नाम कैसे जप पाएगा

जाति पुछो साधू की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान

अर्थ ज्ञान का महत्व धर्म से कही ज्यादा ऊपर है इसलिए किसी भी सज्जन के धर्म को किनारे रख कर उसके ज्ञान को महत्व देना चाहिए। कबीर दास जी उदाहरण देते हुए कहते है किजिस प्रकार मुसीबत में तलवार काम आती है की उसको ढकने वाला म्यान, उसी प्रकार किसी विकट परिस्थिती में सज्जन का ज्ञान काम आता है, की उसके जाती या धर्म काम आता है।

धीरेधीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय

अर्थ कबीर दस जी कहते है कि किसी भी कार्य को पूरा होने के लिए एक उचित समय सीमा की आवश्यकता होती है, उससे पहले कुछ भी नहीं हो सकता। इसलिए हमे अपने मन में धैर्य रखना चाहिए और अपने काम को पूरी निष्ठा से करते रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पेयदि माली किसी पेड़ को सौ घड़ा पानी सींचने लगे तब भी उसे ऋतू आने पर ही फल मिलेगा। इसलिए हमे धीरज रखते हुए अपने कार्य को करते रहना चाहिए, समय आने पर फल जरूर मिलेगा।

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब
पल में प्रलय होएगी, बहुरी करेगा कब ।।

अर्थ: जो कल करना है उसे आज कर और जो आज करना है उसे अभी कर समय और परिस्थितियाँ एक पल मे बदल सकती हैं, एक पल बाद प्रलय हो सकती हैं अतः किसी कार्य को कल पर मत टालिए अर्थात हमें समय के महत्व को समझते हुए कार्य को समय पर कर लेना चाहिए।

कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को कहते और
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर

अर्थ कबीरदास जी कहते हैं की वे नर अंधे हैं जो गुरु को भगवान से छोटा मानते हैं क्यूंकि ईश्वर के रुष्ट होने पर एक गुरु का सहारा तो है लेकिन गुरु के नाराज होने के बाद कोई ठिकाना नहीं है

पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय
एक पहर हरि नाम बिनु, मुक्ति कैसे होय

अर्थ प्रतिदिन के आठ पहर में से पाँच पहर तो काम धन्धे में खो दिये और तीन पहर सो गया इस प्रकार तूने एक भी पहर हरि भजन के लिए नहीं रखा, फिर मोक्ष कैसे पा सकेगा

शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान
तीन लोक की सम्पदा, रही शील मे आन

अर्थ जो शील (शान्त एवं सदाचारी) स्वभाव का होता है मानो वो सब रत्नों की खान है क्योंकि तीनों लोकों की माया शीलवन्त (सदाचारी) व्यक्ति में हीं निवास करती है

माया मरी मन मरा, मरमर गया शरीर
आशा तृष्णा मरी, कह गए दास कबीर

अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का मन तथा उसमे घुसी हुई माया का नाश नहीं होता और उसकी आशा तथा इच्छाओं का भी अन्त नहीं होता केवल दिखने वाला शरीर हीं मरता है यही कारण है कि मनुष्य दु: रूपी समुद्र मे सदा गोते खाता रहता है

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रौंदे मोय
इक दिन ऐसा आएगा, मै रौंदूंगी तोय

अर्थ मिट्टी कुम्हार से कहती है कि तू मुझे क्या रौंदता है एक दिन ऐसा आएगा कि मै तुझे रौंदूंगी अर्थात मृत्यु के पश्चात मनुष्य का शरीर इसी मिट्टी मे मिल जाएगा

भाव यह है कि समय हमेशा एक जैसा किसी का नहीं रहता है। किसी भी चीज का अभिमान नहीं करना चाहिए।

नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग

अर्थ कबीरदास जी कहते हैं की हे प्राणी ! उठ जाग, नींद मौत की निशानी है दूसरे रसायनों को छोड़कर तू भगवान के नाम रूपी रसायनों मे मन लगा

जो टोकू कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल

अर्थ जो तेरे लिए कांटा बोय तू उसके लिए फूल बो तुझे फूल के फूल मिलेंगे और जो तेरे लिए कांटा बोएगा उसे त्रिशूल के समान तेज चुभने वाले कांटे मिलेंगे इस दोहे में कबीरदास जी ने या शिक्षा दी है की हे मनुष्य तू सबके लिए भला कर जो तेरे लिए बुरा करेंगें वो स्वयं अपने दुष्कर्मों का फल पाएंगे

दुर्लभ मानुष जनम है, देह बारम्बार
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि लागे डार

अर्थ यह मनुष्य जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है और यह देह बारबार नहीं मिलती जिस तरह पेड़ से पत्ता झड़ जाने के बाद फिर वापस कभी डाल मे नहीं लग सकती अतः इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पहचानिए और अच्छे कर्मों मे लग जाइए

आए हैं सो जाएंगे, राजा रंक फकीर
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बंधे जंजीर

अर्थ जो आया है वो इस दुनिया से जरूर जाएगा वह चाहे राजा हो, कंगाल हो या फकीर हो सबको इस दुनिया से जाना है लेकिन कोई सिंहासन पर बैठकर जाएगा और कोई जंजीर से बंधकर अर्थात जो भले काम करेंगें वो तो सम्मान के साथ विदा होंगे और जो बुरा काम करेंगें वो बुराई रूपी जंजीर मे बंधकर जाएंगे

माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख
माँगन ते मरना भला, यही सतगुरु की सीख

अर्थ माँगना मरने के बराबर है इसलिए किसी से भीख मत माँगो सतगुरु की यही शिक्षा है की माँगने से मर जाना बेहतर है अतः प्रयास यह करना चाहिये की हमे जो भी वस्तु की आवश्यकता हो उसे अपने मेहनत से प्राप्त करें की किसी से माँगकर

जहाँ आपा तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग

अर्थ जहाँ मनुष्य में घमंड हो जाता है उस पर आपत्तियाँ आने लगती हैं और जहाँ संदेह होता है वहाँ वहाँ निराशा और चिंता होने लगती है कबीरदास जी कहते हैं की यह चारों रोग धीरज से हीं मिट सकते हैं

ऐसी बानी बोलिये ,मन का आप खोय
औरन को शीतल करे ,आपहु शीतल होय ।।

अर्थ : अपने मन में अहंकार को त्याग कर ऐसे नम्र औए मीठे शब्द बोलना चाहिए जिससे सुनने वाले के मन को अच्छा लगे ऐसी भाषा दूसरों को सुख पहुंचाती है साथ ही स्वयं  को भी सुख देने वाली होती है

चाह मिटी चिंता मिटी ,मनवा बेपरवाह
जिसको कुछ नही चाहिए,वह शहनशाह ।।

अर्थ : दुनिया में जिस व्यक्ति को पाने की इक्छा  है ,उसे उस चीज को पाने की चिंता है ,मिल जाने पर उसे खो देने की चिंता है दुनिया में वही खुश है जिसके पास कुछ नही है अर्थात जिस को कुछ नहीं चाहिए उसे खोने का डर नही है पाने की चिंता नही है ऐसा व्यक्ति ही दुनिया का राजा है

अति का भला बोलना, अति की भली चूप
अति का भला बरसना , अति की भली घूप ।।

अर्थ कबीर जी उदाहरण लेते हुए बोलते है कि जिस प्रकार जरुरत से ज्यादा बारिस भी हानिकारक होता है और जरुरत से ज्यादा धुप भी हानिकारक होता है उसी प्रकार हम सब का तो बहुत अधिक बोलना उचित रहता है और ही बहुत अधिक चुप रहना ठीक रहता है। अथार्थ हम जो बोलते है वो बहुत अनमोल है इसलिए हमे सोच समझ कर काम सब्दो में अपने बातो को बोलना चाहिए।

जब मै था तब हरी नही, अब हरी है मै नाही।
सब अंधियारा मिट गया, दीपक देख्या माही ।।

अर्थ ; जब मैं अपने अहंकार में डूबा था तब अपने इष्ट देव को नही देख पाता था लेकिन जब गुरु ने मेरे अंदर ज्ञान का दीपक  प्रकाशित किया तब अन्धकार रूपी अज्ञान मिट गया और ज्ञान के आलोक में ईश्वर को पाया

मालिन आवत देखि के कलियाँ करे पुकार
फूले फूले चुन लिये,कालि हमार बारि ।।

अर्थ : कबीर दास  जी ने इस दोहे में जीवन की वास्तविकता का दर्शन कराया  है मालिन को आता देख कर बगीचे की कलियां आपस में बाते करती है आज मलिन ने फूलों को तोड़ लिया है ।कल हमारी बारी जाएगी कल हम फूल बनेगे ।अर्थात आज आप जवान हो कल आप भी बूढे हो जाओगे और एक दिन मिट्टी में मिल   जाओगे

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा मिलया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा कोय ।।

 अर्थ : जब मैं संसार में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई भी बुरा नही मिला लेकिन जब मैंने अपने मन में देखने का प्रयास किया तो मुझे यह ज्ञात हुआ कि दुनिया में मुझसे बुरा कोई नही है

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
सारसार को गही रहै, थोथी देई उड़ाय

अर्थ: – कबीर जी कहते है कि हमे ऐसे सज्जन कि आवश्कता है जिसका स्वभाव अनाज को साफ़ करने वाला सुप की तरह हो, अनाज को बचाते हुए वह वहा से बाकि सारी घास फुस अथवा और गंदगीओ हो हटा दे। अथार्त साधु को ऐसा होना चाहिए जिसे सही गलत का और अच्छे बुरे का फर्क करने आता हो , जो सबकी मदद करे और जो अच्छाई को बचाते हुए सबसे बुराई को निकाल दे।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

अर्थ: कबीर जी सच्चे ज्ञानी की परिभाषा देते हुए कहते है की इस दुनिया में जाने कितने लोग आये और मोटी मोटी किताबे पढ़ कर चले गए पर कोई भी सच्चा ज्ञानी नहीं बन सका। सच्चा ज्ञानी वही है, जो प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ा होअथार्त जो प्रेम का वास्तविक रूप पहचानता हो। इस जगत में बहुत से ऐसे लोग है जो बड़ी बड़ी किताबे पढ़ लेते है फिर भी वे लोग प्रेम का सही अर्थ नहीं समझ पते है।

कबीर हमारा कोई नहीं, हम काहू के नाहिं
पारै पहुंचे नाव ज्यौ, मीलके बिछुरी जाह ।।

अर्थ: – संत कबीर जी इस दुनिया को एक नाव बताते हुए कहते है किइस संसार रूपी नाव में हमारा कोई नहीं है और ही हम किसी के है। ज्यो ही नाव किनारे पर पहुंचेगी हम सब बिछुड़ जायेगे। अथार्त इस संसार रूपी नाव में हमारा अपना कोई भी नहीं है और ही हम किसी के अपने है, कोई भी इस संसार में सदा एक साथ नहीं रह सकता एक एक दिन सबको अलग अलग होना ही पड़ता है।

कबीर यह तनु जात है, सकै तो लेहू बहोरि
नंगे हाथूं ते गए, जिनके लाख करोडि॥

अर्थ: – कबीर जी हमारे शरीर की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहते है कि हमारा शरीर बहुत कीमती है और इसका देखभाल नहीं करने से यह जल्द ही नस्ट हो जाएगा। अथार्थ जीवन में सिर्फ धन सम्पत्ति जोड़ने में लगे रहोअपने शरीर पर भी धयान दो। क्योकि जिसके पास लाखो कडोलो की सम्पत्ति थी वो भी खली हाथ ही गए है।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती, काहू से बैर।

अर्थ: – कबीर जी एक अच्छे और सच्चे व्यक्ति बनने की सलाह देते हुए कहते है कि किसी से अत्यधिक दोस्ती रखनी चाहिए और ही अत्यधिक बैर। सबको निस्पक्छ भाव से देखना चाहिए और किसी का भी बुरा नहीं करना चाहिए।

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमान,
आपस में दोउ लड़ी मुए, मरम कोउ जान।

अर्थ:ईश्वर एक हैयह सीख देते हुए कबीर जी कहते है किहै हिन्दू कहता है मेरा ईश्वर राम है और मुस्लिम कहता है मेरा ईश्वर अल्लाह हैइसी बात पर दोनों धर्म के लोग लड़ कर मर जाते है उसके बाद भी कोई सच नहीं जान पता है कि ईश्वर एक है।

मन जाणे सब बात, जांणत ही औगुन करै
काहे की कुसलात, कर दीपक कूंवै पड़े

अर्थ:हमारा मन सब कुछ जानता है , सही गलत का फर्क भी जानता है लेकिन फिर भी ये गलत कार्य करता है। कबीर जी कहते है ये ठीक उससे प्रकार है जैसे की कोई हाथ में दीपक पकड़ कर भी कुएँ में गिर जाए। ऐसा व्यक्ति कैसे कुशल रह सकता है।

कबीर नाव जर्जरि, कूड़े खेवनहार
हलके हलके तीरी गए, बूड़े तीनी सर भार

अर्थ:कबीर जी कहते है कि इस संसार रूपी समुन्द्र को पार करने के लिए हमारा ये तन (शरीर ) और मन एक नाव के जैसा है। और इसका मन रुपि नाव पहले हे रागरंग, शत्रुता और धन जैसी चीज़ो से जर्जर हो चुकी है और यह डूबता ही जा रहा है। और दूसरी तरफ तन रूपी नाव विषय वासनाओ और अंहकार जैसे गलत चीज़ो से बोझ हो चूका है। ऐसे नाव संसार रूपी समुन्द्र को पार कर ही नहीं सकता। इस संसार रूपी समुन्द्र को वही लोग पार कर सकते है जो इन सब चीज़ो को त्याग कर खुद को हल्का कर लिया हो।

नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल जाये।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास जाये।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कितना भी नहा धो लीजिये, यदि मन का मैल ही धुले तो ऐसे नहाने धोने का क्या फायदा। जिस प्रकार मछली हमेशा पानी में ही रहती है लेकिन फिर भी उससे बदबू नहीं जाती।

ऊँचे कुल का जनमियाँ, करनी ऊंच होय।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधु निंदा सोय।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि व्यक्ति का ऊँचे कुल में जन्म लेने का क्या लाभ जो उसके कर्म ही अच्छे हों। यदि स्वर्ण कलश में मदिरा भरी हो तो भी सज्जन उसकी निंदा ही करते हैं।

साँच बराबर तप नहीं, झूट बराबर पाप।
जाके हिरदै साँच है, ताके हिरदै आप।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि इस संसार में सत्य के सामान कोई तपस्या नहीं है तथा झूट के सामान कोई पाप नहीं है। जिसके ह्रदय में सत्य होता है वहां साक्षात् परमात्मा का वास होता है।

अंषड़ियाँ झाईं पड़ी, पंथ निहारीनिहारी।
जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारिपुकारि।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि परमात्मा से मिलन की राह देखते देखते अब आँखें थक गयी हैं। मुहं से परमात्मा का नाम लेते लेते अब जीभ में भी छाले पड़ गए हैं लेकिन अभी तक परमात्मा के दर्शन नहीं हुए हैं।

कागा काको धन हरे, कोयल काको देय।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनों कर लेय।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कौवा किसी का धन नहीं लेता है फिर भी कोई उसे पसंद नहीं करता है। कोयल किसी को धन नहीं देती फिर भी वह सबको प्रिय होती है। इसका कारण है कोयल अपनी मीठी वाणी से सबका मन मोह लेती है और समस्त संसार को अपना बना लेती है। जबकि कौवा अपनी कर्कश ध्वनि से किसी को पसंद नहीं आता।

चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा कोय।।

अर्थ: चलती हुई चक्की (अनाज को पीसने वाले पत्थरों की दो गोलाकार आकृति) को देखकर कबीर रोने लगे। कबीर देखते हैं कि चक्की के इन दो भागों (दो पत्थरों) के बीच में आने वाला हर दाना कैसे बारीक पिस गया है और कोई भी दाना साबूत नहीं बचा है।

कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि कड़वे वचन सबसे बुरे होते हैं जो हमारे शरीर में जलन पैदा करते हैं। जबकि मीठे वचन शीतल जल के समान होते हैं जिससे ऐसा लगता है जैसे अमृत की वर्षा हो रही हो।

राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान।
पडोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि राज पाठ धन सम्पदा पाकर तू इतना अभिमान क्यों करता है। जो दशा तेरे पडोसी की हुई है वही दशा तेरी भी होगी। कहने का भाव है की जो इस धन सम्पदा पर इतना गर्व करते थे वह भी मृत्यु से नहीं बच पाए फिर इस पर इतना गर्व क्यों करते हो। जिस प्रकार राज पाठ तथा अपार धन सम्पदा होने पर भी वह मृत्यु को प्राप्त हो गए। उसी प्रकार तेरा यह अभिमान भी एक दिन समाप्त हो जायेगा।

राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ होय।।

अर्थ: जीवन के अंत समय आने पर जब परमात्मा ने बुलावा भेजा तो कबीर रो पड़े और सोचने लगे की जो सुख साधु संतों के सत्संग में है वह बैकुंठ में नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं कि सज्जनों के सत्संग के सम्मुख वैकुण्ठ का सुख भी फीका है।

ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ ही मे है, जाग सके तो जाग।।

अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जैसे तिल के अंदर ही तेल है और अग्नि के अंदर ही प्रकाश है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर को भी इधर उधर ढूंढने की जरुरत नहीं है क्योंकि हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही है, यदि हम ढूंढना चाहें तो उसे ढूंढ सकते हैं।

दान दिए धन ना घटे, नदी घाटे नीर
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर

अर्थदान देने से कभी धन घटता नहीं है। जिस तरह उपयोग के बाद भी नदी का पानी कभी कम नहीं होता। इसे आप अपनी आँखों से खुद देख सकते हैं। कबीर दास को कहने की जरूरत नहीं।

हीरा वहाँ खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट

अर्थ जिसको गुणों की पहचान हो उसी के सामने गुणों को प्रकट करना चाहिए। अन्यथा चुप रहने में ही भलाई है।

कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि करे तन क्षार
साधु वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार

अर्थ कभी किसी को कुटिलतापूर्ण वचन नहीं कहने चाहिए। क्योंकि ऐसे वचनों से शरीर अंदर से जल जाता है। जबकि प्रिय वचन अमृत के समान शीतलता प्रदान करते हैं

जग में बैरी कोई नहिं, जो मन शीतल होय
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय

अर्थ अगर मन शान्त है तो संसार में कोई शत्रु नहीं हैं। मनुष्य घमण्ड त्याग दे तो सभी उस पर दया करते हैं।

वस्तु है सागर नहीं, वस्तु सागर अनमोल
बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल

अर्थ ज्ञान रूपी अमूल्य वस्तु तो आसानी से उपलब्ध है परन्तु उसको लेने वाला कोई नहीं है क्योंकि ज्ञान रूपी रत्न बिना सत्कर्म और सेवा के नहीं मिलता लोग बिना कर्म किए ज्ञान पाना चाहते हैं अतः वे इस अनमोल वस्तु से वंचित रह जाते हैं

कली खोटा जग आंधरा शब्द माने कोय
चाहे कहूँ सत आईना, जो जग बैरी होय

अर्थ यह कलयुग खोटा है और सारा जग अंधा है मेरी बातों को कोई नहीं मानता बल्कि जिसको भली बात बताता हूँ वही मेरा दुश्मन हो जाता है

लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभी चोंच जरि जाय
मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय

अर्थ जिस वस्तु कि किसी को लगन लग जाती है उसे वह नहीं छोड़ता चाहे कितनी हीं हानि क्यूँ हो जाय, जैसे अंगारे में क्या मिठास होती है जिसे चकोर (पक्षी) चबाता है ? अर्थ यह है कि चकोर कि जीभ और चोंच भी जल जाय तो भी वह अंगारे को चबाना नहीं छोड़ता वैसे हीं भक्त को जब ईश्वर कि लगन लग जाती है तो चाहे कुछ भी हो वह ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ता

घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार
बाल स्नेही साइयाँ, आवा अन्त का यार

अर्थ कबीरदास जी कहते हैं की जो तुम्हारे बचपन का मित्र और आरंभ से अन्त तक का मित्र है, जो हमेशा तुम्हारे अन्दर रहता है तू जरा अपने अन्दर के परदे को हटा कर देख तुम्हारे सामने हीं भगवान जाएंगे

अंतर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार
जो तुम छोड़ो हांथ तो, कौन उतारे पार

अर्थ हे प्रभु आप हृदय की बात जानने वाले और आप हीं आत्मा के मूल हो, जो तुम्हीं हांथ छोड़ दोगे तो हमें और कौन पार लगाएगा

में अपराधी जन्म का, नखशिख भरा विकार
तुम दाता  दुख भंजना, मेरी करो सम्हार

अर्थ मै जन्म से हीं अपराधी हूँ, मेरे नाखून से लेकर चोटी तक विकार भरा हुआ है, तुम ज्ञानी हो दु:खों को दूर करने वाले हो, हे प्रभु तुम मुझे संभाल कर कष्टों से मुक्ति दिलाओ

प्रेम बाड़ी उपजै, प्रेम हाट बिकाय
राजा प्रजा जेहि रुचें, शीश देई ले जाय

अर्थ प्रेम तो बागों में उगता है और बाज़ारों में बिकता है, राजा या प्रजा जिसे वह अच्छा लगे वह अपने आप को न्योछावर कर के प्राप्त कर लेता है

प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय
लोभी शीश दे सके, नाम प्रेम का लेय

अर्थ जो प्रेम का प्याला पीता है वह अपने प्रेम के लिए बड़ी से बड़ी आहूति देने से भी नहीं हिचकता, वह अपने सर को भी न्योछावर कर देता है लोभी अपना सिर तो दे नहीं सकता, अपने प्रेम के लिए कोई त्याग भी नहीं कर सकता और नाम प्रेम का लेता है

सुमिरन सों मन लाइए, जैसे नाद कुरंग
कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्राण तजे तेहि संग

अर्थ कबीर साहब कहते हैं की भक्त ईश्वर की साधना में इस प्रकार मन लगाता है, उसे एक क्षण के लिए भी भुलाता नहीं, यहाँ तक की प्राण भी उसी के ध्यान में दे देता है अर्थात वह प्रभु भक्ति में इतना तल्लीन हो जाता है की उसे शिकारी (प्राण हरने वाला) के आने का भी पता नहीं चलता

सुमिरत सूरत जगाय कर, मुख से कछु बोल
बाहर का पट बंद कर, अन्दर का पट खोल

अर्थ एकचित्त होकर परमात्मा का सुमिरन कर और मुँह से कुछ बोल, तू बाहरी दिखावे को बंद कर के अपने सच्चे दिल से ईश्वर का ध्यान कर

छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार
हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार

अर्थ परमात्मा का सच्चा नाम दूध के समान है और पानी के जैसा इस संसार का व्यवहार है पानी मे से दूध को अलग करने वाला हंस जैसा साधू (सच्चा भक्त) होता है जो दूध को पानी मे से छानकर पी जाता है और पानी छोड़ देता है

ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग
तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग

अर्थ जिस तरह तिलों में तेल और चकमक पत्थर में आग छुपी रहती है वैसे हीं तेरा सांई (मालिक) परमात्मा तुझमें है अगर तू जाग सकता है तो जाग और अपने अंदर ईश्वर को देख और अपने आप को पहचान

जा कारण जग ढूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि
परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ।।

अर्थ जिस भगवान को तू सारे संसार में ढूँढता फिरता है वह मन में ही है तेरे अंदर भ्रम का परदा दिया हुआ है इसलिए तुझे भगवान दिखाई नहीं देते

जबही नाम हिरदे धरा, भया पाप का नाश
मानो चिंगारी आग की, परी पुरानी घास ।।

अर्थ कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान का नाम लेते ही पाप का नाश हो जाता है जिस तरह अग्नि की चिंगारी पुरानी घास पर पड़ते ही घास जल जाती है इसी तरह ईश्वर का नाम लेते ही सारे पाप दूर हो जाते हैं

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिंम नहीं शीतल होय
कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ।।

अर्थ कबीर जी कहते है कि तो शीतलता चंद्रमा में है ही शीतलता बर्फ में है वही सज्जन शीतल हैं जो परमात्मा के प्यारे हैं अर्थात वास्तविकता मन की शांति ईश्वरनाम में है

सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज |
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा जाए ||

अर्थअगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बनाऊं और दुनियां के सभी वृक्षों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है

जो घट प्रेम संचारे, जो घट जान सामान |
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण ||

अर्थ जिस इंसान अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के समान है

जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश |
जो है जा को भावना सो ताहि के पास ||

अर्थकमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।

तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय |
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए ||

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि लोग रोजाना अपने शरीर को साफ़ करते हैं लेकिन मन को कोई साफ़ नहीं करता। जो इंसान अपने मन को भी साफ़ करता है वही सच्चा इंसान कहलाने लायक है।

प्रेम बारी उपजे, प्रेम हाट बिकाए |
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए ||

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और नाही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीश(क्रोध, काम, इच्छा, भय) त्यागना होगा।

जिन घर साधू पुजिये, घर की सेवा नाही |
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही ||

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं

पाछे दिन पाछे गए हरी से किया हेत |
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ||

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।

कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर |
जो पर पीर जानही, सो का पीर में पीर ||

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे इंसान होने से क्या फायदा।

कबीर सुता क्या करे, जागी जपे मुरारी |
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ||

अर्थकबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है, जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा

नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय |
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय ||

अर्थ कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिम(बर्फ) भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं

तुलसी: धार्मिक महत्व पौराणिक मान्यताएं विवाह पूजन विधि

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सनातन धर्म में तुलसी को विशेष महत्व दिया गया है। हिन्दू धर्म विश्व का सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक धर्म माना गया हैं,और इसको वैज्ञानिक बनानें में इस धर्म के प्रतीकों जैसें तुलसी ,पीपल का विशिष्ठ स्थान हैं।

तुलसी के बिना हिन्दू धर्मावलम्बीयों का आँगन सुना माना जाता हैं.बल्कि यहाँ तक कहा जाता हैं,कि जहाँ तुलसी का वास नहीं होता वहाँ देवता भी निवास नहीं करतें हैं।

तुलसी को संस्कृत में हरिप्रिया कहा गया है अर्थात जो हरि यानी भगवान विष्णु को प्रिय है।

बिना तुलसी के चढ़ाया हुआ प्रसाद भी ईश्वर ग्रहण नहीं करतें हैं। इसलिए हिंदू धर्म के लोग तुलसी को माता का रूप मानकर उसकी पूरे विधि-विधान से पूजा करते हैं।

तुलसी का पौधा हिंदुओं द्वारा पूजनीय है  तुलसी नाम का अर्थ अतुलनीय है। कहा जाता है कि प्रत्येक हिन्दू के घर में तुलसी का पौधा अवश्य होना चाहिए।

इस पौधे को जीवित रहने के लिए थोड़ी धूप और पानी की जरूरत होती है। इसके कई प्रकार हैं जैसे राम तुलसी, कृष्ण तुलसी और विष्णु तुलसी।

हिंदू संस्कृति में यह माना जाता है कि तुलसी या तुलसी के पत्तों से बनी माला से पूजा करने पर भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। इस पौधे को घर में रखना सौभाग्य और समृद्धि को आमंत्रित कर सकता है।

मान्यता है कि तुलसी में मां लक्ष्मी को निवास होता है। कहा जाता है कि जिस घर में तुलसी का पौधा होता है वहां मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु की कृपा बनी रहती है। वहीं धार्मिक दृष्टि से नियमित रूप से तुलसी की पौधे की पूजा करने से मां लक्ष्मी का आशीर्वाद प्राप्त होता है ऐसा माना जाता है कि जहां तुलसी फलती फूलती है, उस घर में रहने वालों को कोई संकट नहीं आते।

स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेद में तुलसी के अनेक गुण के बारे में बताया गया हैं। यह बात कम लोग जानते हैं कि तुलसी परिवार में आने वाले संकट के बारे में सुखकर पहले संकेत दे देती हैं।

शास्त्रों में यह बात भली प्रकार से उल्लेख है कि अगर घर पर कोई संकट आने वाला है तो सबसे पहले उस घर से लक्ष्मी यानि तुलसी चली जाती है और वहां दरिद्रता का वास होने लगता है।

तुलसी केवल एक पौधा ही नहीं है बल्कि धरा के लिए वरदान है। जिसके कारण इसे हिंदू धर्म में पूजनीय और औषधि तुल्य माना जाता है।

तुलसी पूजन करने से न केवल चमत्कारिक लाभ मिलेगा बल्कि साथ ही लोगों को तुलसी से होने वाले लाभ का ज्ञान भी प्राप्त होता है।

आयुर्वेद में तुलसी को अमृत कहा गया है क्योंकि ये औषधि भी है और इसका नियमित उपयोग आपको उत्साहित, खुश और शांत रखता है। भगवान विष्णु की कोई भी पूजा बिना तुलसी के पूर्ण नहीं मानी जाती।

तुलसी के विषय में कहा गया है

तुलसी वृक्ष ना जानिये। गाय ना जानिये ढोर।।
गुरू मनुज ना जानिये। ये तीनों नन्दकिशोर।।

अर्थात–

तुलसी को कभी पेड़ ना समझें,गाय को पशु समझने की गलती ना करें और गुरू को कोई साधारण मनुष्य समझने की भूल ना करें, क्योंकि ये तीनों ही साक्षात भगवान रूप हैं।

तुलसी सम्पूर्ण धरा के लिए वरदान है, अत्यंत उपयोगी औषधि है, मात्र इतना ही नहीं, यह तो मानव जीवन के लिए अमृत है ! यह केवल शरीर स्वास्थ्य की दृष्टि से ही नहीं, अपितु धार्मिक, आध्यात्मिक, पर्यावरणीय एवं वैज्ञानिक आदि विभिन्न दृष्टियों से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।

एक ओर जहाँ चरक संहिता, सुश्रुत संहिता जैसे आयुर्वेद के ग्रंथों, पद्म पुराण, स्कंद पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि पुराणों तथा उपनिषदों एवं वेदों में भी तुलसी का महत्व एवं उपयोगिता बतायी गयी है, वहीं दूसरी ओर युनानी, होमियोपैथी एवं एलोपैथी चिकित्सा पद्धति में भी तुलसी एक महत्त्वपूर्ण औषधि मानी गयी है तथा इसकी खूब-खूब सराहना की गयी है।

विज्ञान ने विभिन्न शोधों के आधार पर माना है कि तुलसी एक बेहतरीन रोगाणुरोधी, तनावरोधी, दर्द-निवारक, मधुमेहरोधी, ज्वरनाशक, कैंसरनाशक, चिंता-निवारक, अवसादरोधी, विकिरण-रक्षक है। तुलसी इतने सारे गुणों से भरपूर है कि इसकी महिमा अवर्णनीय है। पद्म पुराण में भगवान शिव कहते हैं ।

“तुलसी के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो बहुत अधिक समय लगाने पर भी नहीं हो सकता।” अपने घर में, आस पड़ोस में अधिक-से-अधिक संख्या में तुलसी के पौधे लगाना-लगवाना माना हजारों-लाखों रूपयों का स्वास्थ्य खर्च बचाना है, पर्यावरण-रक्षा करना है।

हमारी संस्कृति में हर घर आँगन में तुलसी लगाने की परम्परा थी। संत विनोबाभावे की माँ बचपन में उन्हें तुलसी को जल देने के बाद ही भोजन देती थीं।

पाश्चात्य अंधानुकरण के कारण जो लोग तुलसी की महिमा को भूल गये, अपनी सस्कृति के पूजनीय वृक्षों, परम्पराओं को भूलते गये और पाश्चात्य परम्पराओं व तौर तरीकों को अपनाते गये, वे लोग चिंता, तनाव, अशांति एवं विभिन्न शारीरिक-मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हो गये।

तुलसी, पीपल, आँवला, नीम – इन लाभकारी वृक्षों के रोपण का अभियान चलाया जाय। प्रतिदिन तुलसी को जल देकर उसकी परिक्रमा करें, तुलसी पत्रों का सेवन करें।

पवित्र पौधा

तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करने से पापों से मुक्ति मिलती है। यानी रोजाना तुलसी का पूजन करना मोक्षदायक माना गया है।

यही नहीं तुलसी पत्र से पूजा करने से भी यज्ञ, जप, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है।

पद्म पुराण में कहा गया है की नर्मदा दर्शन गंगा स्नान और तुलसी पत्र का संस्पर्श ये तीनो समान पुण्य कारक है तुलसी हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र पौधा है क्योंकि इसे देवी लक्ष्मी का सांसारिक रूप माना जाता है।

कुछ पौराणिक कथा के अनुसार, यह कहा गया था कि तुलसी वास्तव में कृष्ण की एक उत्साही प्रेमिका है जिसे राधा ने एक पौधा होने का श्राप दिया था।

हिंदुओं का मानना ​​है कि जिस घर में तुलसी का पौधा होता है, वह तीर्थ होता है और मृत्यु कभी प्रवेश नहीं कर सकती। तुलसी का मुरझाना भी इस बात की ओर इशारा करता है कि घर में कुछ बुरा होने वाला है।

भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है तुलसी

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार तुलसी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है और तुलसी में लक्ष्मी का वास होता है।

जिनके घरों में तुलसी का पौधा होता है उनके उपर भगवान विष्णु की कृपा दृष्टि भी बनी रहती है।

तुलसी से घरों में सुख और समृद्धि आती है। वह हर दिन इसकी पूजा करते हैं। सुबह जल चढ़ाते हैं और शाम को दीपक जलाते हैं।

कई लोग तुलसी की पूजा और तुलसी विवाह भी संपन्न कराते हैं।

गुरुवार को लगाए तुलसी का पौधा

माना जाता है कि तुलसी के पौधे को घर में कार्तिक मास (अक्तूबर और नवंबर) में लगाना चाहिए।

साथ ही गुरुवार के दिन तुलसी के पौधे को लगाने की मान्यता है। कहते हैं गुरुवार का दिन भगवान विष्णु को समर्पित है और इस दिन विष्णु भगवान की पूजा आराधना होती है।

मान्यताओं में तुलसी माता को विष्णु भगवान की प्रिय माना गया है, इसलिए यह दिन तुलसी का पौधा लगाने के लिए शुभ माना जाता है।

भगवान कृष्ण का स्वरूप माना जाता है तुलसी का पौधा

तुलसी का पौधा बुध का प्रतिनिधित्व करता है, जो भगवान कृष्ण का एक स्वरूप माना गया है।

ऐसे में तुलसी के पौधे को लगाने और उसकी पूजा करने के भी कई नियम हैं।

जो लोग मांस का सेवन करते हैं उन्हें अपने घर में तुलसी का पौधा नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि हिन्दू धर्म में इस तुलसी को परम वैष्णव माना गया है।

वहीं भगवान विष्णु की पूजन पद्धति में तामसिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

तुलसी के प्रकार

पृथ्वी पर पांच तरह की तुलसी पाई जाती है। जिसमें राम तुलसी, श्याम तुलसी, श्वेत विष्णु तुलसी, वन तुलसी, नींबू तुलसी शामिल है। लेकिन घरों में मुख्य रूप से राम तुलसी या श्याम तुलसी ही रखी जाती है।

तुलसी के रंग के आधार पर, दो मुख्य प्रकार हैं, सफेद -राम तुलसी और काले पत्तों वाली तुलसी को श्यामा तुलसी कहा जाता है।

वास्तु के अनुसार, रामा और श्यामा दोनों की तुलसी का अपना-अपना महत्व है। आप इन दोनों में से किसी एक को ही घर में रखें।

रामा तुलसी– हरी पत्तियों वाली तुलसी को रामा तुलसी कहा जाता है। इसे श्री तुलसी, भाग्यशाली तुलसी या उज्ज्वल तुलसी भी कहा जाता है।

इस तुलसी की खासियत ये हैं कि इसकी पत्तियों को खाने से अन्य तुलसी की तुलना में मीठा होगा।

इस तुलसी का इस्तेमाल पूजा-पाठ में किया जाता है। इसके साथ ही इसे घर में लगाने से सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

श्यामा तुलसी– गहरे हरे या बैंगनी रंग के पत्तियों और बैंगनी तने वाली तुलसी को श्यामा तुलसी कहा जाता है।

इसे गहरी तुलसी या कृष्ण-तुलसी के नाम से भी जाना जाता है।

क्योंकि ये तुलसी भगवान कृष्ण से समर्पित है। क्योंकि इसका बैंगनी रंग भगवान कृष्ण के गहरे रंग के समान है। यह तुलसी आयुर्वेद में अच्छा माना जाता है।

आयुर्वेद के अनुसार, रामा तुलसी और श्यामा तुलसी के गुणों में काफी अंतर है।

सेहत के लिहाज से श्यामा तुलसी को ज्यादा बेहतर माना जाता है।

वहीं रामा तुलसी जोकि एकदम कंचन हरी दिखाई देती है का इस्तेमाल मसालेदार और कड़वी, गर्म, सौम्य, पाचन, पसीना और बच्चों की सर्दी-खांसी की बीमारियों को ठीक करने के लिए किया जाता है।

जबकि श्यामा तुलसी मसालेदार और कड़वी, मुलायम, चिकनी, पचने में हल्की, शोषक और वात-पित्त में लाभदायक होती है।

तुलसी कफ, वायरल इन्फेक्शन, पित्ताशय की थैली, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल, हृदय, एनीमिक और कुष्ठ जैसे रोगों मरण भी फायदेमंद है।

वास्तुशास्त्र में तुलसी को बहुत महत्त्व दिया गया है। तुलसी का पौधा घर में लगाने से वास्तु दोष दूर होते हैं। सभी धार्मिक ग्रंथों में तुलसी को पवित्र, पूजनीय, शुद्ध और देवी स्वरूप माना गया है। पूजनीय वृक्षों में तुलसी का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। तुलसी का पूजन, दर्शन, सेवन व रोपण आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक, तीनों प्रकार के तापों का नाश कर सुख समृद्धि देने वाला है। भगवान शिव कहते हैं, तुलसी सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली है

वास्तु शास्त्र के मुताबिक घर में कहां लगाएं तुलसी का पौधा ?

धार्मिक मान्यता के साथ-साथ वास्तु शास्त्र में तुलसी की दशा और दिशा का बहुत ही महत्व है। लेकिन, तुलसी के पौधे को सही देखभाल की बेहद जरूरत होती है नहीं तो ये पौधा मुरझाने में ज्यादा वक्त नहीं लेता और मान्यतानुसार तुलसी माता के रुष्ट होने की संभावना बढ़ जाती है।

– तुलसी पौधे के लिए सबसे अच्छी जगह पूर्व में है, आप इसे बालकनी में या खिड़की के पास उत्तर या उत्तर-पूर्व दिशा में भी रख सकते हैं।

– सुनिश्चित करें कि पौधे के पास पर्याप्त धूप उपलब्ध हो।

– पौधे को हमेशा विषम संख्या में रखें जैसे एक, तीन या पांच।

– पौधे के आसपास झाड़ू, जूते या कूड़ेदान जैसी चीजें न रखें।

– सुनिश्चित करें कि पौधे के आसपास की जगह साफ-सुथरी हो।

– फूल वाले पौधों को हमेशा तुलसी के पौधे के पास ही लगाएं।

– घर में सूखा तुलसी का पौधा रखने से बचें क्योंकि यह नकारात्मक ऊर्जा को आकर्षित करता है

तुलसी से जुड़ी पौराणिक मान्यताएं

कहते हैं कि भगवान श्री राम ने गोमती तट पर और वृंदावन में भगवान श्रीकृष्ण ने तुलसी लगायी थी।

अशोक वाटिका में सीता जी ने रामजी की प्राप्ति के लिए तुलसी जी का मानस पूजन ध्यान किया था।

हिमालय पर्वत पर पार्वती जी ने शंकर जी की प्राप्ति के लिए तुलसी का वृक्ष लगाया था।

एक मान्यता यह भी है कि लंकापति नरेश रावण के भाई विभीषण भी रोजाना तुलसी की पूजा करते थे। 

यही कारण था कि उनके महल में भी तुलसी का पौधा था।  जब लंका दहन के समय हनुमान जी ने ये पौधा विभीषण के महल में देखा तो उन्होंने सिर्फ इस एक जगह को छोड़कर पूरी लंका में आग लगा दी थी।

तुलसी पूजा से मिलते हैं अनेक लाभ

हिंदू धर्म में तुलसी अत्यंत पवित्र पौधों में से एक हैं। इसनकी प्रतिदिन पूजा अनिवार्य है, तुलसी पूजन करने और रोज तुलसी के दर्शन करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

मान्यता है कि जिस घर में तुलसी का पौधा हो वहां त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश विराजते हैं। 

घर में होने वाली हर पूजा में तुलसी का पत्ता जरूर शामिल करना चाहिए अन्यथा इससे देवताओं का आशीर्वाद नहीं मिलता, और ना ही देवता भोग ग्रहण करते हैं।

रविवार और एकादशी के दिन तुलसी में जल क्यों नहीं देते हैं

नियमित रूप से तुलसी जी को जल अर्पित करना बहुत शुभ माना जाता है लेकिन शास्त्रों के मुताबिक रविवार के दिन तुलसी को जल नहीं चढ़ाना चाहिए।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार रविवार के दिन तुलसी माता भगवान विष्णु जी के लिए निर्जला व्रत रखती हैं रविवार के दिन उन्हें जल चढ़ाने से उनका व्रत खंडित हो जाता है इसलिए इस दिन तुलसी को जल नहीं अर्पित करना चाहिए।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार रविवार के दिन तुलसी के पौधे में जल चढ़ाने से नकारात्मक शक्तियों का वास होता है।

शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन ना तो तुलसी के पत्ते तोड़ने चाहिए और ना ही इस दिन तुलसी में जल चढ़ाना चाहिए।

देवउठानी एकादशी के दिन माता तुलसी का विवाह भगवान शालिग्राम के साथ कराने की परंपरा है।

माना जाता है कि माता तुलसी हर एकादशी तिथि के दिन भगवान विष्णु के लिए निर्जल व्रत करती हैं। इसलिए एकादशी के दिन भी तुलसी में जल अर्पित करनी की मनाही होती है।

हिंदू धर्म में क्यों होती है तुलसी की पूजा

पुराणों में तुलसी को पवित्र पौधा बताया गया है और इसकी पूजा हम भगवान विष्णु से जुड़े होने की वजह से करते हैं मान्यता है कि जब हम भगवान विष्णु को कुछ भी भोग अर्पित करते हैं तब तुलसी की पत्तियां जरूर उस भोग में शामिल करनी चाहिए अन्यथा उन्हें भोग स्वीकार्य नहीं होता है।

संस्कृत में तुलसी शब्द का अर्थ है ‘अतुलनीय’। इसके कई औषधीय उपयोग और स्वास्थ्य लाभ भी हैं। तुलसी की हिंदू धर्म में पूजा की कहानी बड़ी ही रोचक है।

कौन थीं तुलसी, क्यों दिया तुलसी ने विष्णु को पत्थर होने का शाप

पौराणिक काल में एक लड़की थी। नाम था वृंदा। राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था। वृंदा बचपन से ही भगवान विष्णु जी की परम भक्त थी। बड़े ही प्रेम से भगवान की पूजा किया करती थी।

जब वह बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था। वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी।

एक बार देवताओं और दानवों में युद्ध हुआ जब जलंधर युद्ध पर जाने लगे तो वृंदा ने कहा -स्वामी आप युद्ध पर जा रहे हैं आप जब तक युद्ध में रहेगें में पूजा में बैठकर आपकी जीत के लिए अनुष्ठान करुंगी,और जब तक आप वापस नहीं आ जाते मैं अपना संकल्प नही छोडूगीं।

जलंधर तो युद्ध में चले गए और वृंदा व्रत का संकल्प लेकर पूजा में बैठ गई। उनके व्रत के प्रभाव से देवता भी जलंधर को ना जीत सके सारे देवता जब हारने लगे तो भगवान विष्णु जी के पास गए।

 सबने भगवान से प्रार्थना की तो भगवान कहने लगे कि-वृंदा मेरी परम भक्त है मैं उसके साथ छल नहीं कर सकता पर देवता बोले – भगवान दूसरा कोई उपाय भी तो नहीं है अब आप ही हमारी मदद कर सकते हैं।

 भगवान ने जलंधर का रूप रखा और वृंदा के महल में पहुंच गए जैसे ही वृंदा ने अपने पति को देखा,वे तुरंत पूजा में  से उठ गई और उनके चरण छू लिए।

जैसे ही उनका संकल्प टूटा,युद्ध में देवताओं ने जलंधर को मार दिया और उसका सिर काटकर अलग कर दिया। उनका सिर वृंदा के महल में गिरा जब वृंदा ने देखा कि मेरे पति का सिर तो कटा पड़ा है तो फिर ये जो मेरे सामने खड़े है ये कौन है?

 उन्होंने पूछा – आप कौन हैं जिसका स्पर्श मैंने किया, तब भगवान अपने रूप में आ गए पर वे कुछ ना बोल सके, वृंदा सारी बात समझ गई।

उन्होंने भगवान को श्राप दे दिया आप पत्थर के हो जाओ, भगवान तुंरत पत्थर के हो गए। सभी देवता हाहाकार करने लगे। लक्ष्मी जी रोने लगीं और प्रार्थना करने लगीं तब वृंदा जी ने भगवान का शाप विमोचन किया और अपने पति का सिर लेकर वे सती हो गई।

 उनकी राख से एक पौधा निकला तब भगवान विष्णु जी ने कहा- आज से इनका नाम तुलसी है,और मेरा एक रूप इस पत्थर के रूप में रहेगा जिसे शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जाएगा और मैं बिना तुलसी जी के भोग स्वीकार नहीं करुंगा।

तब से तुलसी जी की पूजा सभी करने लगे और तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी के साथ कार्तिक मास में किया जाता है। देवउठनी एकादशी को तुलसी शालिग्राम विवाह के रूप में मनाया जाता है

जब पौधों की पूजा की बात करते हैं तब सबसे ज्यादा प्रमुख है तुलसी की पूजा। तुलसी को सबसे ज्यादा पवित्र माना जाता है और कई ऐसी पूजन हैं जो इसकी पत्तियों के बिना अधूरे माने जाते हैं।

बाद में, तुलसी ने एक दिव्य स्थिति प्राप्त की और भगवान विष्णु की सबसे प्रिय होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। इसलिए भगवान विष्णु की हमेशा तुलसी के पत्तों से पूजा की जाती है। हमेशा तुलसी की माला भगवान के गले में विराजमान रहती है।

कार्तिक मास में तुलसी जी के साथ शालिग्राम जी का विवाह किया जाता है।

यही वजह है कि तब से सभी लोग तुलसी जी की पूजा करने लगे बता दें कि कार्तिक मास में तुलसी जी के साथ शालिग्राम जी का विवाह किया जाता है।

और एकादशी वाले दिन इसे तुलसी विवाह पर्व के रूप में मनाया जाता है. चरणामृत के साथ तुलसी को मिलाकर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।

तुलसी के पौधे को काफी पवित्र माना जाता है। सभी हिंदू आपने घर के आंगन और दरवाजे में तुलसी का पौधा लगाते है। यही मुख्य कारण है कि हम उन्हें माँ तुलसी कहते है।

कार्तिक मास में तुलसी पूजन का विशेष महत्व

तुलसीजी लक्ष्मीजी (श्रीदेवी) के समान भगवान नारायण की प्रिया और नित्य सहचरी हैं; इसलिए परम पवित्र और सम्पूर्ण जगत के लिए पूजनीया हैं।

अत: वे विष्णुप्रिया, विष्णुवल्लभा, विष्णुकान्ता तथा केशवप्रिया आदि नामों से जानी जाती हैं। भगवान श्रीहरि की भक्ति और मुक्ति प्रदान करना इनका स्वभाव है।

वैसे तो नित्यप्रति ही तुलसी पूजन कल्याणमय है किन्तु कार्तिक में तुलसी पूजा की विशेष महिमा है।

कार्तिक पूर्णिमा को तुलसीजी का प्राकट्य हुआ था और सर्वप्रथम भगवान श्रीहरि ने उनकी पूजा की थी।

अत: कार्तिक पूर्णिमा को भक्तिभाव से तुलसीजी की पूजा करने से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। तुलसी विष्णुप्रिया कहलाती है अत: तुलसीपत्र व मंजरियों से भगवान का पूजन करने से अनन्त लाभ मिलता है।

कार्तिक स्नान करने वाली स्त्रियां प्रतिदिन तुलसी के पौधे पर जल व रोली चढ़ाकर दीपक जलाती हैं और परिक्रमा करती हैं। तुलसी की स्तुति में ‘तुलसा’ गीत गाती हैं।

तुलसा महारानी नमो नमो,

हरि की पटरानी नमो नमो,

ऐसे का जप किए रानी तुलसा,

सालिग्राम बनी पटरानी बनी महारानी। तुलसा…

आठ माह नौ कातिक न्हायी,

सीतल जल जमुना के सेये

सालिग्राम बनी पटरानी बनी महारानी। तुलसा…

छप्पन भोग छत्तीसों व्यंजन,

बिन तुलसा हरि एक न मानी,

सांवरी सखी मैया तेरो जस गावें,

कातिक वारी मैया तेरो जस गावें

इच्छा भर दीजो महारानी। तुलसा …

चन्द्र सखी भज बालकृष्ण छवि,

हरि चरणन लिपटानी। तुलसा …

तुलसा-पूजन व गाने से जन्म-जन्मान्तर के पाप दूर हो जाते हैं।

कुमारी कन्या को सुन्दर वर, स्त्री को संतान व वृद्धा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को तुलसी तथा भगवान विष्णु के प्रतीक शालिग्राम का धूमधाम से विवाह रचाया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि तुलसी को कार्तिक स्नान करने से श्रीकृष्ण (शालिग्राम) वर के रूप में प्राप्त हुए थे।

शास्त्रों से है तुलसी के पौधे का संबंध

तुलसी के पौधे को प्रत्यक्ष तौर से देवी मानकर मंदिरों और घरों में उसकी पूजा की जाती है। तुलसी को सर्व दोष निवारक, सर्व सुलभ तथा सर्वोपयोगी बताया गया है।

प्राचीन शास्त्रों में, तुलसी को स्वर्ग और पृथ्वी के बीच का प्रवेश द्वार माना जाता है। शास्त्रों में बताया गया है कि तुलसी की निचली शाखाओं में और इसके तने में अन्य सभी देवी-देवताओं और सभी हिंदू तीर्थों का वास होता है।

तुलसी के पौधे के हर एक हिस्से को पूजनीय बताया गया है और इसलिए शास्त्रों में इसकी पूजा का विधान बताया गया है। तुलसी हिंदू धर्म में सबसे पवित्र पौधा है। पौराणिक कथाओं और शास्त्रों में लिखी मान्यताओं की वजह से ही तुलसी को हिन्दू धर्म में सबसे पवित्र पौधे के रूप में पूजा जाने लगा और इसकी पवित्रता से सभी नकारात्मक शक्तियां दूर रहती हैं।

भारतीय संस्कृति के चिर पुरातन ग्रंथ वेदों में भी तुलसी के गुणों एवं उसकी उपयोगिता का वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त ऐलोपैथी, होमियोपैथी और यूनानी दवाओं में भी तुलसी का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया जाता है।

तुलसी का पौधा लगाने के धार्मिक महत्व

हिंदू धर्म में तुलसी के पौधे की पूजा देवी के रूप में की जाती है। शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान विष्णु की पूजा बिना तुलसी पत्ते के अधूरी मानी जाती है।

इसके अलावा हनुमानजी की पूजा में भी तुलसी का पत्ता चढ़ाया जाता है। तुलसी की सेवा भाव करने से घर में सुख- समृद्धि बनी रहती है।

धर्म में तुलसी का पौधा पवित्र, पूजनीय और लाभकारी माना गया है।

शास्त्रों के अलावा आर्युवेद में भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।

ज्यादातर लोगों के घर में तुलसी का पौधा लगा हुआ होता है। तुलसी का पौधा हमारे लिए धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व रखता है।

मान्यता है कि तुलसी का पौधा लगाने से घर में सुख- समृद्धि आती है। इसका इस्तेमाल कई बीमारियों से छुटकारा दिलाने के लिए किया जाता है

 घर में तुलसी पौधा लगाने का धार्मिक महत्व

1. हिंदू धर्म में मान्यता है कि तुलसी के पत्तों को गंगाजल के साथ मृत व्यक्ति के मुंह में रखने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। ऐसा करने से व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है।

2. तुलसी और गंगाजल को कभी बासी नहीं माना जाता है। इन दोनों चीजों का इस्तेमाल पूजा में किया जाता है। मान्यता है कि इन चीजों के बिना आपकी पूजा अधूरी मानी जाती है।

3. हर रोज तुलसी के पौधे में जल डालना और नियमित रूप से पूजा करने से आपके सभी पाप मिट जाते हैं। मान्यता है कि अगर तुलसी के पौधे की रोजाना पूजा होती है तो यमराज प्रवेश नहीं करते हैं और घर में सुख – समृद्धि रहती है।

4. तुलसी का पौधे को घर में रखने के कुछ नियम होते हैं। कभी भी अपवित्र हाथों, रविवार, चंद्रग्रहण, एकादशी के दिन तुलसी का पत्ता नहीं तोड़ना चाहिए. ऐसा करने से दोष लगता है। बिना जरूरत के पत्ता तोड़ने से माता तुलसी नाराज हो जाती है।

5. तुलसी का पौधा लगाते समय ध्यान दे कि सूखे नहीं। अगर आप बाहर जा रहे हैं तो ऐसी व्यवस्था करें कि तुलसी के पौधे को पानी मिलता रहें। रोजाना सुबह उठकर तुलसी की पूजा करनी चाहिए। इससे आपके घर में मां लक्ष्मी की कृपा बरसती है।

6.तुलसी के पौधे का महत्व सभी हिंदू ग्रंथों और शास्त्रों में बताया गया है। तुलसी के पौधे की कई गुण पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्त, स्कंद पुराण, भविष्य पुराण और गुरुड़ पुराण में बताई गई है।

पूजन विधि

धर्म में वृक्ष पूजा असामान्य नहीं है, तुलसी के पौधे को सभी पौधों में सबसे पवित्र माना जाता है।

तुलसी के पौधे को स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एक दहलीज बिंदु माना जाता है।

एक पारंपरिक प्रार्थना बताती है कि निर्माता-देवता ब्रह्मा इसकी शाखाओं में निवास करते हैं, सभी हिंदू तीर्थस्थल इसकी जड़ों में निवास करते हैं, गंगा इसकी जड़ों के भीतर बहती है, सभी देवता इसके तने और पत्तियों में हैं, और यह कि सबसे पवित्र हिंदू ग्रंथ, पवित्र तुलसी की शाखाओं के ऊपरी भाग में वेद पाए जाते हैं।

तुलसी जड़ी बूटी विशेष रूप से महिलाओं के बीच घरेलू धार्मिक भक्ति का केंद्र है और इसे “महिला देवता” और “पत्नीत्व और मातृत्व का प्रतीक” कहा जाता है, इसे “हिंदू धर्म का केंद्रीय सांप्रदायिक प्रतीक” भी कहा जाता है और वैष्णव इसे मानते हैं “पौधों के साम्राज्य में भगवान की अभिव्यक्त है।

सुबह अपने नैतिक कार्यों से निवृत होकर मां तुलसी की पूजा करनी चाहिए।

पहले कुमकुम से उनका टीका करना चाहिए और उसके बाद उनकी आरती करके जल चढ़ाना चाहिए। जल चढ़ाते वक्त आपको निम्नलिखित मंत्र पढ़ने चाहिए।

इसके बाद तुलसी की परिक्रमा करनी चाहिए, जोकि अपनी सुविधानुसार 7, 11, 21 या 111 परिक्रमा कर सकते हैं और उसके बाद मां तुलसी का ध्यान करना चाहिए।

भगवान को किसी भी वस्तु का भोग लगाने से पहले उसमें तुलसी के पत्ते डालकर प्रसाद वितरित करना चाहिए। तुलसी पूजा सुबह ही नहीं आप कभी भी कर सकते हैं।

तुलसी के नाम

वृंदा, वृंदावनी, विश्वपावनी, विश्वपूजिता, पुष्पसारा, नंदिनी, तुलसी और कृष्णजीवनी

कहते हैं कि जो व्यक्ति तुलसी की पूजा करके इस नामाष्टक का पाठ करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

स्कंद पुराण के अनुसार जिस घर में तुलसी का बगीचा होता है अथवा प्रतिदिन पूजन होता है, घर में यमदूत प्रवेश नहीं करते। तुलसी की उपस्थिति मात्र से नकारात्मक शक्तियों एवं दुष्ट विचारों से रक्षा होती है।

गरुड पुराण के अनुसार तुलसी का वृक्ष लगाने, पालन करने, सींचने तथा ध्यान, स्पर्श और गुणगान करने से मनुष्यों के पूर्व जन्मार्जित पाप जलकर नष्ट हो जाते हैं।

आयुर्वेद में तुलसी का महत्व

हिंदू धर्मग्रंथों और शास्त्रों के अनुसार आयुर्वेद में तुलसी के पौधे का विशेष महत्व है।

यह न केवल धार्मिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण पौधा है, बल्कि यह सेहत के लिए भी लाभकारी है।

जिस घर में इस पौधे की स्थापना की जाती है, उस घर में आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही सुख, शांति और समृद्धि आती है। यह घर को मौसमी बीमारियों, और प्रदूषण से बचाकर रखता है।

1. आयुर्वेद के अनुसार, तुलसी के नियमित सेवन से व्यक्ति के विचार में पवित्रता , मन में एकाग्रता और क्रोध पर नियंत्रण होने लगता है। साथ ही आलस्य भी दूर हो जाता है।

2.शरीर में दिन भर स्फूर्ति बनी रहती है।

3. इसके बारे में यहां तक कहा गया है की औषधीय गुणों की दृष्टि से यह संजीवनी बूटी के समान है।

4.तुलसी को संस्कृत में हरिप्रिया कहा गया है अर्थात जो हरि यानी भगवान विष्णु को प्रिय है।

5.कहते हैं, औषधि के रूप में तुलसी की उत्पत्ति से भगवान विष्णु का संताप दूर हुआ था। इसलिए तुलसी को यह नाम दिया गया है।

6.धार्मिक मान्यता है कि तुलसी की पूजा-आराधना से व्यक्ति स्वस्थ और सुखी रहता है।

7.पौराणिक कथाओं के अनुसार देवों और दानवों द्वारा किए गए समुद्र-मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई थी।

8.यही कारण है कि इस पौधे के हर हिस्से में अमृत समान गुण हैं।

9.हिन्दू धर्म में मान्यता है कि तुलसी के पौधे की ‘जड़’ में सभी तीर्थ, ‘मध्य भाग (तना)’ में सभी देवी-देवता और ‘ऊपरी शाखाओं’ में सभी वेद यानी चारों वेद स्थित हैं।

10.इसलिए इस मान्यता के अनुसार, तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है और इसके पूजन को मोक्षदायक कहा गया है।

इनके अलावा भी तुलसी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है मनुष्य के रोज़ मर्रा जीवन मे यह सिर्फ एक पौधा नही है अपितु इसके अलावा यह जीवन देने वाली बुटि है।

 भारतीय संस्कृति के चिर पुरातन ग्रंथ वेदों में भी तुलसी के गुणों एवं उसकी उपयोगिता का वर्णन मिलता है इसके अतिरिक्त ऐलोपैथी, होमियोपैथी और यूनानी दवाओं में भी तुलसी का किसी न किसी रूप में प्रयोग किया जाता है।

तुलसी के विशेष मंत्र

तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है।

तुलसी के पत्ते तोड़ते समय बोलने के मंत्र

– ॐ सुभद्राय नमः

– ॐ सुप्रभाय नमः

– मातस्तुलसि गोविन्द हृदयानन्द कारिणी

नारायणस्य पूजार्थं चिनोमि त्वां नमोस्तुते

तुलसी को जल देने का मंत्र

महाप्रसाद जननी, सर्व सौभाग्यवर्धिनी

आधि व्याधि हरा नित्यं, तुलसी त्वं नमोस्तुते।।

तुलसी स्तुति का मंत्र

देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः

नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये।।

तुलसी पूजन के बाद बोलने का तुलसी मंत्र

तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी।

धर्म्या धर्मानना देवी देवीदेवमन: प्रिया।।

लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत्।

तुलसी भूर्महालक्ष्मी: पद्मिनी श्रीर्हरप्रिया।

तुलसी नामाष्टक मंत्र :

वृंदा वृंदावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी।

पुष्पसारा नंदनीय तुलसी कृष्ण जीवनी।।

एतभामांष्टक चैव स्त्रोतं नामर्थं संयुतम।

य: पठेत तां च सम्पूज्य सौश्रमेघ फलंलमेता।।

तुलसी के प्रतिदिन पूजन करने से घर में धन-संपदा, वैभव, सुख समृद्धि की प्राप्ति होती हैं।

तुलसी पूजा के 10 चमत्कारिक लाभ ,साथ ही वो मंत्र जो करता है जिसका जप करता है हर मनोकामना पूरी

तुलसी में कई औषधीय गुण होते हैं। आप जिस तरीके से इसका सेवन करेंगे आपको ये उस तरह लाभ पहुंचाएगी. तुलसी में एंटीऑक्सीडेंट और इम्यूनिटी बढ़ाने की विशेष क्षमता होती है.

तुलसी के अन्य चमत्कारिक गुण

हिंदू धर्म तुलसी को विशेष महत्व दिया गया है। तुलसी को हरिवल्लभा भी कहते हैं क्योंकि ये विष्णु जी का बहुत ही प्रिय है।

कहते हैं कि जिस घर में तुलसी की नियमानुसार पूजा की जाती है और उन्हें जल अर्पित किया जाता है वहां कभी दरिद्रता नहीं आती।

मां लक्ष्मी की उस घर में हमेशा कृपा बनी रहती है. इसके अलावा तुलसी विवाह पर विशेष रूप से पूजा करने से व्यक्ति की विवाह संबंधी बाधा खत्म हो जाती है।

तुलसी एक नेचुरल एयर प्यूरिफायर भी है, जो वायु प्रदुषण को कम करता है और ऑक्सीजन को बनाए रखने में मदद करता है। इससे मक्खी, मच्छर और कीड़े भागते हैं। यह एंटीऑक्सीडेंट भी है और इम्‍यूनिटी बढ़ाने के साथ-साथ वायरल इंफेक्‍शन से भी बचाती है.

 तुलसी के चमत्कारिक लाभ

1. तुलसी का रोज सेवन करने से व्यक्ति का शरीर चंद्रायण व्रतों के फल के समान पवित्रता प्राप्त कर लेता है.

2. घर में तुलसी का पौधा लगाने से घर में पवित्रता और शुद्धता आती है और नकारात्मक उर्जा दूर भागती है.

3. तुलसी पूजा का मंत्र ‘ऊं नमो भगवते वासुदेवाय नमः’ का जप करने से सुख-समृद्धि के योग बनते हैं और सारी मनोकामना पूरी होती है.

4. तुलसी के पत्ते डालकर स्नान करने से किसी तीर्थ पर स्नान करने जैसा फल प्राप्त होता है। वह सभी यज्ञों में बैठने का अधिकारी होता है।

5. अगर घर में कलाह और अशांति रहती है तो तुलसी को अपने आंगन में जरूर लगाए और नियमित जल दें।

6. मां लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए तुलसी पूजा करें।

7. दही के साथ चीनी और तुलसी के पत्तों का सेवन करना शुभ माना जाता है।

8. इसके अलावा तुलसी का सेवन करने वाले पर देवी-देवताओं की भी कृपा रहती है।

9. दही के साथ तुलसी का सेवन करने से कई सारे आयुर्वेदिक लाभ होते हैं. इससे तनाव दूर होता है और शरीर उर्जावान महसूस करता है।

10. तुलसी से वास्तु दोष दूर होता है।

धार्मिक परंपराएं

तुलसी विशेष रूप से विष्णु और उनके रूपों कृष्ण और विठोबा और अन्य संबंधित वैष्णव देवताओं की पूजा में पवित्र है।

10000 तुलसी के पत्तों से बनी माला, तुलसी मिश्रित जल, तुलसी से छिड़का हुआ खाद्य पदार्थ विष्णु या कृष्ण की पूजा में चढ़ाया जाता है।

वैष्णव पारंपरिक रूप से तुलसी के तनों या तुलसी माला नामक जड़ों से बने जाप माला का उपयोग करते हैं , जो दीक्षा का एक महत्वपूर्ण प्रतीक हैं।

तुलसी माला पहनने वाले के लिए शुभ मानी जाती है, और माना जाता है कि यह उसे विष्णु या कृष्ण से जोड़ती है और देवता की सुरक्षा प्रदान करती है।

उन्हें हार या माला के रूप में पहना जाता है या हाथ में धारण किया जाता है और माला के रूप में उपयोग किया जाता है।

वैष्णवों के साथ तुलसी का महान संबंध इस तथ्य से संप्रेषित होता है कि वैष्णवों को “जो गले में तुलसी धारण करते हैं” के रूप में जाना जाता है।

कुछ तीर्थयात्री द्वारका की यात्रा के दौरान अपने हाथों में तुलसी के पौधे लेकर चलते हैं, कृष्णा की पौराणिक राजधानी और सात सबसे पवित्र हिंदू शहरों में से एक। 

अलग-अलग संप्रदाय तुलसी के उपयोग को विष्णु से संबंधित देवताओं के लिए प्रार्थना में मानते हैं और अलग-अलग अवतार हैं।

महत्त्व

श्रीमद्भागवतम में , अन्य पौधों पर तुलसी के महत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है:

यद्यपि मंदार, कुण्ड, कुरबाक, उत्पल, चम्पक, अर्ण, पुन्नाग, नागकेशर, बकुल, कुमुदिनी और पारिजात जैसे फूलों के पौधे दिव्य सुगंध से भरे हुए हैं, फिर भी वे तुलसी द्वारा की जाने वाली तपस्या के प्रति सचेत हैं, क्योंकि तुलसी को तुलसी द्वारा विशेष वरीयता दी जाती है। भगवान, जो खुद को तुलसी के पत्तों की माला पहनाते हैं।

तुलसी के पौधे का हर भाग पूजनीय और पवित्र माना जाता है। यहाँ तक कि पौधे के चारों ओर की मिट्टी भी पवित्र होती है।

पद्म पुराण एक व्यक्ति की घोषणा करता है जिसे उसके अंतिम संस्कार में तुलसी की टहनियों के साथ अंतिम संस्कार किया जाता है और विष्णु के निवास स्थान वैकुंठ में मोक्ष प्राप्त करता है ।

यदि विष्णु के लिए एक दीपक जलाने के लिए तुलसी की छड़ी का उपयोग किया जाता है, तो यह देवताओं को लाखों दीपक अर्पित करने जैसा है।

यदि कोई सूखी तुलसी की लकड़ी (एक पौधे से जो स्वाभाविक रूप से मर गया) का लेप बनाता है और इसे अपने शरीर पर लेप करता है और विष्णु की पूजा करता है, तो यह कई साधारण पूजा और लाखों गौदानम (गायों का दान) के लायक है।

तुलसी के पत्तों के साथ मिश्रित जल मरने वालों को उनकी दिवंगत आत्माओं को स्वर्ग में उठाने के लिए दिया जाता है।

जिस प्रकार तुलसी सम्मान फलदायक होता है, उसी प्रकार उसका तिरस्कार विष्णु के क्रोध को आकर्षित करता है। इससे बचने के लिए सावधानियां बरती जाती हैं।

संयंत्र के पास पेशाब करना, मलत्याग करना या अपशिष्ट जल फेंकना वर्जित है। पौधे की शाखाओं को उखाड़ना और काटना प्रतिबंधित है।जब पौधा मुरझा जाता है, तो सूखे पौधे को उचित धार्मिक संस्कारों के साथ जल निकाय में विसर्जित कर दिया जाता है, जैसा कि टूटी हुई दिव्य छवियों के लिए प्रथा है, जो पूजा के लिए अयोग्य हैं।

हालांकि हिंदू पूजा के लिए तुलसी के पत्ते आवश्यक हैं, इसके लिए सख्त नियम हैं। कृत्य से पहले तुलसी को क्षमा की प्रार्थना भी की जा सकती है।

शास्त्रों के अनुसार किस दिन ‘तुलसी’ के पत्तें नहीं तोड़ना चाहिए?

तुलसी जी को जब भी तोड़े तोडने से पहले वंदन करे..उनसे आज्ञा ले

उन्हें तोड़ने से पहले कुछ बातें ध्यान रखनी चाहिए

1. तुलसी जी को नाखूनों से कभी नहीं तोडना चाहिए,नाखूनों के तोडने से पाप लगता है।

2.सांयकाल के बाद तुलसी जी को स्पर्श भी नहीं करना चाहिए ।

3. रविवार को तुलसी पत्र नहीं तोड़ने चाहिए ।

4. जो स्त्री तुलसी जी की पूजा करती है। उनका सौभाग्य अखण्ड रहता है ,ऐसी मान्यता है।

5. द्वादशी के दिन तुलसी को नहीं तोडना चाहिए ।

6. सांयकाल के बाद तुलसी जी लीला करने जाती है। इसीलिए सांय काल भी तुलसी जी नहीं तोड़नी चाहिए।

7. तुलसी जी वृक्ष नहीं है! साक्षात् राधा जी का अवतार है ।

8. तुलसी के पत्तो को चबाना नहीं चाहिए

पूजा का महत्व

तुमसे के पौधे  का धार्मिक महत्व होता है, और हिंदू परिवार की महिलाएं इसका महत्व समझती हैं।

तुलसी का पौधा  घर के बीच में बनी वेदी पर लगाया जाता है जिसे तुलसी चौरा कहा जाता है।

यह भारतीय संस्कृति में इस पौधे की सबसे अधिक पूजा होती है। तुलसी के पौधे को बहुत अधिक देखभाल की जरुरत होती है।

पूजा में, तुलसी के पत्ते पंचामृत में इस्तेमाल होते हैं। यह पूजा में इस्तेमाल की जाने वाली एकमात्र पवित्र पौधा है। तुलसी के पौधे को साफ करके दूसरी पूजा के लिए फिर से इस्तेमाल किया जा सकता है।

भगवान का प्रसाद

तुलसी की पत्तियों का इस्तेमाल माला बनाने के लिए भी किया जाता है। अलंकरण समारोह के दौरान इसके पत्ते को भगवान को चढ़ाते हैं।

बहुत से लोगों का मानना है कि तुलसी के पत्ते के बिना भगवान विष्णु के सभी यज्ञ अधूरे होते हैं। यह तुलसी की माला भगवान के साथ जुड़ने के लिए खास मानी जाती है।

वैष्णव का मानना है कि तुलसी के पत्तों से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। सूखे पौधे के तनों का इस्तेमाल माला बनाने के लिए किया जाता है।

ऐसा इसलिए है क्योंकि वैष्णव तुलसी की माला पहनते हैं, खासकर जब विष्णु मंत्रों का जाप करते हैं। मला पहनकर वे भगवान विष्णु के साथ सामंजस्य बनाए रखते हैं।

तुलसी का पौराणिक महत्व और कृष्ण को चढ़ावा

विष्णु के अवतार माने जाने वाले भगवान कृष्ण ने एक बार तुलाभारम कराया, जिसमें व्यक्ति को अनाज, सिक्के, सब्जियां, सोना, आदि से तौला जाता है। इसमें व्यक्ति को तराजु के एक ओर बैठाकर दूसरी ओर सोने के आभूषण रखें जाते हैं।

इस समारोह के दौरान, कृष्ण का वजन सभी गहनों से अधिक था इसलिए, जब और गहने नहीं बचे तो उनकी दूसरी रानी रुक्मिणी ने एक तुलसी का पत्ता तराजु के दूसरी तरफ रख दिया, जिससे वह झुक गया।

यह कहानी दर्शाती है कि भगवान कृष्ण भी तुलसी को अपने से श्रेष्ठ मानते हैं। नतीजतन, कृष्ण ने तुलसी के पौधे को अधिक महत्वपूर्ण माना है।

तुलसी का पौधा सूखना या मुरझा जाए तो क्या होता है?

(तुलसी के पौधे) का वास्तु शास्त्र और आयुर्वेद में काफी महत्व है। इस शुभ पौधे की देखभाल बहुत संभालकर की जानी चाहिए।

हालांकि, कई बार ऐसा भी होता है जब हर तरह के प्रयासों के बावजूद तुलसी का पौधा सूख या मुरझा जाता है तुलसी का पौधाके सूखने का वास्तु शास्त्र और आयुर्वेद में कुछ महत्व है।

तुलसी का पौधा जब सूख जाता है तो नष्ट हो जाता है और फिर से जीवित नहीं होता; यह कभी-कभी घर में दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं का संकेत होता है। इसका मतलब परिवार में मृत्यु या गंभीर बीमारी हो सकता है।

क्यों कहते हैं गाय को माता, इनकी पूजा और सेवा के फायदे

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हिंदू धर्म में गाय को माता कहा गया है गाय की पूजा एक माँ की तरह की जाती है हमारी संस्कृति में गाय को
पवित्र माना गया है।

प्राचीन काल से ही भारत में गोधन को मुख्य धन मानते आए हैं और हर प्रकार से गौरक्षा,
गौ सेवा एवं गौपालन पर ज़ोर दिया जाता रहा है। हमारे हिन्दूशास्त्रों, वेदों में गौ रक्षा, गौ महिमा, गौ पालन
आदि के प्रसगं भी अधिकाधिक मिलते हैं।

रामायण, महाभारत, भगवद् गीता में भी गाय का किसी न किसी रूप में उल्लेख मिलता है।

गाय, भगवान श्री कृष्ण को अति प्रिय है। गौ पृथ्वी का प्रतीक है। गौ माता में सभी
देवी-देवता विद्यमान रहते हैं।

सभी वेद भी गौमाता में प्रतिष्ठित हैं। पुराणो में धर्म को भी गौ रूप में दर्शाया गया है। शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि की रचना की थी तो सबसे पहले गाय को ही पृथ्वी पर भेजा था।

सभी जानवरों में मात्र गाय ही ऐसा जानवर है जो मां शब्द का उच्चारण करता है, इसलिए माना जाता है
कि माँ शब्द की उत्पत्ति भी गौवशं सेहुई थी।

भगवान श्रीकृष्ण गाय की सेवा अपने हाथों से करते थे और इनका निवास भी गोलोक बताया गया है। इतना ही नहीं गाय को कामधेनुके रूप में सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला भी बताया गया है।

गाय हम सब को मां की तरह अपने दूध से पालती-पोषती है। आयुर्वेद के अनुसार भी मां के
दूध के बाद बच्चे के लिए सबसे फायदेमंद गाय का ही दूध होता है।

हिंदू धर्म में अनेक परंपराएं है, गो-दान यानी गाय का दान करना भी उनमें से एक है।

गाय को हिंदू धर्म में बहुत ही पवित्र मानकर माता का स्थान दिया गया है।

अनेक धर्म ग्रंथो में गाय के महत्व के बारे में बताया गया है। इसके दूध को अमतृ कहा गया है,
वहीं गौमूत्र और गोबर को भी परम पवित्र माना गया है।


गाय एक महत्वपूर्ण पालतू पशु है जो संसार में प्रायः सर्वत्र पाई जाती है। इससे उत्तम किस्म का दूध प्राप्त होता
है। हिंदू गाय को ‘माता’ (गौमाता) कहते हैं। इसके बछड़े बड़े होकर गाड़ी खींचते हैं एवं खेतों की जुताई करते
हैं।

भारत में वैदिक काल से ही गाय का महत्व रहा है। आरम्भ में आदान-प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम
के रूप में गाय उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि की गणना उसकी गौ संख्या से की जाती थी।

हिंदी धर्म में धार्मिक दृस्टि से भी गाय पवित्र मानी जाती रही है तथा उसकी हत्या महापातक पापों में गिनी जाती है।


भारत में गो पालन एक पवित्र कार्य माना जाता है।
गोहत्यां ब्रह्म हत्यां च करोति ह्यति देशि कीम।
यो हि गच्छत्यगम्यां चयः स्त्रीहत्यांकरोति च ॥ २३
भि क्षुहत्यांमहापापी भ्रणू हत्यां च भारत।
कुम्भीपाके वसेत्सोऽपि यावदि न्द्राश्चतर्दुर्दश ॥


क्यों पवित्र है गाय


पौराणि क कथाओं के अनुसार व श्रीमद्भागवत के अनुसार देवताओं और असुरो के बीच हुए समद्रु मथंन से
निकले14 रत्नों में से एक कामधेनुगाय थी पवित्र होने की वजह से इसे ऋषियों ने अपने पास रख लिया।
माना जाता है कि कामधेनु से ही अन्य गायों की उत्पत्ति हुई।


धर्मग्रंथों में ये भी बताया गया है गाय में सभी देवता निवास करते हैं। गाय की पूजा करनेसे सभी देवताओं का
पूजन अपने आप हो जाता है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण भी गायों की सेवा करते थे। श्रीकृष्ण रोज सबुह गायों की पूजा
करते थे और ब्राह्मणों को गौदान करते थे।
महाभारत के अनुसार, गाय के गोबर और मत्रू में देवी लक्ष्मी का निवास है। इसलिए इन दोनों चीजों का उपयोग
शभु काम में किया जाता है।
वैज्ञानिको ने भी माना है कि गौमत्रू में बहुत से उपयोगी तत्व पाए जाते हैं, जिनसे अनेक बीमारियों का उपचार
सभंव है।

गाय का दूध , घी आदि चीजें भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं। विशषे अवसरों पर ब्राह्मणों को गाय दान
करने की परंपरा आज भी है


गाय के १०८ नाम


।। दोहा ।।
श्री गणपति का ध्यान कर जपो गौ मात के नाम।
इनके सुमिरन मात्र से खशु होवेंगे श्याम।।

1- कपिला, 2- गौतमी, 3- सरुभी, 4- गौमती, 5- नदंनी, 6- श्यामा, 7-वैष्णवी, 8- मंगला, 9- सर्वदर्व ेव वासि नी, 10- महादेवी, 11- सि धं ुअवतरणी, 12- सरस्वती, 13- त्रि वेणी, 14- लक्ष्मी, 15- गौरी, 16- वैदेही, 17- अन्नपूर्णा, 18- कौशल्या, 19- देवकी, 20- गोपालिनी। 21- कामधेनु , 22- आदिति , 23- माहेश्वरी, 24- गोदावरी, 25- जगदम्बा, 26- वजै यतं ी, 27- रेवती, 28- सती, 29- भारती, 30- त्रिविद्या, 31- गंगा, 32- यमुना, 33- कृष्णा, 34- राधा, 35- मोक्षदा, 36- उतरा- 37- अवधा, 38- ब्रजेश्वरी, 39- गोपेश्वरी, 40-कल्याणी। 41- करुणा, 42- वि जया, 43- ज्ञानेश्वरी, 44- कालि दं ी, 45- प्रकृति , 46- अरुंधति , 47- वदंृा, 48- गि रि जा, 49- मनहोरणी, 50- सध्ं या, 51- ललि ता, 52- रश्मि , 53- ज्वाला, 54- तलु सी, 55- मल्लि का, 56- कमला, 57- योगेश्वरी, 58- नारायणी, 59- शि वा, 60- गीता। 61- नवनीता, 62- अमतृ ा अमरो, 63- स्वाहा, 64- धनं जया, 65- ओमकारेश्वरी, 66- सि द्धि श्वरी, 67- नि धि , 68- ऋद्धि श्वरी, 69- रोहि णी, 70- दर्गाु र्गा, 71- दर्वाूर्वा, 72, शभु मा, 73- रमा, 74- मोहनेश्वरी, 75- पवि त्रा, 76- शताक्षी, 77- परि क्रमा, 78- पि तरेश्वरी, 79- हरसि द्धि , 80- मणि 81- अजं ना, 82- धरणी, 83- वि ध्ं या, 84- नवधा, 85- वारुणी, 86- सवु र्णा , 87- रजता, 88- यशस्वनि , 89- देवेश्वरी, 90- ऋषभा, 91- पावनी, 92- सप्रुभा, 93- वागेश्वरी, 94- मनसा, 95- शाण्डि ली, 96- वेणी, 97- गरुडा, 98- त्रि कुटा, 99- औषधा, 100- कालांगि 101- शीतला, 102- गायत्री, 103- कश्यपा, 104- कृति का, 105- पर्णाू र्णा, 106- तप्ृता, 107- भक्ति , 108- त्वरि ता।


।। दोहा ।।
अनतं नाम गौ मात के सब देवो का वास।
सब भक्तो का आपके चरणों में विश्वास।।
इन नामो को नित्य पठन से रिद्धि सिद्धि घर आयेगी।
श्री कृष्ण राम कृपा से,सर्व देव कृपा हो जायेगी।।


गाय को माता माननेके पीछेके कारण
मां शब्द की उत्पत्ति गौ वशं से हुई
गाय को माता मानने के पीछे यह आस्था है गाय में समस्त देवता निवास करते हैं व प्रकृति की कृपा भी गाय
की सेवा करने से ही मिलती हैं।

आज भी भारतीय समाज में गाय को गौ माता कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार,
ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि की रचना की थी तो सबसे पहले गाय को ही पृथ्वी पर भेजा था।

सभी जानवरों में मात्र गाय ही ऐसा जानवर है जो मां शब्द का उच्चारण करता है, इसलिए माना जाता है कि मां शब्द की उत्पत्ति भी गौ वशं से हुई है।

गाय हम सब को मां की तरह अपने दूध से पालती-पोषती है।

आयुर्वेद के अनुसार भी मां के दूध के बाद बच्चे के लिए सबसे फायदेमदं गाय का ही दूध होता है।

कौन से देवों का वास है गाय मे


भविष्य पुराण के अनुसार गाय के सींगों में तीनों लोकों के देवी-देवता विद्यमान रहते हैं। गाय के सींग में ब्रह्मा, विष्णु व महेश विद्यमान रहते हैं।

सृष्टि के रचनाकार ब्रह्मा और पालनकर्ता विष्णु गाय के सींगों के निचले हिस्से में विराजमान हैं तो गाय के सींग के मध्य में शिव
शंकर विराजते हैं।

गौ के ललाट में मां गौरी तथा नासिका भाग में भगवान कार्तिकेय विराजमान हैं।
भगवान शिव का वाहन नंदी (बैल) भगवान इंद्र के पास समस्त मनोकामना को पूर्ण करने वाली गाय कामधेनु
भगवान श्री कृष्ण का गोपाल होना एवं अन्य देवियों के मातृवत गुणों को गाय में देखना भी गाय को पूजनीय
बनाते है।

भविष्य पुराण के अनुसार गौ माता के पृष्ठदेश यानी पीठ में ब्रह्मा निवास करते हैं तो गले में भगवान विष्णु
विराजते हैं, भगवान शिव मुख में रहते हैं तो मध्य भाग में सभी देवताओं का वास है गौ माता का रोम-रोम
महर्षि योगियों का ठिकाना है।

तो पूँछ का स्थान अनतं नाग का है खुरों में सारे पर्वत समाए हैं तो गोमत्रू में गंगा नदी
पवित्र नदियां , गोबर जहां लक्ष्मी का निवास , माता के नेत्रों में सूर्य और चन्द्र का वास है।

कुल मिलाकर गाय को पृथ्वी ब्राह्मण और देव का प्रतीक माना जाता है प्राचीन समय में गौ दान सबसे बड़ा
दान माना जाता था और गौ हत्या को महापाप।
यही कारण है की वैदिक काल से ही हिंदू धर्म के मानने वाले गाय की पूजा करते आ रहे हैं। गाय की पूजा के
लिए गोपाष्टमी का त्यौहार भी भारत भर में मनाया जाता है। इसलिए ही गाय को माता कहते हैं।


गौ पूजन से इच्छाओं की पूर्ति


हिन्दू धर्म में गाय को माता, कामधेनु कल्पवृक्ष और सभी कामनाओं की पूर्ति करनेवाली बताया गया है। गाय
माता के सपंर्णू शरीर में तैतीस कोटी देवी-देवताओं का वास होने का उल्लेख भी शास्त्रों में मिलता है।

भगवान श्रीकृष्ण गौ सेवा के अन्नय प्रेमी थे। शास्त्रों में गाय माता के 108 नाम बताएं गए है। कहा जाता है कि गाय के
इन 108 नामों का जप करने से भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं धार्मिक आस्था है कि गौ पूजा से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। घर की समृद्धि के लिए घर में गाय का होना बहुत शभु माना जाता है।


कहा जाता है कि विद्यार्थियों को अध्ययन के साथ ही गाय की सेवा भी करनी चाहिए। इससे उनका मानसिक
विकास तेजी से होता है। संतान और धन की प्राप्ति के लिए भी गाय को चारा खिलाना और उसकी सेवा करना
बेहतर परिणामदायक माना गया है|


गाय सांस से खींच लेती है सेवा करने वाले व्यक्ति के सारे पाप


धार्मिक आस्था है कि गाय अपनी सेवा करने वाले व्यक्ति के सारे पाप अपनी सांस के जरिए खींच लेती है। गाय
जहां पर बैठती है, वहां के वातावरण को शुद्ध करके सकारात्मकता से भर देती है।

ऐसा शायद इसलिए कहा जाता है क्योंकि गाय जहां भी बैठती है, वहां पर निर्भीकता से बैठती है। कहा जाता हैकि अपनी बैठी हुई जगह के सारे पापों को अपने अदंर समाकर, उस जगह को शुद्ध कर देनेकी क्षमता होती है


गौमत्रू होता है फायदेमंद


एक तरफ जहां गाय का गोबर पवित्र कार्यों के दौरान घर को लीपने के लिए प्रयोग किया जाता रहा है, वहीं गाय
के गोबर से बने कंडे (उपले) हवन करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।

माना जाता है कि गाय के गोबर से हवन करने पर वातावरण और घर के आस-पास मौजूद कीड़े भाग जाते हैं और वायु शुद्ध होती है। वहीं, गौमत्रू को कई तरह की दवाइयां बनाने में प्रयोग किया जाता है। क्योंकि इसमें रोगाणुओं को मारनेकी क्षमता होती है


ज्योतिष शास्त्र मे गाय का महत्व


सूर्य चन्द्रमा, मगंल, बधु , बहृस्पति , शुक्र , शनि , राहु, केतु के साथ-साथ वरुण, वायु आदि देवताओं को यज्ञ में
दी हुई प्रत्येक आहुति गाय के घी से देने की परंपरा है।

जिससे सर्यू की किरणों को विशेष ऊर्जा मिलती है। यही विशेष ऊर्जा वर्षा का कारण बनती है और वर्षा से ही अन्न, पेड़-पौधों आदि को जीवन प्राप्त होता है। वैतरणी पार करने के लिए गौ दान की प्रथा आज भी हमारे देश में मौजदू है।

श्राद्ध कर्म में भी गाय के दूध की खीर का प्रयोग किया जाता है क्योंकि इसी खीर से पितरों को तृप्ति मिलती है। पितर, देवता, मनुष्य सभी को शारीरिक बल गाय के दूध और घी से ही मिलता है।


ज्योतिष और धर्म शास्त्रों में बताया गया है कि विवाह जैसे मंगल कार्यो के लिए गोधूलि बेला सर्वोत्तम महुूर्त
होता है, संध्या काल में जब गाय जंगल से घास आदि खाकर आती है तब गाय के खुरों से उड़ने वाली धूल
समस्त पापों का नाश करती है।

नवग्रहों की शांति के लिए भी गाय कि विशेष भूमिका होती है। मगंल के अरिष्ट होनेपर लाल रंग की गाय की
सेवा और गरीब ब्राह्मण को गोदान ख़राब मगंल के प्रभाव को क्षीण कर देता है।

इसी तरह शनि की दशा, अन्तर्दशा और साढ़ेसाती के समय काली गाय का दान मनुष्यों को कष्टों से मुक्ति दिलाता है।
बधु ग्रह की अशभुता के निवारण हेतु गायों को हरा चारा खिलाने से राहत मिलती है।


पितृ दोष होने पर गाय को प्रतिदिन या अमावस्या को रोटी, गड़ु, चारा आदि खिलाना चाहिए।

गाय की सेवा पूजा से लक्ष्मी जी प्रसन्न होकर भक्तों को मानसिक शांति और सखुमय जीवन होनेका वरदान देती है।

गौ माता का जंगल से घर वापस लौटने का संध्या का समय (गोधूलि वेला) अत्यतं शुभ एवं पवित्र है। गाय का
मत्रू गो औषधि है।

मां शब्द की उत्पत्ति गौ मुख से हुई है। मानव समाज में भी मां शब्द कहना गाय से सीखा है।
जब गौ वत्स रंभाता है तो मां शब्द गुंजायमान होता है।

गौ-शाला में बैठ कर किए गए यज्ञ हवन ,जप-तप का फल कई गुना मिलता है।

बच्चों को नजर लग जानेपर, गौ माता की पूँछ से बच्चों को झाड़े जाने से नजर उत्तर जाती है, इसका उदाहरण ग्रंथो में भी पढ़नेको मिलता है, जब पूतना उद्धार में भगवान कृष्ण को नजर लग जाने पर गाय की पूँछ से नजर उतारी गई।

गौ के गोबर से लीपने पर स्थान पवित्र होता है। गौ-मत्रू का पवन ग्रंथो में अथर्ववेद, चरकसहिता, राजति पटु,
बाण भट्ट, अमतृ सागर, भाव सागर, सुश्रुतसंहिता  में सुन्दर वर्णन किया गया गया है|

काली गाय का दूध त्रिदोष नाशक सर्वो त्तम है। रुसी वैज्ञानिक शिरोविच ने कहा था कि गाय का दूध में रेडियो विकिरण से रक्षा करनेकी सर्वाधिक शक्ति होती है।

गाय का दूध एक ऐसा भोजन है, जिसमें प्रोटीन कार्बोहायड्रेट ,दुग्ध, शर्करा, खनिज लवण वसा आदि मनुष्य शरीर के पोषक तत्व भरपूर पाए जाते है। गाय का दूध रसायन का करता है।


आज भी कई घरों में गाय की रोटी रखी जाती है। कई स्थानों पर संस्थाए गौशाला बनाकर पुनीत कार्य कर रही है, जो कि प्रशंसनीय कार्य है।

साथ ही यांत्रिक कत्लखानों को बदं करने का आंदोलन, मांस निर्यात नीति का पुरजोर विरोध एवं गौ रक्षा पालन संवर्धन हेतु सामाजिक धार्मिक संस्थाएं एवं एवं सेवा भावी लोग लगातार संघर्षरत है।

हिन्दू धर्म में गाय का धार्मिक महत्व


भारत में गाय को देवी का दर्जा प्राप्त है। गाय के भीतर देवताओंका वास माना गया है। दिवाली के दूसरे दिन
गोवर्धन पूजा के अवसर पर गायों की विशषे पूजा की जाती है और उनका मोर पंखों आदि से श्रृंगार किया जाता है।

पुराण के अनुसार गाय में सभी देवताओं का वास माना गया है। गाय को किसी भी रूप में सताना घोर पाप
माना गया है।

उसकी हत्या करना तो नर्क के द्वार को खोलनेके समान है, जहां कई जन्मों तक दुःख भोगना होता है।
अथर्ववेद संहिता के अनुसार- ‘धेनुसदानाम रईनाम’ अर्थात गाय समृद्धि का मलू स्रोत है। गाय समृद्धि व प्रचुरता की
द्योतक है।

वह सृष्टि के पोषण का स्रोत है। वह जननी है। गाय के दूध से कई तरह के प्रॉडक्ट (उत्पाद) बनते
हैं।

गोबर से ईंधन व खाद मिलती है। इसके मूत्र से दवाइयाँ एव खाद बनते है।
प्राचीन ग्रंथो में सुरभि (इंद्र के पास), कामधेनु (समद्रु मथंन के 14 रत्नों में एक), पदमा, कपिला आदि गायों
महत्व बताया है।

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर्थंर ऋषभ देव जी ने असि , मसि व कृषि गौ वशं को साथ लेकर मनुष्य
को सिखाए।

हमारा पूरा जीवन गाय पर आधारित है। शिव मंदिर में काली गाय के दर्शन मात्र से काल सर्प योग
निवारण हो जाता है।

गाय के पीछेके पैरों के खुरों के दर्शन करने मात्र से कभी अकाल मृत्यु नहीं होती है। गाय की प्रदक्षिणा करनेसे
चारों धाम के दर्शन लाभ प्राप्त होता है, क्योंकि गाय के पैरों चार धाम है।


धार्मिकर्मि ग्रंथो में लिखा है “गावो वि श्वस्य मातर:” अर्थात गाय विश्व की माता है।

गौ माता की रीढ़ की हड्डी में सर्यू नाड़ी एवं केतु नाड़ी साथ हुआ करती है, गौमाता जब धूप में निकलती है तो सूर्य का प्रकाश गौ माता की रीढ़ हड्डी पर पड़ने से घर्षण द्वारा केरोटिन नाम का पदार्थ बनता है जिसे स्वर्णछर कहते हैं। यह पदार्थ नीचे
आकर दूध में मिलकर उसे हल्का पीला बनाता है।

इसी कारण गाय का दूध हल्का पीला नजर आता है। इसे पीनेसे बुद्धि का तीव्र विकास होता है। जब हम किसी अत्यतं अनिवार्य कार्य से बाहर जा रहे हों और सामने गाय माता के इस प्रकार दर्शन हो की वह अपने बछड़े या बछिया को दूध पिला रही हो तो हमें समझ जाना चाहिए की जिस काम के लिए हम निकले हैं वह कार्य अब निश्चित ही पूर्ण होगा।

गाय का रहस्य-

गाय इसलिए पूजनीय नहीं है कि वह दूध देती है और इसके होने से हमारी सामाजिक पूर्ति होती है, दरअसल मान्यता के अनुसार 84 लाख योनियों का सफर करके आत्मा अंतिम योनि के रूप में गाय बनती है। गाय लाखों योनियों का वह पड़ाव है, जहां आत्मा विश्राम करके आगे की यात्रा शरूु करती है।

गाय का वैज्ञानिक महत्व


वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करता है और ऑक्सीजन ही छोड़ता है,
जबकि मनुष्य सहित सभी प्राणी ऑक्सीजन लेते और कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ते हैं।

पेड़-पौधे इसका ठीक उल्टा करते हैं गौमाता के खुर से उड़ी हुई धूल को जो सिर पर धारण करता है, वह मानों तीर्थ के जल में स्नान कर लेता है और सभी पापों से छुटकारा पा जाता है।

पशुओ में बकरी, भेड़, ऊंटनी, भैंस का दूध भी काफी महत्व रखता है। किन्तु केवल दूध उत्पादन को बढ़ावा देनेके कारण भैंस प्रजाति को ही प्रोत्साहन मिला है, क्योंकि यह दूध अधिक देती है इसमें वसा की मात्रा ज्यादा होती है, जिससे घी अधिक मात्रा में प्राप्त होता है।
गाय का दूध गुणात्मक दृष्टि से अच्छा होने के बावजदू कम मात्रा में प्राप्त होता है। दूध अधिक मिले इसके
लिए कुछ लोग गाय और भसैं का दूध क्रूर और अमानवीय तरीके से निकालते हैं।

गाय का दूध निकालने से पहले यदि बछड़ा/बछिया हो तो पहले उसे पिलाया जाना चाहिए। वर्तमान में लोग बछड़ा/बछिया का हक कम करतेहै। साथ ही इंजेक्शन देकर दूध बढ़ानेका प्रयत्न करतेहैं, जो की उचित नहीं है।


जिस प्रकार पीपल का वृक्ष एवं तुलसी का पौधा आक्सीजन छोड़ते है। एक छोटा चम्मच देसी गाय का घी जलते
हुए कंडे पर डाला जाए तो एक टन ऑक्सीजन बनती है।

इसलिए हमारे यहां यज्ञ हवन अग्नि -होम में गाय का ही घी उपयोग में लिया जाता है। प्रदषूण को दूर करने का इससे अच्छा और कोई साधन नहीं है।

वास्तुदोष दूर करती है गौ माता


माना जाता है कि गाय जिस जगह खड़ी रहकर आनदंपर्वूकर्व चनै की सांस लेती है वहां वास्तुदोष समाप्त हो
जातेहैं।

जिस जगह गौ माता खुशी से रभांने लगे उस जगह देवी देवता पुष्प वर्षा करते हैं और मां लक्ष्मी का
उस घर में वास माना जाता है।

गौ माता के गले में घंटी जरूर बांधे, गाय के गले में बंधी घंटी बजने से गौ आरती होती है। आपके घर के आगे गाय आकर बैठने लगे तो समझ लीजिए अच्छे दिन आने वाले हैं।

घर के मुख्य द्वार से वास्तु मिटता है और सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है।


गौ माता की सेवा के फायदे

जो व्यक्ति गौ माता की सेवा पूजा करता है उस पर आने वाली सभी प्रकार की विपदाओं को गौ माता हर लेती
है।

गौ माता के खुरों में देवताओं का वास होता है। ऐसी मान्यता है कि जहां गौ माता विचरण करती हैं उस जगह
सांप बिच्छू नहीं आते।


गाय के पूँछ से दूर करेंनजर दोष


मान्यता है कि गौ माता के गोबर में लक्ष्मीजी का वास होता है। गौ माता की एक आखं में सूर्य व दूसरी में चंद्र देव का वास होता है।

गौ माता के दूध मे सुवर्ण तत्व पाया जाता है जो रोगों की क्षमता को कम करता है। गौ माता की पूँछ में हनुमानजी का वास होता है। ऐसा मानते हैं कि किसी व्यक्ति को बुरी नजर लग जाए तो गौ माता की पूँछ से झाड़ा लगाने से नजर उतर जाती है।


तो रोगों का नाश करती हैं गौ माता

गौ माता की पीठ पर एक उभरा हुआ कुबड़ होता है उसमें सूर्यकेतु नाड़ी होती है।

रोजाना सबुह आधा घंटा गौ माता की पीठ पर हाथ फेरने से रोगों का नाश होता है।

गौ माता को चारा खिलाने से 33 कोटी देवी देवताओं को भोग लग जाता है, क्योंकि मान्यता है कि गौ माता में 33 कोटी देवी देवताओंका वास होता है।


गाय जगाए सोया भाग्य


माना जाता है कि जिस व्यक्ति के भाग्य की रेखा सोई हुई हो तो वो व्यक्ति अपनी हथेली में गुड को रखकर गौ
माता को जीभ से चटाए गौ माता की जीभ हथेली पर रखे गुड को चाटने से व्यक्ति की सोई हुई भाग्य रेखा
जागृत हो जाती है।

गौ माता के चारों चरणों के बीच से निकलकर परिक्रमा करने से इंसान भयमुक्त हो जाता है।


शांत करें नौ ग्रह एव कार्य सम्पन्न करे

काली गाय की पूजा करने से नौ ग्रह शांत रहते हैं, जो ध्यानपर्वूकर्व धर्म के साथ गौ पूजन करता है उनको शत्रु
दोषों से छुटकारा मिलता है।

कोई भी शभु कार्य अटका हुआ हो और बार-बार प्रयत्न करनेपर भी सफल नहीं हो रहा हो तो गौ माता के कान में उस काम के बारे में कहिए। रुका हुआ काम बन जाएगा।


भारतीय गाय की विशेषताएँ हैं-


भगवत पुराण के अनुसार, सागर मन्थन के समय पाँच दैवीय कामधेनु ( नन्दा, सुभद्रा, सरुभि , सुशीला, बहुला)
निकलीं।

कामधेनु या सरुभि (सस्ं कृत: कामधकु ) ब्रह्मा द्वारा ली गई। दिव्य वैदिक गाय (गौमाता) ऋषि को दी
गई ताकि उसके दिव्य अमृत पचं गव्य का उपयोग यज्ञ, आध्यात्मिक अनुष्ठानो और संपूर्ण मानवता के
कल्याण के लिए किया जा सके।
भारतीय गाय की मुख्य २ वि शषेताएँ हैं-
(१) सन्ुदर कूबड़
(२) उनकी पीठ पर और गर्दन के नीचेत्वचा का झकु ाव है: गलकंबल
भारत में गाय की ३० से अधिक नस्लें पाई जाती हैं।

लाल सिन्धी, साहिवाल, गिर, देवनी, थारपारकर आदि नस्लें भारत में दुधारू गायों की प्रमखु नस्लें हैं।
लोकोपयोगी दृष्टि में भारतीय गाय को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

पहले वर्ग में वे गाएँ आती हैंजो दूध तो खबू देती हैं, लेकिन उनकी पसंु तं ान अकर्मण्र्म य अत: कृषि मेंअनपुयोगी होती है। इस प्रकार की गाएँदग्ुधप्रधान एकांगी नस्ल की हैं।

दसू री गाएँ वेहैं जो दूध कम देती हैंकि ंतुउनके बछड़ेकृषि और गाड़ी खींचनेके काम आते हैं। इन्हें वत्सप्रधान एकांगी नस्ल कहते हैं। कुछ गाएँ दूध भी प्रचरु देती हैंऔर उनके बछड़ेभी कर्मठ होतेहैं। ऐसी गायों को सर्वांगी नस्ल की गाय कहते हैं।

भारत की गो जातियाँ निम्नलिखित हैं


साहीवाल जाति
साहीवाल गाय का मलू स्थान पाकि स्तान मेंहै। इन गायों का सि र चौड़ा उभरा हुआ, सींग छोटी और मोटी, तथा
माथा मझोला होता है। भारत मेंयेराजस्थान के बीकानेर,श्रीगगं ानगर, पजं ाब मेंमांटगमु री जि ला और रावी
नदी के आसपास लायलपरु, लोधरान, गजं ीवार आदि स्थानों मेंपाई जाती है। येभारत मेंकहींभी रह सकती
हैं। एक बार ब्यानेपर ये१० महीनेतक दूध देती रहती हैं। दूध का परि माण प्रति दि न 10-20 लीटर प्रति दि न
होता है। इनके दूध में मक्खन का अशं पर्या प्त होता है। इसके दूध मेंवसा 4% से6% पाई जाती है।
सि धं ी
इनका मख्ु य स्थान सि धं का कोहि स्तान क्षेत्र है। बि लोचि स्तान का केलसबेला इलाका भी इनके लि ए प्रसि द्ध
है। इन गायों का रंग बादामी या गेहुँआ, शरीर लबं ा और चमड़ा मोटा होता है। येदसू री जलवायुमेंभी रह
सकती हैंतथा इनमेंरोगों सेलड़नेकी अद्भतु शक्ति होती है। सतं ानोत्पत्ति के बाद ये३०० दि न के भीतर कम
सेकम २००० लीटर दूध देती हैं।
काँकरेज
कच्छ की छोटी खाड़ी सेदक्षि ण-पर्वू र्वका भभू ाग, अर्था त्सि धं के दक्षि ण-पश्चि म सेअहमदाबाद और रधनपरुा
तक का प्रदेश, काँकरेज गायों का मलू स्थान है। वसै ेयेकाठि यावाड़, बड़ोदा और सरूत मेंभी मि लती हैं। ये
सर्वां गी जाति की गाए हैंऔर इनकी माँग वि देशों मेंभी है। इनका रंग रुपहला भरूा, लोहि या भरूा या काला होता
है। टाँगों मेंकालेचि ह्न तथा खुरों के ऊपरी भाग कालेहोतेहैं। येसि र उठाकर लबं ेऔर सम कदम रखती हैं।
चलतेसमय टाँगों को छोड़कर शषे शरीर नि ष्क्रि य प्रतीत होता हैजि ससेइनकी चाल अटपटी मालमू पड़ती है।
सवाई चाल सेप्रसि द्ध गाय है। केंद्रीय गोवशं अनसु धं ान सस्ं थान मेंगाय पर शोध करनेवाले वैज्ञानिको के
अनुसार कांकरेज गाय कि सानों की आमदनी कई गनु ा बढ़ा सकती है। राजस्थान मेंइसेसांचोरी गाय के नाम से
जानी जाती है।
मालवी
येगायेमध्यम दधु ारू होतीं हैंतथा प्रति ब्यात दूध देनेकी क्षमता 627-1227लीटर तक होती है। इनका शरीर
ताकतवर और गठि ला, रंग सफेद,भरूा या काला होता हैतथा गर्दन कुछ काली होती हैऔर इनकी गर्दन पर
उभार होता हैजि से(hump) कहतेहैं। गलेके नीचेएक झालर लटकी रहती हैजि सेगलकंबल कहतेहै। पूँछ
लबं ी और सन्ुदर होती हैजि सके अतिं तिम सि रा कालेबालों सेडकं ा रहता है। मालवी गाय के बछड़ेबड़ेबलवान
होतेहैंजि ससेबड़ेहोनेपर गाड़ी खींचनेऔर खेती के काम मेंलि या जाता है। येमालवा क्षेत्र मेंउज्जनै
,रतलाम,मदं सौर, राजगढ़,ब्यावरा,नरसि हं गढ़, शाजापरु के आस-पास पाई जाती हैं।
नागौरी
इनका प्राप्ति स्थान जोधपरु के आस-पास का प्रदेश है। येगायेंभी वि शषे दधु ारू नहीं होतीं, कि ंतुब्यानेके बाद
बहुत दि नों तक थोड़ा-थोड़ा दूध देती रहती हैं।
थारपारकर
येगायेंदधु ारू होती हैं। इनका रंग खाकी, भरूा, या सफेद होता है। कच्छ, जसै लमेर, जोधपरु, बीकानेर और सि धं
का दक्षि णपश्चि मी रेगि स्तान इनका प्राप्ति स्थान है। इनकी खरुाक कम होती है। इसका दूध 10 से16 लीटर
प्रति दि न तक होता है
भगनाड़ी
नाड़ी नदी का तटवर्ती प्रदेश इनका प्राप्ति स्थान है। ज्वार इनका प्रि य भोजन है। नाड़ी घास और उसकी रोटी
बनाकर भी इन्हेंखि लाई जाती है। ये गायें दूध खबू देती हैं।
दज्जल
पजं ाब के डरेागाजीखाँजि लेमेंपाई जाती हैं। ये दूध कम देती हैं।
गावलाव
दूध साधारण मात्रा मेंदेती है। प्राप्ति स्थान सतपड़ुा की तराई, वर्धा , छि ंदवाड़ा, नागपरु, सि वनी तथा बहि यर है।
इनका रंग सफेद और कद मझोला होता है। येकान उठाकर चलती हैं।
हरि याना
ये८-१२ लीटर दूध प्रति दि न देती हैं। गायों का रंग सफेद, मोति या या हल्का भरूा होता हैं। येऊँचेकद और
गठीलेबदन की होती हैंतथा सि र उठाकर चलती हैं। इनका प्राप्ति स्थान रोहतक, हि सार, सि रसा, करनाल,
गडुगाँव और जि दं है। भारत की पांच सबसेश्रेष्ठ नस्लो मेंहरयाणवी नस्ल आती है। यह अद्भतु है।
अगं ोल या नीलोर
येगाएँदधु ारू, सदंुर और मथं रगामि नी होती हैं। प्राप्ति स्थान तमि लनाडु, आध्रं प्रदेश, गटंुूर, नीलोर, बपटतला
तथा सदनपल्ली है। येचारा कम खाती हैं।
राठी
इस गाय का मलू स्थान राजस्थान मेंबीकानेर, श्रीगगं ानगर हैं। येलाल-सफेद चकतेवाली,काले-सफेद,लाल,
भरूी,काली, आदि कई रंगों की होती है। येखाती कम और दूध खबू देती हैं। येप्रति दि न का 10 से20 लीटर तक
दूध देती है। इस पर पशुवि श्ववि द्यालय बीकानेर राजस्थान मेंरि सर्च भी काफी हुआ है। इसकी सबसेबड़ी
खासि यत, येअपनेआप को भारत के कि सी भी कोनेमेंढाल लेती है।
थारपारकर नस्ल
पीलीभीत, परूनपरु तहसील और खीरी इनका प्राप्ति स्थान है। इनका मँहु सँकरा और सींग सीधी तथा लबं ी होती
है। सींगों की लबाई १२-१८ इंच होती है। इनकी पूँछ लबं ी होती है। येस्वभाव सेक्रोधी होती हैऔर दूध कम
देतीयेप्रति दि न 30 लीटर या इससेअधि क दूध देती हैं। इनका मलू स्थान काठि यावाड़ का गीर जंगल है।
राजस्थान मेंरैण्डा व अजमेरी के नाम सेजाना जाता है[कृपया उद्धरण जोड़ें] केंद्रीय गोवशं अनसु धं ान सस्ं थान
मेंगाय पर शोध करनेवाले वैज्ञानिको के अनुसार गीर गाय कि सानों की आमदनी कई गनु ा बढ़ा सकती है।[3]
देवनी – दक्षि ण आध्रं प्रदेश और हि सं ोल मेंपाई जाती हैं। ये दूध खबू देती है।
नीमाड़ी – नर्मदर्म ा नदी की घाटी इनका प्राप्ति स्थान है। येगाएँदधु ारू होती हैं।
अमतृ महल, हल्लीकर, बरगरू, बालमबादी नस्लेंमसै रू की वत्सप्रधान, एकांगी गाएँहैं। कंगायम और
कृष्णवल्ली दूध देनेवाली हैं।
गाय के शरीर मेंसर्यू र्यकी गो-कि रण शोषि त करनेकी अद्भतु शक्ति होनेसेउसके दूध , घी, झरण आदि में
स्वर्णक्षर्ण ार पायेजातेहैंजो आरोग्य व प्रसन्नता के लि ए ईश्वरीय वरदान हैं। पण्ुय व सव्कल्याण चाहनेवाले
गहृस्थों को गौ-सेवा अवश्य करनी चाहि ए क्योंकि गौ-सेवा सेसखु -समद्ृधि होती है।
गौ-सेवा सेधन-सम्पत्ति , आरोग्य आदि मनुष्य-जीवन को सखु कर बनानेवालेसम्पर्णू र्णसाधन सहज ही प्राप्त हो
जातेहैं। मानव #गौ की महि मा को समझकर उससेप्राप्त दूध , दही आदि पचं गव्यों का लाभ लेतथा अपने
जीवन को स्वस्थ, सखु ी बनाये- इस उद्देश्य सेहमारेपरम करुणावान ऋषि यों-महापरुुषों नेगौ को माता का
दर्जा दि या तथा कार्ति कर्ति शक्ु ल अष्टमी के दि न गौ-पजू न की परम्परा स्थापि त की। यही मगं ल दि वस
गोपाष्टमी कहलाता है।
गोपाष्टमी भारतीय सस्ं कृति का एक महत्वपर्णू र्णपर्व है। मानव–जाति की समद्ृधि गौ-वशं की समद्ृधि के साथ
जड़ुी हुई है। अत: गोपाष्टमी के पावन पर्व पर गौ-माता का पजू न-परि क्रमा कर वि श्वमांगल्य की प्रार्थनर्थ ा करनी
चाहि ए।
वि देशी नस्ल की गाय
जर्सी और कई वि देशी नस्लों कि “गाय” जि सेअग्रं ेजी में”Cow” कहतेहै, उनकी मलू उत्पत्ति “URUS” नामक
जंगली जानवर सेहुई है| वि देशी नस्लों कि “गाय” को “Bos TaURUS” नाम सेभी जाना जाता है|
वि देशी वैज्ञानिको नेजर्सी और कई वि देशी नस्लों कि “गाय” (Bos TaURUS) कि मलू उत्पत्ति आनवु शिं शिक रूप
सेसशं ोधि त “URUS नामक जंगली जानवर सेकि है। जर्सी और कई वि देशी नस्लों (Bos TaURUS
)आनवु शिं शिक रूप सेसशं ोधि त URUS नामक जंगली जानवर की मलू नस्ल है।
वि देशी गाय की नस्लेंबड़ी मात्रा में दूध देती हैं, क्योंकि वेआनवु शिं शिक रूप सेसशं ोधि त जानवर हैं, लेकि न दूध
की गणु वत्ता इतनी अच्छी नहीं है|
जर्सी और कई वि देशी नस्लों कि “गाय” के मत्रू और गोबर मेंकोई चि कि त्सा गणु नहींपाया जाता है।
गाय के दूध के फायदे

  1. पाचन मेंसहायक
    गाय का दूध आपको बदहजमी सेबचानेमेंमदद कर सकता है। दरअसल, गाय के दूध मेंवि टामि न बी-12
    पाया जाता है। यह वि टामि न पाचन की प्रक्रि या मेंमदद करता है। दूध के प्रति कप में1.2mg वि टामि न बी-12
    होता है। एक दि न मेंवयस्कों को 2.4mg वि टामि न बी-12 की जरूरत हैयानी एक कप दूध आपके शरीर में
    वि टामि न बी-12 की आधी जरूरत को परूा कर देता है(1)। वहीं, गाय के दूध का लगभग 80% प्रोटीन कैसि इन
    (casein) होता है, जो परूेशरीर मेंकैल्शि यम और फॉस्फेट को पहुंचाता और पाचन मेंसहायता करता है।
    इसलि ए, कहा जा सकता हैकि दूध का सेवन करनेसेखाना अच्छेसेहजम हो सकता है।
  2. कैंसर सेबचाव
    माना जाता हैकि कैंसर के इलाज मेंभी गाय के दूध का सेवन फायदेमदं होता है। दरअसल, गाय के फोर्टि फाइड
    (अति रि क्त वि टामि न और खनि ज डालकर बनाया गया) दूध मेंवि टामि न-डी उच्च मात्रा मेंपाया जाता है(2),
    जो कैंसर के खतरेको कम कर सकता है। इसलि ए, कहा जाता हैकि गाय का दूध कैंसर की आशंका को पनपने
    सेरोकनेमेंमदद कर सकता है(3)। एक रि सर्च की मानें, तो दूध और डये री उत्पाद का सेवन सभं वतः
    कोलोरेक्टल कैंसर, ब्लडै र कैंसर, गैस्ट्रि क कैंसर और स्तन कैंसर सेबचाता है। वहीं, डये री सेवन प्रोस्टेट कैंसर
    का जोखि म माना जाता है(4)। हालांकि , कुछ अध्ययन कहतेहैंकि दूध के सेवन और कैंसर के बीच कि सी भी
    तरह के सबं धं की कोई स्पष्ट जानकारी अभी तक नहींमि ल पाई है(5)।
  3. आखं ों के स्वास्थ्य के लि ए
    गाय के दूध को आखं ों की रोशनी बढ़ानेमेंभी सहायक माना जाता है, क्योंकि गाय के दूध मेंवि टामि न-ए होता
    है। वि टामि न-ए आखं ों के लि ए जरूरी पोषक तत्वों मेंसेएक है(6)। वि टामि न-ए आखं ों की रोशनी को सधु ारने
    मेंमदद करता है। इसके अलावा वि टामि न-ए की कमी की सेआपको रतौंधी, आखं ों के सफेद हि स्सेमेंधब्बे
    (बि टोट स्पॉट) जसै ी कई आखं ों सेसबं धं ी समस्याएं हो सकती हैं।
  4. हृदय स्वास्थ्य
    गाय का दूध पीनेसेआप हृदय को भी स्वास्थ रख सकतेहैं। दूध पीनेसेइस्केमि क स्ट्रोक (ब्लड क्लोट होनेकी
    वजह सेआनेवाला स्ट्रोक) के जोखि म को कम कि या जा सकता है। साथ ही इस्केमि क हृदय रोग को कम करने
    मेंभी फायदेमदं माना जाता है(5) । इसमेंमौजदू सचै रुेटेड फैटी एसि ड के उच्च प्लाज्मा स्तर भी हृदय रोग के
    जोखि म को कम करनेमेंमदद करतेहैं, जो डये री उत्पादों मेंमौजदू रहतेहैं।
  5. इम्यनिूनिटी
    गाय के कच्चे दूध मेंप्रोबायोटि क्स यानी जीवि त माइक्रोऑर्गेनाइज्म होतेहैं, जो इम्यनिूनिटी को बढ़ातेहैं। एक
    अध्ययन मेंपाया गया हैकि कच्चा दूध पीनेसेबच्चों का इम्यनू सि स्टम मजबतू होता हैऔर उनका शरीर
    कई तरह के सक्रं मण का सामना करके बच्चों के वि कास मेंमदद करता है। इसके अलावा, दूध उबालकर पीने
    सेभी इम्यनू सि स्टम मजबतू होता है(7) (8)। ऐसेमेंकहा जा सकता हैकि दूध आपको बीमारि यों सेबचानेमें
    भी मदद कर सकता है, क्योंकि जब आपकी प्रति रक्षा प्रणाली मजबतू रहेगी, तो आपका शरीर रोगों सेलड़कर
    आपको उनसेबचाता रहेगा।
  6. हड्डी स्वास्थ्य
    गाय का दूध हड्डी को स्वस्थ रखनेमेंभी काफी सहायक हो सकता है। दरअसल, दूध और डये री के अन्य
    उत्पाद मग्ैनीशि यम और कैल्शि यम के महत्वपर्णू र्णस्रोत होतेहैं। इसलि ए, हड्डि यों के वि कास के लि ए दूध का
    सेवन काफी महत्वपर्णू र्णमाना जाता है। बच्चों व यवु ाओंके साथ ही व्यस्कों के हड्डी स्वास्थ्य के लि ए भी दूध
    को अच्छा माना गया है।
    गाय की पूजा ओर सेवा के फायदे
    हिंदू धर्म मेंगाय को पजू नीय स्थान प्राप्त है. ऐसी मान्यता हैकि बड़ेसेबड़ा कष्ट भी सि र्फ गौ माता की सेवा
    करनेसे दूर हो जाता है. गाय में33 कोटि देवी-देवताओंका वास होता है. मान्यता हैकि गाय की सेवा करनेसे
    जहांसभी देवी-देवता प्रसन्न होतेहैं, वहींघर मेंसखु -समद्ृधि और अच्छेस्वास्थ्य का वरदान मि लता है.
    इतना ही नहीं, गाय की सेवा सेकंुडली के सभी दोष दूर हो जातेहैं. अगर आपके जीवन मेंभी कई परेशानि यां हैं,
    जो गाय सबं धं ी इन उपायों को करनेसेआपके कष्ट जल्द दूर हो जाएंगे.
    सखु समद्ृधि के आती है
    धार्मि कर्मि मान्यता हैकि गाय को खि लाई गई कोई भी चीज सीधेदेवी-देवताओंतर पहुंचती है. इसलि ए पहली
    रोटी गाय के लि ए नि काली जाती है. गाय के लि ए पहली रोटी नि कालनेसेजीवन की सभी समस्याएं दूर हो
    जाती हैंऔर परि वार मेंसखु -समद्ृधि का वास होता है.
    बधु ग्रह के दष्ुप्रभावों का नाश होता है
    कंुडली मेंबधु ग्रह कमजोर होनेपर या कि सी और कारण सेउसके दष्ुप्रभाव झले नेपर बधु वार के दि न गाय को
    हरा चारा खि लानेकी सलाह दी जाती है. इसेबहुत ही शभु माना जाता है. ऐसा करनेसेतमाम समस्याएं दूर हो
    जाती हैं.
    शनि सबं न्धी समस्याओंका नि राकरण होता है
    शनि सेजड़ुी कि सी भी प्रकार की समस्या के लि ए कालेरंग की गाय की सेवा करनेकी सलाह दी जाती है. वहीं,
    अगर सभं व हो तो कि सी ब्राह्मण को कालेरंग की गाय दान करनेसेसभी समस्याएं दूर हो जाती हैं.
    मगं ल सेजड़ुी समस्याओंका समाधान होता है
    कंुडली मेंमगं ल दोष होनेपर व्यक्ति को कई तरह की परेशानि यों का सामना करना पड़ता है. ऐसेमेंलाल रंग
    की गाय की सेवा करें. मगं लवार के दि न गाय का पजू न करेंऔर उसेगड़ु चना खि लाएं.
    गरुु सेजड़ुी परेशानी समाप्त होती है
    बहृस्पति ग्रह आपके पक्ष मेंन हो तो वि वाह मेंदेरी होती है. शि क्षा व्यवधान आता है. साथ ही कई परेशानि यां
    घेर लेती हैं. ऐसेमेंबहृस्पति वार के दि न गाय को हल्दी सेति लक करेंऔर आटेकी लोई मेंगड़ु चनेकी दाल
    और चटुकी भर हल्दी डालकर खि लाएं.
    पि तृदोष सेमक्तिुक्ति मि लती है
    अगर कि सी जातक की कंुडली मेंपि तृदोष हैतो अमावस्या के दि न गाय को रोटी, गड़ु, हरा चारा खि लाएं. वहीं,
    अगर रोजाना गाय की सेवा कर सकतेहैं, तो बेहतर है. इससेपि तृदोष शांत होनेके साथ अन्य ग्रह भी शांत
    होतेहैं.
    ज्योति ष मेंगाय सेजड़ुेकुछ उपाय
    पहली रोटी गौ माता के लि ए पकाएंव खि लाएं।
    प्रत्येक मांगलि क कार्यों मेंगौ माता को अवश्य शामि ल करें।
    बच्चेअगर कहनेसेबाहर हो तो गौमाता को भोजन उनके हाथ सेया हाथ लगवा कर खि लाएं।
    प्रति दि न,सप्ताह मेंया महीनेमेंएक बार गौशाला परि वार समेत जानेका नि यम बनाएं।
    गर्मि यर्मि ों मेंगौ माता को पानी अवश्य पि लाएं।
    सर्दि यों मेंगौ माता को गड़ु खि लाएं। गर्मि यर्मि ों मेंगाय को गड़ु न खि लाएं।
    गौ माता के पचं गव्य हजारों रोगों की दवा है, इसके सेवन सेअसाध्य रोग मि ट जातेहैं।
    परि वार मेंगौ सेप्राप्त पचं गव्य यक्ुत पदार्थों का उपयोग करें, पचं गव्य के बि ना पूजा पाठ हवन सफल नहीं
    होत।े
    गौ माता जि स जगह खड़ी रहकर आनदं पर्वूकर्व चनै की सांस लेती है। वहांवास्तुदोष समाप्त हो जातेहैं।
    गौ माता को चारा खि लानेसेततैं ीस कोटी देवी देवताओंको भोग लग जाता है।
    गौ माता कि सेवा परि क्रमा करनेसेइंसान भय मक्ुत हो जाता हैव सभी तीर्थो के पण्ुयों का लाभ मि लता है।
    गौ माता के गोबर सेनि र्मि तर्मि शुद्ध धपू -बत्ती का उपयोग करें।
    गौ गोबर के बनेउपलों सेरोजाना घर दकू ान मदिं दिर परि सरों पर धूप करनेसेवातावरण शुद्ध होता हैऔर
    सकारात्मक ऊर्जा मि लती है।
    घर के दरवाजेपर गाय आयेतो उसेखाली न लौटाएं।
    गौ माता को कभी परै न लगाए, गौ माता अन्नपर्णाू र्णा देवी कामधेनुहै, मनोकामना पर्णू र्णकरनेवाली है।
    गौ माता के गलेमेंघटं ी जरूर बांधेय गाय के गलेमेंबधं ी घटं ी बजनेसेगौ आरती होती है।
    जो व्यक्ति गौ माता की सेवा पूजा करता हैउस पर आनेवाली सभी प्रकार की वि पदाओंको गौ माता हर लेती
    है।
    गौ माता के गोबर मेंलक्ष्मी जी का वास होता हैऔर गौ माता के मत्रु मेंगगं ाजी का वास होता है।
    गौ माता के दधु मेसवु र्ण तत्व पाया जाता हैजो रोगों की क्षमता को कम करता है।
    गौ माता की पीठ पर एक उभरा हुआ कुबड़ होता है। उस कुबड़ मेंसर्यू र्यकेतुनाड़ी होती है। रोजाना सबु ह गौ माता
    की पीठ पर हाथ फेरनेसेरोगों का नाश होता है।
    तन मन धन सेजो मनुष्य गौ सेवा करता हैवो वतै रणी गौ माता की पूँछ पकड कर पार करता है। उसकी
    अकाल मृत्यु नहीं होती और उन्हेंगौ लोकधाम मेंवास मि लता है।
    जि स व्यक्ति के भाग्य की रेखा सोई हुई हो तो वो व्यक्ति अपनी हथेली मेंगड़ु को रखकर गौ माता को जीभ से
    चटायेगौ माता की जीभ हथेली पर रखेगड़ु को चाटनेसेव्यक्ति की सोई हुई भाग्य रेखा खलु जाती है।
    गाय माता आनदं पर्वूकर्व सासेंलेती हैछोडती है। वहांसेनकारात्मक ऊर्जा भाग जाती हैऔर सकारात्मक ऊर्जा
    की प्राप्ति होती हैजि ससेवातावरण शुद्ध होता है।
    जो धर्यै र्यपर्वूकर्व धर्म के साथ गौ पजू न करता हैउनको शत्रुदोषों सेछुटकारा मि लता है।
    स्वस्थ गौ माता का गौ मत्रू अर्क को रोजाना दो तोला सेवन करनेसेसारेरोग मि ट जातेहैं।
    गौ माता वात्सल्य भरी नि गाहों सेजि सेभी देखती हैउनके ऊपर गौकृपा हो जाती है।
    कोई भी शभु कार्य अटका हुआ हो या प्रयत्न करनेपर भी सफल नहीं हो रहा हो तो गौ माता के कान मेंकहि ये
    रूका हुआ काम बन जायेगा।